Sunday, July 11, 2021

जनसंख्या

जनसंख्या

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी 121 करोड़ थी तथा अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्तमान में यह 130 करोड़ को भी पार कर चुकी है, साथ ही वर्ष 2030 तक भारत की आबादी चीन से भी ज़्यादा होने का अनुमान है। ऐसे में भारत के समक्ष तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में संसाधनों की वृद्धि सीमित है। इस स्थिति में जनसांख्यिकीय लाभांश जनसांख्यिकीय अभिशाप में बदलता जा रहा है। इसी स्थिति को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इस समस्या को दोहराया है। हालाँकि जनसंख्या वृद्धि ने कई चुनौतियों को जन्म दिया है किंतु इसके नियंत्रण के लिये क़ानूनी तरीका एक उपयुक्त कदम नहीं माना जा सकता। भारत की स्थिति चीन से पृथक है तथा चीन के विपरीत भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ हर किसी को अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार है। भारत में कानून का सहारा लेने के बजाय जागरूकता अभियान, शिक्षा के स्तर को बढ़ाकर तथा गरीबी को समाप्त करने जैसे उपाय करके जनसंख्या नियंत्रण के लिये प्रयास करने चाहिये। परिवार नियोजन से जुड़े परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये तथा ऐसे परिवार जिन्होंने परिवार नियोजन को नहीं अपनाया है उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से परिवार नियोजन हेतु प्रेरित करना चाहिये।



भारत



भारत को इस समस्या के सबसे भीषण रूप का सामना करना है। चीन अभी आबादी में हमसे आगे है तो क्षेत्रफल में भी काफी बड़ा है। फिलहाल भारत की जनसंख्या 1.3 अरब और चीन की 1.4 अरब है।

दोनों देशों के क्षेत्रफल में तो कोई बदलाव नहीं हो सकता पर जनसंख्या के मामले में भारत सात वर्षों बाद चीन को पीछे छोड़ देगा।

इसके बाद भारत की आबादी वर्ष 2030 में करीब 1.5 अरब हो जाएगी और कई दशकों तक बढ़ती रहेगी। वर्ष 2050 में इसके 1.66 अरब तक पहुँचने का अनुमान है, जबकि चीन की आबादी 2030 तक स्थिर रहने के बाद धीमी गति से कम होनी शुरू हो जाएगी।

वर्ष 2050 के बाद भारत की आबादी की रफ्तार स्थिर होने की संभावना है और वर्ष 2100 तक यह 1.5 अरब हो सकती है।

पिछले चार दशकों में 1975-80 के 4.7 प्रतिशत से लगभग आधी कम होकर भारतीयों की प्रजनन दर 2015-20 में 2.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है। 2025-30 तक इसके 2.1 प्रतिशत और 2045-50 तक 1.78 प्रतिशत तथा 2095-2100 के बीच 1.78 प्रतिशत रहने की संभावना है।

उत्तराखंड 
प्रवास के कारण
प्रवास मानव इतिहास की एक सार्वभौमिक घटना है। प्राचीन काल से ही मनुष्य में प्रवास की प्रवृत्ति पायी जाती है जो वर्तमान में भी विद्यमान है तथा भविष्य में भी रहेगी। प्रवास के लिये अनेक कारण उत्तरदायी होते हैं। जनांकिकी वेत्ताओं ने प्रवास के कारणों को दो प्रमुख वर्गों में विभक्त किया है प्रथम वे कारक जो व्यक्ति को उस स्थान की ओर आकर्षित करते हैं जिनमें, रोजगार के अवसर, शिक्षा सुविधाएँ स्वास्थ्य एवं मनोरंजन सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। इन्हें आकर्षक कारक कहा जाता है। दूसरे कारक वह होते हैं, जो व्यक्ति को अपने मूल-निवास स्थान को छोड़ने को बाध्य करते हैं। इनमें, आर्थिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं जनांकिकी कारक सम्मिलित होते हैं। इन्हें प्रत्याकर्षण कारक भी कहा जाता है।

उत्तराखंड हिमालय में प्रवास के कारणों में प्रत्याकर्षण कारण प्रमुख हैं जिनमें आर्थिक कारण सर्वोपरि है। कृषि मुख्य व्यवसाय होने पर भी उसमें जीवन यापन सम्भव नहीं है। औद्योगिक क्षेत्र की पूर्णतः अनुपस्थिति या अत्यधिक पिछड़े होने के कारण जीवनयापन का मुख्य साधन सेवा क्षेत्र रह जाता है, जो यहाँ पर शैशवावस्था में है। फलस्वरूप रोजगार प्राप्ति का एक मात्र साधन प्रवास ही रह जाता है। यही कारण है कि कुल प्रवासित जनसंख्या का 62.0 प्रतिशत प्रवास शहरी क्षेत्र में रोजगार प्राप्ति के लिये हुआ है। जबकि मात्र 6.0 प्रतिशत प्रवास ही शहरी क्षेत्र के प्रति आकर्षण के कारण हुआ है।
प्रवास का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव


(अ) आयु एवं लिंगानुपात पर प्रभाव: आयु एवं लिंगानुपात पर प्रवास के प्रभाव का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उसका सर्वाधिक प्रभाव 25 से 60 वर्ष के आयु वर्ग पर पड़ा है। फलस्वरूप इस आयु वर्ग में लिंगानुपात अत्यधिक विषम हो गया है। सर्वेक्षित विकासखंडों में प्रवास से पूर्व प्रति हजार स्त्री पुरुषों के पीछे 1091 स्त्रियाँ थीं, लेकिन प्रवास के परिणामस्वरूप लिंगानुपात 1633 हो गया है। स्वाभाविक रूप से इसका विभिन्न आयु वर्ग में लिंगानुपात पर गंभीर प्रभाव पड़ा है 0-15 आयु वर्ग में प्रति हजार पुरुषों पर 1023 स्त्रियाँ हैं, जबकि 15 से 25 तथा 25 से 60 वर्ष के आयु वर्ग में लिंगानुपात क्रमशः 2321, 3584 प्रति हजार पाया गया है।

(ब) रोजगार पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय में रोजगार का प्रमुख साधन कृषि है किन्तु कृषि की न्यून उत्पादकता एवं औद्योगिक क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण पर्वतीय क्षेत्र में सेवाक्षेत्र, आय एवं रोजगार सृजन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। परन्तु क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण सेवा क्षेत्र का भी पर्याप्त विस्तार नहीं हुआ है। इसलिए बढ़ती बेरोजगारी को इस क्षेत्र में भी पूर्ण रूप से नहीं खपाया जा सकता है। फलस्वरूप रोजगार की तलाश में अधिकांश शिक्षित युवक प्रवास कर जाते हैं। यही कारण है कि सेवा क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों में प्रवासित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। सर्वेक्षण के अनुसार सेवा क्षेत्र में संलग्न 560 व्यक्तियों में से 451 व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें प्रवासित होने पर ही रोजगार प्राप्त हुआ है। जो सेवा क्षेत्र में कार्यरत जनसंख्या का 80.53 प्रतिशत है।

(स) पारिवारिक आय पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय की पारिवारिक आय में प्रवासित व्यक्तियों द्वारा भेजे गए धनादेश महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। पारिवारिक आय पर प्रवास का प्रभाव ज्ञात करने के लिये आवश्यक है कि कृषि व्यवसाय में संलग्न परिवारों की वार्षिक आय का अध्ययन किया जाए, क्योंकि कृषि ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। सर्वेक्षण से प्रति परिवार कृषि व्यवसाय से औसत वार्षिक आय 6313 रुपये प्राप्त हुई है। यदि इसमें धनादेश से प्राप्त आय को सम्मिलित कर लिया जाए, तो प्रति परिवार औसत वार्षिक आय 13719 रुपये हो जाती है।

(द) उत्पादन पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय की कृषि अर्थव्यवस्था में प्रवास का उत्पादन पर दो प्रकार से प्रभाव परिलक्षित होता है।

1. श्रमशक्ति में कमी के रूप में ऋणात्मक प्रभाव।
2. प्रवासियों द्वारा भेजी गई आय का धनात्मक प्रभाव।

निदान हेतु सुझाव: प्रवास के उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि प्रवासिता सम्पूर्ण उत्तराखंड हिमालय की सामान्य घटना है। न्यून उत्पादक एवं अलाभदायक कृषि व्यवसाय में काम करने की अनिच्छा, औद्योगिक क्षेत्र के अत्यधिक पिछड़े होने, सेवा क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की सीमितता ग्रामीण क्षेत्र में सामान्य अवस्थापन्न सुविधाओं की कमी तथा कष्टकर जीवन के कारण शिक्षित ग्रामीण श्रमशक्ति बड़े शहरों की ओर निरन्तर प्रवासित होती रही हैं, जिसके निदान के लिये आवश्यक है कि बेरोजगार व्यक्तियों को क्षेत्र में ही रोजगार उपलब्ध कराया जाए। क्षेत्रीय रोजगार में वृद्धि के लिये कृषि, उद्योग एवं अवस्थापन्न सेवाओं, शिक्षा, परिवहन, संचार आदि का विकास किया जाए, साथ ही उत्तराखण्ड में सृजित रोजगार के अवसरों में, क्षेत्र के ही बेरोजगारों को प्राथमिकता दी जाए, तब ही प्रवास की समस्या का समाधान हो पाएगा। कृषि विकास के लिये कृषि स्वरूप में परिवर्तन किया जाए, कृषि स्वरूप में परिवर्तन मुख्यतः परिवहन एवं सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि पर निर्भर करेगा। इसके साथ ही संग्रहण भंडारण तथा विपणन सुविधाओं का विकास भी करना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि इस आधार पर कृषि क्षेत्र के स्वरूप में वांछित परिवर्तन करने पर कृषि में ही व्यापार एवं वाणिज्य का विकास सम्भव हो पायेगा। औद्योगिक विकास के लिये क्षेत्रीय कच्चे पदार्थों की उपलब्धतानुसार लघु उद्योग विकसित किये जाएं। कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र का क्षेत्रीय संसाधनों एवं आवश्यकतानुसार विकास करने पर सेवा क्षेत्र का विकास हो सकेगा। औद्योगिक विकास के लिये क्षेत्रीय कच्चे एवं औद्योगिक क्षेत्र का क्षेत्रीय संसाधनों एवं आवश्यकतानुसार विकास करने पर सेवा क्षेत्र का विकास हो सकेगा और भविष्य में पर्वतीय क्षेत्र से होने वाला वाह्य प्रवास नियमित हो सकेगा।



महिला सशक्तीकरण में शिक्षा की भूमिका



नारी वह ज्योति स्तम्भ है जो जीवन रूपी पथ को प्रकाशित करती है। नारी जाति को ऊँचा उठाये बिना परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र एवं विश्व को ऊँचा उठाना असंभव है। जिस देश में विदुषी, चरित्रवान एवं सद्गुण सम्पन्न नारियाँ हैं, वह देश निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर होता रहेगा। हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ सुख-शान्ति एवं धन-वैभव अपने आप ही आ जाता है। जिस समाज में नारी को महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार किया जाता है या नारी स्वयं अपने आदर्शों को भूल जाती है तो वह समाज बिखर जाता है। समाज एवं राष्ट्र के चारित्रिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार नारी ही है। हमें नेपोलियन के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि तुम मुझ शिक्षित नारियाँ दो तो मैं तुम्हें अच्छा राष्ट्र दूँगा। कहने का आशय यह है कि यदि नारियाँ शिक्षित होकर अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक एवं सशक्त होंगी तो उनके साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र भी सशक्त होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि एक शिक्षित महिला अपने पूरे परिवार को शिक्षित बनाती है। यह भी कहा जाता है कि पुरूष की सफलता के पीछे सशक्त नारी का हाथ होता है। जिसका साक्ष्य हमारा इतिहास है। 

हम सभी जानते हैं कि महाकवि तुलसीदास एवं कालिदास ने अपनी पत्नियों से प्रेरणा पाकर क्रमशः ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य एवं ‘शाकुन्तलम्’ तथा ‘मेघदूत’ जैसी महान् रचनायें लिख डाली।
यह निर्विवाद सत्य है कि महिला सशक्तीकरण का एकमेव उपाय शिक्षा है। क्योंकि शिक्षा व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की बुनियादी आवश्यकता है।1 शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं संवेदनशील बनाती है जिससे राष्ट्रीय एकता का विकास होता है। हमारा देश लोकतंात्रिक देश और शिक्षा लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी है, जिसके अभाव में लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। इस दृष्टि से भी स्त्री शिक्षा का हमारे देश में बहुत महत्व है।

 शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र चिंतन एवं सोच-समझ की क्षमता उत्पन्न करती है। जिसके द्वारा हम अपने लोकतंत्रीय लक्ष्यों, समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को प्राप्त कर सकते हैं और वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संविधान में संशोधन कर शिक्षा को अब मौलिक अधिकार बना दिया है। अब आवश्यकता केवल इसके क्रियान्वयन की है, किस प्रकार हम ऐसी व्यवस्था करें, संसाधन जुटायें या अन्य उपाय करें जिससे सभी इस मौलिक अधिकार के भागीदार बन सकें। सरकार इस ओर काफी सजग दिख रही है, क्योंकि केन्द्र में भारतीय जनता पाटी गठबन्ध सरकार में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास (एच. आर. डी.) मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 22 से 24 अक्टूबर 1998 के बीच राज्यों के शिक्षामंत्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें प्राथमिक स्तर की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का संकल्प दोहराया गया और बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया। इस सरकार ने महिलाओं के लिये स्नातक स्तर की शिक्षा निःशुल्क करने की घोषणा भी की थी।
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु सुझाव देने के लिये सर्वप्रथम 1958 में देशमुख समिति का गठन किया गया जिसने स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना कोई सुझाव तो नहीं दिया परन्तु उसके विस्तार के लिये अनेक उपाय बताये। इसके बाद स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में पुनः विस्तार से सुझाव देने हेतु 1962 में हंसा मेहता समिति का गठन किया गयां इस समिति का मुख्य सुझाव था कि स्त्री पुरूषों की शिक्षा समान होनी चाहिए अर्थात उनमें लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं करना चाहिए। इसके बाद कोठारी आयोग (1964-66) ने स्त्री पुरूषों के लिये भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का सुझाव दिया, परन्तु साथ ही उसने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिये आधारभूत पाठ्यचर्या (कोर करिकुलम) प्रस्तावित की। इसका प्रभाव यह हुआ कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों में स्त्री शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूप में संगठित किया गया।2 इन सब विषमताओं को दूर करने के लिये 1986 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस शिक्षा नीति में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश हे कि भारत में स्त्री-पुरूषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जायेगा, अर्थात् स्त्रियों को पुरूर्षों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा। इतना ही नहीं अपिुत इस शिक्षा नीति में यह भी घोषणा की गई है कि स्त्रियों को विज्ञान, तकनीकी और मैनेजमेंट की शिक्षा के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। वर्तमान में ऐसी अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में स्त्रियों के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी की गई है।
‘परन्तु हमारे देश में स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में आज भी दो विचारधारायें हैं- एक रूढ़िवादी और दूसरी प्रगतिशील।3 रूढ़िवादी विचारधारा के व्यक्ति भारत की परम्परावादी कार्य विभाजन व्यवस्था को उत्तम मानते हैं। उनका तर्क है कि स्त्री पुरूष की इस कार्य विभाजन व्यवस्था में परिवार के सब कार्य सुचारू रूप से सम्पादित होते हैं अर्थात् शिशुओं की उचित देखभाल होती है, अतिथि सत्कार अच्छे ढंग से होता है और परिवारों में सुख-शान्ति रहती है। इस वर्ग के लोग स्त्रियों के लिये पुरूर्षों से भिन्न पाठ्यक्रम की वकालत करते हैं और इन्हें केवल भाषा, साहित्य, धर्म, सामाजिक विषय, गृहविज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, गृहशिल्प और कला तथा संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की बात करते हैं।
इसके विपरीत प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करते । ये स्त्री-पुरूष के परम्परागत कार्य विभाजन को पुरूष प्रधान व्यवस्था मानते हैं और स्त्रियों का शोषण मानते हैं। इनका तर्क है कि स्त्रियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने का अर्थ है देश की लगभग आधी मानव शक्ति का प्रयोग न करना। उनका तर्क है कि पाश्चात्य देशों में स्त्री पुरूर्षों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसीका परिणाम है ‘कि इन देशों ने आर्थिक विकास किया है तथा इन देशों के लोग उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। इस वर्ग के लोग स्त्री-पुरूष दोनों के लिये किसी भी स्तर पर समान पाठ्यक्रम की वकालत करते है।4
‘यदि ध्यानपूर्वक देखा-समझा जाये तो दोनों वर्गों के लोग अपनी जगह सही है। पहले वर्ग की यह बात सही है कि अपने देश की परम्परागत जीवन शैली में दाम्पत्य जीवन का जो आनन्द है, परिवार में जो सुख-शान्ति है, वह पाश्चात्य देशों की आधुनिक जीवन शैली में नहीं’5 दूसरी ओर दूसरे वर्ग के लोगों की यह बात भी सही है कि स्त्री-पुरूषों के संयुक्त प्रयास से जो आर्थिक विकास पाश्चात्य देशों ने किया है वह हम नहीं कर पाये हैं।
तब इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, यह इन दोनों को शिक्षा के समान अवसर देने का पक्षधर है। फिर मानवाधिकार का भी यही कहना है कि ‘यदि हम अपने देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की मूलभावना के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करें तो निश्चित रूप से उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में समन्वय सम्भव है।6 इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा देश के सभी बच्चों के लिये समान करने की घोषणा की गई है और इसके लिये आधारभूत पाठ्यचर्या भी तैयार की गयी है। इससे देश के सभी लड़के-लड़कियों को अपने विकास के समान अवसर मिलेंगे। 10$2 स्तर पर अधिकतर छात्र-छात्राओं को कला- कौशल, कुटीर उद्योग धन्धों और अन्य व्यवसायों की शिक्षा की ओर मोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहला लाभ यह होगा कि सभी छात्र-छात्रायें अपनी रूचि, रूझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे और दूसरा लाभ यह होगा कि शिक्षित बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी। उच्च शिक्षा में केवल मेधावी छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने का प्रस्ताव है। इससे देश की प्रतिभाओं का विकास होगा जो देश के हर क्षेत्र में नेतृत्व करेंगे तथा देश के आर्थिक विकास को गति प्रदान करेंगे। लिंग के आधार पर प्रतिभाओं को विशिष्ट शिक्षा के अधिकार से वंचित करने का अर्थ होगा, देश विकास में उनके सहयोग से वंचित होना। बस आवश्यकता है किसी भी प्रकार की शिक्षा के बाद मूल्यों की शिक्षा देने की।
आजादी के बाद से शिक्षा के विकास, प्रचार पर अरबों रूपये व्यय किये गए। अपार धनराशि, शिक्षकोें और शिक्षणेत्तर कर्मियों की भारी संख्या पूरे देश में शैक्षिक प्रबंधतंत्र का फैला नेटवर्क एंव योजनाओं का यद्यपि कुछ असर तो दिखायी दिया है। लेकिन अभी तक असली मकसद को पूरा नहीं हो पाया है। इस आधी अधूरी सफलता को पूरी सफलता में परिवर्तित करने हेतु पूरी सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासकीय प्रतिबद्धता के साथ निरन्तर अथक प्रयास करने होंगे तभी महिला शिक्षा तथा सशक्तीकरण को मूर्त रूप दिया जा सकता है। हमारे देश की आधी आबादी (महिला) निरक्षर हैं। कुछ ही महिलायें आज ऊँचे ओहदे पर विराजमान हैं। जो महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। ये महिलायें शिक्षित तथा पूर्ण रूप से जागरूक हैं। रोजगार, अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक, सामाजिक सभी दायरों को महिलाओं ने अपनी कामयाब भागीदारी से नये आयाम दिये हैं। 1950 में जहाँ कारपोरेट सेक्टर में पूरी दुनिया में महिलाओं का भागीदारी मुश्किल से 2 प्रतिशत थी आज 23 प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुकी हैं। आज 32 प्रतिशत सुपर बाॅस महिलायें हैं। अन्तरमहाद्वीपीय निगमों में भी महिलाये सहजता से नेतृत्व संभाल रही हैं, महिलाओं की कामयाबी का यह सिलसिला कारपोरेट सेक्टर की ही तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। अभी हाल में ही 9 मार्च 2010 को संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के 14 वर्ष से अटके पड़े विधेयक को कानूनी हकीकत में बदलने की राह खोल दिया तथा महिलाओं का 1/3 प्रतिशत आरक्षण राज्यसभा ने महिला आरक्षण विधेयक को दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया।
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनका कहना था कि शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के उत्थान के लिये मूलभूत आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द जी अपने देश की स्त्रियों की दयनीय दशा के प्रति बहुत सचेत थे। उन्होंने उद्घोष किया था कि नारी सम्मान करो, उन्हें शिक्षित करो और उन्हें आगे बढ़ने का अवसर दो। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक हम नारी को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज को शिक्षित नहीं कर सकते और जब तक समाज को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज अथवा राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। अतः आवश्यकता है कि आज हम स्वामी जी के उद्घोष को साकार करने के लिये नारी को शिक्षित कर सशक्त करे और नारी की सशक्त डोर के सहारे अपने समाज एवं राष्ट्र को भी सशक्त करें।
मनुष्य का जीवन सदा किसी दूसरे जीवन से सम्बन्धित होता है। उसके मानसिक जीवन का प्रदीप किसी दूसरे मानसिक जीवन से प्रकाश पाता है। जीवन की लहलहाती बाड़ी में खरबूजे को देखकर तरबूजा रंग बदलता है, और यों हरेक मनुष्य किसी दूसरे को अध्यापक सिखलाने वाला और बनाने वाला होता है। अध्यापक के अर्थ को इतना व्यापक बना दें तो बात बहुत फैल जायेगी। हम तो यहाँ उन लोगों से बहस करना चाहते हैं, जो जानबूझ कर सिखाने-पढ़ाने का काम अपना लेते हैं, और उसे अच्छी तरह पूरा करते हैं।
‘‘अच्छे अध्यापकों में तो सत्ताधारियों और शासकों की प्रवृत्ति लेशमात्र भी नहीं होती। उनमें जमीन-आसमान का अन्तर है। शासक जब्र करते हैं, यह सब्र करते हैं, वे मजबूर करके एक राह पर चलते हैं, यह आजाद छोड़कर साथ लेता है, एक के साधन है शक्ति और जोर- जबरदस्ती, दूसरे के है मुहब्बत और खिदमत, एक का कहना डर से माना जाता है, दूसरे का शौक से, एक हुक्म देता है, दूसरा सलाह, वह गुलाम बनाता है और यह साथी।’’
इनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसके जीवन की जडे़ स्नेह की अजस्स्र धारा से अभिसिंचित होती है। इसलिए यह वहाँ आशा लगाता है, जहाँ दूसरे जी छोड़ देते हैं, इसे वहाँ भी प्रकाश दिखायी देता है, जहाँ दूसरे अंधेरे की शिकायत करते हैं। यह महापुरूषों का सा महान आदर्श सदा अपनी आँखों के सामने रखता है, मगर नादान और बेबस बच्चे की सेवा को भी अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझता है और ‘‘बच्चे की ओर जब सारी दुनिया निराश हो जाती है, तो बस दो ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनके मन में अन्त तक आशा बनी रहती है एक उसकी माँ और दूसरा अच्छा अध्यापक।’’
‘‘शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए छात्र में संयम तथा तप होना चाहिए, उसमें शिक्षक के लिए श्रद्धा होनी चाहिए, सुनने के लिए उसमें तत्परता होनी चाहिए। शिष्य ऐसा होना चाहिए जो अध्यापक के दोषों को देखता रहे।’’
जिस प्रकार विद्यार्थी से श्रद्धा, विनय, समर्पण आदि की अपेक्षा की गयी है, उसी प्रकार गीता शिक्षक से भी अपेक्षाएँ रखती है। शिक्षक का दायित्व है कि वह अपने शिष्यों में यह आत्मविश्वास उत्पन्न करे कि वे सफलता प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों को चिन्ता मुक्त रखते हुए सफलता का विश्वास दिलायें। अध्यापक के मन में अपने छात्र के प्रति अनन्य प्रेम, उसके हित की कामना के साथ-साथ उसे वहीं उपदेश देना चाहिए जो उसके लिए कल्याणकारी हो एवं कोई भी ज्ञान छिपाकर नहीं रखना चाहिए। छात्र के व्यक्तित्व का समादर करते हुए न तो अपना निर्णय लादना चाहिए और न ही अन्धानुकरण की अपेक्षा करनी चाहिए। अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया ही कुछ इस प्रकार है कि जिसमें शिक्षक एवं शिष्य दोनों की रूचि आवश्यक है। किसी एक की भी अरूचि अध्ययन-अध्यापन को प्रभावित कर देगी। (श्रीमद्भगवत् गीता का शिक्षादर्शन)
भारत एक विकासशील देश है परन्तु यहाँ महिलाओं की स्थिति में सुधार सशक्तीकरण की देन है क्योंकि भारत का इतिहास बताता है कि यहाँ बहुत ही योग्य महिलाओं ने जन्म लिया परन्तु भारतीय पुरूष प्रधान समाज में इनका उपयुक्त योगदान नहीं लिया गया। यदि हम इतिहास के पन्नों को देखें तो हम यह पायेगें कि भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण की शुरूआत ब्रिटिशकाल से ही शुरू हुई है और तभी से भारत में महिलाओं के जीवन में सुधार देखा जा रहा है। आज भारत में महिलाओं की स्थिति सुधरी है। भारतीय महिलायें प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं और पुरूष प्रधान समाज में अपनी एक अलग पहचान बना रही है। भारतीय महिलाओं में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की जो रूचि पैदा हुई है उसको बनाये रखने के लिये भारतीय सरकार ने विभिन्न कानूनों का निर्माण किया है। उसको बनाये रखने के लिये भारतीय सरकार ने विभिन्न कानूनों का निर्माण किया है ताकि भारतीय पुरूष समाज में महिलायें निडर होकर अपना योगदान दे सकें। 
भारतीय समाज में आधे से थोड़ी कम भागीदारी वाली महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रही है। धर्म, समाज, रीति-रिवाज, मान-मर्यादा के नाम पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं को हेय समझा जाता रहा है। उन्हें एक वस्तु मानकर उनका दैहिक एवं मानसिक शोषण है एवं उत्पीड़न किया जाता रहा है, पुरूषों के लिये वे भोग्या रहीं है निर्णयन प्रक्रिया में उनकी भागीदारी न के बराबर रही। भारत में स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी एवं भारतीय संविधान में उन्हें पुरूषों के साथ बराबर का दर्जा हासिल हुआ। संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन से पंचायती राज संस्थाओं एवं स्थानीय नगर निकायों में एक तिहाई स्थानांे पर आरक्षण का लाभ उठाकर महिलाओं में जागरूकता आई। स्थानीय शासन के इन निकायों में महिलाओं की वास्तविक भागीदारी जिला पंचायतों में 42 प्रतिशत क्षेत्र पंचायतों में 44 प्रतिशत तथा ग्राम पंचायतों में 41 प्रतिशत है। पन्द्रहवीं लोक सभा में 59 महिलायें निर्वाचित हुई जबकि 14वीं लोक सभा महिला सांसदों की संख्या 49 थी। भारत के राष्ट्रपति पद पर श्रीमती प्रतिभा पाटिल, लोक सभा के स्पीकर पद पर श्रीमती मीरा कुमार, कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में श्रीमती सोनिया गाँधी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में सुश्री मायावती व राजस्थान की मुख्यमंत्री रही श्रीमती वसुन्धरा राजे तथा तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही सुश्री जयललिता की सफलतायें इस बात की परिचायक हैं कि शासन एवं प्रशासन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी हैं जो महिला सशक्तीकरण की दिशा में सकारात्मक कदम है। भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने एवं उन्हें बनाने के लिये विभिन्न उपबन्धों का निर्माण किया गया है। अनुच्छेद 14, 15 व 16 महिलाओं के लिये समता का अधिकार प्रदान करते है। अनुच्छेद 42 कार्य के उचित और मानवीय दशाओं तथा मातृत्व लाभ की, अनुच्छेद 51(ई) प्रत्येक नागरिक पर अधिरोपित करता है कि वह महिलाओं की गरिमा के विपरीत व्यवहार का अभित्याग करें।
संसद ने महिलाआंे के हितों के संरक्षण के लिए अनेकों अधिनियम पारित किये है। हिन्दू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम 1856, हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिकार अधिनियम 1937 तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू दत्तक ग्रहण अधिनियम 1956, कन्या वध अधिनियम 1869, भारतीय तलाक अधिनियम 1870, बाल विवाह अधिनियम 1929 के अतिरिक्त संसद ने विशेष विवाह अवरोध अधिनियम 1954, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, परिवार न्यायालय अधिनियम 1984 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 को महिलाओं की सेवा, सुरक्षा और सवेतन छुट्टी के साथ मातृत्व लाभ देने के लिए पारित किया गया है।
महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु केन्द्र सरकार द्वारा 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गईं आयोग महिलाओं के अधिकारों के हनन के मामलों की जांच भी करता है। 
पंचायत प्रणाली मंे महिलाओं के आरक्षण का सकारात्मक पहलू यह है कि अब वे ऐसे बहुत से काम कर रही है जो उन्होंने पहले कभी नहीं किये। इससे अन्ततः समाज की सोच पर भी असर पड़ेगा। समाज को महसूस होगा कि महिलायें क्या कर सकती हैं। निश्चित रूप से आरक्षण महिलाओं को राजनीति में आने के लिये प्रेरित करता है। कल्पना करें कि लड़कियों की उस पीढ़ी की जो अपनी माताओं को प्रधान या मेयर के रूप में आदेश देते, सभायें करते, भाषण देते, समस्यायें सुलझाते, घर के बाहर जाते या लोगों को मदद मांगने के लिए घर में आते देखकर बड़ी हो रहीं है। जिस समाज में घरों में महिलाओं की आवाज को अनुसना या अस्वीकार किया जाता हो वहाँ ऐसी कल्पना क्रान्तिकारी है। 
पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बढ़ाये जाने का निर्णय निश्चित रूप से स्वागत-योग्य है। संभवतः एक दिन में भी महिलाओं को आरक्षण मिल जायेगा। लेकिन इसके लिए हमें बहुत सी चीजों में बदलाव होने का इंतजार करना पड़ेगा। महिला-प्रतिनिधियों की ज्यादा से ज्यादा सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाए इसके लिए कुछ सुझाव दिये जा सकते हैं- महिलाओं को उनके अधिकार, शक्तियों और कत्र्तव्यों के बारे में प्रशिक्षण देना अनिवार्य है। इन प्रतिनिधियों के लिए ग्रामीण स्तर पर प्रशिक्षण केन्द्र लगा कर उन्हें विकास के विभिन्न पहलुओं से भी परिचित कराया जाना चाहिए। उन्हें उनकी भाषा में ही प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसमें फिल्मों और कम्प्यूटर का भी सहारा लिया जाना चाहिए। चूँकि प्रतिनिधि पढ़ने-लिखने की सामान्य अवस्था पार कर चुकी हैं। अतः उनके स्तर पर ही शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए स्त्री प्रशिक्षिका आवश्यक है।

नारी वह ज्योति स्तम्भ है जो जीवन रूपी पथ को प्रकाशित करती है। नारी जाति को ऊँचा उठाये बिना परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र एवं विश्व को ऊँचा उठाना असंभव है। जिस देश में विदुषी, चरित्रवान एवं सद्गुण सम्पन्न नारियाँ हैं, वह देश निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर होता रहेगा। हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ सुख-शान्ति एवं धन-वैभव अपने आप ही आ जाता है। जिस समाज में नारी को महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार किया जाता है या नारी स्वयं अपने आदर्शों को भूल जाती है तो वह समाज बिखर जाता है। समाज एवं राष्ट्र के चारित्रिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार नारी ही है। हमें नेपोलियन के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि तुम मुझ शिक्षित नारियाँ दो तो मैं तुम्हें अच्छा राष्ट्र दूँगा। कहने का आशय यह है कि यदि नारियाँ शिक्षित होकर अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक एवं सशक्त होंगी तो उनके साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र भी सशक्त होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि एक शिक्षित महिला अपने पूरे परिवार को शिक्षित बनाती है। यह भी कहा जाता है कि पुरूष की सफलता के पीछे सशक्त नारी का हाथ होता है। जिसका साक्ष्य हमारा इतिहास है। हम सभी जानते हैं कि महाकवि तुलसीदास एवं कालिदास ने अपनी पत्नियों से प्रेरणा पाकर क्रमशः ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य एवं ‘शाकुन्तलम्’ तथा ‘मेघदूत’ जैसी महान् रचनायें लिख डाली।
यह निर्विवाद सत्य है कि महिला सशक्तीकरण का एकमेव उपाय शिक्षा है। क्योंकि शिक्षा व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की बुनियादी आवश्यकता है।1 शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं संवेदनशील बनाती है जिससे राष्ट्रीय एकता का विकास होता है। हमारा देश लोकतंात्रिक देश और शिक्षा लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी है, जिसके अभाव में लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। इस दृष्टि से भी स्त्री शिक्षा का हमारे देश में बहुत महत्व है। शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र चिंतन एवं सोच-समझ की क्षमता उत्पन्न करती है। जिसके द्वारा हम अपने लोकतंत्रीय लक्ष्यों, समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को प्राप्त कर सकते हैं और वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संविधान में संशोधन कर शिक्षा को अब मौलिक अधिकार बना दिया है। अब आवश्यकता केवल इसके क्रियान्वयन की है, किस प्रकार हम ऐसी व्यवस्था करें, संसाधन जुटायें या अन्य उपाय करें जिससे सभी इस मौलिक अधिकार के भागीदार बन सकें। सरकार इस ओर काफी सजग दिख रही है, क्योंकि केन्द्र में भारतीय जनता पाटी गठबन्ध सरकार में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास (एच. आर. डी.) मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 22 से 24 अक्टूबर 1998 के बीच राज्यों के शिक्षामंत्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें प्राथमिक स्तर की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का संकल्प दोहराया गया और बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया। इस सरकार ने महिलाओं के लिये स्नातक स्तर की शिक्षा निःशुल्क करने की घोषणा भी की थी।
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु सुझाव देने के लिये सर्वप्रथम 1958 में देशमुख समिति का गठन किया गया जिसने स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना कोई सुझाव तो नहीं दिया परन्तु उसके विस्तार के लिये अनेक उपाय बताये। इसके बाद स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में पुनः विस्तार से सुझाव देने हेतु 1962 में हंसा मेहता समिति का गठन किया गयां इस समिति का मुख्य सुझाव था कि स्त्री पुरूषों की शिक्षा समान होनी चाहिए अर्थात उनमें लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं करना चाहिए। इसके बाद कोठारी आयोग (1964-66) ने स्त्री पुरूषों के लिये भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का सुझाव दिया, परन्तु साथ ही उसने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिये आधारभूत पाठ्यचर्या (कोर करिकुलम) प्रस्तावित की। इसका प्रभाव यह हुआ कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों में स्त्री शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूप में संगठित किया गया।2 इन सब विषमताओं को दूर करने के लिये 1986 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस शिक्षा नीति में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश हे कि भारत में स्त्री-पुरूषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जायेगा, अर्थात् स्त्रियों को पुरूर्षों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा। इतना ही नहीं अपिुत इस शिक्षा नीति में यह भी घोषणा की गई है कि स्त्रियों को विज्ञान, तकनीकी और मैनेजमेंट की शिक्षा के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। वर्तमान में ऐसी अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में स्त्रियों के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी की गई है।
‘परन्तु हमारे देश में स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में आज भी दो विचारधारायें हैं- एक रूढ़िवादी और दूसरी प्रगतिशील।3 रूढ़िवादी विचारधारा के व्यक्ति भारत की परम्परावादी कार्य विभाजन व्यवस्था को उत्तम मानते हैं। उनका तर्क है कि स्त्री पुरूष की इस कार्य विभाजन व्यवस्था में परिवार के सब कार्य सुचारू रूप से सम्पादित होते हैं अर्थात् शिशुओं की उचित देखभाल होती है, अतिथि सत्कार अच्छे ढंग से होता है और परिवारों में सुख-शान्ति रहती है। इस वर्ग के लोग स्त्रियों के लिये पुरूर्षों से भिन्न पाठ्यक्रम की वकालत करते हैं और इन्हें केवल भाषा, साहित्य, धर्म, सामाजिक विषय, गृहविज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, गृहशिल्प और कला तथा संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की बात करते हैं।
इसके विपरीत प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करते । ये स्त्री-पुरूष के परम्परागत कार्य विभाजन को पुरूष प्रधान व्यवस्था मानते हैं और स्त्रियों का शोषण मानते हैं। इनका तर्क है कि स्त्रियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने का अर्थ है देश की लगभग आधी मानव शक्ति का प्रयोग न करना। उनका तर्क है कि पाश्चात्य देशों में स्त्री पुरूर्षों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसीका परिणाम है ‘कि इन देशों ने आर्थिक विकास किया है तथा इन देशों के लोग उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। इस वर्ग के लोग स्त्री-पुरूष दोनों के लिये किसी भी स्तर पर समान पाठ्यक्रम की वकालत करते है।4
‘यदि ध्यानपूर्वक देखा-समझा जाये तो दोनों वर्गों के लोग अपनी जगह सही है। पहले वर्ग की यह बात सही है कि अपने देश की परम्परागत जीवन शैली में दाम्पत्य जीवन का जो आनन्द है, परिवार में जो सुख-शान्ति है, वह पाश्चात्य देशों की आधुनिक जीवन शैली में नहीं’5 दूसरी ओर दूसरे वर्ग के लोगों की यह बात भी सही है कि स्त्री-पुरूषों के संयुक्त प्रयास से जो आर्थिक विकास पाश्चात्य देशों ने किया है वह हम नहीं कर पाये हैं।
तब इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, यह इन दोनों को शिक्षा के समान अवसर देने का पक्षधर है। फिर मानवाधिकार का भी यही कहना है कि ‘यदि हम अपने देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की मूलभावना के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करें तो निश्चित रूप से उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में समन्वय सम्भव है।6 इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा देश के सभी बच्चों के लिये समान करने की घोषणा की गई है और इसके लिये आधारभूत पाठ्यचर्या भी तैयार की गयी है। इससे देश के सभी लड़के-लड़कियों को अपने विकास के समान अवसर मिलेंगे। 10$2 स्तर पर अधिकतर छात्र-छात्राओं को कला- कौशल, कुटीर उद्योग धन्धों और अन्य व्यवसायों की शिक्षा की ओर मोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहला लाभ यह होगा कि सभी छात्र-छात्रायें अपनी रूचि, रूझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे और दूसरा लाभ यह होगा कि शिक्षित बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी। उच्च शिक्षा में केवल मेधावी छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने का प्रस्ताव है। इससे देश की प्रतिभाओं का विकास होगा जो देश के हर क्षेत्र में नेतृत्व करेंगे तथा देश के आर्थिक विकास को गति प्रदान करेंगे। लिंग के आधार पर प्रतिभाओं को विशिष्ट शिक्षा के अधिकार से वंचित करने का अर्थ होगा, देश विकास में उनके सहयोग से वंचित होना। बस आवश्यकता है किसी भी प्रकार की शिक्षा के बाद मूल्यों की शिक्षा देने की।
आजादी के बाद से शिक्षा के विकास, प्रचार पर अरबों रूपये व्यय किये गए। अपार धनराशि, शिक्षकोें और शिक्षणेत्तर कर्मियों की भारी संख्या पूरे देश में शैक्षिक प्रबंधतंत्र का फैला नेटवर्क एंव योजनाओं का यद्यपि कुछ असर तो दिखायी दिया है। लेकिन अभी तक असली मकसद को पूरा नहीं हो पाया है। इस आधी अधूरी सफलता को पूरी सफलता में परिवर्तित करने हेतु पूरी सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासकीय प्रतिबद्धता के साथ निरन्तर अथक प्रयास करने होंगे तभी महिला शिक्षा तथा सशक्तीकरण को मूर्त रूप दिया जा सकता है। हमारे देश की आधी आबादी (महिला) निरक्षर हैं। कुछ ही महिलायें आज ऊँचे ओहदे पर विराजमान हैं। जो महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। ये महिलायें शिक्षित तथा पूर्ण रूप से जागरूक हैं। रोजगार, अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक, सामाजिक सभी दायरों को महिलाओं ने अपनी कामयाब भागीदारी से नये आयाम दिये हैं। 1950 में जहाँ कारपोरेट सेक्टर में पूरी दुनिया में महिलाओं का भागीदारी मुश्किल से 2 प्रतिशत थी आज 23 प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुकी हैं। आज 32 प्रतिशत सुपर बाॅस महिलायें हैं। अन्तरमहाद्वीपीय निगमों में भी महिलाये सहजता से नेतृत्व संभाल रही हैं, महिलाओं की कामयाबी का यह सिलसिला कारपोरेट सेक्टर की ही तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। अभी हाल में ही 9 मार्च 2010 को संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के 14 वर्ष से अटके पड़े विधेयक को कानूनी हकीकत में बदलने की राह खोल दिया तथा महिलाओं का 1/3 प्रतिशत आरक्षण राज्यसभा ने महिला आरक्षण विधेयक को दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया।
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनका कहना था कि शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के उत्थान के लिये मूलभूत आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द जी अपने देश की स्त्रियों की दयनीय दशा के प्रति बहुत सचेत थे। उन्होंने उद्घोष किया था कि नारी सम्मान करो, उन्हें शिक्षित करो और उन्हें आगे बढ़ने का अवसर दो। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक हम नारी को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज को शिक्षित नहीं कर सकते और जब तक समाज को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज अथवा राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। अतः आवश्यकता है कि आज हम स्वामी जी के उद्घोष को साकार करने के लिये नारी को शिक्षित कर सशक्त करे और नारी की सशक्त डोर के सहारे अपने समाज एवं राष्ट्र को भी सशक्त करें।
मनुष्य का जीवन सदा किसी दूसरे जीवन से सम्बन्धित





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