Tuesday, December 28, 2021

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.......डॉ संतोष

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.......डॉ संतोष मिश्र जिला प्रतापगढ़ के लालगंज तहसील से आते हैं । स्याल्दे में 1997 से धूमिल के रंग में रसकर राजकीय महाविद्यालय स्याल्दे में हिंदी के प्राध्यापक पद पर B.A के बच्चों को पढ़ाना शुरू करते हैं। पहाड़ पर पहाड़ जैसी अपनी करनी की एक कलाकृति भी तैयार करते हैं ।वह  नई पौध को सींचते हैं , उच्च शिक्षारथ विद्यार्थियों को 10:00 से 3:00 pm के अलावा ।....इस नई  पौध  (बाल क्लब ) के सपनों को रंग भरते पेंसिल कागज रंग ब्रश धमाते उनकी दुनिया को भी सजा रहे थे।...इस दुबली काया से अनोखे कार्य भी करते ... जैसे मैराथन वाले, और संचार की सारी खूबियां  को उस पहाड़ पर जुगाड़ से चलाते भी रहते थे। गणित के विद्यार्थी जो ठहरे। बाल क्लब हो या कविता मंच सब कुछ अपने स्तर से सवार रहे थे। खुद अपने को लिख रहे थे। जानने वाले उनको सनकी और मुख्यधारा से कटा हुआ कहते ।कुछ का मानना था कि बड़े बहुत बड़े मठाधीश  है ....सबको साधते ....और उनके बीच से निकलते हुए वह अपने पैमाने गढ़ रहे थे ।
  हल्द्वानी आने के बाद भी वह अंगदान जैसा बड़ा कार्य अपने कुल में तो किया ही किया । हल्द्वानी  शहर में एक मुहिम सी  चला दी।

लोग कहते है कि एनएसएस के तहत पूरे हल्द्वानी में कपड़ा बैंक तो कहीं रोटी बैंक की मुहिम चली नहीं दौड़ी थी। 

यह सब कर रहे थे । जो जायज था लेकिन कुछ और भी किया जो प्रतापगढ़  को भी नागवार गुजरी , जात के ब्राह्मण हो कर भारतीय परंपरा और अपनी ब्राह्मणवाद पर भी कुठाराघात कर रहे थे। 

   जब अंगदान खुद की व पत्नी मां-बाप सबको करवाएं और बड़ी बात थी कि वह वे इकलौते पुत्र होते हुए भी। उस ब्राह्मणवाद को जिसकी जाति में  जन्मे थे ।उसके ही  कर्मकांड को बदल रहे थे। अपने स्तर से, और अपने विवेक  से । 

  वह मानसिक, शारीरिक और अपने  उस पुरखों से भी लड़ रहे थे जो स्वर्ग में बैठकर तर्पण का उनसे आस लगाए थे। 

   सब कुछ उटला के वे अपनी हठधर्मिता या अपने स्वविवेक से या कबीर पढ़ाते पढ़ाते कबीरा गए थे,व अपनी कहानी रच रहे थे। ऐसा ही कुछ वह संतान उत्पत्ति में भी कर चुके थे। कहते हैं  जिससे ससुराल पक्ष और पितृपक्ष दोनों लाचार हो गए थे।  यह सब चल ही रहा था  की आकर हल्द्वानी में आवास बनाते हैं और हल्द्वानी में हीं इस मास्टरी से सेवानिवृत्त का फैसला  भी ले लेते, और फैसला ही नहीं लेते उस पर उस को असली जामा भी पहना लेते हैं।

   वक्त बताएगा कि आने वाले कल में वह कौन सा इतिहास रखेंगे लेकिन एक बात जब इनको सोचता ,समझता  हूं तो... घनानंद की यह कविताएं  मेरे मन में बरबस ही  याद  आने लगती है।....तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥

1-
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
2-
घनानंद के प्यारे सुजान सुनौ, जेहिं भांतिन हौं दुख-शूल सहौं।
नहिं आवन औधि, न रावरि आस, इते पर एक सा बात चहौं॥

यह देखि अकारन मेरि दसा, कोइ बूझइ ऊतर कौन कहौं।
जिय नेकु बिचारि कै देहु बताय, हहा प्रिय दूरि ते पांय गहौं॥

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