Wednesday, August 24, 2022
हनुमान चालीसा
Tuesday, February 1, 2022
साहित्य समाज का दर्पण है
Tuesday, January 11, 2022
स्वामी विवेकानंद
उत्तिष्ठत जाग्रत .....
"उठो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए"
(स्वामी विवेकानंद जी)
आधुनिक विश्व को भारतीय परंपरा और तत्त्वज्ञान से परिचित कराने और प्रभावित करने वाले में भारतीयों में सर्वाधिक योगदान देने वाले आज का #आइकॉन स्वामी विवेकानंद का है। अपने प्रकांड ज्ञान, प्रखर तर्कशक्ति, निष्कलंक चरित्र, अटूट आत्मविश्वास और वाणी से उन्होंने ऐसा चमत्कार कर दिखाया, जो आज भी याद की जाती हैं।लेकिनआज उसी भारत से यह भी कहने वाले मिल रहे हैं।
भारत के #टुकड़े टुकड़े करने वाले, भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने वाले, स्वामी विवेकानंद की मूर्ति तोड़ने वाले, हिंदुत्व को गाली व हिंदुत्व कब्र खोदने वालों की आवाज जो आज मीडिया से मिल रही हैं।
(उन्हें भी सद्बुद्धि आ जायेगी) उन्हें विवेकानंद के विचारों की एक विलक्षण बानगी है उनकी कला-दृष्टि और उनके भाषापरक विचार, जो उनके व्याख्यानों, पत्रों और वार्तालापों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े है जैसे कहा जाता है कि एक बार स्वामी विवेकानंद जी किसी स्थान पर प्रवचन दे रहे थे ।
श्रोताओ के बीच एक मंजा हुआ चित्रकार भी बैठा था । उसे व्याख्यान देते स्वामी जी अत्यंत ओजस्वी लगे । इतने कि वह अपनी डायरी के एक पृष्ठ पर उनका रेखाचित्र बनाने लगा।प्रवचन समाप्त होते ही उसने वह चित्र स्वामी विवेकानंद जी को दिखाया । चित्र देखते ही, स्वामी जी हतप्रभ रह गए । पूछ बैठे - यह मंच पर ठीक मेरे सिर के पीछे तुमने जो चेहरा बनाया है , जानते हो यह किसका है ? चित्रकार बोला - नहीं तो .... पर पूरे व्याख्यान के दौरान मुझे यह चेहरा ठीक आपके पीछे झिलमिलाता दिखाई देता रहा।यह सुनते ही विवेकानंद जी भावुक हो उठे । रुंधे कंठ से बोले - " धन्य है तुम्हारी आँखे ! तुमने आज साक्षात मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी के दर्शन किए ! यह चेहरा मेरे गुरुदेव का ही है, जो हमेशा दिव्य रूप में, हर प्रवचन में, मेरे अंग संग रहते है ।**मैं नहीं बोलता, ये ही बोलते है । मेरी क्या हस्ती, जो कुछ कह-सुना पाऊं ! वैसे भी देखो न, माइक आगे होता है और मुख पीछे। ठीक यही अलौकिक दृश्य इस चित्र में है। मैं आगे हूँ और वास्तविक वक्ता - मेरे #गुरुदेव पीछे !"
खैर
सन 1901 में बेलूर मठ में कलकत्ता जुबली आर्ट अकादमी के संस्थापक और अध्यापक रणदाप्रसाद दासगुप्त से हुई उनकी लंबी बातचीत इस दृष्टि से एक उल्लेखनीय प्रसंग भी इसी प्रकार है।
विवेकानंद नाट्य विद्या पर एक बोधप्रद टिप्पणी करते हुए उसे कलाओं में कठिनतम इसलिए बताते हैं कि यह एक साथ दो ऐंद्रिक संवेदनों को प्रभावित करती है। वे लिखते हैं- ‘नाटक सब कलाओं में कठिनतम है। उसमें दो चीजों को संतुष्ट करना पड़ता है- पहले कान, दूसरे आंखें। दृश्य का चित्रण करने में अगर एक ही चीज का अंकन हो जाए, तो काफी है, पर अनेक विषयों का चित्रांकन करके भी केंद्रीय रस अक्षुण्ण रख पाना बहुत कठिन है। दूसरी मुश्किल चीज है मंच-व्यवस्था, यानी विविध वस्तुओं को इस तरह विन्यस्त करना कि #केंद्रीय रस अक्षुण्ण बना रहे।
’हम वो हैं, जो हमें हमारी सोच ने बनाया है। इसलिए इस बात का धयान रखें कि आप क्या सोचते हैं। जैसा आप सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। उद्बोधन’ के ही एक अन्य प्रसंग में वे लिखते हैं कि, ‘क्रियापदों का अत्यधिक प्रयोग लेखन को कमजोर बनाता है। क्योंकि इससे भाव ठहर से जाते हैं।’
स्वामी विवेकानंद की कला तथा साहित्यपरक दृष्टि और अंत में, इस आधुनिक राष्ट्रगुरु की एक विलक्षण उक्ति, जिसे पढ़ कर सहसा विश्वास नहीं होता कि धर्म और अध्यात्म के पथ का पुरोधा एक संन्यासी यह बात कह रहा है, अवलोकनीय है: ‘नाटक और संगीत स्वयं धर्म है, कोई भी गीत क्यों न हो, प्रेम गीत हो या कोई अन्य गीत कोई चिंता नहीं। अगर उस गान में कोई व्यक्ति अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दे तो बस उसी से उसको मुक्ति मिल जाती है।आज का सौभाग्यशाली_भारत
पुनश्च...
स्वामी जी की #आत्मकथा के #अन्तिमपृष्ठ आत्मकथ्य
************ 12 जनवरी वैश्विक पटल पर
स्वामी जी का अवतरण।
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स्वामी जी के जीवन के संदर्भ में मैं #आखिरी #समय में उनके " #आत्मकथ्य " आप मित्रों के समक्ष " #उनके अपने ही #शब्दों में "" **************************
बेलूर मई १९०२
*****************। सुनो , मैं ४० चालीस की दहलीज नहीं पार कर पाऊँगा। मुझे जो कुछ कहना था, कह दिया है।मुझे अब #जाना ही #होगा।
बड़े पेड़ की छाया में छोटे छोटे पौधों का विकास नहीं हो पाता। वह बढ़ नहीं पाते । जगह खाली करने के लिए मुझे जाना ही पड़ेगा ।
#मृत्यु मेरे #सिरहाने खड़ी है । ""
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२१ जून १९०२ बेलूर
********************** सुनो , शरीर अब ठीक। नहीं होने का। कभी स्वस्थ नहीं होगा । यह चोला त्याग कर नया शरीर लाना होगा। अभी भी ढेरों काम पड़ा है।
सुनो " मैं मुक्ति फुक्ति नहीं चाहता। जब तक सबके सब मुक्त नहीं होते
तब तक मेरा निस्तार नहीं।
#मुझे_बार_बार #आना_होगा । ""
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बेलूर ०२ जुलाई १९०२
************************** " मैं मृत्यु के लिए प्रस्तुत हो रहा हूँ । किसी महा तपस्या और ध्यान के भाव ने मुझे आछन्न कर लिया है और मैं #मृत्यु के लिए तैयार हो रहा हूँ।
********* बेलूर ४ जुलाई १९०२ "
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"" जब जब मृत्यु मेरे निकट आती है ,मेरी। सारी कमजोरी चली जाती है। उस वक्त भय - संदेह - बाहरी जगत् की चिंता सब समाप्त हो जाती है मैं। अपने को सिर्फ मृत्यु के लिए प्रस्तुत करने में ही व्यस्त रहता हूँ ।
"" जो सोचता है कि वह जगत का कल्याण करेगा ,
वह अहमक है। लेकिन हमें अच्छा काम करते रहना होगा - अपने अपने बंधनों की परिसम्पत्ति के लिए।""
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" मेघ हल्के होकर अदृश्य होते जा रहे हैं - मेरी दुष्कृत्यों के मेघ । अब #सुकृत्यियों का ज्योतिर्मय #सूर्य उदय हो रहा है। अब मैं स्थिर और प्रसान्त हो गया हूँ।
पहले ऐसा नहीं था ।
मेरी तरणी मेरी जीवन नौका धीरे धीरे शान्ति के
तट के निकट होती जा रही है ।
अब मेरी कोई इच्छा - आकांक्षा नहीं है ।
मैं तो रामकृष्ण का दास हूँ ।
जय हो " माँ " ! जय हो !! माँ जय हो !!!
1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म महासभा हुई थी, जिसमें विवेकानंदजी ने भाषण दिया। इस भाषण के बाद वैश्विक रूप से उन्हें काफी ख्याति मिली थी। उनके इस भाषण के प्रभाव से ही कई अंग्रेजी लोग भारत की संस्कृति से प्रभावित हुए और #आध्यात्मिक सुख के लिए भारत भी आए।
जितना हम दूसरों के साथ अच्छा करते हैं उतना ही हमारा हृदय #पवित्र हो जाता है और भगवान उसमें बसता
1-स्वामी विवेकानंद की चिंतनधारा सनातनी ब्राह्मण-धारा के ठीक उलट है. वह भारतीय चिंतन परम्परा की वैंदातिक धारा से लेकर बौद्ध और अन्य गैर-ब्राह्णवादी धाराओं से भी बहुत कुछ ग्रहण करते हैं।
2-स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी दुनिया को भारतीय दर्शन से परिचय करवाया और वैश्विक मंच पर दृढ़ता के साथ हिन्दूत्व के विचार को प्रस्तुत किया।
3-स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिक ज्ञान और भारतीय जीवन दर्शन के द्वारा संपूर्ण विश्व को पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसी जीवन दर्शन के द्वारा भारत को भी क्रियाशील और शक्तिशाली बनाया जा सकता है।
4-
विवेकानंद का सामाजिक दर्शन श्रीमद्भगवद्गीता के 'कर्मयोगी' की अवधारणा से प्रेरित है। उनका मानना था कि राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के आधुनिक पश्चिमी विचारों को 'स्वतंत्रता' की परंपरागत भारतीय धारणा से तालमेल बैठाने की जरूरत है।
उनका मत था कि सामाजिक कर्तव्य पालन और सामाजिक सौहार्द के जरिये ही सच्ची स्वतंत्रता पाई जा सकती है।
5-विवेकानंद का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष को आध्यात्मिक आधार दिया और नैतिक व सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज के उत्थान के लिए काम किया।
6-विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना।
7-विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।
विवेकानंद की रसोई
...
ऐसा कौन-सा देश है, जिसमें सम्राट, संन्यासी और सूपकार तीनों को एक ही नाम से पुकारा जाता है? उत्तर बहुत सरल है। वह देश है भारत। और वह नाम है "महाराज"। एक भारत ही ऐसा देश है, जिसमें सम्राट भी "महाराज" कहलाता है, संन्यासी भी और सूपकार यानी "रसोइया" भी!
स्वामी विवेकानंद के जीवन के बारे में अद्भुत आश्चर्यदृष्टि से भरी मणिशंकर मुखर्जी की किताब "विवेकानंद : जीवन के अनजाने सच" के एक पूरे अध्याय का शीर्षक ही यही है : "सम्राट, संन्यासी और सूपकार"। यह अध्याय भोजनभट विवेकानंद के विभिन्न रूपों का परीक्षण करता है और मणिशंकर मुखर्जी का दावा है कि भारत में भोजन-वृत्ति पर गहन चिंतन करने वाले ऐसे कम ही लोग हुए होंगे, जैसे विवेकानंद थे!
किसी ने नरेननाथ के बारे में उड़ा दी थी कि वे दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव से मिलने इसीलिए गए थे कि वहां पर्याप्त सोन्देश और रोशोगुल्ले खाने को मिलेंगे। फिर किसी अन्य मित्र ने यह कहकर इस प्रवाद का खंडन किया कि नरेन और मिठाई! अजी नहीं, नरेन तो मिर्चों के रसिक थे!
स्वामीजी की रसोई में सचमुच बहुत मिर्च होती थी!
18 मार्च 1896 को स्वामीजी डेट्रायट में अपने एक भक्त के यहां ठहरे थे। उससे उन्होंने अनुमति ली कि भोजन पकाने की आज्ञा दी जाए। आज्ञा मिलते ही उनकी जेब से फटाफट मसालों और चटनियों की पुड़ियाएं निकलने लगीं। चटनी की एक बोतल को वे अपनी मूल्यवान सम्पदा मानते थे, जो उन्हें किसी भक्त ने मद्रास से भेजी थी।
जनवरी 1896 की एक चिट्ठी का मज़मून पढ़िये : "जोगेन भाई, अमचूर, आमतेल, अमावट, मुरब्बा, बड़ी और मसाले सभी अपने ठिकानों पर पहुंच चुके हैं। किंतु भूनी हुई मूंग मत भेजना, वह जल्द ख़राब हो जाती है!"
30 मई 1896 की एक चिट्ठी में विवेकानंद का वर्णन है कि किस तरह से उन्होंने सिस्टर मेरी को तीखी करी बनाकर खिलाई। उसमें उन्होंने जाफ़रान, लेवेंडर, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लवंग, इलायची, प्याज़, किशमिश, हरी मिर्च सब डाल दिया और अंत में यह सोचकर खिन्न हो गए कि अब यहां विलायत में हींग कहां से खोजकर लावें!
स्वामीजी आम, लीची और अनानास के भी भारी रसिक थे। स्वामी अद्वैतानंद से उन्होंने एक बार कहा था कि जो व्यक्ति फल और दूध पर जीवन बिता सकता है, उसकी हडि्डयों में कभी जंग नहीं लग सकती।
बेलुर मठ में ख़ूब कटहल लगते थे। अपनी एक विदेशिनी शिष्या क्रिस्तीन को लिखे एक पत्र में स्वामीजी ने "कटहल-महात्म्य" का अत्यंत सुललित वर्णन किया है। अलबत्ता अमरूद से स्वामीजी को विरक्ति-सी थी।
अमरीका में स्वामीजी का मन आइस्क्रीम पर भी आ गया था। कलकत्ते में जब पहले-पहल बर्फ आई थी तो गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट स्थित "दत्त-कोठी" भी पहुंच गई थी, जहां नरेननाथ रहते थे। अमरीका जाकर वे चॉकलेट आइस्क्रीम पर मुग्ध हो गए। बाद में जब स्वामीजी को मधुमेह हुआ और आइस्क्रीम खाने पर मनाही हो गई तो वे पोई साग पर अनुरक्त रहने लगे। एक बार तो स्टीमर से समुद्र यात्रा के दौरान पोई साग खिलाने पर ही उन्होंने एक प्रेमी-भक्त को दीक्षा दे डाली थी!
एक बार ऋषिकेश में स्वामीजी को ज्वर हो आया। पथ्य के रूप में उनके लिए खिचड़ी बनवाई गई। खिचड़ी स्वामीजी को रुचि नहीं। खाते समय खिचड़ी में एक धागा दिखा। पूछने पर पता चला कि गुरुभाई राखाल दास ने खिचड़ी में एक डला मिश्री डाल दी थी। स्वामीजी बहुत बिगड़े। राखाल दास को बुलाकर डांट पिलाई कि "धत्त्, खिचड़ी में भी भला कोई मीठा डालता है। तुझमें बूंदभर भी बुद्धि नहीं है रे!"
"स्वामी-शिष्य संवाद" नामक एक पुस्तिका में स्वामीजी ने भोजन के दोषों पर भी विस्तार से वार्ता की थी। यह पुस्तिका "विवेकानंद ग्रंथावली" में सम्मिलित है।
विवेकानंद जहां भी जाते : कौन कैसे खाता है, कितनी बार खाता है, क्या खाता है, इस सबका अत्यंत सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते। फिर मित्रों को चिट्ठियां लिखकर विस्तार से बताते।
एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा : "आर्य लोग जलचौकी पर खाने की थाली लगाकर भोजन पाते हैं। बंगाली लोग भूमि पर खाना सपोड़ते हैं। मैसूर में महाराज भी आंगट बिछाकर दाल-भात खाते हैं। चीनी लोग मेज़ पर खाते हैं। रोमन और मिस्र के लोग कोच पर लेटकर। यूरोपियन लोग कुर्सी पर बैठकर कांटे-चम्मच से खाते हैं। जर्मन लोग दिन में पांच या छह बार थोड़ा थोड़ा खाते हैं। अंग्रेज़ भी तीन बार कम कम खाते हैं, बीच बीच में कॉफ़ी और चाय। किंतु भारत में हम दिन में दो बार गले गले तक भात ठूंसकर खाते हैं और उसे पचाने में ही हमारी समस्त ऊर्जा चली जाती है!"
स्वामी विवेकानंद के महापरिनिर्वाण के पूरे 40 वर्षों बाद बंगभूमि में भयावह दुर्भिक्ष हुआ था! अगर विवेकानंद होते तो उनकी आत्मा को भूखे बंगालियों का वह दृश्य देखकर कितना कष्ट हुआ होता! वे भूखों को भोजन कराने के लिए अपने मठ की भूमि बेचने तक के लिए तत्पर हो उठते थे। कहते थे कि जब तक भारतभूमि में एक भी प्राणी भूखा है, तब तक सबकुछ अधर्म है!
अपने एक शिष्य शरच्चंद्र को स्वामीजी ने चिट्ठी लिखकर भोजनालय खोलने की हिदायत दी थी। कहा था : "जब रुपए आए तो एक बहुत बड़ा भोजनालय खोला जाएगा। उसमें सदैव यही गूंजता रहेगा : "दीयता:, नीयता:, भज्यता:!" भात का इतना मांड़ होगा कि अगर वह गंगा में रुलमिल जाए तो गंगा का पानी श्वेत हो जाए। देश में वैसा एक भोजनालय खुलते अपनी आंखों से देख लूं तो मेरे प्राण चैन पा जाएं!"
अस्तु, स्वामी विवेकानंद की "भोजन-रस-चवर्णा" की गाथाएं भी उनके अशेष यश की भाँति ही अपरिमित हैं।
(आभार सुशोभित,रामाधीन सिंह जी)
