Tuesday, December 28, 2021

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.......डॉ संतोष

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं.......डॉ संतोष मिश्र जिला प्रतापगढ़ के लालगंज तहसील से आते हैं । स्याल्दे में 1997 से धूमिल के रंग में रसकर राजकीय महाविद्यालय स्याल्दे में हिंदी के प्राध्यापक पद पर B.A के बच्चों को पढ़ाना शुरू करते हैं। पहाड़ पर पहाड़ जैसी अपनी करनी की एक कलाकृति भी तैयार करते हैं ।वह  नई पौध को सींचते हैं , उच्च शिक्षारथ विद्यार्थियों को 10:00 से 3:00 pm के अलावा ।....इस नई  पौध  (बाल क्लब ) के सपनों को रंग भरते पेंसिल कागज रंग ब्रश धमाते उनकी दुनिया को भी सजा रहे थे।...इस दुबली काया से अनोखे कार्य भी करते ... जैसे मैराथन वाले, और संचार की सारी खूबियां  को उस पहाड़ पर जुगाड़ से चलाते भी रहते थे। गणित के विद्यार्थी जो ठहरे। बाल क्लब हो या कविता मंच सब कुछ अपने स्तर से सवार रहे थे। खुद अपने को लिख रहे थे। जानने वाले उनको सनकी और मुख्यधारा से कटा हुआ कहते ।कुछ का मानना था कि बड़े बहुत बड़े मठाधीश  है ....सबको साधते ....और उनके बीच से निकलते हुए वह अपने पैमाने गढ़ रहे थे ।
  हल्द्वानी आने के बाद भी वह अंगदान जैसा बड़ा कार्य अपने कुल में तो किया ही किया । हल्द्वानी  शहर में एक मुहिम सी  चला दी।

लोग कहते है कि एनएसएस के तहत पूरे हल्द्वानी में कपड़ा बैंक तो कहीं रोटी बैंक की मुहिम चली नहीं दौड़ी थी। 

यह सब कर रहे थे । जो जायज था लेकिन कुछ और भी किया जो प्रतापगढ़  को भी नागवार गुजरी , जात के ब्राह्मण हो कर भारतीय परंपरा और अपनी ब्राह्मणवाद पर भी कुठाराघात कर रहे थे। 

   जब अंगदान खुद की व पत्नी मां-बाप सबको करवाएं और बड़ी बात थी कि वह वे इकलौते पुत्र होते हुए भी। उस ब्राह्मणवाद को जिसकी जाति में  जन्मे थे ।उसके ही  कर्मकांड को बदल रहे थे। अपने स्तर से, और अपने विवेक  से । 

  वह मानसिक, शारीरिक और अपने  उस पुरखों से भी लड़ रहे थे जो स्वर्ग में बैठकर तर्पण का उनसे आस लगाए थे। 

   सब कुछ उटला के वे अपनी हठधर्मिता या अपने स्वविवेक से या कबीर पढ़ाते पढ़ाते कबीरा गए थे,व अपनी कहानी रच रहे थे। ऐसा ही कुछ वह संतान उत्पत्ति में भी कर चुके थे। कहते हैं  जिससे ससुराल पक्ष और पितृपक्ष दोनों लाचार हो गए थे।  यह सब चल ही रहा था  की आकर हल्द्वानी में आवास बनाते हैं और हल्द्वानी में हीं इस मास्टरी से सेवानिवृत्त का फैसला  भी ले लेते, और फैसला ही नहीं लेते उस पर उस को असली जामा भी पहना लेते हैं।

   वक्त बताएगा कि आने वाले कल में वह कौन सा इतिहास रखेंगे लेकिन एक बात जब इनको सोचता ,समझता  हूं तो... घनानंद की यह कविताएं  मेरे मन में बरबस ही  याद  आने लगती है।....तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥

1-
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
2-
घनानंद के प्यारे सुजान सुनौ, जेहिं भांतिन हौं दुख-शूल सहौं।
नहिं आवन औधि, न रावरि आस, इते पर एक सा बात चहौं॥

यह देखि अकारन मेरि दसा, कोइ बूझइ ऊतर कौन कहौं।
जिय नेकु बिचारि कै देहु बताय, हहा प्रिय दूरि ते पांय गहौं॥

Saturday, December 25, 2021

चाणक्य (chanakya)

भारत को देखने समझने का सबका अपना-अपना नजरिया है लेकिन एक बात तो सच है भारत भूमि सदा से ही महान विचारको और उद्धारको की रही है।  जब भारत को हम कल आज और कल में देखते हैं तो एक नाम निकल कर आता है वह नाम है  चाणक्य ।
    हम जब भी चाणक्य के बारे में खोजबीन करते है तो हमें सदा उनकी निति परक बातें ही मिलती है, मतलब की उनके जीवन का सार रूप ही हमें उनकी शिक्षा (chanakya neeti)  में मिलता है। हम इसको पढ़ते हैं बुनते हैं ,पर अमल में नहीं ला पाते सदियों से। इस नीतिपरक उपदेश को बार-बार सुनते हैं बुनते हैं और समझने को मजबूर होते हैं किस में क्या कहा गया है।
   पर क्या हमने कही सोचा है की उस समय भारत की क्या सामाजिक या राजनितिक व्यवस्था रही होगी जिसने चाणक्य जैसे महान शिक्षक (chanakya) को एक विद्रोही या राज्य का तख्ता पलटने वाला बना दिया? 
   यही सोच रहा हूं कब से और मन में चाणक्य सीरियल का वो डायलॉग याद आ रहा है कि शिक्षक साधारण नहीं होता.... और जब इस कहानी के पृष्ठभूमि जाता हूं तो पता चलता है कि मगध राज्य प्राचीन भारत का एक महाजनपद था जहाँ का राजनितिक बदलाव सारे भारत को बदल सकता था। पर अगर यहाँ का शाषक वर्ग ही जनता का शोषण करने लग जाए तो?
     यही से इस कार्यक्रम का सूत्रपात हुआ।  इस कहानी के सूत्रधार बने यहाँ के वित्त विभाग के एक महामंत्री जिनसे जवाब माँगा जा रहा है की “राजकुल के मासिक वेतन से एक सिक्का कहाँ गायब हो गया ? ” मंत्री का कहना है की जब एक सिक्का आप लोगो के मासिक वेतन से गायब हो जाने पर इतना संग्राम हो रहा है तो कहिये की जब जनता का पैसा लाखो की संख्या में गायब हो रहा है तो आप मौन क्यों हैं?
    यह प्रश्न हर युग, हर समय हर राजा हर प्रजा में बराबर उठता है और शायद उठता ही आएगा इसका परिणाम भी यही होगा....और लगेगा भी यही जैसे लगा था....उस सभा में यह बात छोटी थी पर राजा सहित सब को चुभ गयी वे। जनता की वास्तविक समस्याओं को, राज्य से जुडी परेशानियों को अपना नहीं समझते थे। जिस राज्य में लाश जलाने की लिए गरीब परिवार से कर लिया जा रहा हो वह राज्य कैसे फलेगा, फुलेगा?
            उस समय तक चाणक्य बालक  रूप में थे , इस सब बातो से अन्जान थे की एक दिन यही आग उनके घर को भी जला देगी, उनके जीवन को बदल कर रख देगी, और फिर शुरू हो जाएगी एक महान चाणक्य बनने की गाथा।
    क्या आने वाले वक्त में इस कहानी की पुनरावृत्ति होगी क्या...?
      फिर एक नया चाणक्य जन्म आएगा कब कहां कैसे और कौन इस पर समय भी अभी है मौन.....

Tuesday, December 21, 2021

श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर

     
श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर 

भारत के महानतम गणितज्ञ बीसवीं सदी के महानतम गणितज्ञ जो आर्यभट्ट की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और गणित के क्षेत्र में भारत को गर्व की अनुभूति कराते हैं वैसे तो गिनती तो हर विषय जीवन में है, हर पल गणित हमारे साथ ही है, गणित हमें (प्यार) जोड़ना या ( नफरत) घटाना नहीं सिखाता,लेकिन यह हमें उम्मीद देता है कि हर समस्या का हल है।  आप के सम्मान में मनाये जाने वाले #राष्ट्रीयगणितदिवस पर समस्त #गणितबाजों को हार्दिक शुभकामनाएं.

 आज इसी के तहत हमने इन्हें को जानने समझने और  भारतीय जनमानस  में इनकी अनुभूती कितनी है ...?कितना लोग इनको समझते जानते हैं .... आज इस राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप  एक प्रयास  ...

 (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीयगणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।

ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।

महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से 400 किमी दूर इरोड नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। रामानुजन जब एक वर्ष के थे तभी उनका परिवार पवित्र तीर्थस्थल कुंभकोणम में आकर बस गया था। इनके पिता यहाँ एक कपड़ा व्यापारी की दुकान में मुनीम का कार्य करते थे। पाँच वर्ष की आयु में रामानुजन का दाखिला कुंभकोणम के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया गया।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा की एक रोचक घटना है। गणित के अध्यापक कक्षा में भाग की क्रिया समझा रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि अगर तीन केले तीन विद्यार्थियों में बांटे जाये तो हरेक विद्यार्थी के हिस्से में कितने केले आयेंगे? विद्यार्थियों ने तत्काल उत्तर दिया कि हरेक विद्यार्थी को एक-एक केला मिलेगा। इस प्रकार अध्यापक ने समझाया कि अगर किसी संख्या को उसी संख्या से भाग दिया जाये तो उसका उत्तर एक होगा। लेकिन तभी कोने में बैठे रामानुजन ने प्रश्न किया कि, यदि कोई भी केला किसी को न बाँटा जाए, तो क्या तब भी प्रत्येक विद्यार्थी को एक केला मिल सकेगा? सभी विद्यार्थी इस प्रश्न को सुनकर हँस पड़े, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण था। लेकिन बालक रामानुजन द्वारा पूछे गए इस गूढ़ प्रश्न पर गणितज्ञ सदियों से विचार कर रहे थे। प्रश्न था कि अगर शून्य को शून्य से विभाजित किया जाए तो परिणाम क्या होगा? भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य ने कहा था कि अगर किसी संख्या को शून्य से विभाजित किया जाये तो परिणाम `अनन्त’ होगा। रामानुजन ने इसका विस्तार करते हुए कहा कि शून्य का शून्य से विभाजन करने पर परिणाम कुछ भी हो सकता है अर्थात् वह परिभाषित नहीं है। रामानुजन की प्रतिभा से अध्यापक बहुत प्रभावित हुए।

प्रारंभिक शिक्षा के बाद इन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ पर तेरह वर्ष की अल्पावस्था में इन्होने ‘लोनी’ कृत विश्व प्रसिद्ध ‘त्रिकोणमिति’ को हल किया और पंद्रह वर्ष की अवस्था में जार्ज शूब्रिज कार कृत `सिनोप्सिस ऑफ़ एलिमेंट्री रिजल्टस इन प्योर एण्ड एप्लाइड मैथेमैटिक्स’ का अध्ययन किया। इस पुस्तक में दी गयी लगभग पांच हज़ार प्रमेयों को रामानुजन ने सिद्ध किया और उनके आधार पर नए प्रमेय विकसित किये। इसी समय से रामानुजन ने अपनी प्रमेयों को नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया था। हाई स्कूल में अध्ययन के लिए रामानुजन को छात्रवृत्ति मिलती थी परंतु रामानुजन के द्वारा गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों की उपेक्षा करने पर उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। उच्च शिक्षा के लिए रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय गए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए। इस तरह रामानुजन की औपचारिक शिक्षा को एक पूर्ण विराम लग गया। लेकिन रामानुजन ने गणित में शोध करना जारी रखा।

कुछ समय उपरांत इनका विवाह हो गया गया और वे आजीविका के लिए नौकरी खोजने लगे। इस समय उन्हें आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा। लेकिन नौकरी खोजने के दौरान रामानुजन कई प्रभावशाली व्यक्तियों के सम्पर्क में आए। ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक रामचंद्र राव भी उन्हीं प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक थे। रामानुजन ने रामचंद्र राव के साथ एक वर्ष तक कार्य किया। इसके लिये इन्हें 25 रू. महीना मिलता था। इन्होंने ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ की पत्रिका (जर्नल) के लिए प्रश्न एवं उनके हल तैयार करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। सन् 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली और मद्रास में गणित के विद्वान के रूप में पहचाने जाने लगे। सन् 1912 में रामचंद्र राव की सहायता से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में लिपिक की नौकरी करने लगे। सन् 1913 में इन्होंने जी. एम. हार्डी को पत्र लिखा और उसके साथ में स्वयं के द्वारा खोजी प्रमेयों की एक लम्बी सूची भी भेजी।

यह पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे प्रमेय बिना उपपत्ति के लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी पहले ही देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को ये सब बकवास लगा। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को हार्डी ने अपने एक शिष्य के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नहीं बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। इसके बाद हार्डी और रामानुजन में पत्रव्यवहार शुरू हो गया। हार्डी ने रामानुजन को कैम्ब्रिज आकर शोध कार्य करने का निमंत्रण दिया। रामानुजन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह धर्म-कर्म को मानते थे और कड़ाई से उनका पालन करते थे। वह सात्विक भोजन करते थे। उस समय मान्यता थी कि समुद्र पार करने से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। इसलिए रामानुजन ने कैम्ब्रिज जाने से इंकार कर दिया। लेकिन हार्डी ने प्रयास जारी रखा और मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल को रामानुजन को मनाकर कैम्ब्रिज लाने के लिए कहा। नेविल और अन्य लोगों के प्रयासों से रामानुजन कैम्ब्रिज जाने के लिए तैयार हो गए। हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की।

जब रामानुजन ट्रिनिटी कॉलेज गए तो उस समय पी.सी. महलानोबिस [प्रसिद्ध भारतीय सांख्यिकी विद] भी वहां पढ़ रहे थे। महलानोबिस रामानुजन से मिलने के लिए उनके कमरे में पहुंचे। उस समय बहुत ठंड थी। रामानुजन अंगीठी के पास बैठे थे। महलानोबिस ने उन्हें पूछा कि रात को ठंड तो नहीं लगी। रामानुजन ने बताया कि रात को कोट पहनकर सोने के बाद भी उन्हें ठंड लगी। उन्होंने पूरी रात चादर ओढ़ कर काटी थी क्योंकि उन्हें कम्बल दिखाई नहीं दिया। महलानोबिस उनके शयन कक्ष में गए और पाया कि वहां पर कई कम्बल हैं। अंग्रेजी शैली के अनुसार कम्बलों को बिछाकर उनके ऊपर चादर ढकी हुई थी। जब महलानोबिस ने इस अंग्रेजी शैली के बारे में बताया तो रामानुजन को अफ़सोस हुआ। वे अज्ञानतावश रात भर चादर ओढ़कर ठंड से ठिठुरते रहे। रामानुजन को भोजन के लिए भी कठिन परेशानी से गुजरना पड़ा। शुरू में वे भारत से दक्षिण भारतीय खाद्य सामग्री मंगाते थे लेकिन बाद में वह बंद हो गयी। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। रामानुजन सिर्फ चावल, नमक और नीबू-पानी से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। शाकाहारी होने के कारण वे अपना भोजन खुद पकाते थे। उनका स्वभाव शांत और जीवनचर्या शुद्ध सात्विक थी।

रामानुजन ने गणित में सब कुछ अपने बलबूते पर ही किया। इन्हें गणित की कुछ शाखाओं का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था पर कुछ क्षेत्रों में उनका कोई सानी नहीं था। इसलिए हार्डी ने रामानुजन को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया। स्वयं हार्डी ने इस बात को स्वीकार किया कि जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया उससे कहीं ज्यादा रामानुजन ने उन्हें सिखाया। सन् 1916 में रामानुजन ने केम्ब्रिज से बी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की।

रामानुजन और हार्डी के कार्यों ने शुरू से ही महत्वपूर्ण परिणाम दिये। सन् 1917 से ही रामानुजन बीमार रहने लगे थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। इंग्लैण्ड की कड़ी सर्दी और कड़ा परिश्रम उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर उनके लेख उच्चकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। सन् 1918 में, एक ही वर्ष में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज तीनों का फेलो चुन गया। इससे रामानुजन का उत्साह और भी अधिक बढ़ा और वह शोध कार्य में जोर-शोर से जुट गए। सन् 1919 में स्वास्थ बहुत खराब होने की वजह से उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।

रामानुजन की स्मरण शक्ति गजब की थी। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और एक महान गणितज्ञ थे। एक बहुत ही प्रसिद्ध घटना है। जब रामानुजन अस्पताल में भर्ती थे तो डॉ. हार्डी उन्हें देखने आए। डॉ. हार्डी जिस टैक्सी में आए थे उसका नम्बर था 1729 । यह संख्या डॉ. हार्डी को अशुभ लगी क्योंकि 1729 = 7 x 13 x 19 और इंग्लैण्ड के लोग 13 को एक अशुभ संख्या मानते हैं। परंतु रामानुजन ने कहा कि यह तो एक अद्भुत संख्या है। यह वह सबसे छोटी संख्या है, जिसे हम दो घन संख्याओं के जोड़ से दो तरीके में व्यक्त कर सकते हैं। (1729 = 12x12x12 + 1x1x1,और 1729 = 10x10x10 + 9x9x9)।

सन् 1903 से 1914 के बीच, कैम्ब्रिज जाने से पहले रामानुजन अपनी `नोट बुक्स’ में तीन हज़ार से ज्यादा प्रमेय लिख चुके थे। उन्होंने ज्यादातर अपने निष्कर्ष ही दिए थे और उनकी उपपत्ति नहीं दी। सन् 1967 में प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को जब ‘रामानुजन नोट बुक्स’ दिखाई गयी तो उस समय उन्होंने इस पुस्तक में कोई रुचि नहीं ली। बाद में उन्हें लगा कि वह रामानुजन के प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दे सकते हैं। प्रोफेसर बर्नाड्ट ने अपना पूरा ध्यान रामानुजन की पुस्तकों के शोध में लगा दिया। उन्होंने रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया।

सन् 1919 में इंग्लैण्ड से वापस आने के पश्चात् रामानुजन 3 महीने मद्रास, 2 महीने कोदमंडी और 4 महीने कुंभकोणम में रहे। उनकी पत्नी ने उनकी बहुत सेवा की। पति-पत्नी का साथ बहुत कम समय तक रहा। रामानुजन के इंग्लैंड जाने से पूर्व वे एक वर्ष तक उनके साथ रही और वहां से आने के एक वर्ष के अन्दर ही परमात्मा ने पति को सदा के लिए उनसे छीन लिया। उन्हें माँ होने का सुख भी प्राप्त नहीं हुआ। 26 अप्रैल 1920 को 32 वर्ष 4 महीने और 4 दिन की अल्पायु में रामानुजन का शरीर परब्रह्म में विलीन हो गया।

गणितीय कार्य एवं उपलब्धियाँ

रामानुजन ने इंग्लैण्ड में पाँच वर्षों तक मुख्यतः संख्या सिद्धान्त के क्षेत्र में काम किया।

सूत्र

रामानुजन् ने निम्नलिखित सूत्र प्रतिपादित किया-


इस सूत्र की विशेषता यह है कि यह गणित के दो सबसे प्रसिद्ध नियतांकों ( ‘पाई’ तथा ‘ई’ ) का सम्बन्ध एक अनन्त सतत भिन्न के माध्यम से व्यक्त करता है।

पाई के लिये उन्होने एक दूसरा सूत्र भी (सन् १९१० में) दिया था-


रामानुजन संख्याएँ

‘रामानुजन संख्या’ उस प्राकृतिक संख्या को कहते हैं जिसे दो अलग-अलग प्रकार से दो संख्याओं के घनों के योग द्वारा निरूपित किया जा सकता है।



सम्मान

राष्ट्रीय गणित दिवस

भारत में प्रत्येक वर्ष 22 दिसम्बर को महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन की स्मृति में ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है ।

जीवन पर बनी फ़िल्म : द मैन हू न्यू इनफिनिटी


द मैन हू न्यू इनफिनिटी फ़िल्म का पोस्टर
यह फिल्म एक बॉयोपिक है और रामानुजन की जिंदगी पर आधारित है।

पहले विश्वयुद्ध के समय पर बनी, फिल्म रॉबर्ट कनिगेल की किताब पर आधारित है। फिल्म की कहानी ऐसी दोस्ती पर आधारित है जिसने हमेशा के लिए गणित की दुनिया को बदलकर रख दिया। रामानुजन एक गरीब स्वयं पढ़ने वाले भारतीय गणितज्ञ थे। फिल्म की कहानी उनके ट्रिनिटी कॉलेज मद्रास से कैंब्रिज जाने की है।

कैंब्रिज पहुंचने के बाद, रामानुजन और उनके प्रोफेसर जीएच हार्डी के साथ उनका बांड बन जाता है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे वह विश्वप्रसिद्ध गणितज्ञ बने। देविका भिसे, रामानुजन की पत्नी का किरदार निभा रही हैं। देविका एक शास्त्रीय नृत्यांगना हैं। देविका ने अपनी भूमिका के लिए बहुत अध्ययन किया। उन्होंने किताब के लेखर रॉबर्ट कनिगेल से भी बातचीत की, जो असली जानकी (रामानुजन की पत्नी) से मिल चुके हैं।

एडवर्ड आर प्रेसमैन/एनीमस फिल्मस प्रोडक्शन और कैयेने पेपर प्रोडक्शन द्वारा निर्मित, द मैन हू न्यू इनफीनिटी में देव पटेल, जेरेमी आयरंस, देविका भिसे, स्टेफन फ्राय, टॉबी जॉंस और अरूंधती नाग की मुख्य भूमिकाएं हैं। फिल्म की कहानी लेखन और निर्देशन मैथ्यू ब्राउन ने किया है। फिल्म तमिल और अंग्रेजी में उपलब्ध है।

Sunday, August 15, 2021

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास


FRIDAY, 13 AUGUST 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (2)


भारत अवसरों का देश था, जैसे आज अमेरिका है। इसलिए नहीं कि यह सोने की चिड़िया थी, या ज्ञान का भंडार था। बल्कि इसलिए कि यह ऐसा घर था, जहाँ लोग नींद में थे, और लूटने के लिए उचित अवसर थे। भारत से सहानुभूति रखने वाले इतिहासकार ईस्ट-इंडिया कंपनी को लूट का माध्यम मानते हैं। वहीं, कुछ इतिहासकार इस लूट को एक स्वाभाविक घटना बताते हुए, अंग्रेज़ों की सत्ता को धन्यवाद देते हैं। उनके अनुसार वे आए, तभी सोया हुआ भारत जागा। चोर की आहट से घर वाले जाग जाएँ, तो चोर का धन्यवाद करना चाहिए। महानुभाव न आते, तो हम सोए रह जाते। 

खैर, इस तंज से बाहर निकलते हुए, अगर यूरोपीय रिनैशाँ की शुरुआत देखें तो वह भारत की खोज से जुड़ी है। उनके विज्ञान का विकास जहाजी यात्राओं से जुड़ा है, जब कोलंबस और वास्को द गामा अलग-अलग रास्तों से भारत की खोज में निकले थे। मानचित्रों से लेकर नैविगेशन सिस्टम बनाने की तैयारी चल रही थी। उस समय भारत सो नहीं रहा था। 

मुग़लकालीन इमारतें कोई मध्ययुगीन इमारत नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से उच्च कोटि की रचनाएँ हैं। वहीं, यह भक्तिकाल भी था, जब धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन चल रहे थे। इसलिए, यूरोपीय रिनैशां की अपेक्षा भारत को कमजोर मानना ठीक नहीं। बल्कि, ऐसे शोध उभर रहे हैं, कि यूरोप न जागा होता, अगर वह ग्रीस, पश्चिम एशिया, भारत, और चीन के संपर्क में न आता। यानी, हमने उन्हें जगाया! 

सत्रह वर्ष की अवस्था में इंग्लैंड से वारेन हेस्टिंग्स भारत की ओर कूच करते हैं। एक साधारण मुंशी की नौकरी पर। उनकी योजना थी कि यहाँ से कुछ बढ़िया कमा कर घर लौटेंगे। जैसे आज डॉलर कमाने अमरीका प्रवास करते हैं। उन्हें भी नहीं मालूम था कि उनका कद और वैभव इतना बढ़ जाएगा कि वह लगभग पूरे भारत के राजा ही बन जाएँगे। 

विलियम डैलरिम्पल अपनी पुस्तक ‘द अनार्की’ में ज़िक्र करते हैं- 

“बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समक्ष अंग्रेज़ों की सेना घुटने टेक चुकी थी। विलियम वाट्स हाथ में रुमाल बाँधे अपनी हार स्वीकार कर झुक गए थे। नवाब उन्हें गाली देते हुए अपनी जूतियों में सर रखने कहते हैं। वाट्स को जोर-जोर से कहना पड़ता है- ‘तोमार गुलाम, तोमार गुलाम’!

ऐसी ज़िल्लत देख कर अंग्रेजों के एक कमांडर खुद को गोली मार लेते हैं। वहीं तमाम कैदियों के बीच जंजीरों से बँधा एक चौबीस वर्ष का युवक होता है- वारेन हेस्टिंग्स!”

उसके बाद क्या हुआ, यह तो इतिहास है।

1775 में वारेन हेस्टिंग्स भारत के गवर्नर जनरल नियुक्त हुए। उन्ही दिनों ऑक्सफ़ोर्ड के विद्वान नाथनियल हाल्हेड की प्रेमिका उन्हें छोड़ गयी, तो वह देवदास बन कर इंग्लैंड से कलकत्ता आ गए। हेस्टिंग्स ने उन्हें बुलाया और कहा,

“हमें इन हिन्दुओं और मुसलमानों का एक क़ानून तैयार करना होगा। मैंने कुछ पंडित और मौलवी बिठाए हैं। उनके पास पहले से कुछ कानून हैं, तुम उसे अंग्रेज़ी में अनुवाद कर दो। जब तक हम इन्हें समझेंगे नहीं, उन पर राज करना मुश्किल होगा।”

वारेन हेस्टिंग्स पर बाद में लंदन में अभियोग हुआ कि उन्होंने भारत में निर्दयता की और लूट मचायी। लेकिन, जाने-अनजाने यह ‘लुटेरा’ ही आधुनिक बंगाल रिनैशां का सूत्रधार था। उनका यह हिन्दू कानून (gentoo law अथवा विवादार्णवसेतु) समाज के विभाजन का भी।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen जहाँ 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/blog-post_72.html
#vss

Sunday, July 18, 2021

हम और सोशल ई नेटवर्क


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दुनिया  एक बाजार है। क्या आपको महसूस नहीं होता कि आपका वक्त कैसे यह  आज के इस साइंस का एंड्रॉयड फोन खा रहा है अब हम इसी के सहारे सोचना समझना और बात करना शुरू कर दे रहे हैं। अपना मुल्य भी लगा रहे हैं जैसे एक बात पहले हमने कहि थी कि हम सब एक प्रॉडक्ट बनते जा रहे हैं। हम इंस्टाग्राम/फेसबुक पर अपनी ही तस्वीर डाल कर अपना  लाइक से मोल लगाते हैं कि हमारी कीमत क्या है ? कितने लोग हमें चाहते हैं। भाव बढ़ता है, हम खुश होते हैं। 
    कम्पनियों आज यही कर रही हैं हमें और आप को भी यही करना होगा।यह तब होगा जब आप के पास डाटा होगा लड़ाई अब डेटा की हैं।2022 के चुनाव में भी यही खेल चलेगा।जिसमें Bjp आगे है यह खेल है RAM (रिसर्च, अनालिसिस ऐन्ड मेसेजिंग) का। हमारे देश की जनता इमोशनल है। नेता एक मॉडल हैं, जो मास को रिप्रेजेंट करते हैं। लेकिन वे असल में स्वयं मास हैं नहीं। उन्हें बस एक प्रतीक बनना होता है। गांधी के धोती में घूमने की वजह यह नहीं थी कि उनके पास कपड़े नहीं थे, बल्कि यह थी कि जब वे विशाल भारतीय सर्वहारा से मिलने जाएँ तो इस लाठी लिये अधनंगे व्यक्ति की उभरी हड्डियों में अपनी भी हड्डी दिखाई दे। वर्तमान प्रधानमंत्री जी में भी यह बात दिखती है कि जिस देश-क्षेत्र गए, वहाँ की वेश-भूषा का एक अंश अपना लिया आज कल वहां की बोली बोलते हैं। उनसे लोग जुड़ाव महसूस करने लगते हैं। खुश होते है। अरविंद केजरीवाल भी इसी कड़ी के हैं आईटी होल्डर और इनकम टैक्स ऑफिसर -ए ग्रेड की सर्विस वाला भी अपना पोशाक हाफ शर्ट पैंट और सैंडल में गले में मफलर डालें एक आम आदमी की तरह दिखता था यह प्रतीक बने थे और दिल्ली में आम आदमी की सरकार बनी थी यह प्रतीकों की लड़ाई है सब अपने अपने  अपनी प्रतीकों  के सहारे नाच रहे हैं और प्रतीकों के सहारे ही बात हो रही है।
  यही भारत के लोकतंत्र की ‘गेम थ्योरी’ भी है और AI भी।अब चुनाव में ‘गेम थ्योरी’ और ‘आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस’ का प्रयोग बढ़ेगा।इसको भुनाने में  आज अरविंद केजरीवाल आगे है, तो bjp के पास तंत्र है।pk babu प्रशान्त किशोर इस खेल की कम्पनी साथ लिये है।आप इसी RAM (रिसर्च, अनालिसिस ऐन्ड मेसेजिंग के सहारे कंटोल होंगे देखते रहिये...

कल का खतरा..
   यदि यदि हम सोशल नेटवर्किंग से नहीं जुड़ते हैं तो क्या हो सकता है एक अनुमान सा है आहट सा जो मुझे लगता है की  गर्भ के समय से ही हम नेटवर्क से जुड़े होंगे, और आजकल तो यह फैशन सा हो गया है गर्भ की नाल कटी नहीं कि हम फेसबुक पर आ ही जाते हैं ।और अगर बाद के अपने जीवन में आप उससे कटना चाहेंगे, तो मुमकिन है कि बीमा ऐजेंसियाँ आपका बीमा करने से इंकार कर दें, नियोक्ता आपको नौकरी पर रखने से इंकार कर दें, और स्वास्थ्य सेवाएँ आपकी देखभाल करने से इंकार कर दें।
क्योंकि डाटा में आपका नाम नहीं होगा और आपका नाम नहीं होगा तो आपको बहुत सारी सेवाओं से वंचित होना पड़ेगा आप जनता तो होंगे लेकिन नेटवर्किंग में आप होंगे नहीं जब आप होंगे नहीं तो आपको कोई नहीं था नहीं तो इस तरह भी हो सकता है कि डाटा कितना इंपॉर्टेंट होता जा रहा है। स्वास्थ्य और गोपनीयता के बीच की बड़ी लड़ाई में स्वास्थ्य की निर्णायक जीत होने की सम्भावना है।

Monday, July 12, 2021

प्रस्थिति एवं भूमिका

प्रस्थिति एवं भूमिका 
| Status and Role


 { अर्थ एवं परिभाषा  विशेषताएँ  अवधारणाएँ}

प्रस्थिति एवं भूमिका (Status and Role)


प्रस्थिति एवं भूमिका का विवेचन सर्वप्रथम रॉल्फ लिण्टन (Ralph Linton) ने अपनी पुस्तक दी स्टडी ऑफ मैन (1936) (The Study of Man) में किया| उनके अनुसार समाज का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसे कोई प्रस्थिति न प्राप्त हो| समाजशास्त्रीय तथ्य इतना ही है कि उसकी प्रस्थिति निम्न या उच्च, प्रदत्त या अर्जित हो सकती है|
व्यक्ति जब अपनी क्रियाओं का संपादन समाज या समूह के प्रतिमानों के अनुरूप करता है तो इन क्रियाओं को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो जाती है| सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होते ही व्यक्ति की क्रियाएं भूमिका में बदल जाती है|
व्यक्ति की अनेक भूमिकाएं होती हैं| ये आपस में मिलकर एकीकृत होकर एक समुच्य का निर्माण करती हैं, जिसे प्रस्थिति कहते हैं, जैसे – शिक्षक एक प्रस्थिति है एवं इससे जुड़ी कुछ भूमिकाएं, जैसे बच्चों को पढ़ाना, विषय विभाग संबंधी भूमिकाएं, शिक्षक होने के नाते कॉलेज से जुड़ी भूमिकाएं आदि| शिक्षक की प्रस्थिति से जुड़ी इन भूमिकाओं को मर्टन (Merton) भूमिका पुंज (Role-set) कहते हैं|
रॉल्फ लिण्टन (Ralph Linton) के अनुसार सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी व्यक्ति को एक समय विशेष में जो स्थान प्राप्त होता है, उसी को उस व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति कहते हैं|
लैपियर (Lapiere) ने अपनी पुस्तक ए थिअरी ऑफ सोशल कंट्रोल (A Theory of Social Control) में लिखते हैं सामाजिक प्रस्थिति सामान्यतः उस पद के रूप में समझी जाती है जो एक व्यक्ति समाज में प्राप्त किए होता है|
रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) अपनी पुस्तक सोशल आर्डर (Social Order) में लिखते हैं कि सामान्यतः एक प्रस्थिति समाज अथवा समूह में एक पद है|
एच. टी. मजुमदार (H. T. Majumdar) के अनुसार प्रस्थिति का अर्थ समूह में व्यक्ति की स्थिति, पारस्परिक दायित्वों एवं विशेषाधिकारों, कर्तव्यों तथा अधिकारों के सामाजिक ताने-बाने में उसके पद से है|
रॉल्फ लिंटन ने प्रस्थिति को दो प्रकारों में विभाजित किया – प्रदत्त प्रस्थिति एवं अर्जित प्रस्थिति |
प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status) – यह प्रस्थिति व्यक्ति को जन्म लेते ही प्राप्त हो जाती है| इस प्रस्थित के लिए कर्ता को कोई व्यक्तिगत प्रयास नहीं करना पड़ता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अतीत में प्रयास नहीं किया गया है, जैसे – राजा का बेटा राजकुमार| किसी भी समाज में प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण के निम्न आधार हो सकते हैं :
(1) लिंग-भेद (Sex Dichotomy)
(2) आयु-भेद (Age differentiation)
(3) नातेदारी (Kinship)
(4) जन्म (Birth)
(5) शारीरिक विशेषताएँ या योग्यताएँ (Physical ability)
(7) जाति एवं प्रजाति (Caste and Race)
अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status) – अर्जित प्रस्थिति के लिए व्यक्ति को अनिवार्यतः प्रस्थिति के अनुरूप कम या अधिक भूमिका का निष्पादन करना पड़ता है तथा ऐसी प्रस्थिति प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने पड़ते हैं| समाज में अर्जित प्रस्थिति के निर्धारण के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं :
(1) संपत्ति (Property)
(2) व्यवसाय (Occupation)
(3) शिक्षा Education)
(4) राजनीतिक सत्ता (Political Authority)
(5) विवाह (Marriage)
(6) उपलब्धियाँ (Achievement)
प्रस्थिति की विशेषताएँ (Characteristics of Status)
(1) प्रस्थिति के उद्भव का मुख्य स्रोत भूमिका होती है|
(2) प्रस्थिति से अधिकार एवं कर्तव्य का बोध होता है, जैसे – पिता या पुत्र की प्रस्थिति|
(3) प्रत्येक व्यक्ति समाज में कोई न कोई प्रस्थिति अवश्य धारण करता है|
(4) प्रस्थिति के अनुरूप व्यक्ति को भूमिका का निर्वहन करना पड़ता है|
(5) प्रस्थिति प्रदत्त या अर्जित दोनों में से कोई एक या दोनों हो सकती है|
(6) प्रस्थिति के आधार पर समाज कई समूहों में बँटा होता है|
(7) एक व्यक्ति की एक समय में एक से अधिक प्रस्थितियाँ हो सकती हैं|
(8) प्रस्थितियाँ समाज की आवश्यकता का परिणाम होती हैं|
(9) प्रस्थिति के साथ प्रतिष्ठा जुड़ी होती है|
प्रस्थिति से जुड़ी कुछ अवधारणाएँ
प्रस्थिति पुंज (Status-set) – यह मर्टन (Merton) की अवधारणा है| समाज में एक व्यक्ति की एक समय में अनेक प्रस्थितियाँ हो सकती है| इन संपूर्ण प्रस्थितियों के योग को प्रस्थिति पुंज कहते हैं, जैसे एक व्यक्ति पिता, शिक्षक, पति आदि प्रस्थितियों को एक साथ धारण करता है| इसे प्रस्थिति पुंज कहते हैं| मर्टन इसे दो भागों में विभाजित करते हैं –
(1) प्रदत्त प्रस्थिति-पुंज (Ascribed Status-Set) – इसका तात्पर्य एक समय विशेष में एक व्यक्ति की प्रदत्त प्रस्थितियों के योग से है|
(2) अर्जित प्रस्थिति-पुंज (Achieved Status-Set) – अर्जित प्रस्थिति-पुंज का तात्पर्य एक समय विशेष में एक व्यक्ति की समस्त अर्जित प्रस्थितियों के योग से है|
प्रस्थिति- क्रम (Status Sequence) – यह मर्टन (Merton) की अवधारणा है| उनके अनुसार व्यक्ति धारण किए जाने योग्य सभी प्रस्थितियों को कालक्रम में धारण करता है| नवीन प्रस्थित के प्राप्त होते ही पुरानी प्रस्थित को त्याग देता है| इसे मर्टन ने प्रस्थिति क्रम कहा है, जैसे – एक व्यक्ति क्लर्क से सुपरवाइजर, सुपरवाइजर से मैनेजर, मैनेजर से डायरेक्टर बनता है तो यह एक के बाद एक प्रस्थिति ही प्रस्थिति-क्रम है|
प्रस्थिति संघर्ष (Status Conflict) – प्रस्थिति संघर्ष की अवधारणा स्तरीकरण से जुड़ जाती है| जब दो व्यक्तियों में विरोध का कारण व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो ऐसी स्थिति को प्रस्थिति संघर्ष कहते हैं, जैसे – जातीय संघर्ष, धार्मिक संघर्ष आदि|
प्रस्थिति तनाव (Status Strain) – यह पारसंस की अवधारणा है जब एक समय में एक व्यक्ति की दो भिन्न स्थितियाँ (Situation) हो या एक ही स्थिति में दो भिन्न तरह की आवश्यकताएं हो तब इसे प्रस्थिति तनाव कहते हैं, जैसे – जज के रूप में एक पिता को अपने पुत्र के खिलाफ कोई फैसला सुनाना हो या दो पुत्रों के विवाद में पिता की प्रस्थिति|
मुख्य प्रस्थिति (Key Status) – यह ई.टी.हिलर (E. T. Hiller) की अवधारणा है| एक व्यक्ति द्वारा धारित की गयी सभी प्रस्थितियाँ सामाजिक दृष्टि से समान महत्त्व की नहीं होती हैं, बल्कि किसी एक ही प्रस्थिति द्वारा उस व्यक्ति की पहचान होती है| इसे ही हिलर ने मुख्य प्रस्थिति कहा है, एवं अन्य प्रस्थितियों को सामान्य प्रस्थिति कहा है – जैसे – आधुनिक समाज में पेशागत प्रस्थिति मुख्य प्रस्थिति हो गयी है|
प्रस्थिति समूह (Status group) – मैक्स वेबर (Max Weber) ने इसका प्रयोग एक समान प्रस्थिति धारण करने वाले समूह के लिए किया, जिसकी जीवन शैली समान होती है, जैसे- जाति|
प्रस्थितियों का संगठन (Organisation of Statuses) – किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने अपनी पुस्तक ह्यूमन सोसाइटी (Human Society) में प्रस्थिति के संगठन की चर्चा करते हैं| इसके अंतर्गत उन्होंने प्रस्थिति, ऑफिस, स्टेशन एवं स्ट्रेटम में अंतर करते हैं|
प्रस्थिति एवं ऑफिस (Status and Office) – प्रस्थिति एक व्यक्ति का वह पद है जो समाज में स्वाभाविक रुप से जनरीतियों एवं लोकाचारों द्वारा स्वीकृत होता है, जबकि ऑफिस व्यक्ति का वह पद है जो एक संगठन में निश्चित नियमों के द्वारा व्यक्ति को प्राप्त होता है| यह मुख्यतः अर्जित होता है, जैसे किसी कॉलेज का प्रोफेसर|
स्टेशन (Station) – एक व्यक्ति की अनेक प्रस्थितियाँ एवं ऑफिस हो सकते हैं इन सबके योग को डेविस ने स्टेशन से संबोधित किया है|
स्ट्रेटम (Stratum) – स्ट्रेटम शब्द का प्रयोग डेविस ने उन व्यक्तियों के समूह के लिए किया जाता है जो एक ही स्टेशन को धारण करते हैं (A mass of person in a given society who enjoy roughly the same station)|
सम्मान एवं प्रतिष्ठा में अंतर (Difference between Esteem and Prestige)
डेविस सम्मान एवं प्रतिष्ठा में अंतर करते हैं, उनके अनुसार प्रतिष्ठा का संबंध औपचारिक प्रस्थिति अर्थात ऑफिस से होता है जबकि सम्मान का संबंध ऑफिस को धारण करने वाले व्यक्ति के कर्तव्य पालन से होता है| उदाहरण के लिए एक बेईमान अधिकारी की प्रतिष्ठा इमानदार क्लर्क से भले ही अधिक होती है लेकिन सम्मान क्लर्क का अधिकारी से अधिक होता है|
भूमिका (Role) – एक व्यक्ति समाज में जो भी पद या स्थिति प्राप्त करता है उसे प्रस्थिति कहते हैं| इस प्रस्थिति से जुड़े कुछ कार्य होते हैं, जो समाज द्वारा मान्य होते हैं| इसे ही भूमिका कहते हैं| भूमिका प्रस्थिति का गतिशील पहलू है| प्रत्येक प्रस्थिति की उससे संबंधित निश्चित भूमिकाएं होती हैं|
लिंटन (Linton) के अनुसार भूमिका शब्द का प्रयोग किसी विशेष संस्कृति से संबंधित सांस्कृतिक प्रतिमान के लिए किया जाता है (The term role is used to designate the sum total of the cultural pattern associated with a particular status.)
डेविस (Davis) के अनुसार भूमिका वह ढंग है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी स्थिति संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है|

भूमिका की विशेषताएँ (Characteristics of Role)
(1) भूमिका का संबंध उन क्रिया-कलापों से है, जो किसी प्रस्थिति के अंतर्गत अपेक्षा की जाती है|
(2) भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है|
(3) भूमिकाआें के आधार पर प्रस्थितियों का निर्माण होता है|
(4) समय एवं स्थान के सापेक्ष भूमिकाएँ बदलती रहती है|
(5) भूमिकाओं को सामाजिक अनुमोदन प्राप्त होता है|
(6) भूमिका सामाजिक-सांस्कृतिक मानदण्डों पर आधारित होती हैं|
भूमिका से संबंधित महत्वपूर्ण अवधारणाएँ
रॉल्फ लिण्टन (Ralph Linton) भूमिका को दो भागों में विभाजित करते हैं –
(1) प्रदत्त भूमिका (Ascribed Role) – प्रदत्त प्रस्थिति से जुड़ी भूमिकाओं को प्रदत्त भूमिका कहते हैं|
(2) अर्जित भूमिका (Achieved Role) – अर्जित प्रस्थिति से संबंधित भूमिका को अर्जित भूमिका कहते हैं|
एस. एफ. नडेल (S. F. Nadel) ने भूमिका को दो भागों में वर्गीकृत किया –
(1) संबंधात्मक भूमिका (Relational Role) – संबंधात्मक भूमिका किसी दूसरे भूमिका से जुड़ी होती है, जैसे – छात्र की भूमिका न हो तो शिक्षक की भूमिका अर्थहीन होगी|
(2) गैर-संबंधात्मक भूमिका (Non-relational) – कुछ भूमिकाएँ ऐसी होती हैं जो स्वतंत्र होती हैं, जैसे-चित्रकार की भूमिका|
भूमिका पुंज, भूमिका तनाव एवं भूमिका संघर्ष (Role-set, Role-strain and Role-conflict) – एक प्रस्थिति से जुड़ी विभिन्न भूमिकाओं को भूमिका पुंज (Role-set) कहते हैं| जब एक ही प्रस्थिति के अन्दर एक भूमिका के निष्पादन में दूसरी भूमिका का निष्पादन कम या अधिक बाधित होता है या प्रभावित होता है, तो इस अन्तर्विरोध को डब्लू. जे. गुडे (W. J. Goode) भूमिका तनाव (Role-strain) कहते हैं| इसी तरह एक व्यक्ति की अनेक प्रस्थितियाँ होती हैं, इन प्रस्थितियों की भूमिका के निष्पादन में जो अन्तर्विरोध होता है, उसे भूमिका संघर्ष (Role-conflict) कहते हैं|
भूमिका दूरी (Role-distance) – यह इरविंग गॉफमैन (Irving Goffman) की अवधारणा है| यह आधुनिक समाज की विशेषता है | जब किसी पद से जुड़े कार्य की माँग बहुत अधिक होती है तो इस व्यस्तता के कारण धीरे-धीरे व्यक्ति को अपने कार्य के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है जिसके कारण वह अपनी भूमिका का निष्पादन नहीं कर पाता है| इसे ही भूमिका दूरी कहते हैं|
भूमिका निर्माण (Role making) – यह रॉल्फ टर्नर (Ralph Turner) की अवधारणा है| इसके अनुसार भूमिका हमेशा अंतःक्रिया की प्रक्रिया में परिवर्तित होती रहती है इसलिए भूमिका हमेशा बनने की प्रक्रिया में शामिल रहती है|
भूमिका ग्रहण (Role taking) – यह जी. एच. मीड (G. H. Mead) की अवधारणा है जो सक्रिय भूमिका ग्रहण (Reflexive role taking) को ही व्यक्त करता है| इसका प्रयोग उन्होंने समाजीकरण की व्याख्या के लिए किया था| नई भूमिका प्राप्त होने पर उसके अनुरूप आचरण करना भूमिका ग्रहण है, जैसे सेना की नौकरी मिलने पर सैनिक की भूमिका अदा करना|
रुग्ण भूमिका (Sick Role) – यह पारसंस की अवधारणा है| जब व्यक्ति बीमार होता है तो कुछ कार्यों से विमुक्त होना पड़ता है साथ ही कुछ प्रिकॉशन को अपनाना पड़ता है| इसे ही पारसंस रुग्ण भूमिका कहते हैं|
बहुल भूमिका (Multiple Role) – किसी व्यक्ति की सभी प्रस्थितियों से जुड़ी हुई भूमिकाएं जब सीधे व्यक्ति से जुड़ जाती है, तो इससे व्यक्ति की बहुल भूमिका कहते हैं|
भूमिका प्रत्याशा (Role expectation) – किसी भूमिका के संबंध में समाज द्वारा अपेक्षित व्यवहारों के पुंज को भूमिका प्रत्याशा कहते हैं| इसके अंतर्गत स्वयं के संबंध में की गई अपेक्षाएं तथा दूसरों की अपेक्षा दोनों शामिल होती हैं, जैसे टीचर से अच्छी शिक्षा देने की अपेक्षा|

Sunday, July 11, 2021

जनसंख्या

जनसंख्या

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी 121 करोड़ थी तथा अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्तमान में यह 130 करोड़ को भी पार कर चुकी है, साथ ही वर्ष 2030 तक भारत की आबादी चीन से भी ज़्यादा होने का अनुमान है। ऐसे में भारत के समक्ष तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में संसाधनों की वृद्धि सीमित है। इस स्थिति में जनसांख्यिकीय लाभांश जनसांख्यिकीय अभिशाप में बदलता जा रहा है। इसी स्थिति को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इस समस्या को दोहराया है। हालाँकि जनसंख्या वृद्धि ने कई चुनौतियों को जन्म दिया है किंतु इसके नियंत्रण के लिये क़ानूनी तरीका एक उपयुक्त कदम नहीं माना जा सकता। भारत की स्थिति चीन से पृथक है तथा चीन के विपरीत भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ हर किसी को अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार है। भारत में कानून का सहारा लेने के बजाय जागरूकता अभियान, शिक्षा के स्तर को बढ़ाकर तथा गरीबी को समाप्त करने जैसे उपाय करके जनसंख्या नियंत्रण के लिये प्रयास करने चाहिये। परिवार नियोजन से जुड़े परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये तथा ऐसे परिवार जिन्होंने परिवार नियोजन को नहीं अपनाया है उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से परिवार नियोजन हेतु प्रेरित करना चाहिये।



भारत



भारत को इस समस्या के सबसे भीषण रूप का सामना करना है। चीन अभी आबादी में हमसे आगे है तो क्षेत्रफल में भी काफी बड़ा है। फिलहाल भारत की जनसंख्या 1.3 अरब और चीन की 1.4 अरब है।

दोनों देशों के क्षेत्रफल में तो कोई बदलाव नहीं हो सकता पर जनसंख्या के मामले में भारत सात वर्षों बाद चीन को पीछे छोड़ देगा।

इसके बाद भारत की आबादी वर्ष 2030 में करीब 1.5 अरब हो जाएगी और कई दशकों तक बढ़ती रहेगी। वर्ष 2050 में इसके 1.66 अरब तक पहुँचने का अनुमान है, जबकि चीन की आबादी 2030 तक स्थिर रहने के बाद धीमी गति से कम होनी शुरू हो जाएगी।

वर्ष 2050 के बाद भारत की आबादी की रफ्तार स्थिर होने की संभावना है और वर्ष 2100 तक यह 1.5 अरब हो सकती है।

पिछले चार दशकों में 1975-80 के 4.7 प्रतिशत से लगभग आधी कम होकर भारतीयों की प्रजनन दर 2015-20 में 2.3 प्रतिशत रहने का अनुमान है। 2025-30 तक इसके 2.1 प्रतिशत और 2045-50 तक 1.78 प्रतिशत तथा 2095-2100 के बीच 1.78 प्रतिशत रहने की संभावना है।

उत्तराखंड 
प्रवास के कारण
प्रवास मानव इतिहास की एक सार्वभौमिक घटना है। प्राचीन काल से ही मनुष्य में प्रवास की प्रवृत्ति पायी जाती है जो वर्तमान में भी विद्यमान है तथा भविष्य में भी रहेगी। प्रवास के लिये अनेक कारण उत्तरदायी होते हैं। जनांकिकी वेत्ताओं ने प्रवास के कारणों को दो प्रमुख वर्गों में विभक्त किया है प्रथम वे कारक जो व्यक्ति को उस स्थान की ओर आकर्षित करते हैं जिनमें, रोजगार के अवसर, शिक्षा सुविधाएँ स्वास्थ्य एवं मनोरंजन सुविधाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। इन्हें आकर्षक कारक कहा जाता है। दूसरे कारक वह होते हैं, जो व्यक्ति को अपने मूल-निवास स्थान को छोड़ने को बाध्य करते हैं। इनमें, आर्थिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं जनांकिकी कारक सम्मिलित होते हैं। इन्हें प्रत्याकर्षण कारक भी कहा जाता है।

उत्तराखंड हिमालय में प्रवास के कारणों में प्रत्याकर्षण कारण प्रमुख हैं जिनमें आर्थिक कारण सर्वोपरि है। कृषि मुख्य व्यवसाय होने पर भी उसमें जीवन यापन सम्भव नहीं है। औद्योगिक क्षेत्र की पूर्णतः अनुपस्थिति या अत्यधिक पिछड़े होने के कारण जीवनयापन का मुख्य साधन सेवा क्षेत्र रह जाता है, जो यहाँ पर शैशवावस्था में है। फलस्वरूप रोजगार प्राप्ति का एक मात्र साधन प्रवास ही रह जाता है। यही कारण है कि कुल प्रवासित जनसंख्या का 62.0 प्रतिशत प्रवास शहरी क्षेत्र में रोजगार प्राप्ति के लिये हुआ है। जबकि मात्र 6.0 प्रतिशत प्रवास ही शहरी क्षेत्र के प्रति आकर्षण के कारण हुआ है।
प्रवास का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव


(अ) आयु एवं लिंगानुपात पर प्रभाव: आयु एवं लिंगानुपात पर प्रवास के प्रभाव का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उसका सर्वाधिक प्रभाव 25 से 60 वर्ष के आयु वर्ग पर पड़ा है। फलस्वरूप इस आयु वर्ग में लिंगानुपात अत्यधिक विषम हो गया है। सर्वेक्षित विकासखंडों में प्रवास से पूर्व प्रति हजार स्त्री पुरुषों के पीछे 1091 स्त्रियाँ थीं, लेकिन प्रवास के परिणामस्वरूप लिंगानुपात 1633 हो गया है। स्वाभाविक रूप से इसका विभिन्न आयु वर्ग में लिंगानुपात पर गंभीर प्रभाव पड़ा है 0-15 आयु वर्ग में प्रति हजार पुरुषों पर 1023 स्त्रियाँ हैं, जबकि 15 से 25 तथा 25 से 60 वर्ष के आयु वर्ग में लिंगानुपात क्रमशः 2321, 3584 प्रति हजार पाया गया है।

(ब) रोजगार पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय में रोजगार का प्रमुख साधन कृषि है किन्तु कृषि की न्यून उत्पादकता एवं औद्योगिक क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण पर्वतीय क्षेत्र में सेवाक्षेत्र, आय एवं रोजगार सृजन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। परन्तु क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण सेवा क्षेत्र का भी पर्याप्त विस्तार नहीं हुआ है। इसलिए बढ़ती बेरोजगारी को इस क्षेत्र में भी पूर्ण रूप से नहीं खपाया जा सकता है। फलस्वरूप रोजगार की तलाश में अधिकांश शिक्षित युवक प्रवास कर जाते हैं। यही कारण है कि सेवा क्षेत्र में कार्यरत व्यक्तियों में प्रवासित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। सर्वेक्षण के अनुसार सेवा क्षेत्र में संलग्न 560 व्यक्तियों में से 451 व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें प्रवासित होने पर ही रोजगार प्राप्त हुआ है। जो सेवा क्षेत्र में कार्यरत जनसंख्या का 80.53 प्रतिशत है।

(स) पारिवारिक आय पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय की पारिवारिक आय में प्रवासित व्यक्तियों द्वारा भेजे गए धनादेश महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। पारिवारिक आय पर प्रवास का प्रभाव ज्ञात करने के लिये आवश्यक है कि कृषि व्यवसाय में संलग्न परिवारों की वार्षिक आय का अध्ययन किया जाए, क्योंकि कृषि ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। सर्वेक्षण से प्रति परिवार कृषि व्यवसाय से औसत वार्षिक आय 6313 रुपये प्राप्त हुई है। यदि इसमें धनादेश से प्राप्त आय को सम्मिलित कर लिया जाए, तो प्रति परिवार औसत वार्षिक आय 13719 रुपये हो जाती है।

(द) उत्पादन पर प्रभाव: उत्तराखंड हिमालय की कृषि अर्थव्यवस्था में प्रवास का उत्पादन पर दो प्रकार से प्रभाव परिलक्षित होता है।

1. श्रमशक्ति में कमी के रूप में ऋणात्मक प्रभाव।
2. प्रवासियों द्वारा भेजी गई आय का धनात्मक प्रभाव।

निदान हेतु सुझाव: प्रवास के उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि प्रवासिता सम्पूर्ण उत्तराखंड हिमालय की सामान्य घटना है। न्यून उत्पादक एवं अलाभदायक कृषि व्यवसाय में काम करने की अनिच्छा, औद्योगिक क्षेत्र के अत्यधिक पिछड़े होने, सेवा क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की सीमितता ग्रामीण क्षेत्र में सामान्य अवस्थापन्न सुविधाओं की कमी तथा कष्टकर जीवन के कारण शिक्षित ग्रामीण श्रमशक्ति बड़े शहरों की ओर निरन्तर प्रवासित होती रही हैं, जिसके निदान के लिये आवश्यक है कि बेरोजगार व्यक्तियों को क्षेत्र में ही रोजगार उपलब्ध कराया जाए। क्षेत्रीय रोजगार में वृद्धि के लिये कृषि, उद्योग एवं अवस्थापन्न सेवाओं, शिक्षा, परिवहन, संचार आदि का विकास किया जाए, साथ ही उत्तराखण्ड में सृजित रोजगार के अवसरों में, क्षेत्र के ही बेरोजगारों को प्राथमिकता दी जाए, तब ही प्रवास की समस्या का समाधान हो पाएगा। कृषि विकास के लिये कृषि स्वरूप में परिवर्तन किया जाए, कृषि स्वरूप में परिवर्तन मुख्यतः परिवहन एवं सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि पर निर्भर करेगा। इसके साथ ही संग्रहण भंडारण तथा विपणन सुविधाओं का विकास भी करना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि इस आधार पर कृषि क्षेत्र के स्वरूप में वांछित परिवर्तन करने पर कृषि में ही व्यापार एवं वाणिज्य का विकास सम्भव हो पायेगा। औद्योगिक विकास के लिये क्षेत्रीय कच्चे पदार्थों की उपलब्धतानुसार लघु उद्योग विकसित किये जाएं। कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र का क्षेत्रीय संसाधनों एवं आवश्यकतानुसार विकास करने पर सेवा क्षेत्र का विकास हो सकेगा। औद्योगिक विकास के लिये क्षेत्रीय कच्चे एवं औद्योगिक क्षेत्र का क्षेत्रीय संसाधनों एवं आवश्यकतानुसार विकास करने पर सेवा क्षेत्र का विकास हो सकेगा और भविष्य में पर्वतीय क्षेत्र से होने वाला वाह्य प्रवास नियमित हो सकेगा।



महिला सशक्तीकरण में शिक्षा की भूमिका



नारी वह ज्योति स्तम्भ है जो जीवन रूपी पथ को प्रकाशित करती है। नारी जाति को ऊँचा उठाये बिना परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र एवं विश्व को ऊँचा उठाना असंभव है। जिस देश में विदुषी, चरित्रवान एवं सद्गुण सम्पन्न नारियाँ हैं, वह देश निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर होता रहेगा। हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ सुख-शान्ति एवं धन-वैभव अपने आप ही आ जाता है। जिस समाज में नारी को महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार किया जाता है या नारी स्वयं अपने आदर्शों को भूल जाती है तो वह समाज बिखर जाता है। समाज एवं राष्ट्र के चारित्रिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार नारी ही है। हमें नेपोलियन के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि तुम मुझ शिक्षित नारियाँ दो तो मैं तुम्हें अच्छा राष्ट्र दूँगा। कहने का आशय यह है कि यदि नारियाँ शिक्षित होकर अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक एवं सशक्त होंगी तो उनके साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र भी सशक्त होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि एक शिक्षित महिला अपने पूरे परिवार को शिक्षित बनाती है। यह भी कहा जाता है कि पुरूष की सफलता के पीछे सशक्त नारी का हाथ होता है। जिसका साक्ष्य हमारा इतिहास है। 

हम सभी जानते हैं कि महाकवि तुलसीदास एवं कालिदास ने अपनी पत्नियों से प्रेरणा पाकर क्रमशः ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य एवं ‘शाकुन्तलम्’ तथा ‘मेघदूत’ जैसी महान् रचनायें लिख डाली।
यह निर्विवाद सत्य है कि महिला सशक्तीकरण का एकमेव उपाय शिक्षा है। क्योंकि शिक्षा व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की बुनियादी आवश्यकता है।1 शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं संवेदनशील बनाती है जिससे राष्ट्रीय एकता का विकास होता है। हमारा देश लोकतंात्रिक देश और शिक्षा लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी है, जिसके अभाव में लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। इस दृष्टि से भी स्त्री शिक्षा का हमारे देश में बहुत महत्व है।

 शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र चिंतन एवं सोच-समझ की क्षमता उत्पन्न करती है। जिसके द्वारा हम अपने लोकतंत्रीय लक्ष्यों, समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को प्राप्त कर सकते हैं और वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संविधान में संशोधन कर शिक्षा को अब मौलिक अधिकार बना दिया है। अब आवश्यकता केवल इसके क्रियान्वयन की है, किस प्रकार हम ऐसी व्यवस्था करें, संसाधन जुटायें या अन्य उपाय करें जिससे सभी इस मौलिक अधिकार के भागीदार बन सकें। सरकार इस ओर काफी सजग दिख रही है, क्योंकि केन्द्र में भारतीय जनता पाटी गठबन्ध सरकार में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास (एच. आर. डी.) मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 22 से 24 अक्टूबर 1998 के बीच राज्यों के शिक्षामंत्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें प्राथमिक स्तर की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का संकल्प दोहराया गया और बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया। इस सरकार ने महिलाओं के लिये स्नातक स्तर की शिक्षा निःशुल्क करने की घोषणा भी की थी।
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु सुझाव देने के लिये सर्वप्रथम 1958 में देशमुख समिति का गठन किया गया जिसने स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना कोई सुझाव तो नहीं दिया परन्तु उसके विस्तार के लिये अनेक उपाय बताये। इसके बाद स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में पुनः विस्तार से सुझाव देने हेतु 1962 में हंसा मेहता समिति का गठन किया गयां इस समिति का मुख्य सुझाव था कि स्त्री पुरूषों की शिक्षा समान होनी चाहिए अर्थात उनमें लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं करना चाहिए। इसके बाद कोठारी आयोग (1964-66) ने स्त्री पुरूषों के लिये भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का सुझाव दिया, परन्तु साथ ही उसने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिये आधारभूत पाठ्यचर्या (कोर करिकुलम) प्रस्तावित की। इसका प्रभाव यह हुआ कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों में स्त्री शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूप में संगठित किया गया।2 इन सब विषमताओं को दूर करने के लिये 1986 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस शिक्षा नीति में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश हे कि भारत में स्त्री-पुरूषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जायेगा, अर्थात् स्त्रियों को पुरूर्षों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा। इतना ही नहीं अपिुत इस शिक्षा नीति में यह भी घोषणा की गई है कि स्त्रियों को विज्ञान, तकनीकी और मैनेजमेंट की शिक्षा के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। वर्तमान में ऐसी अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में स्त्रियों के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी की गई है।
‘परन्तु हमारे देश में स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में आज भी दो विचारधारायें हैं- एक रूढ़िवादी और दूसरी प्रगतिशील।3 रूढ़िवादी विचारधारा के व्यक्ति भारत की परम्परावादी कार्य विभाजन व्यवस्था को उत्तम मानते हैं। उनका तर्क है कि स्त्री पुरूष की इस कार्य विभाजन व्यवस्था में परिवार के सब कार्य सुचारू रूप से सम्पादित होते हैं अर्थात् शिशुओं की उचित देखभाल होती है, अतिथि सत्कार अच्छे ढंग से होता है और परिवारों में सुख-शान्ति रहती है। इस वर्ग के लोग स्त्रियों के लिये पुरूर्षों से भिन्न पाठ्यक्रम की वकालत करते हैं और इन्हें केवल भाषा, साहित्य, धर्म, सामाजिक विषय, गृहविज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, गृहशिल्प और कला तथा संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की बात करते हैं।
इसके विपरीत प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करते । ये स्त्री-पुरूष के परम्परागत कार्य विभाजन को पुरूष प्रधान व्यवस्था मानते हैं और स्त्रियों का शोषण मानते हैं। इनका तर्क है कि स्त्रियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने का अर्थ है देश की लगभग आधी मानव शक्ति का प्रयोग न करना। उनका तर्क है कि पाश्चात्य देशों में स्त्री पुरूर्षों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसीका परिणाम है ‘कि इन देशों ने आर्थिक विकास किया है तथा इन देशों के लोग उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। इस वर्ग के लोग स्त्री-पुरूष दोनों के लिये किसी भी स्तर पर समान पाठ्यक्रम की वकालत करते है।4
‘यदि ध्यानपूर्वक देखा-समझा जाये तो दोनों वर्गों के लोग अपनी जगह सही है। पहले वर्ग की यह बात सही है कि अपने देश की परम्परागत जीवन शैली में दाम्पत्य जीवन का जो आनन्द है, परिवार में जो सुख-शान्ति है, वह पाश्चात्य देशों की आधुनिक जीवन शैली में नहीं’5 दूसरी ओर दूसरे वर्ग के लोगों की यह बात भी सही है कि स्त्री-पुरूषों के संयुक्त प्रयास से जो आर्थिक विकास पाश्चात्य देशों ने किया है वह हम नहीं कर पाये हैं।
तब इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, यह इन दोनों को शिक्षा के समान अवसर देने का पक्षधर है। फिर मानवाधिकार का भी यही कहना है कि ‘यदि हम अपने देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की मूलभावना के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करें तो निश्चित रूप से उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में समन्वय सम्भव है।6 इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा देश के सभी बच्चों के लिये समान करने की घोषणा की गई है और इसके लिये आधारभूत पाठ्यचर्या भी तैयार की गयी है। इससे देश के सभी लड़के-लड़कियों को अपने विकास के समान अवसर मिलेंगे। 10$2 स्तर पर अधिकतर छात्र-छात्राओं को कला- कौशल, कुटीर उद्योग धन्धों और अन्य व्यवसायों की शिक्षा की ओर मोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहला लाभ यह होगा कि सभी छात्र-छात्रायें अपनी रूचि, रूझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे और दूसरा लाभ यह होगा कि शिक्षित बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी। उच्च शिक्षा में केवल मेधावी छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने का प्रस्ताव है। इससे देश की प्रतिभाओं का विकास होगा जो देश के हर क्षेत्र में नेतृत्व करेंगे तथा देश के आर्थिक विकास को गति प्रदान करेंगे। लिंग के आधार पर प्रतिभाओं को विशिष्ट शिक्षा के अधिकार से वंचित करने का अर्थ होगा, देश विकास में उनके सहयोग से वंचित होना। बस आवश्यकता है किसी भी प्रकार की शिक्षा के बाद मूल्यों की शिक्षा देने की।
आजादी के बाद से शिक्षा के विकास, प्रचार पर अरबों रूपये व्यय किये गए। अपार धनराशि, शिक्षकोें और शिक्षणेत्तर कर्मियों की भारी संख्या पूरे देश में शैक्षिक प्रबंधतंत्र का फैला नेटवर्क एंव योजनाओं का यद्यपि कुछ असर तो दिखायी दिया है। लेकिन अभी तक असली मकसद को पूरा नहीं हो पाया है। इस आधी अधूरी सफलता को पूरी सफलता में परिवर्तित करने हेतु पूरी सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासकीय प्रतिबद्धता के साथ निरन्तर अथक प्रयास करने होंगे तभी महिला शिक्षा तथा सशक्तीकरण को मूर्त रूप दिया जा सकता है। हमारे देश की आधी आबादी (महिला) निरक्षर हैं। कुछ ही महिलायें आज ऊँचे ओहदे पर विराजमान हैं। जो महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। ये महिलायें शिक्षित तथा पूर्ण रूप से जागरूक हैं। रोजगार, अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक, सामाजिक सभी दायरों को महिलाओं ने अपनी कामयाब भागीदारी से नये आयाम दिये हैं। 1950 में जहाँ कारपोरेट सेक्टर में पूरी दुनिया में महिलाओं का भागीदारी मुश्किल से 2 प्रतिशत थी आज 23 प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुकी हैं। आज 32 प्रतिशत सुपर बाॅस महिलायें हैं। अन्तरमहाद्वीपीय निगमों में भी महिलाये सहजता से नेतृत्व संभाल रही हैं, महिलाओं की कामयाबी का यह सिलसिला कारपोरेट सेक्टर की ही तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। अभी हाल में ही 9 मार्च 2010 को संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के 14 वर्ष से अटके पड़े विधेयक को कानूनी हकीकत में बदलने की राह खोल दिया तथा महिलाओं का 1/3 प्रतिशत आरक्षण राज्यसभा ने महिला आरक्षण विधेयक को दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया।
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनका कहना था कि शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के उत्थान के लिये मूलभूत आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द जी अपने देश की स्त्रियों की दयनीय दशा के प्रति बहुत सचेत थे। उन्होंने उद्घोष किया था कि नारी सम्मान करो, उन्हें शिक्षित करो और उन्हें आगे बढ़ने का अवसर दो। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक हम नारी को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज को शिक्षित नहीं कर सकते और जब तक समाज को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज अथवा राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। अतः आवश्यकता है कि आज हम स्वामी जी के उद्घोष को साकार करने के लिये नारी को शिक्षित कर सशक्त करे और नारी की सशक्त डोर के सहारे अपने समाज एवं राष्ट्र को भी सशक्त करें।
मनुष्य का जीवन सदा किसी दूसरे जीवन से सम्बन्धित होता है। उसके मानसिक जीवन का प्रदीप किसी दूसरे मानसिक जीवन से प्रकाश पाता है। जीवन की लहलहाती बाड़ी में खरबूजे को देखकर तरबूजा रंग बदलता है, और यों हरेक मनुष्य किसी दूसरे को अध्यापक सिखलाने वाला और बनाने वाला होता है। अध्यापक के अर्थ को इतना व्यापक बना दें तो बात बहुत फैल जायेगी। हम तो यहाँ उन लोगों से बहस करना चाहते हैं, जो जानबूझ कर सिखाने-पढ़ाने का काम अपना लेते हैं, और उसे अच्छी तरह पूरा करते हैं।
‘‘अच्छे अध्यापकों में तो सत्ताधारियों और शासकों की प्रवृत्ति लेशमात्र भी नहीं होती। उनमें जमीन-आसमान का अन्तर है। शासक जब्र करते हैं, यह सब्र करते हैं, वे मजबूर करके एक राह पर चलते हैं, यह आजाद छोड़कर साथ लेता है, एक के साधन है शक्ति और जोर- जबरदस्ती, दूसरे के है मुहब्बत और खिदमत, एक का कहना डर से माना जाता है, दूसरे का शौक से, एक हुक्म देता है, दूसरा सलाह, वह गुलाम बनाता है और यह साथी।’’
इनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसके जीवन की जडे़ स्नेह की अजस्स्र धारा से अभिसिंचित होती है। इसलिए यह वहाँ आशा लगाता है, जहाँ दूसरे जी छोड़ देते हैं, इसे वहाँ भी प्रकाश दिखायी देता है, जहाँ दूसरे अंधेरे की शिकायत करते हैं। यह महापुरूषों का सा महान आदर्श सदा अपनी आँखों के सामने रखता है, मगर नादान और बेबस बच्चे की सेवा को भी अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझता है और ‘‘बच्चे की ओर जब सारी दुनिया निराश हो जाती है, तो बस दो ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनके मन में अन्त तक आशा बनी रहती है एक उसकी माँ और दूसरा अच्छा अध्यापक।’’
‘‘शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए छात्र में संयम तथा तप होना चाहिए, उसमें शिक्षक के लिए श्रद्धा होनी चाहिए, सुनने के लिए उसमें तत्परता होनी चाहिए। शिष्य ऐसा होना चाहिए जो अध्यापक के दोषों को देखता रहे।’’
जिस प्रकार विद्यार्थी से श्रद्धा, विनय, समर्पण आदि की अपेक्षा की गयी है, उसी प्रकार गीता शिक्षक से भी अपेक्षाएँ रखती है। शिक्षक का दायित्व है कि वह अपने शिष्यों में यह आत्मविश्वास उत्पन्न करे कि वे सफलता प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों को चिन्ता मुक्त रखते हुए सफलता का विश्वास दिलायें। अध्यापक के मन में अपने छात्र के प्रति अनन्य प्रेम, उसके हित की कामना के साथ-साथ उसे वहीं उपदेश देना चाहिए जो उसके लिए कल्याणकारी हो एवं कोई भी ज्ञान छिपाकर नहीं रखना चाहिए। छात्र के व्यक्तित्व का समादर करते हुए न तो अपना निर्णय लादना चाहिए और न ही अन्धानुकरण की अपेक्षा करनी चाहिए। अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया ही कुछ इस प्रकार है कि जिसमें शिक्षक एवं शिष्य दोनों की रूचि आवश्यक है। किसी एक की भी अरूचि अध्ययन-अध्यापन को प्रभावित कर देगी। (श्रीमद्भगवत् गीता का शिक्षादर्शन)
भारत एक विकासशील देश है परन्तु यहाँ महिलाओं की स्थिति में सुधार सशक्तीकरण की देन है क्योंकि भारत का इतिहास बताता है कि यहाँ बहुत ही योग्य महिलाओं ने जन्म लिया परन्तु भारतीय पुरूष प्रधान समाज में इनका उपयुक्त योगदान नहीं लिया गया। यदि हम इतिहास के पन्नों को देखें तो हम यह पायेगें कि भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण की शुरूआत ब्रिटिशकाल से ही शुरू हुई है और तभी से भारत में महिलाओं के जीवन में सुधार देखा जा रहा है। आज भारत में महिलाओं की स्थिति सुधरी है। भारतीय महिलायें प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं और पुरूष प्रधान समाज में अपनी एक अलग पहचान बना रही है। भारतीय महिलाओं में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की जो रूचि पैदा हुई है उसको बनाये रखने के लिये भारतीय सरकार ने विभिन्न कानूनों का निर्माण किया है। उसको बनाये रखने के लिये भारतीय सरकार ने विभिन्न कानूनों का निर्माण किया है ताकि भारतीय पुरूष समाज में महिलायें निडर होकर अपना योगदान दे सकें। 
भारतीय समाज में आधे से थोड़ी कम भागीदारी वाली महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की रही है। धर्म, समाज, रीति-रिवाज, मान-मर्यादा के नाम पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं को हेय समझा जाता रहा है। उन्हें एक वस्तु मानकर उनका दैहिक एवं मानसिक शोषण है एवं उत्पीड़न किया जाता रहा है, पुरूषों के लिये वे भोग्या रहीं है निर्णयन प्रक्रिया में उनकी भागीदारी न के बराबर रही। भारत में स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी एवं भारतीय संविधान में उन्हें पुरूषों के साथ बराबर का दर्जा हासिल हुआ। संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन से पंचायती राज संस्थाओं एवं स्थानीय नगर निकायों में एक तिहाई स्थानांे पर आरक्षण का लाभ उठाकर महिलाओं में जागरूकता आई। स्थानीय शासन के इन निकायों में महिलाओं की वास्तविक भागीदारी जिला पंचायतों में 42 प्रतिशत क्षेत्र पंचायतों में 44 प्रतिशत तथा ग्राम पंचायतों में 41 प्रतिशत है। पन्द्रहवीं लोक सभा में 59 महिलायें निर्वाचित हुई जबकि 14वीं लोक सभा महिला सांसदों की संख्या 49 थी। भारत के राष्ट्रपति पद पर श्रीमती प्रतिभा पाटिल, लोक सभा के स्पीकर पद पर श्रीमती मीरा कुमार, कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में श्रीमती सोनिया गाँधी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में सुश्री मायावती व राजस्थान की मुख्यमंत्री रही श्रीमती वसुन्धरा राजे तथा तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रही सुश्री जयललिता की सफलतायें इस बात की परिचायक हैं कि शासन एवं प्रशासन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी हैं जो महिला सशक्तीकरण की दिशा में सकारात्मक कदम है। भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने एवं उन्हें बनाने के लिये विभिन्न उपबन्धों का निर्माण किया गया है। अनुच्छेद 14, 15 व 16 महिलाओं के लिये समता का अधिकार प्रदान करते है। अनुच्छेद 42 कार्य के उचित और मानवीय दशाओं तथा मातृत्व लाभ की, अनुच्छेद 51(ई) प्रत्येक नागरिक पर अधिरोपित करता है कि वह महिलाओं की गरिमा के विपरीत व्यवहार का अभित्याग करें।
संसद ने महिलाआंे के हितों के संरक्षण के लिए अनेकों अधिनियम पारित किये है। हिन्दू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम 1856, हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिकार अधिनियम 1937 तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू दत्तक ग्रहण अधिनियम 1956, कन्या वध अधिनियम 1869, भारतीय तलाक अधिनियम 1870, बाल विवाह अधिनियम 1929 के अतिरिक्त संसद ने विशेष विवाह अवरोध अधिनियम 1954, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, परिवार न्यायालय अधिनियम 1984 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 को महिलाओं की सेवा, सुरक्षा और सवेतन छुट्टी के साथ मातृत्व लाभ देने के लिए पारित किया गया है।
महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु केन्द्र सरकार द्वारा 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गईं आयोग महिलाओं के अधिकारों के हनन के मामलों की जांच भी करता है। 
पंचायत प्रणाली मंे महिलाओं के आरक्षण का सकारात्मक पहलू यह है कि अब वे ऐसे बहुत से काम कर रही है जो उन्होंने पहले कभी नहीं किये। इससे अन्ततः समाज की सोच पर भी असर पड़ेगा। समाज को महसूस होगा कि महिलायें क्या कर सकती हैं। निश्चित रूप से आरक्षण महिलाओं को राजनीति में आने के लिये प्रेरित करता है। कल्पना करें कि लड़कियों की उस पीढ़ी की जो अपनी माताओं को प्रधान या मेयर के रूप में आदेश देते, सभायें करते, भाषण देते, समस्यायें सुलझाते, घर के बाहर जाते या लोगों को मदद मांगने के लिए घर में आते देखकर बड़ी हो रहीं है। जिस समाज में घरों में महिलाओं की आवाज को अनुसना या अस्वीकार किया जाता हो वहाँ ऐसी कल्पना क्रान्तिकारी है। 
पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बढ़ाये जाने का निर्णय निश्चित रूप से स्वागत-योग्य है। संभवतः एक दिन में भी महिलाओं को आरक्षण मिल जायेगा। लेकिन इसके लिए हमें बहुत सी चीजों में बदलाव होने का इंतजार करना पड़ेगा। महिला-प्रतिनिधियों की ज्यादा से ज्यादा सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाए इसके लिए कुछ सुझाव दिये जा सकते हैं- महिलाओं को उनके अधिकार, शक्तियों और कत्र्तव्यों के बारे में प्रशिक्षण देना अनिवार्य है। इन प्रतिनिधियों के लिए ग्रामीण स्तर पर प्रशिक्षण केन्द्र लगा कर उन्हें विकास के विभिन्न पहलुओं से भी परिचित कराया जाना चाहिए। उन्हें उनकी भाषा में ही प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इसमें फिल्मों और कम्प्यूटर का भी सहारा लिया जाना चाहिए। चूँकि प्रतिनिधि पढ़ने-लिखने की सामान्य अवस्था पार कर चुकी हैं। अतः उनके स्तर पर ही शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए स्त्री प्रशिक्षिका आवश्यक है।

नारी वह ज्योति स्तम्भ है जो जीवन रूपी पथ को प्रकाशित करती है। नारी जाति को ऊँचा उठाये बिना परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र एवं विश्व को ऊँचा उठाना असंभव है। जिस देश में विदुषी, चरित्रवान एवं सद्गुण सम्पन्न नारियाँ हैं, वह देश निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर होता रहेगा। हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ सुख-शान्ति एवं धन-वैभव अपने आप ही आ जाता है। जिस समाज में नारी को महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार किया जाता है या नारी स्वयं अपने आदर्शों को भूल जाती है तो वह समाज बिखर जाता है। समाज एवं राष्ट्र के चारित्रिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार नारी ही है। हमें नेपोलियन के इस कथन को ध्यान में रखना चाहिए कि तुम मुझ शिक्षित नारियाँ दो तो मैं तुम्हें अच्छा राष्ट्र दूँगा। कहने का आशय यह है कि यदि नारियाँ शिक्षित होकर अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक एवं सशक्त होंगी तो उनके साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र भी सशक्त होगा, क्योंकि हम जानते हैं कि एक शिक्षित महिला अपने पूरे परिवार को शिक्षित बनाती है। यह भी कहा जाता है कि पुरूष की सफलता के पीछे सशक्त नारी का हाथ होता है। जिसका साक्ष्य हमारा इतिहास है। हम सभी जानते हैं कि महाकवि तुलसीदास एवं कालिदास ने अपनी पत्नियों से प्रेरणा पाकर क्रमशः ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य एवं ‘शाकुन्तलम्’ तथा ‘मेघदूत’ जैसी महान् रचनायें लिख डाली।
यह निर्विवाद सत्य है कि महिला सशक्तीकरण का एकमेव उपाय शिक्षा है। क्योंकि शिक्षा व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की बुनियादी आवश्यकता है।1 शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं संवेदनशील बनाती है जिससे राष्ट्रीय एकता का विकास होता है। हमारा देश लोकतंात्रिक देश और शिक्षा लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी है, जिसके अभाव में लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। इस दृष्टि से भी स्त्री शिक्षा का हमारे देश में बहुत महत्व है। शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र चिंतन एवं सोच-समझ की क्षमता उत्पन्न करती है। जिसके द्वारा हम अपने लोकतंत्रीय लक्ष्यों, समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को प्राप्त कर सकते हैं और वर्तमान एवं भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने संविधान में संशोधन कर शिक्षा को अब मौलिक अधिकार बना दिया है। अब आवश्यकता केवल इसके क्रियान्वयन की है, किस प्रकार हम ऐसी व्यवस्था करें, संसाधन जुटायें या अन्य उपाय करें जिससे सभी इस मौलिक अधिकार के भागीदार बन सकें। सरकार इस ओर काफी सजग दिख रही है, क्योंकि केन्द्र में भारतीय जनता पाटी गठबन्ध सरकार में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास (एच. आर. डी.) मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में 22 से 24 अक्टूबर 1998 के बीच राज्यों के शिक्षामंत्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें प्राथमिक स्तर की शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने का संकल्प दोहराया गया और बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया गया। इस सरकार ने महिलाओं के लिये स्नातक स्तर की शिक्षा निःशुल्क करने की घोषणा भी की थी।
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु सुझाव देने के लिये सर्वप्रथम 1958 में देशमुख समिति का गठन किया गया जिसने स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना कोई सुझाव तो नहीं दिया परन्तु उसके विस्तार के लिये अनेक उपाय बताये। इसके बाद स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में पुनः विस्तार से सुझाव देने हेतु 1962 में हंसा मेहता समिति का गठन किया गयां इस समिति का मुख्य सुझाव था कि स्त्री पुरूषों की शिक्षा समान होनी चाहिए अर्थात उनमें लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं करना चाहिए। इसके बाद कोठारी आयोग (1964-66) ने स्त्री पुरूषों के लिये भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का सुझाव दिया, परन्तु साथ ही उसने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिये आधारभूत पाठ्यचर्या (कोर करिकुलम) प्रस्तावित की। इसका प्रभाव यह हुआ कि भिन्न-भिन्न प्रान्तों में स्त्री शिक्षा को भिन्न-भिन्न रूप में संगठित किया गया।2 इन सब विषमताओं को दूर करने के लिये 1986 में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस शिक्षा नीति में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश हे कि भारत में स्त्री-पुरूषों की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जायेगा, अर्थात् स्त्रियों को पुरूर्षों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा। इतना ही नहीं अपिुत इस शिक्षा नीति में यह भी घोषणा की गई है कि स्त्रियों को विज्ञान, तकनीकी और मैनेजमेंट की शिक्षा के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। वर्तमान में ऐसी अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में स्त्रियों के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी की गई है।
‘परन्तु हमारे देश में स्त्री शिक्षा के स्वरूप के सम्बन्ध में आज भी दो विचारधारायें हैं- एक रूढ़िवादी और दूसरी प्रगतिशील।3 रूढ़िवादी विचारधारा के व्यक्ति भारत की परम्परावादी कार्य विभाजन व्यवस्था को उत्तम मानते हैं। उनका तर्क है कि स्त्री पुरूष की इस कार्य विभाजन व्यवस्था में परिवार के सब कार्य सुचारू रूप से सम्पादित होते हैं अर्थात् शिशुओं की उचित देखभाल होती है, अतिथि सत्कार अच्छे ढंग से होता है और परिवारों में सुख-शान्ति रहती है। इस वर्ग के लोग स्त्रियों के लिये पुरूर्षों से भिन्न पाठ्यक्रम की वकालत करते हैं और इन्हें केवल भाषा, साहित्य, धर्म, सामाजिक विषय, गृहविज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, गृहशिल्प और कला तथा संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की बात करते हैं।
इसके विपरीत प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करते । ये स्त्री-पुरूष के परम्परागत कार्य विभाजन को पुरूष प्रधान व्यवस्था मानते हैं और स्त्रियों का शोषण मानते हैं। इनका तर्क है कि स्त्रियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने का अर्थ है देश की लगभग आधी मानव शक्ति का प्रयोग न करना। उनका तर्क है कि पाश्चात्य देशों में स्त्री पुरूर्षों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसीका परिणाम है ‘कि इन देशों ने आर्थिक विकास किया है तथा इन देशों के लोग उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं। इस वर्ग के लोग स्त्री-पुरूष दोनों के लिये किसी भी स्तर पर समान पाठ्यक्रम की वकालत करते है।4
‘यदि ध्यानपूर्वक देखा-समझा जाये तो दोनों वर्गों के लोग अपनी जगह सही है। पहले वर्ग की यह बात सही है कि अपने देश की परम्परागत जीवन शैली में दाम्पत्य जीवन का जो आनन्द है, परिवार में जो सुख-शान्ति है, वह पाश्चात्य देशों की आधुनिक जीवन शैली में नहीं’5 दूसरी ओर दूसरे वर्ग के लोगों की यह बात भी सही है कि स्त्री-पुरूषों के संयुक्त प्रयास से जो आर्थिक विकास पाश्चात्य देशों ने किया है वह हम नहीं कर पाये हैं।
तब इन दोनों विचारधाराओं में समन्वय करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार का भेद नहीं करता, यह इन दोनों को शिक्षा के समान अवसर देने का पक्षधर है। फिर मानवाधिकार का भी यही कहना है कि ‘यदि हम अपने देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की मूलभावना के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करें तो निश्चित रूप से उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में समन्वय सम्भव है।6 इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा देश के सभी बच्चों के लिये समान करने की घोषणा की गई है और इसके लिये आधारभूत पाठ्यचर्या भी तैयार की गयी है। इससे देश के सभी लड़के-लड़कियों को अपने विकास के समान अवसर मिलेंगे। 10$2 स्तर पर अधिकतर छात्र-छात्राओं को कला- कौशल, कुटीर उद्योग धन्धों और अन्य व्यवसायों की शिक्षा की ओर मोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहला लाभ यह होगा कि सभी छात्र-छात्रायें अपनी रूचि, रूझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे और दूसरा लाभ यह होगा कि शिक्षित बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी। उच्च शिक्षा में केवल मेधावी छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने का प्रस्ताव है। इससे देश की प्रतिभाओं का विकास होगा जो देश के हर क्षेत्र में नेतृत्व करेंगे तथा देश के आर्थिक विकास को गति प्रदान करेंगे। लिंग के आधार पर प्रतिभाओं को विशिष्ट शिक्षा के अधिकार से वंचित करने का अर्थ होगा, देश विकास में उनके सहयोग से वंचित होना। बस आवश्यकता है किसी भी प्रकार की शिक्षा के बाद मूल्यों की शिक्षा देने की।
आजादी के बाद से शिक्षा के विकास, प्रचार पर अरबों रूपये व्यय किये गए। अपार धनराशि, शिक्षकोें और शिक्षणेत्तर कर्मियों की भारी संख्या पूरे देश में शैक्षिक प्रबंधतंत्र का फैला नेटवर्क एंव योजनाओं का यद्यपि कुछ असर तो दिखायी दिया है। लेकिन अभी तक असली मकसद को पूरा नहीं हो पाया है। इस आधी अधूरी सफलता को पूरी सफलता में परिवर्तित करने हेतु पूरी सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासकीय प्रतिबद्धता के साथ निरन्तर अथक प्रयास करने होंगे तभी महिला शिक्षा तथा सशक्तीकरण को मूर्त रूप दिया जा सकता है। हमारे देश की आधी आबादी (महिला) निरक्षर हैं। कुछ ही महिलायें आज ऊँचे ओहदे पर विराजमान हैं। जो महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रही हैं। ये महिलायें शिक्षित तथा पूर्ण रूप से जागरूक हैं। रोजगार, अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक, सामाजिक सभी दायरों को महिलाओं ने अपनी कामयाब भागीदारी से नये आयाम दिये हैं। 1950 में जहाँ कारपोरेट सेक्टर में पूरी दुनिया में महिलाओं का भागीदारी मुश्किल से 2 प्रतिशत थी आज 23 प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुकी हैं। आज 32 प्रतिशत सुपर बाॅस महिलायें हैं। अन्तरमहाद्वीपीय निगमों में भी महिलाये सहजता से नेतृत्व संभाल रही हैं, महिलाओं की कामयाबी का यह सिलसिला कारपोरेट सेक्टर की ही तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। अभी हाल में ही 9 मार्च 2010 को संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के 14 वर्ष से अटके पड़े विधेयक को कानूनी हकीकत में बदलने की राह खोल दिया तथा महिलाओं का 1/3 प्रतिशत आरक्षण राज्यसभा ने महिला आरक्षण विधेयक को दो-तिहाई बहुमत से पारित कर दिया।
शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनका कहना था कि शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के उत्थान के लिये मूलभूत आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द जी अपने देश की स्त्रियों की दयनीय दशा के प्रति बहुत सचेत थे। उन्होंने उद्घोष किया था कि नारी सम्मान करो, उन्हें शिक्षित करो और उन्हें आगे बढ़ने का अवसर दो। उनका स्पष्ट कहना था कि जब तक हम नारी को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज को शिक्षित नहीं कर सकते और जब तक समाज को शिक्षित नहीं करते तब तक समाज अथवा राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। अतः आवश्यकता है कि आज हम स्वामी जी के उद्घोष को साकार करने के लिये नारी को शिक्षित कर सशक्त करे और नारी की सशक्त डोर के सहारे अपने समाज एवं राष्ट्र को भी सशक्त करें।
मनुष्य का जीवन सदा किसी दूसरे जीवन से सम्बन्धित





Wednesday, May 5, 2021

सामाजिक शोध


सामाजिक शोध -




 

सामाजिक शोध के अर्थ को समझने के पूर्व हमें शोध के अर्थ को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। 


यह स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ  यह प्रारम्भ होती है।



 सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। 


स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है।



 यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। 



प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। 




वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। 

समाज


शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। 


शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’


सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।


 पी.वी. यंग (1960:44) के अनुसार,


 ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’


 



सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’


’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है।



 सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। 



सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- 

(1) क्या हो रहा है? और 

(2) क्यों हो रहा है? 


अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। 



‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। 



यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।




सामाजिक शोध का उद्देश्य 

सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है।


( इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है।)


 बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में


 पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है। 



वह प्रशासकीय परिवर्तनों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है।



 सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है।


सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-अर्थात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है। 



सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं। 



व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।


 



गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है।



 उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है। 



व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है।





सामाजिक शोध के चरण 



सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन एक व्यवस्थित पद्धति के अनुसार किया जाता है। 


अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है।



 शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत्य नही है। 


इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है। 



हम यहाँ पहले कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, तत्पश्चात् सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।



चरण


शोध समस्या को परिभाषित करना।

 शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना। 

अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना। 

प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना। 

शोध विधियों और तकनीकों का चयन।

 शोध का मानकीकरण 

मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग 

↓ 

शोध सामग्री इकठ्ठा करना।

↓ 

सामग्री का विश्लेषण करना 

व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना 




राम आहूजा -ने मात्र छ: चरणों का उल्लेख किया है, जो कि निम्नवत् हैं-



1-अध्ययन समस्या का निर्धारण।

2-शोध प्रारुप तय करना।

3-निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)

4-आँकड़ा संकलन

5-आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण एवं सारणीयन)।

6-प्रतिवेदन तैयार करना।





शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।

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01प्रथम चरण- 

शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सर्वप्रथम आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है। 


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शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो।


 इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथमत: तो शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।


निश्चित रूप से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।

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02

द्वितीय चरण-

यह तय हो जाने के पश्चात् कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात्। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’ 


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03

तृतीय चरण- 

सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’

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04

चतुर्थ चरण- 

शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।


उपकल्पना



उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं? 




 



लुण्डबर्ग (1951:9) के अनुसार, ‘‘उपकल्पना एक सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना को भी , अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’


गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के अनुसार,


‘‘एक उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी रूप से अपनायी जाती है।’’


 

गुडे तथा हॉट (1952:56) के शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) एक मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’ 



सरल एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित एक काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है।




 विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के पश्चात् जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे।



 ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है। 



इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।



 वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए। 



उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।


उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट एवं सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक उपकल्पना और एक सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस रूप में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि-

 उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी एक के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 



उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है।


 उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है

 (यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने उल्लेख किया है- 



(i) सामान्य संस्कृति 

(ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त 

(iii) सादृश्य (Anology)

 (iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है। 



उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है।



 उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।


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05

पंचम चरण- 

समग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने  जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे।



 इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी। 



चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है। 



इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है। 



समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकायों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम रूप में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।

 



उल्लेखनीय है कि अक्सर निदर्शन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकायों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है।



 ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है।



 इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है।



 इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं, 


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निदर्शन (सैम्पल) ही है। 


अतः

‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’

 



निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- एक को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं। 



निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन किया जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके।


 कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इका का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन किया जाता है।




 ऐसा ही जनगणना कार्य में भी किया जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकायों का अध्ययन किया जाता है।


 इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।

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06

छठवाँ चरण- 

प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं। 


उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें। 



प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं। 



शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। 



शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है। 



कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है।



 स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है। 



इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं।

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सप्तम चरण-

प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। 


कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।


यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। 



सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये।



 उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है। 



उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है।


 


तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।

 



यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है। 


अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। 


प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो -मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण रूप से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।


यदि शोध कार्य में क क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि सभी अन्वेषक पूर्ण निष्ठा एवं मानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें।



 तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे  मोबाइल, टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की सहमति जरूरी है।


प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ एकत्रित सूचनाओं की जाँच एवं आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। को नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए।


 तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण एवं निर्वचन दूसरे के द्वारा हो चुका होता है।


 अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।


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अष्ठम चरण :- 

आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है। 


कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था।



 आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं। 



सारिणीयों के निर्मित हो जाने के पश्चात् उनका तार्किक विश्लेषण किया जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है। 



सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित एवं तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।


अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न किया जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी आवश्यकता के अनुसार फोटोग्राफ, डाग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।


उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही उल्लेखनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए



 

समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है। 

शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं। 



परिणामों की व्याख्या करें। 

निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का उल्लेख करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो। 




 ‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की आवश्यकता होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं।


 प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान एवं समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुरूप शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है। 


उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’


अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं।