Saturday, December 26, 2020

स्वामी विवेकानंद

1-स्वामी विवेकानंद की चिंतनधारा सनातनी ब्राह्मण-धारा के ठीक उलट है. वह भारतीय चिंतन परम्परा की वैंदातिक धारा से लेकर बौद्ध और अन्य गैर-ब्राह्णवादी धाराओं से भी बहुत कुछ ग्रहण करते हैं।

2-स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी दुनिया को भारतीय दर्शन से परिचय करवाया और वैश्विक मंच पर दृढ़ता के साथ हिन्दूत्व के विचार को प्रस्तुत किया।

3-स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिक ज्ञान और भारतीय जीवन दर्शन के द्वारा संपूर्ण विश्व को पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसी जीवन दर्शन के द्वारा भारत को भी क्रियाशील और शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

4-
विवेकानंद का सामाजिक दर्शन श्रीमद्भगवद्गीता के 'कर्मयोगी' की अवधारणा से प्रेरित है। उनका मानना था कि राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के आधुनिक पश्चिमी विचारों को 'स्वतंत्रता' की परंपरागत भारतीय धारणा से तालमेल बैठाने की जरूरत है। 

 उनका मत था कि सामाजिक कर्तव्य पालन और सामाजिक सौहार्द के जरिये ही सच्ची स्वतंत्रता पाई जा सकती है।

5-विवेकानंद का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष को आध्यात्मिक आधार दिया और नैतिक व सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज के उत्थान के लिए काम किया।

6-विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना। 


 7-विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।

Sunday, December 20, 2020

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डॉ अंबेडकर और बहुजन भारत के भविष्य का प्रश्न
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-संजय श्रमण 

डॉ. अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर भारत के दलित बहुजनों को अब कुछ गंभीर होकर विचार करना चाहिए। बीते कुछ वर्षों मे भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पतन से जन्मी दुर्दशा की सघन प्रष्ठभूमि मे हमें अंबेडकर की वैचारिक विरासत और उनके दिखलाये मार्ग की सम्मिलित संभावनाओं को ठीक से समझना होगा। जिस गंभीरता से अंबेडकर ने भारत के भविष्य के विषय मे या भारत मे बहुजनों के भविष्य के विषय मे अपनी चिंतन धारा को आकार दिया था - उसे भी हमें एक विशेष ढंग से देखना और समझना होगा। अंबेडकर की दृष्टि मे बहुजनों के भारत मे भविष्य का प्रश्न या फिर स्वयं बहुजन भारत के भविष्य का प्रश्न – ये दो भिन्न आयाम हैं। इन दोनों आयामों की दो भिन्न संभावनाएं हैं और इन संभावनाओं की अपनी सैद्धांतिक और वैचारिक प्रष्ठभूमियाँ भी हैं। 

इस जटिल विषय मे जाने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि भारत मे बहुजनों का भविष्य और बहुजन भारत का भविष्य दो अलग अलग प्रश्न क्यों हैं? इसका उत्तर खोजते हुए हमें भारत के इतिहास मे घटी उन महत्वपूर्ण विचारधाराओ मे झांकना होगा जिनका जन्म प्राचीन और जर्जर हो चुके भारत और यूरोपीय आधुनिकता के बीच के संवाद की प्रष्ठभूमि मे हो रहा है। 

भारत मे यूरोप के प्रभाव के स्थापित होने के पहले मुग़ल भारत मे कबीर और उनके बाद विभिन्न धार्मिक परंपराओं मे समन्वय करती हुई एक विशेष देशज आधुनिकता का जन्म हो रहा था, लेकिन ब्रिटिश आधिपत्य ने इस आधुनिकता का गर्भपात कर दिया (Agrawal 2009)। ब्रिटिश आधिपत्य मे भारतीय समाज की तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियों ने अपने शिखर पर पहुंचकर अपना रंग दिखाना शुरू किया और एक ऐसे असुरक्षित समाज का निर्माण किया जिसमे विभाजन और भय का जहर पहले से अधिक गहरा होकर समाज, राजनीति और लोकजीवन के सभी आयामों मे पसर गया। 

भारत मे यूरोपीय आकाओं ने जिस तरह का कानून का राज बनाया वह ऊपर-ऊपर तो कानून भारत के हित मे प्रतीत होता था लेकिन भीतर ही भीतर बहुत गहराई से ब्रिटिश शासन भारत को कमजोर और विभाजित भी कर रहा था। तमाम नकारात्मक चीजों के बीच कुछ बहुत सकारात्मक चीजें भी ब्रिटिश हुकूमत मे आकार ले रही थीं। एक तरफ कोलोनीयल लूट से भारत की उत्पादन प्रणालियाँ और सामाजिक ताना बाना कमजोर हो रहा था वहीं दूसरी तरफ भारत मे सदा से वंचित और उपेक्षित दलित बहुजन समाज मे यूरोपीय शिक्षा के प्रचार से एक नए जागरण का उदय भी हो रहा था। 

भारत पर यूरोपीय आधिपत्य के बहुत तरह के मूल्यांकन संभव हैं लेकिन जहां तक भारत के ओबीसी और दलितों का प्रश्न है, ब्रिटिश शासन मे भारत के शूद्रअतिशूद्रों को पहली बार शिक्षा और शासकीय सेवा के अवसर मिले। ब्रिटिश शासन के दौरान भी भारत के ओबीसी (शूद्रों) और अस्पृष्यों (दलितों/अतिशूद्रों) पर जिस तरह के अमानवीय अत्याचार होते थे और जिस तरह से ब्राह्मणों की मानसिक सांस्कृतिक गुलामी मे फसाकर भारत के शूद्रअतिशूद्रों का शोषण होता था (Phule 2017), उस विवरण को देखकर समझा जा सकता है कि ब्रिटिश हुकूमत भारत के शूद्रअतिशूद्रों के लिए आजादी और गरिमापूर्ण जीवन की नई संभावना भी लाया था। भारत का मुख्यधारा का सनातनी समाज जब भी शक्तिशाली रहा है और राजनीतिक आर्थिक सत्ता के सूत्र जब तक उसके पास रहे हैं तब-तब भारत के बहुसंख्य जनों और स्त्रियों को अमानवीय जीवन जीने को बाध्य होना पड़ा है। सुदूर अतीत से लेकर मुग़लों के आगमन के पूर्व तक के  इतिहासकारों और अध्येताओं ने इस बात को जोर देकर नोट किया है कि विदेशी आक्रमण या आधिपत्य के काल मे भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों का जीवन कुछ आसान हुआ है (Upadhyaya 2004)

इसके दोहरे कारण रहे हैं, सर्वप्रथम आततायी सत्ता को अपने लिए स्थानीय साथियों और सहयोगियों की आवश्यकता होती थी और दूसरी तरफ सनातनी और वर्णाश्रमवादी सत्ता भी आपद-धर्म का पालन करते हुए छुआछूत और पवित्रता अपवित्रता की अपनी शास्त्रीय आज्ञाओं से जन्मे कानूनों को शिथिल करके शूद्रअतिशूद्रों को गले लगाने का नाटक करती थी। इसी नाटक से ही सारे सामाजिक सुधार आंदोलन और भक्ति आंदोलन सहित तमाम प्रगतिशील परम्पराएं भी जन्म लेती रही हैं। यह नाटक न केवल धर्म से जुड़ी राजनीति का केन्द्रीय संचालक रहा है बल्कि गौर से देखें तो भारत के वर्णाश्रम धर्म का मूल चरित्र भी यही रहा है। भारत मे वर्णाश्रम परंपरा मे जिस तरह के धर्म की धारणा है उसमे धर्म के तीन पक्ष माने गए हैं, एक सैद्धांतिक पक्ष दूसरा व्यवहार पक्ष और तीसरा लोकजीवन की परंपराओं का पक्ष (Choube 2009). इन तीन तरह के धर्मों को की अन्य सुंदर शब्दों मे भी परिभाषित किया गया है। मोहनदास करमचंद गांधी के अनुसार भारत मे धर्म की तीन तरह की प्रतीतियाँ रही हैं जिन्हे सामान्य धर्म विशिष्ठ धर्म और आपद धर्म कहा जाता है (Gandhi 1965). 

सामान्य धर्म मे सत्य बोलना, चोरी और व्यभिचार न करना इत्यादि नैतिक बातें आती हैं वहीं विशिष्ठ धर्म मे वर्ण और जाति के अनुकूल अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना आवश्यक हो जाता है। जब भी ब्राह्मणवादी सतताएं मजबूत होती हैं तब वे विशिष्ठ धर्मों के  पालन के नाम पर समाज मे उंच नीच और जाती व्यवस्था का जहर तेजी से फैलाकर भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों का जीवन नरक बना देते हैं। आपद का पालन करते हुए वे न सिर्फ खुद अपने प्रति थोड़े उदार हो जाते हैं बल्कि दूसरों के प्रति भी प्रगतिशील बन जाते हैं। इस आपद धर्म की सैद्धांतिक और दार्शनिक व्याख्या कुछ भी रही हो लेकिन हकीकत मे यह आपद धर्म ही वर्णाश्रम धर्म को आत्मरक्षा हेतु नए प्रयोग करते हुए प्रगतिशीलता और समावेशी होने का अवसर देता है इसे ही सुंदर शब्दों मे रूढ़िवादी भारत का ‘समावेशी भारत’ होना कहा जाता है। जब भी भारत पर विदेशी सत्ताओं का आक्रमण हुआ है तब तब भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों को आजादी की सांस लेने का अवसर मिला है। इस तरह प्रगतिशील होकर समावेशी नजर आना वर्णाश्रम परंपरा का आपद धर्म है वह उसका मूल स्वभाव नहीं है (Dharmaveer 2009). 

भारत की वर्णाश्रम परंपरा मे आपद धर्म को इस तरह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है। यह कोई अनावश्यक चर्चा नहीं है इसका एक विशेष कारण है जिसे समझे बिना भारत के वर्णाश्रम धर्म द्वारा यूरोपीय आधुनिकता को दिए जा रहे उत्तर को समझना असंभव होगा। गुलाम भारत पर जिस तरह से यूरोपीय आधुनिकता को बलात थोपा गया उसका थोड़ा बहुत हानी लाभ सभी वर्गों को हुआ। जाति व्यवस्था जो पूरे भारत मे एकसमान एक रंग-ढंग और एक जैसी अमानवीयता से अनिवार्यतः नहीं भरी हुयी थी उसमे अचानक इकहरे ढंग की जड़ता और सघन बर्बरता का प्रवेश हो जाता है। जाति व्यवस्था की लचीली संरचना मे पत्थर जैसी कठोरता का यह प्रवेश असल मे ब्रिटिश दौर मे ब्रिटिश प्रशासन के काम करने के खास तौर तरीकों से और तेज हो जाता है (Dirks 2001)। 

वहीं दूसरी तरफ इन्ही शूद्रअतिशूद्रों को अपना मित्र बनाने की होड़ वर्णाश्रमवादियों और ब्रिटिश आकाओं मे एकसाथ छिड़ जाती है। इस तरह शूद्रअतिशूद्रों और महिलाओं के हिस्से मे कुछ सामाजिक सुधार और कुछ शिक्षा के अवसर आ जाते हैं, सती प्रथा का उन्मूलन और बाल विवाह निषेध आदि सुधार इसी तरह के आपद धर्म के कुछ उदाहरण हैं। भारत के ब्राह्मणवादियों का मूल चरित्र यही है। ये जब भी प्रगतिशील नजर आते हैं तब असल मे वे आपद धर्म का पालन कर रहे होते हैं। जैसे ही ब्राह्मणवादी धर्मसत्ता का राजनीति, व्यापार और समाज पर कब्जा हो जाता है तब पवित्रता अपवित्रता और वर्ण-अवर्ण के कानून की व्याख्या करती हुई मनु स्मृतियाँ याज्ञवल्क्य स्मृतियाँ और मानव धर्मशास्त्र अपनी गुफाओं से बाहर निकलने लगते हैं। आजकल इन स्मृतियों ने नागरिकता संशोधन और नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजनशिप जैसे नए अवतार भी धर लिए हैं। 

इस भूमिका के बाद हम समझ सकते हैं कि ‘भारत मे बहुजनों के भविष्य’ का सैद्धांतिक और व्यावहारिक अर्थ क्या है। भारत मे दलित बहुजन तभी तक सुरक्षित रह सकते हैं जब तक कि वर्णाश्रम वादियों के लिए आपद धर्म बना हुआ हो। जैसे ही वर्णाश्रमवादियों और ब्राह्मणवादियों की सत्ता सुरक्षित होगी वे अपने विशिष्ठ धर्म और सामान्य धर्म के पालन मे स्वयं भी उतर जाएंगे और पूरे देश के दलितों बहुजनों को भी घसीट लेंगे। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि भारत मे ब्राह्मणवादियों के लिए आपद धर्म को बनाए रखने का अर्थ भारत को कमजोर बनाए रखना है। हकीकत असल मे इसकी उलट है। 

जिस भी दौर मे भारत के दलित-बहुजन और स्त्रियाँ अपने लिए अधिक स्वतंत्रता सम्मान और अवसरों को हासिल कर पाते हैं उसे दौर मे भारत की सभ्यता आसमान छूने लगती है। प्राचीन भारत मे बौद्ध काल भारत का स्वर्ण-काल रहा है जिसमे ज्ञात इतिहास मे हमने विश्वविद्यालय और सार्वजनिक चिकित्सालय सहित जाति-वर्ण विभेद से रहित सामाजिक व्यवस्थाएं और एक निरीश्वरवादी-भौतिकवादी दर्शन की उड़ान देखी है (Singh 2008). यहाँ यह नोट करना आवश्यक होगा कि ऐसे स्वर्णकाल वे रहे हैं जबकि वर्णाश्रम धर्म की पकड़ भारत पर कमजोर हुई है। 

अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं जिसमे हमने कहा था कि अंबेडकर के लिए भारत मे बहुजनों के भविष्य का प्रश्न और बहुजन भारत सहित स्वयं भारत के भविष्य का प्रश्न- ये दो भिन्न आयाम हैं। सरल शब्दों मे कहें तो भारत मे बहुजनों के भविष्य का प्रश्न अनिवार्य रूप से वर्णाश्रम धर्म की छाया मे जी रहे वर्तमान और भविष्य की तरह इशारा करता है जिसमे भारत के दलित बहुजन और स्त्रियाँ समय और परिस्थितियों की दया पर निर्भर रहेंगे । 

यह ऐसी दशा होगी जिसमे ब्राह्मणवादी विचारधारा के कमजोर होने और उसकी पकड़ ढीली होने का इंतजार करना होगा। दूसरी तरफ बहुजन भारत या वास्तविक भारत के भविष्य का प्रश्न है। बहुजन भारत से बहुसंख्य दलित बहुजनों (जिसमे धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) का सुरक्षित और सुपरिभाषित भविष्य अभिप्रेत है जिसमे न केवल सदा से वंचित और तिरस्कृत पुरुषों और स्त्रियों का सम्मानजनक जीवन संभव है बल्कि ब्राह्मणवाद की परंपरा को ढोने और थोपने वाले वर्ग से आने वाले लोगों को भी सम्मानजनक और सुरक्षित स्थान प्राप्त होगा। निश्चित ही जब एसी कोई व्यवस्था होगी जहां सबसे तिरस्कृत लोगों कि सुनवाई होगी तब सदा से सत्ता मे बने रहे वर्ग के लिए भी एक आश्वासन का अनिवार्य रूप से निर्माण होगा। 

भारत मे बहुजनों के भविष्य के प्रश्न के बाद हम बहुजन भारत के प्रश्न पर आते हैं। डॉ अंबेडकर ने अपने कठिन परिश्रम से जिस संविधान और जिस सांविधानिक नैतिकता के निर्माण का प्रयास किया है वह असल मे भारत के प्राचीन श्रुति-स्मृति शास्त्रों की ऐतिहासिक और पीड़ादायक गुलामी से मुक्ति की दिशा मे एक प्रयास रहा है। प्राचीन ब्राह्मणी परम्पराएं जहां जाति और लिंग के विभेद को पवित्रता और अपवित्रता की पाशविक धारणाओं के जहर से मिलाकर एक दुर्निवार दासता मे बदल देती थीं वहीं संविधान और संवैधानिक नैतिकता एक नई किस्म की मानवाधिकार और समानता की दिशा मे इंगित करती हैं (Hande and Ambedkar 2009) । 

प्राचीन बर्बर कानूनों से भविष्य की समता न्याय और बंधुत्व की तरफ देखने वाली इस संवैधानिक नैतिकता से जो भारत निर्मित हो सकता है वही बहुजन भारत है। इस तरह से एक नए भारत की कल्पना करना हमारे लिए आवश्यक हुआ जा रहा है।  इसका सबसे बड़ा कारण और भय यह है कि अगर हम संवैधानिक नैतिकता पर खड़े भारत की बजाय किसी भी पुराने या नए धर्म से जन्मी नैतिकता पर खड़े भारत के भविष्य की कल्पना करेंगे तो वह भारत किसी न किसी धर्म की सीमित और ‘एक्सक्लूसिव’ परिभाषाओं से सीमित हो जाएगा और यह सीमाएं फिर से उसे पुराने दलदल का निर्माण कर डालेंगी (Ambedkar and Moon 2003)। 
 
अब हम बहुजन भारत के भविष्य के प्रश्न को देखने का प्रयास करेंगे कि यह क्या है और बहुजन भारत के सैद्धांतिक और एतिहासिक विरोध की परम्पराएं किन प्रवृत्तियों को संगठित और संचालित करती आईं हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यहाँ यह नोट करना होगा कि किसी भी तरह के प्राचीन स्वर्णयुग की या ईश्वरवादी या नस्लीय या जातीय विभेद के दर्शन पर आधारित प्रत्येक विचारधारा से बहुजन भारत के भविष्य के लिए खतरा ही निर्मित करेगी। असल मे किसी भी धर्म और धार्मिक दर्शन पर आधारित फ्रेमवर्क से भारत ही नहीं दुनिया के किसी भी देश मे लोकतंत्र, नैतिकता और सभ्यता का विकास बाधित ही हुआ है ऐसे मे धार्मिक अर्थ की प्रस्तावनाओं से जन्मी नैतिकता या राष्ट्रवाद का पतन हमेशा किसी न किसी तरह की तानाशाही मे होता आया है (Barbu 2013).

भारत मे स्वतंत्रता पूर्व और औपनिवेशिक दासता मे जन्मी वे विचारधाराएं जो भाववादी दर्शनों और ब्राह्मणी धर्म के आग्रहों को स्थान देते हुए किसी प्राचीन स्वर्णयुग के प्रतिबिंब के रूप मे भविष्य का निर्माण करना चाहती हैं वे बहुजन भारत के भविष्य के लिए विचारणीय हैं। इस अर्थ मे डॉ अंबेडकर की बताई संवैधानिक नैतिकता के विरोधी विचार के रूप मे हमें श्री अरबिंदो के भाववादी दर्शन से आ रही प्रस्तावनाओं को देखना जरूरी हो जाता है। 

आज के भारत मे विचारधाराओं का जो संघर्ष चल रहा है वह असल मे अंबेडकर और अरबिंदो के दर्शन के संघर्ष के रूप मे देखा जाना चाहिए। किसी प्राचीन धर्म के स्वर्णयुग की पुनर्स्थापना का आग्रह जिस तरह के राजनीतिक दर्शन और स्वयं राजनीतिक संगठनों मे प्रतिफलित हो रहा है उसकी वास्तविक जड़ विवेकानंद, राममोहन रॉय, तिलक या सावरकर  मे नहीं है बल्कि अरबिंदो घोष मे है। विवेकानंद अपनी अल्पायु मे जिन विचारों का निर्माण कर रहे थे वे विचार मूल रूप से किसी मौलिक नव निर्माण को लक्ष्यित नहीं थे बल्कि तत्कालीन समय मे भारत की धार्मिक नैतिकता पर विश्व समुदाय द्वारा उठाए जा रहे कठिन प्रश्नों को उत्तर देने का प्रयास भर था। विवेकानंद के समय मे थियोसोफीकल सोसाइटी द्वारा प्रस्ताविक बौद्ध-वेदांतिक संश्लेषण पर खड़ी आधुनिक व्याख्याओं सहित मिशनरी सेवाभाव के नैतिक दबाव से जन्मी नयी परिस्थितियों मे वर्णाश्रम धर्म को हिन्दू धर्म की तरह निर्मित करने की विराट आवश्यकता उठ खड़ी हुई थी (David Gordon White 2014)। 

इसीलिए विवेकानंद की असामयिक विदाई के बाद जन्मी दार्शनिक सैद्धांतीकरण की असुरक्षाओं को उत्तर देते हुए अरबिंदो घोष आजादी की लड़ाई को कम महत्व देते हुए हिन्दू धर्म के नए अवतार के लिए एक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक दर्शन का ठोस आवरण देने के लिए पॉन्डिचेरी मे आश्रय लेकर चुपचाप अपने काम मे लग जाते हैं। इस तरह गहराई से देखें तो विवेकानंद मे जिस तरह के धर्म की उड़ान का प्रक्षेपण बाद के विचारकों ने किया है वह मूल रूप से थियोसोफिकाल सोसाइटी, मेक्स-मूलर, शापेनहावर और अन्य प्राच्य-वेत्ताओं सहित अरबिंदो घोष की तरफ से आ रही है। वहीं दूसरी तरफ तिलक और रॉय जिस आधुनिकता की बात कर रहे हैं वह भी प्राचीन आर्य बंधुओं के ब्रिटेन से आने से उपजे ‘भारत मिलाप’ की आह्लादकारी प्रतीति पर खड़ी है। 

इस नवीन रचना का निर्माण  करते हुए तिलक इतने उत्साहित और प्रेरित हुए हैं कि उन्होंने भारत के ब्राह्मणों को न केवल युरोपियन आर्यों का बिछड़ा हुआ भाई बना दिया बल्कि वे आर्यों के मूल स्थान को खींचकर अंटार्कटिका तक ले गए (Tilak 2011)।  इतना ही नहीं स्वयं अरबिंदो घोष जिस वैज्ञानिकता और दर्शनिकता से प्राचीन वैदिक साहित्य को समृद्ध बनाने का प्रयास कर रहे हैं वह डार्विन के क्रम-विकास के सिद्धांत और फ्रेडरिक नीत्षे के सुपरमेन के सिद्धांत पर आधारित है। घोष जब सुपरामेन्टल और चेतना के विकास की थ्योरी (Aurobindo Ghose 1973) देते हैं तब अरबिंदो घोष के लेखन मे नीत्षे और डार्विन के सिद्धांतों को वैदिक ऋषियों की ऋचाओं मे प्रक्षेपित करने की विवशता को बहुत आसानी से पढ़ा जा सकता है। 

अरबिंदो घोष के धर्म दर्शन या उससे उपजे राजनीतिक दर्शन मे एक धर्म विशेष की महिमा का जो प्रभाव है वह प्रभाव अनिवार्य रूप से बहुजन भारत के भविष्य के लिए घातक है। श्री अरविन्द का दर्शन मूल रूप से एक भाववादी दर्शन है जिसमे अतिमानस और आत्मा परमात्मा के साक्षात्कार (Aurobindo Ghose 2000) की प्रतीति पर खड़ी धार्मिक दार्शनिक व्यवस्थाओं की सघन उपस्थित बनी रहती है जो एक जटिल हीगेलियन भाषा मे एक ऐसे फ्रेमवर्क का निर्माण करती है जिसमे प्राचीन स्वर्णयुग के समर्थन मे किसी भी तरह की अतिवादी प्रवृत्ति का निर्माण किया जा सकता है। ऐसी ही अतिवादी प्रवृत्तियों की जहरीली छाया मे आज की राजनीति और समाज के सम्मिलित पतन को हम अपने सामने देख पा रहे हैं। 

वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर एक अर्थशास्त्री, मानवशास्त्री और कानून-विद दार्शनिक की भांति जब बहुजन भारत के भविष्य को परिभाषित करने निकलते हैं तब वे सर्वथा भिन्न बौद्धिक, दार्शनिक स्त्रोतों से अपनी वैचारिकी का निर्माण कर रहे हैं। अंबेडकर की वैचारिक यात्रा शोषण के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की खोज से आरंभ होती हुई संवैधानिक नैतिकता की ठोस प्रस्तावना तक आती है जिसमे लोकतंत्र समाजवाद सहित समता बंधुत्व और न्याय की आधुनिक यूरोपीय धारणाओं का वही प्रबल स्वर सुनाई देता है जो हमे बाद मे इतावली राजनीतिक चिंतक एंटोनियो ग्रांमशी मे भी मिलता है (Zene 2013)। 

अंबेडकर अपने  सामाजिक और राजनीतिक दर्शन निर्माण की प्रक्रिया मे जिन मूल्यों का आलंबन ले रहे हैं वे पिछली कुछ शताब्दियों मे यूरोप और अमेरिका के सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक संघर्ष और विकास के परिणाम मे जन्मी ठोस स्थापनाओं पर आधारित हैं। वहीं अरबिंदो घोष और विवेकानंद का कर्तृत्व एवं चिंतन एक अमूर्त और अज्ञात स्वर्णयुग के सम्मोहन की भुरभुरी भित्ति पर खड़ा है। 

इस विवरण के बाद अब हम देखेंगे कि अरबिंदो घोष की स्थापनाओं और अंबडेकर की स्थापनाओं मे क्या अंतर है और बहुजन भारत के भविष्य के लिए उनकी संगत संभावनाओं का स्वरूप क्या है। अरबिंदो घोष राष्ट्र और राष्ट्रवाद की जो परिभाषा करते हैं वह मूल रूप से उनके ‘बंदे मातरम’, ‘इंदु प्रकाश’ और ‘कर्मयोगिन’ मे प्राप्त होती है जिसमे वे औपनिवेशिक भारत मे चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष के बीचोंबीच स्वतंत्र भारत के लिए एक राष्ट्र की कल्पना का सूत्रपात कर रहे हैं (Varma 1990)। हालांकि अरबिंदो घोष अपने राजनीतिक केरियार को तिलांजलि देते हुए जिस आध्यात्मिक केरियर मे प्रवेश कर रहे हैं उसकी ठीक शुरुआत मे दिए गए उत्तरपाड़ा भाषण (Aurobindo Ghose 1943) की भाषा शैली और विचार प्रक्रिया के माध्यम से उनके दार्शनिक सैद्धांतिक कर्तृत्व की मौलिक प्रेरणा और दिशा को कहीं अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। 

इस भाषण मे अरबिंदो घोष अलीपुर जेल मे हुए अपने दिव्य ईश्वरीय साक्षात्कार का वर्णन करते हैं जिसमे उनके शब्दों मे उन्हे श्री-कृष्ण के दर्शन होते हैं जिसके परिणाम मे उनके हृदय मे भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का ईश्वरीय आदेश प्राप्त होता है। इस आदेश का स्वरूप जो कुछ भी रहा हो इतना सुनिश्चित है कि अरबिंदो घोष अपने नए राजनीतिक और धार्मिक दर्शन को जिस तरह से लेजिटीमेसी या वैधता देने का प्रयास कर रहे हैं वह लेजिटीमेसी दार्शनिक विचार की अपनी मेरिट पर कम और ईश्वरीय आदेश की दिव्यता पर अधिक निर्भर है। यह निर्भरता किसी भी दार्शनिक वैचारिक प्रयास के लिए अगर एक विवशता बन चुकी हो तो ऐसा विचार और दर्शन भविष्य मे उसे ईश्वरीय आदेश को नए कलेवर मे रखकर उचित अनुचित कुछ भी करवा सकता है। यह एक भयानक सच्चाई है जिसमे हम सभी आज जी रहे हैं। 

अरबिंदो घोष और उनकी आध्यात्मिक सहयोगिनी ‘श्री-माँ’ बाद मे जिस तरह के दार्शनिक और यौगिक अनुशासन को जन्म देते हैं वह भी प्राचीन भारत की निरीश्वरवादी-श्रमण-योग परंपराओं से अलग दिशा लेते हुए ईश्वरवादी और भाववादी अनुशासन का स्वरूप ले लेता है। यहाँ यह नोट करना जरूरी है कि योग की प्राचीन परंपराओं मे ईश्वर का और ईश्वर की भक्ति का कोई स्थान नहीं है, यहाँ तक कि पतंजलि के योगसूत्रों मे भी ईश्वर को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया है पतंजलि ‘ईश्वर प्रणिधान’ शब्द का उपयोग करते हुए ईश्वर की धारणा को एक उपयोगी उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।

 पतंजलि के योग-प्रबंध मे ईश्वर की भक्ति या महिमा का वैसा आग्रह नहीं है जो औपनिवेशिक काल मे विवेकानंद या अरबिंदो घोष निर्मित कर रहे हैं (David Gordon White 2014)।  बाद के वर्षों मे हम देखते हैं कि विवेकानंद और अरबिंदो घोष द्वारा दी गयी ये प्रस्तावनाएं असल मे पश्चिमी सेमेटिक धर्मों के ईश्वर के सामने भारतीय ईश्वर को खड़ा करने की आवश्यकता से जन्मी थीं। इस आवश्यकता से जन्मे अरबिंदो और विवेकानंद के प्रयासों मे स्वतंत्र भारत के राजनीतिक उत्तरजीवन की आवश्यकताओं को उत्तर देने वाली ईमानदार प्रेरणाएं कम और प्राचीन भारत की भौतिकवादी परंपराओं की महिमा को कुंद करने की प्रेरणाएं अधिक हावी थीं।  

वहीं दूसरी तरफ हम डॉ अंबेडकर की विचार प्रक्रिया और उनकी सैद्धानितक स्थापनाओं के प्रस्थान बिंदुओं को देखते हुए पाते हैं कि उनकी विचारधारा पर जॉन डूवी के प्रेगमेटिज्म और यूरोपीय आधुनिकता की श्रेष्ठताओं का गहरा प्रभाव है (Zene 2013)। ये आधुनिक विचारधाराएं किसी काल्पनिक ईश्वर, ईश्वरीय आदेश और किसी लोप हो चुके स्वर्णयुग के सम्मोहन से सर्वथा अछूती हैं और मनुष्यता के नए भविष्य के निर्माण के लिए तार्किक आलंबनों पर आधारित हैं। 

अपने शिक्षण के दौरान डॉ अंबेडकर जिस तरह की आधुनिकता का साक्षात्कार करते हैं और जिन सामाजिक राजनीतिक दर्शनों से अपनी विचारधारा का निर्माण करते हैं वे शोषण और विभेद के ठोस विश्लेषण पर खड़ी होती है। अंबेडकर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैचारिक स्थापनाएं हम उन प्रबंधों मे पाते हैं जहां वे भारतीय वर्णाश्रम धर्म का कठोर मूल्यांकन करते हुए दलित-बहुजन एवं स्त्रियों की मुक्ति के संभावित मार्ग की खोज करते हैं। प्राचीन भारत के पवित्र ग्रंथों की दार्शनिक धार्मिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियों के विश्लेषण से जब वे शूद्रों की उत्पत्ति का सिद्धांत खोजते हैं (Ambedkar 1970), या फिर जब वे भारत मे स्त्रियों की दुर्दशा के प्रश्न को सुलझाते हैं (Ambedkar 2016) या फिर जब वे वर्णाश्रम धर्म की विसंगतियों और दार्शनिक धार्मिक विचित्रताओं का विश्लेषण करते हैं (Ambedkar 2017), तब वे ईश्वरीय आदेश के अमूर्त आधारों से दूर जाते हुए मानव अधिकार मानव गरिमा और समता, न्याय बंधुत्व जैसे संवैधानिक नैतिकतागत आधारों पर मनुष्य के शोषण और गरिमा से जुड़े प्रश्नों को सुलझाते हैं। ये आधार किसी दिव्ययलोक या वैकुंठ मे बैठे किसी ईश्वर पर नहीं बल्कि मनुष्य की तार्किक और वैचारिक संघर्ष-यात्रा के परिणाम मे इसी धरती पर टिके हुए हैं। 
 
ईश्वरीय आदेश या किसी प्राचीन स्वर्णयुग के सम्मोहन से जन्मी दार्शनिक या सामाजिक राजनीतिक प्रस्तावनाओं का परिणाम हम अरब और यूरोप के कई देशों मे लोकतंत्र के पतन मे देख सकते हैं। ऐसे किसी पतन की संभावना के प्रति सावधानी का आग्रह अंबेडकर की संविधान सभा की बहसों मे सर्वाधिक तीखे रूप मे उभरकर आता है जब वे स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के भविष्य के प्रश्न पर अपना पक्ष रखते हैं (Ambedkar 2008)। स्वतंत्र भारत के सुरक्षित भविष्य के लिए अंबेडकर की विचार प्रक्रिया न सिर्फ यूरोपीय दार्शनिकों के ठोस दार्शनिक प्रबंधों पर आधारित है बल्कि उसमे उनके अपने निजी जीवन के शोषण और संघर्ष से जन्मे प्रश्नों के विश्लेषण और उत्तरों का आश्वासन भी शामिल है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि वर्णाश्रम धर्म और ईश्वर की भित्ति पर खड़े किसी भी भाववादी सम्मोहन से जन्मे राजनीतिक या सामाजिक दर्शन की तुलना मे अंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता पर खड़ी स्थापनाओं मे पूर्व और पश्चिम की श्रेष्ठतम विचार प्रक्रियाओं का युगपत विश्लेषण होता है। 

अंत मे हम अपने मूल प्रश्न पर वापस लौटते हैं। प्रश्न यह है कि हम भारत के दलित-बहुजनों और स्त्रियों सहित सभी भारतीयों के लिए कैसा भारत चाहते हैं? क्या यह भाववादी दर्शनों की हवा-हवाई स्थापनाओं पर किसी काल्पनिक स्वर्णयुग के संधान मे रत भारत होगा या फिर आधुनिक विज्ञान और दर्शन की ठोस भित्ति पर खड़ा लोकतान्त्रिक भारत होगा? इस प्रश्न के उत्तर की दोनों संगत संभावनाओं का विस्तार हम ऊपर देख चुके हैं। ऐसे मे, विशेष रूप से हाल ही मे जिस तरह का सामाजिक राजनीतिक पतन हम देख रहे हैं उसके बीचोंबीच खड़े होकर हमे अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर अंबेडकर के वैचारिक अवदान को उसकी समग्रता मे समझने की तैयारी करनी चाहिए। यही बाबा साहब अंबेडकर को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यही भारत को सभ्य और समर्थ बनाने कि दिशा मे हमारी निष्ठा की सम्यक अभिव्यक्ति होगी। 

BIBLIOGRAPHY:

1. Agrawal, P. 2009. Akath Kahani Prem Ki Kabir Ki Kavita Aur Unka Samay. New Delhi: Rajkamal Prakashan Pvt. Limited.

2. Ambedkar. 2008. States and Minorities: What Are Their Rights and How to Secure Them in the Constitution of Free India. New Delhi: Siddharth Books.

3. Ambedkar, B. R. 1970. Who Were the Shudras?: How They Came to Be the Fourth Varna in the Indo-Aryan Society. Kolkata: Thackers.

4. Ambedkar, B.R. 2016. The Rise and Fall of the Hindu Woman. Samyak Prakashan.

5. ———. 2017. Riddles in Hinduism. CreateSpace Independent Publishing Platform.

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7. Barbu, Zevedei. 2013. Democracy and Dictatorship: Their Psychology and Patterns. International Library of Sociology. London: Taylor & Francis.

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9. Dharmaveer. 2009. Kabīra Ke Kucha Aura Ālocaka. New Delhi: Vāṇī Praskāśana.

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11. Gandhi, Mohandas K. 1965. Gandhi Vichar. v. 4, no. 2. Varanasi: Gāndhī Vidyā Saṃsthāna.

12. Ghose, Aurobindo. 1943. Uttarpara Speech of Sri Aurobindo. New Delhi: Arya Publishing House.

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16. Phule, Jyotirava. G. 2017. Gulamgiri. New Delhi: Vāṇī Prakāśana.

17. Singh, Upinder. 2008. A History of Ancient and Early Medieval India: From the Stone Age to the 12th Century. New Delhi: Pearson Education.

18. Tilak, B.G. 2011. The Arctic Home in the Vedas. Arktos.

19. Upadhyaya, B.S. 2004. Khūna Ke Chīṇṭe. New Delhi: Vāṇī Prakāśana.

20. Varma, V.P. 1990. The Political Philosophy of Sri Aurobindo. Benaras: Motilal Banarsidass.

21. White, David Gordon. 2014. The Yoga Sutra of Patanjali: A Biography. Lives of Great Religious Books. New Jersey: Princeton University Press.

22. Zene, Cosimo. 2013. The Political Philosophies of Antonio Gramsci and B. R. Ambedkar: Itineraries of Dalits and Subalterns. Routledge Advances in South Asian Studies. London: Taylor & Francis.

- संजय श्रमण

Friday, December 4, 2020

नानकमत्ता


नानकमत्ता-
नानकमत्ता साहिब सिक्खों का पवित्र तीर्थ स्थान है। यह स्थान उत्तराखंड राज्य के ऊधम सिंह नगर जिसे  रूद्रपुर कहते हैं।नानकमत्ता नामक नगर में  सितारगंज — खटीमा मार्ग पर सितारगंज से 13 किमी और खटीमा से 15 किमी की दूरी पर स्थित है। सिक्खों के प्रथम गुरू नानक देव जी ने यहां की यात्रा की थी। मान्यता है कि गुरू नानकदेव जी सन 1508 में अपनी तीसरी कैलाश यात्रा, जिसे तीसरी उदासी भी कहा जाता है, के समय रीठा साहिब से चलकर भाई मरदाना जी के साथ यहाँ रुके थे।यही कारण है कि नानकमत्ता स्थान सिख धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता है। यहां गुरु नानक देव जी को समर्पित एक गुरुद्वारा भी है, जिसे गुरुद्वारा नानकमत्ता साहिब के नाम से जाना जाता है। यहाँ सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द साहिब जी भी यहां आए थे।
   यहाँ के नानकसागर बाँध गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब के पास ही है इसलिये इसे नानक सागर के नाम से भी जाना जाता है। गुरुद्वारा नानकमत्ता साहिब के नाम से ही इस जगह का नाम नानकमत्ता पड़ा। नानक सागर डेम पास में ही स्थित है, जिसे नानक सागर के नाम से जाना जाता है। वैसे तो यहाँ सभी धर्म के लोग आपसी प्रेम भाव के साथ रहते हैं पर यहां सिख धर्म के लोगों की संख्या अन्य ज्यादा है।गुरुद्वारे के अंदर एक सरोवर है, जिसमें अनेक श्रद्धालु स्नान करते है और फिर गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं।सभी धर्म जाति जनजाति के लोग यहाँ आते है।सब की श्रद्धा का केंद्र यह स्थान है कहते हैं गुरुनानक देव का आशीर्वाद सब श्रद्धालुओं को मिलता है और कोई भी यहां से खाली हाथ,भूखे पेट नहीं लौटता। नानकमत्ता के ख्याति के कारण में गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब में श्रद्धालुओं का जनसैलाब हमेशा उमड़ा रहता है। श्रद्धालुओं ने दरबार साहिब में शीश नवाकर परिवार व कारोबार की उन्नति की अरदास करते है। श्रद्धालुओं ने पंजा साहिब, श्री छेवीपातशाही, गुरुद्वारा, दूध वाला कुआं, बाऊली साहिब, चित्र प्रदर्शनी के दर्शन भी करते हैं। 




Wednesday, November 18, 2020

शहर

ज़िन्दगी में कभी कभी ऐसा वक़्त आता है कि हमारे पास कोई #ऑप्शन ही नहीं रहता.. हम चारों तरफ से घिर चुके होते हैं। हालात भी ऐसे ही जाते हैं कि कोई #हौसला बढ़ाने के लिए भी नहीं रहता है.. उस वक़्त हम पूरी तरह से टूट चुके होते हैं.. ऐसे #वक़्त के लिए मै आपसे कुछ कहना चाहूंगा की..
https://youtu.be/I7IDNp_kbJc


सपना एक देखो, मुश्किल हजार आएगी
लेकिन वो मंजर बड़ा #खूबसूरत होगा जब #कामयाबी शोर मचाएगी..

 इसलिए कितना भी #खराब परिस्थिति कियों ना हो #सपने देखना कभी बंद मत करो क्योंकि अगर आपने सपने देखना बन्द कर दिया है तो इसका मतलब है कि आपने जीते जी #आत्महत्या कर ली है..



     मायुश मत हो बंदे
वजूद तेरा छोटा नहीं,,
अरे तू वो कर सकता है
जो किसी ने सोचा नहीं..!!

इतना ही सलाह दे रहा हूं कि जितना पढ़ो उसका #नोट्स बनाते जाओ साथ ही अधिक से अधिक रिवीजन करो क्योंकि #रिसर्च से पता चला है पढ़ाई के बाद रिवीजन ना करने की वजह से ज्यादातर लोगों को पढ़ा हुआ #केवल 60% ही याद #रहता है इसलिए कम ही #पढ़ो लेकिन जितना पढ़ो उसका #रिवीजन करते जाओ

           आगे फिर आपके लिए कुछ #अनोखा लेके #आऊंगा ... आप अपनी परेशानी #कॉमेंट बॉक्स में हमें बता सकते हैं #अगला पोस्ट आपकी परेशानी के ज़िक्र के साथ उसका #समाधान लेके आऊंगा..

आपलॉगों से #निवेदन है कि पोस्ट को ज्यादा शेयर करें ताकि हम सब का हौसला बढ़े और आगे इससे बेहतर पोस्ट लाई जा सके .. 

      

प्रेमचंद

प्रेमचंद को कैसे जाने ?
 प्रेमचंद को पढ़ने की इतनी दृष्टियाँ हैं ,इतने विचार हैं,इतनी उठापटक है  कि इन सबके बीच मूल प्रेमचंद छुप से जाते हैं। यह कोई आज की ही बात नहीं है ,जब से  प्रेमचंद ने लिखना शुरू किया विवाद उनके पीछे लगे रहे हैं । कोई कहेगा कि ग्राम जीवन तो ठीक ,शहरी  जीवन प्रेमचंद से नहीं सधता,कोई कहेगा समाज का बाहरी स्वरूप तो है ,मन की जटिलताओं की समझ नहीं हैं,कोई कहेगा स्त्री मन की समझ नहीं है  ।  इस क्रम में प्रेमचंद पर  बहुतेरे हमले भी हुए। पहला हमला उनको घृणा का प्रचारक कह कर किया गया । प्रेमचंद ने साहित्य के परिसर को विस्तार दिया । शताब्दियों से जिनका जीवन और जीवन संघर्ष साहित्य के दायरे से बहिष्कृत था ,उन्हें साहित्य के दायरे में ले आए । जब साहित्य के परिसर में सूरदास ,होरी,धनिया ,दुक्खी ,मंगल ,गंगी ,घीसू ,माधो जैसे पात्रों का दाखिला हुआ और उनके जीवन की कहानी कही जाने लगी।  

साहित्य के परिसर पहले से जड़ जमाये बैठे लोगों की जमीन सरकनी शुरू हुई ।  बुरा लगना स्वाभाविक था। सो प्रेमचंद के ऊपर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगा ,मुकदमे हुए। प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कहकर निंदित किया गया । और प्रेमचंद को इसी नजर देखने का प्रस्ताव  हुआ ।

गोरखपुर में गांधी का आगमन हुआ । प्रेमचंद गांधी को सुनने गए और लौट कर थोड़े दिन में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया । 

पूर्णकालिक लेखन में लग गए । गांधी और गांधी के आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति थी, लिहाजा प्रेमचंद का एक गांधीवादी पाठ तैयार हुआ और उन्हें गांधीवाद के दायरे में पढ़ने का नजरिया सामने आया ।

मृत्यु के थोड़े दिन पहले  प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता  की थी।  प्रगतिशील लेखक संघ ही नहीं प्रगतिशील धारा ने प्रेमचंद को अपने गोल में शामिल मान लिया और प्रेमचंद का प्रगतिशील पाठ आया । प्रगतिशीलता के चैम्पियन के रूप में प्रेमचंद पढे और देखे गए। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के रूप में प्रेमचंद ने  ‘साहित्य का उद्देश्य’ शीर्षक व्याख्यान दिया था जिसे  प्रगतिशीलता  के घोषणा पत्र का दर्जा मिला। लेकिन प्रेमचंद के इसी व्याख्यान से सूत्र लेकर उन्हें प्रगतिशीलता के दायरे से बाहर देखने का प्रस्ताव भी किया गया। प्रेमचंद के कथन ‘लेखक स्वभावत: प्रगतिशील होता है’,के हवाले से उन्हें प्रगतिशील खेमें से बाहर दिखाने की कोशिशें होती रहीं।और प्रेमचंद का हिन्दू पाठ भी तैयार हुआ ।  मजे की बात यह कि प्रगतिशील खेमें में प्रेमचंद की जितनी स्वीकार्यता  थी प्राय: उतनी ही प्रगतिशीलता विरोधी समूह में। 




प्रेमचंद ने अपने इसी व्याख्यान में कहा था –‘साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं  बल्कि राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है’ । प्रेमचंद का यह वाक्य मार्क्सवाद के आधार और अधिरचना वाली थीसिस के विरुद्ध था, इसलिए कुछ अतिवाम लोगों ने प्रेमचंद की समझ को प्रश्नांकित भी किया। इसी क्रम में दलित आंदोलन आया और उसने प्रेमचंद को दलित विरोधी करार दे दिया । प्रेमचंद को खारिज करने वाली किताबें लिखी गईं, तक़रीरें हुईं और रंगभूमि की प्रतियाँ तक जलायी गईं।

इस नजरिए से देखें तो  लेखक प्रेमचंद का व्यक्तित्व बहुत दिलचस्प है। परस्पर विरोधी धाराओं ने उन्हें स्वीकार भी किया तो लांछित और निंदित भी किया ।  एक ओर वे ब्राह्मण विरोधी और घृणा के प्रचारक माने गए तो  दूसरी ओर उन्हें दलित विरोधी और सवर्ण करार दिया गया । इन सारी बातों के बावजूद समाज में प्रेमचंद की मौजूदगी बदस्तूर बनी हुई है । साहित्य पढ़ना –पढ़ाना   जिनकी रोजी रोटी है उनको छोड़ भी दें तो प्रेमचंद की जयंती पर दूर दराज से कुछ बोलने और लिखने के अनुरोध आने लगते हैं।


 हिन्दी समाज में लेखक के रूप में प्रेमचंद की लोकप्रियता की तुलना कबीर और  तुलसीदास जैसी है । (संयोग यह कि तुलसीदास और प्रेमचंद की जयंती आस पास ही होती है,और यह संयोग कि प्रेमचंद जयंती के लिए यह टिप्पणी आज तुलसी जयंती के दिन लिख रहा हूँ। ) इसलिए जो जनता प्रेमचंद से इतना प्यार करती  है,वह इस पचड़े में नहीं पड़ती कि प्रेमचंद गांधीवादी हैं कि समाजवादी ,मार्क्सवादी हैं कि राष्ट्रवादी वह केवल यह देखती है प्रेमचंद हमारे हैं और हमारे रोज़मर्रा के सवालों ,समस्याओं को संबोधित करने वाले लेखक हैं। प्रेमचंद को मानने  वाले लोगों में इतनी विविधता है कि उन्हें किसी एक कोटि में रखना संभव नहीं है । इसलिए प्रेमचंद को पढ़ते समय कोई एक सरणि चुनना प्रेमचंद को सीमित करना है ।

कभी कभी मुझे लगता है कि प्रेमचंद को पढ़ते समय किसी आलोचक अथवा किसी वादी –विवादी दृष्टिकोण के बजाय प्रेमचंद से प्यार करने वाले पाठकों के नजरिए से प्रेमचंद को पढ़ा जाय । लेकिन सवाल यह भी है कि उस सूत्र को कैसे पकड़ें जिसके नाते प्रेमचंद इतने महबूब लेखक बने हुए हैं। इस पर विचार करते हुए मेरे ध्यान में दो निबंध आए जिन्हें किसी आलोचक ने नहीं; बल्कि दो रचनाकारों ने लिखे हैं। एक लेख हिन्दी के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का है –‘मेरी मन ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया’और दूसरा लेख हिन्दी के कथाकार व्यंग्यकर हरीशंकर परसाई का है –‘प्रेमचंद के फटे जूते’। मजे कि बात यह है कि इन दोनों लेखकों ने प्रेमचंद पर लिखते हुए किसी कहानी ,उपन्यास या अग्रलेख्न को आधार नहीं बनाया है। आधार किसी विचार सरणि को भी नहीं बनाया है। दोनों लेखकों को प्रेमचंद पर लिखने कि प्रेरणा उनकी फोटो देखकर हुई। परसाई लिखते हैं :’प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ – फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है’। अब मुक्ति बोध का बयान सुन लीजिए- ‘एक छाया-चित्र है । प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं । प्रसाद गम्भीर सस्मित । प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य । विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है । प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है । जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही है । फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं । उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं’ । यानि दोनों लेखकों को प्रेमचंद कि सहज रहनि आकृष्ट करती है । ध्यान से देखें तो दोनों लेखकों ने प्रेमचंद का जो चित्रा खींचा है वह एक आम भारतीय का ही चित्र है। हमारे ये दोनों लेखक हमें यह बताते हैं कि प्रेमचंद की असाधारणता का स्रोत वास्तव में उनकी साधारणता में है । यह साधारणता या सहज रहनि हिन्दी के भक्त कवियों की बानी  से छन कर आती है।  

मुक्तिबोध लिखते हैं- ‘मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी । यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी । वह स्वयं उत्पीड़ित थी । और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी’ । इससे पता चलता है कि मुक्तिबोध की माँ एक साधारण स्त्री थीं । उन्हें हम भारतीय समाज की प्रतिनिधि स्त्री कह सकते हैं । वे देख पाती हैं कि उनके दुखों का जैसा वर्णन प्रेमचंद कर पाते हैं वैसा और कोई नहीं कर पाता। मुक्तिबोध को माँ के हवाले से प्रेमचंद मिलते हैं । माँ के जरिए मिले प्रेमचंद मुक्तिबोध जैसे लेखक को आत्मोंमुख बनाते हैं। मुक्तिबोध को प्रेमचंद अलग तरीके से प्रभावित कराते हैं । मुक्तिबोध लिखते हैं-‘ (प्रेमचन्दजी) उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट उँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती है, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती है । और अब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिकता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं । प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी है’ । मुझे लगता है कि भारत कि जो जनता प्रेमचंद से बेइंतहा प्यार करती है वह इसलिए कि वे सच्चे लेखक कि तरह हमारी आत्मा का शिल्पन करते (गढ़ते)हैं।

दूसरी तरफ परसाई हैं जो जूता कैसे फटा पर विचार करते हुए संत कवि कुंभन्दास को याद करते हैं और प्रेमचंद से ही पूछ बैठते हैं –‘चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?’ फिर परसाई इस सवाल का उत्तर देते हुए कहते हैं –‘मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया’।परसाई इशारा करते हैं कि प्रेमचंद समाज में मौजूद बहुत से पत्थरों को जो राह  में ठोकर की तरह मौजूद हैं उन पर प्रहार करते  हैं। इसलिए प्रेमचंद उन लोगों की पहली पसंद हैं जिनकी राह में ठोकर मौजूद हैं ,जब तब ठेस लग  जाती है । ऐसे लोग प्रेमचंद को अपना हमसफर पाते हैं।

नीरज

https://youtu.be/LpYjGdImlao

रंगीला रे .......

कक्षा सात की पाठ्य पुस्तक में पहली बार- "जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना"- कविता को याद करते और उसके अंश की सन्दर्भ सहित व्याख्या करते हुए श्रद्धेय गोपाल दास नीरज जी का नाम पहली बार मैंने अपनी कॉपी पर लिखा था ।

..

.मैंने भी बचपन में दूरदर्शन से प्रसारित कवि सम्मेलन में नीरज जी को सुना.....न्यूज़ पेपर्स में कभी भी कवि सम्मेलन की खबर छपती थी तो अक्सर ही मंच की खबर के साथ उनकी पढ़ी हुई पंक्ति भी छपती थी ,उन पंक्तियो को डायरी में नोट करना मेरे शौक का एक हिस्सा था उसी हिस्से में मैंने अपनी डायरी में 

" कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे" सहेजा था 
   कवि सम्मेलन का ज़िक्र हो तो कवि के रूप में जो सबसे पहला चेहरा सामने आता उसमे एक वो नीरज जी का ही होता था।मैंने ये भी पढ़ रखा था कि उन्होंने फिल्मो में भी लिखा।पर कौन सा गीत ?नही पता था ।मैं ही क्या अधिकाँश लोग उनके न जाने कितने गीत गुनगुनाते और गाते होंगे पर शायद ही जानते हो कि ये पंक्तिया नीरज जी की लिखी हुई है।
     कविताओं का आकर्षण  मुझे पहले मेरी डायरी की ओर ले गया और फिर धीरे धीरे इसने  काव्यकुल की पहली ही सीढ़ी सही पर मुझे भी  हिस्सा बना दिया। वास्तव में अब जा कर अहसास हुआ था ।
श्रद्धेय नीरज जी के कद और व्यक्तित्व के बारे में ,अब पता चला कि वहीदा रहमान पर पिक्चराइज ....रेडियो पर अक्सर ही छायागीत में सुनाई देने वाला ....रंगीला रे --नीरज जी की कालजयी रचना है ....
प्रेमी के  विरह को व्यक्त करने वाला गीत और वो भी एक पुरुष गीतकार द्वारा उफ्फ्फ....

रंगीला रे, तेरे रँग में
यूँ रँगा है मेरा मन
छलिया रे, ना बुझे है
किसी जल से ये जलन
ओ रंगीला रे..

दुःख मेरा दुल्हा है, बिरहा है डोली
आँसू की साड़ी है, आहों की चोली
आग मैं पियूँ रे, जैसे हो पानी
नारी दिवानी हूँ, पीड़ा की रानी
मनवा ये जले है, जग सारा छले है
साँस क्यों चले है पिया
वाह रे प्यार, वाह रे वाह
रंगीला रे तेरे रंग में......

जाने कितने ही गीतों को अब मैं जानता हूँ कि ये नीरज जी के लिखे हुए है, गीत के एक एक शब्द में आम व्यक्ति की अभिव्यक्ति को उतार देना ही नीरज जी को नीरज बनाता है ....
कविता प्रेमियों को उनके गीत उनके मुक्तक रटे हुए है ....
अब तो मजहब भी कोई ऐसा चलाया जाए 
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाय

गीत चुप है ग़ज़ल खामोश है रुबाई है उदास
ऐसे माहौल में नीरज को बुलाया जाय....

किसी एक पंक्ति का ज़िक्र करना कम है क्योंकि एक को लिखते समय दूसरी स्वतः याद आती है कि अरे ये भी तो है फिर दूसरी फिर तीसरी ...यूँ भी कह सकते है एक सांस में अनगिनत पंक्तियाँ नीरज जी की याद आ जाती है ..इसी लिए नीरज जी गीतऋषि है उनके लिए कितनी उपमाएं वक्ता या लेखक लिखते है और हर उपमा लिखने या बोलने के बाद भी उन सभी को असन्तुष्टि रह जाती है कि वो अभी नीरज जी के बारे में और अच्छा कह सकते थे.... 
https://youtu.be/LpYjGdImlao


ईश्वर दिवंगत आत्मा को शान्ति दे और सभी को इस दुःख को सहने की शक्ति दे 
ॐ शान्ति ॐ शान्ति.....

राम

आप सभी को 'राम' 'राम'। 

https://youtu.be/g23p9HlTlVU

और राम से  सच्चा प्रेम रखते हैं, तो समय निकाल कर पढ़िए।
 
"राम-राम" शब्द कोई सामान्य नहीं है।सनातन संसार के समस्त साहित्य को धार्मिकता की दृष्टि से देखें 80% राम और कृष्ण के ही बारे में ही है,राम शब्द के बारे में स्वयं तुलसीदास जी ने कहा है कि ,
  "करऊँ कहां लगी नाम बड़ाई।
 राम न सकहि नाम गुण गाई"।।
  स्वयं राम भी राम शब्द की व्याख्या नहीं कर सकते ऐसा राम नाम है जैसा कि मैंने पहले कहा राम-राम शब्द जब भी प्रणाम होता है दो बार कहा जाता है इसके पीछे एक बहुत बड़ा वैदिक दृष्टिकोण है पूर्ण ब्रह्म का जो  मात्रिकगुणांक है 108है, वह राम- राम शब्द दो बार कहने से पूरा हो जाता है क्योंकि हिंदी वर्णमाला में"र" 27 वा अक्षर है, आ, की मात्रा दूसरा अक्षर ,और "म"25वां अक्षर इसलिए सब मिलाकर 54, गुणांक बनता है और दो बार राम राम कहने से 108 हो जाता है जो पूर्ण ब्रह्म का द्योतक है।
https://youtu.be/g23p9HlTlVU

    आदरणीय सज्जनों राम ,समस्त शास्त्रों के शाश्वत शिल्प के रूप में आज भी बरकरार है, राम विश्व संस्कृत के अप्रतिम मानव हैं, वे सभी सुलक्षण, सद्गुणों, सदा चरणों से युक्त हैं, वे मानवीय मर्यादाओं के पालक एवं संवाहक है।इसलिए एक संपूर्ण मानव है।सामाजिक जीवन मे देखें, राम आदर्श मित्र हैं, राम आदर्श पुत्र हैं, राम आदर्श पति हैं, राम आदर्श शिष्य हैं ,राम आदर्श स्वामी है, राम आदर्श है,अर्थात समस्त आदर्शों के एक मात्र 'न्यादर्श' राम हैं ,ईसलिय केवल एक राम है,जिन्हे भूतपूर्व राजा राम नही बल्कि 'राजारामचन्द्र की जय' कहा जाता है।

 'राम' शब्द की उत्पत्ति के बारे में बहुत सारे विद्वानों ने बहुत सारी बातें कही हैं। किसी ने राम को संस्कृत की दृष्टि से 'रम' और घम' धातु से  उतपन्न बताया है ,रम ,का मतलब रमना होता है और घम का मतलब होता है कि ब्रह्मांड का खाली स्थान अर्थात राम का अर्थ हुआ कि सकल ब्रह्मांड में जो रमा हुआ है।
  कहीं-कहीं मिलता है कि 
  'रमंते योगिन्ह यश्मिन रामः" 
 अर्थात जो योगियों में रमण करते हैं वही राम है ,राम के बारे में विद्वानों ने लिखा है कि रतिऔर महीधर शब्द से जिसमे रति के र का तातपर्य परम् ज्योतितसत्ता ,और महिधर के म से लेकर के संपूर्ण विश्व के जो सर्वश्रेष्ठ ज्योतिष सत्ता है वह राम है।  

   साहित्य का अध्ययन करें तो  'रावणस्य मरणम राम,'

अर्थात राम वह है जो रावण को मारता है, 



  इसलिए परम् प्रकाशक रामू।तुलसी ने उस डिवाइन लाइट की बात की,अर्थात राम का अर्थ आभा अथवा कांति है इसमें रा का अर्थ आभा से है और म का अर्थ मैं और मेरा है ,कहने का तात्पर्य है राम वह है जो मेरे अंदर जीवंतता प्रदान करता है।
  राम के बारे में बहुत सारी कथाएं बताती है, राम विराम है ,राम विश्राम है, राम अभिराम है, राम आनन्द है ,राम आरोग्यहै, यहां एक बात और स्पष्ट कर देना है कि राम,के विभन्न उपासको ने राम चरित्र चित्रण अलग अलग किया है,जैसे बाल्मीकि जका 'राम' वेदना युक्त हैं तो भवभूति का 'राम' इतना दुखी है कि वह पत्थर को भी रुला सकता है ,तुलसी का राम मर्यादा में पड़ा हुआ है मर्यादा कभी नहीं छोड़ता और तुलसी के राम  तो जनता के सुख-दुख से प्रतिध्वनित राम है।
  
   राम विश्व संस्कृति के अप्रतिम मानव हैं यही कारण है कि रामलीला मानव जीवन का नवोत्थान है, यह महोत्सव आत्मचिंतन और व्यवहार की समीक्षा करता है इसलिए कॉल दर काल से इसकी समकालीनता बनी हुई है ।गांधीजी का विचार देखें तो हम पाते हैं कि गांधी का राम विश्व संस्कृति के प्रतीक 'राम' है इसलिए राम के बारे में कुछ कहना राम के बारे में सोचना सामान्य नहीं है,
 राम निराश्रित जनों की  'सन्धि' है, हारे हुए लोगों के वह 'समास' हैं।कहा भी गया है कि 
'हारे को हरिनाम' '
 विपत्ति में राम का काम विनय विवेक कि जागृत करना है, राम संकल्प समर्पण स्वसृजन और आंतरिक क्रांति के जनक हैं इसलिए 'राम' को परम तत्व के रूप में स्वीकार किया जाना माना जाता है ।

  राम शब्द या राम नाम रखते समय वशिष्ठ ने स्वयं कहा था!
"जो आनंद सिंधु सुखरासी। 
 सीकर ते त्रैलोक सुपासी ।।    
सो सुखधाम राम  अस नामा ।
अखिल लोकदायक विश्रामा ।।
 कहने का तातपर्य जिस आनन्द सिंधु के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं।वह राम है,
राम नाम की महत्ता इतनी और दुर्भाग्य यह कि इस देश का,कि संसार में जिन जिन धर्मों के इष्ट हैं सबके अपने देवस्थान और यहां तक कि निश्चित रूप से सबकी अपनी प्रतीकों की व्यवस्था है परंतु भारत एक ऐसा अभागा देश रहा जहां राम  को स्वयं अपने जन्म स्थान के लिए 500 वर्ष इंतजार करना पड़ा और अभी दो दिन पूर्व राम अपने घर में आए ।
  सज्जनों 
इसलिए मैं मानता हूं कि राम का मंदिर यह नहीं है, बल्कि जन जन के राम हैं इसलिए राम के मंदिर को "राष्ट्र मंदिर "कहा जाना चाहिए। 

 राम के चरित्र पर रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि
' हे राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है !
  और कोई कवि बन जाए ,सहज संभाव्यहै"!!
 राम के बारे में हमारे आदरणीय बुद्धसेन जी ने कहा कि 
'समय शिला पर सूर्य रश्मि से लिखा तुम्हारा नाम।
  जग कहता धरती की धड़कन' हम कहते हैं राम।।
  हम कहते हैं राम।।
   सत्य न्याय और धर्म सनातन के मृणय आदर्श।
  श्रेष्ठ धनुर्धर तुमसे दीपित भारतवर्ष।  

पाकर मृदु संस्पर्श, बन गया दंडक वन भी धाम।।

बामन से विराट तक  सबका जो है पालनहार।
   करुणा सागर पाठजनों के दुखियों के आधार।   

मर्यादा की शिखर कल्पना पाती जहां विराम।
   जग कहता धरती की धड़कन हम कहते हैं राम।।
  हम कहते हैं राम।।
   राम के बारे में सनातन धर्म के घोर विरोधी बौद्धों ने भी राम के महत्व को समझा, विद्वानों बौद्ध धर्म में दशरथ जातक 'दशरथ कथानिकम' राम के बारे में लिखा गया है आठवीं शताब्दी में जब बौद्धों का' उत्कर्ष था तब 'तिब्बती रामायण लिखी गई और नवमी शताब्दी में जब मुगलों का उत्कर्ष था तो तुर्की जैसे देश में 'खोताई रामायण' लिखी गई। भारत में राम पर जितना लिखा गया है संसार के ग्रंथाल्यो रखने की जगह नही रह जायेगी ।सम्पूर्ण पृथ्वी भर सकती हैं, 

  "असितगिरीसम कंजलम सिन्धुपात्रे लेखान्यामपत्रामुरवी।
 लिखति यदि ग्रहीत्वा शारदासर्वकालम तदपि तव गुणानाम ईशं पारं न याति।।

   अर्थात संसार में जितने भी पर्वत हैं उनकी स्याही बना दी जाए और समुद्र में उसे घोर दिया जाए, जितने वृक्ष हैं उनकी शाखाओं को कलम बना दी जाए और सर्वकाल स्वयं सरस्वती लिखें तब भी आपके गुणों को नहीं लिखा जा सकता ।
 क्योंकि 'हरि अनंत हरि कथा अनंता!! 

राम के धैर्य राम की सहनशक्ति और राम की समरसता का पालन सब नहीं कर सकते क्योंकि गरीब से गरीब के जुड़ने के कारण ही राम को "गरीब नवाज" ,निर्बल के बल राम"कहा गया राम की संस्कृति में बांट कर खाने की संस्कृति है उसमें एकत्र करने कि कहीं विकृति नहींहै। राम-राम है आप रामचरितमानस को देखें तो लिखा गया है 'विरुद्ध वैभव भीम रोग के" अर्थात 'करोना' जैसी महामारी के समय राम का धैर्य' राम की प्रकृति उपासना; राम की जनसेवा राम की पावित्रता ,राम की शारीरिक दूरी, राम की स्वच्छता राम की निराश्रित जनों से प्रेम ,वाकई राम की संस्कृति को ला सकता  यही से करोना से मुक्ति की  भी शिक्षा मिलती है।मेरा मानना है रामचरितमानस को, राम की ज्योति सत्ता को जानने के लिए सकल ब्रह्मांड में निहित राम को जानने के लिए जरूर पढ़ना चाहिए। हमारी भारतीय संस्कृति में अभिवादन प्रणाम में दो बार 'राम राम' कहने की जो संस्कृति है आप उसे जान ही चुके हैं समर्थ गुरु रामदास ने उस संस्कृति में 'जयराम' जोड़ा इसलिए किसी से नमस्ते करने में राम-राम अथवा 'जयराम'कहा जाता है। राम के बारे में लिखना राम के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाना है मन की एक विचारधारा थी लिख दिया हूं।   

   रामनवमी पर यह विशेष आग्रह था आपके श्री चरणों में समर्पित है श्रीरामावतार, रामनवमी पर्व पर आपको बधाई देता हूं,प्रभु श्रीराम से आपके सुंदर सुखद जीवन की मंगल कामना करता हूं, मेरी पूरी पोस्ट पढियेगा,यह प्रार्थना है।
  
राम के जीवन से यही सीख मिलती है,जब व्यक्ति सन्तुलित जीवन चर्या रखेगा तो उसके जीवन मे सदाचार खुद ब खुद आजाएगा, वह प्रकृतिस्थ हो जाएगा,परोपकारी,जीवों पर दयाकारी हो जायेगा, तब  अलौकिक कान्तियुक्त स्वस्थ होगा,
 मध्य दिवस अरु शीत न घामा,  अर्थात न आलसी बनिये और न व्यवहार से आक्रामक,जब आप आध्यत्म भरा कर्तब्यनिष्ठ जीवन जियेंगे तो आपका शरीर और मन सन्तुलित हो जाएगा  और आप 'राम' जैसे हो जाएंगे, तभी आपका विवेक जागृत हो जाएगा,और दुष्प्रवित्तियाँ स्वतः हटने लगेगी, करोना जैसी बीमारी मुक्त हो जाएगी।
अयोध्या जो भगवान का घर है,उसका तातपर्य जहाँ युध्द न हो,अर्थात स्वार्थ साधना की प्रवित्तियों पर विजय,'हर्षित महतारी'शब्द आया है ,जीवन को सद्कर्मो से पोषित करने पर मातृरूपी प्रवित्तिया बढ़ती है,अर्थात राष्ट्र भावना,परोपकार,दया,करुणा जागृति होती है,यही जागृति होना हर्षित होना है, 
  
अंत मे यही कहूंगा कि श्रीराम अवतार लेते है,जन्म नही,काश राम के कुछ ही गुण रूपी अवतार हम अपने  में ला लेते तो श्रीरामावतार के इस पर्व की सार्थकताऔर बढ जाती ।

इस अवसर पर भगवान राम से समकालीन समाज की सोच क्या है,इससे मुक्ति हेतु मिथलेश जी की रचना
  "है  रामनवमी  पर्व  पर  श्री  राम   तुमसे   याचना।

फिर पापपीड़ित भूमि पर अवतार लो यह प्रार्थना।।

तब से जटिल दुर्जेय जीवन की समस्या आज है।
इस हेतु रोग असाध्य-सा अब धर्म रक्षा काज है।।

तब-सी न केवल एक लंका भूमि पर अब आज है।
अब लोभ की लंका करोड़ों दाद में  ज्यों खाज  है ।।

अपराध -भ्रष्टाचार  के  रावण  अनंतानंत  अब ।
नर के हृदय के लंक में रहते छिपे ज्यों संत अब।।

उनके अमानुष कृत्य से धरती  दहलती जा  रही।
परिणाम में 'करोना' आदिक आपदा नित आ रही।।

नित निशिचरी संत्रास  से है शांति सबकी खो गई।
है नरक- जैसी जिंदगी अतिशय मनुज की हो गई।।

उद्धार करने भूमि  का  फिर राम जी अवतार लो।
इस  रामनवमी पर्व पर मम प्रार्थना स्वीकार लो ।

 

Tuesday, November 17, 2020

पत्र

https://youtu.be/A61Dj2ruKR4
मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में सारेलोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बातमेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूँ कि आप उसे यह बताएँ कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होताहै। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे सिखाएँ कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूँ। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पाँच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है।आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाएँ। साथ ही यह भी कि खुलकर हँसते हुए भी शालीनताबरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएँगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को धूप, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मँडराती तितलियों को निहारने की यादभी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूँ कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।मैं मानता हूँ कि स्कूल के दिनों मेंही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है।किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी कोकिस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल ना करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएँ उतनाउसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।आपका अब्राहम लिंकन

सनातन धर्म

क्या आप अपने सनातन हिंदू धर्म को जानते हैं ?


हमें हिन्दू धर्मानुसार किस तरह जीवन यापन करना चाहिए या असल में हिन्दू धर्म क्या है ।

# होते हैं 10 कर्तव्य:- 1.संध्यावंदन, 2.व्रत, 3.तीर्थ, 4.उत्सव, 5.दान, 6.सेवा 7.संस्कार, 8.यज्ञ, 9.वेदपाठ, 10.धर्म प्रचार।...क्या आप इन सभी के बारे में विस्तार से जानते हैं और क्या आप इन सभी का अच्छे से पालन करते हैं?

# ये 10 सिद्धांत:- 1.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति (एक ही ईश्‍वर है दूसरा नहीं), 2.आत्मा अमर है, 3.पुनर्जन्म होता है, 4.मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है, 5.कर्म का प्रभाव होता है, जिसमें से ‍कुछ प्रारब्ध रूप में होते हैं इसीलिए कर्म ही भाग्य है, 6.संस्कारबद्ध जीवन ही जीवन है, 7.ब्रह्मांड अनित्य और परिवर्तनशील है, 8.संध्यावंदन-ध्यान ही सत्य है, 9.वेदपाठ और यज्ञकर्म ही धर्म है, 10.दान ही पुण्य है।



# महत्वपूर्ण 10 कार्य : 1.प्रायश्चित करना, 2.उपनयन, दीक्षा देना-लेना, 3.श्राद्धकर्म, 4.बिना सिले सफेद वस्त्र पहनकर परिक्रमा करना, 5.शौच और शुद्धि, 6.जप-माला फेरना, 7.व्रत रखना, 8.दान-पुण्य करना, 9.धूप, दीप या गुग्गल जलाना, 10.कुलदेवता की पूजा।

# ये 10 उत्सव : नवसंवत्सर, मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, पोंगल-ओणम, होली, दीपावली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्‍टमी, महाशिवरात्री और नवरात्रि। इनके बारे में विस्तार से जानकारी हासिल करें।

# 10 पूजा : गंगा दशहरा, आंवला नवमी पूजा, वट सावित्री, दशामाता पूजा, शीतलाष्टमी, गोवर्धन पूजा, हरतालिका तिज, दुर्गा पूजा, भैरव पूजा और छठ पूजा। ये कुछ महत्वपूर्ण पूजाएं है जो हिन्दू करता है। हालांकि इनके पिछे का इतिहास जानना भी जरूरी है।
 
# ये 10 पवित्र पेय : 1.चरणामृत, 2.पंचामृत, 3.पंचगव्य, 4.सोमरस, 5.अमृत, 6.तुलसी रस, 7.खीर, 9.आंवला रस और 10.नीम रस। आप इनमें से कितने रस का समय समय पर सेवन करते हैं? ये सभी रस अमृत समान ही है।

# ये 10 पूजा के फूल : 1.आंकड़ा, 2.गेंदा, 3.पारिजात, 4.चंपा, 5.कमल, 6.गुलाब, 7.चमेली, 8.गुड़हल, 9.कनेर, और 10.रजनीगंधा। प्रत्येक देवी या देवता को अलग अलग फूल चढ़ाए जाते हैं लेकिन आजकल लोग सभी देवी-देवता को गेंदे या गुलाम के फूल चढ़ाकर ही इतिश्री कर लेते हैं जो कि गलत है।

# ये 10 धार्मिक स्थल : 12 ज्योतिर्लिंग, 51 शक्तिपीठ, 4 धाम, 7 पुरी, 7 नगरी, 4 मठ, आश्रम, 10 समाधि स्थल, 5 सरोवर, 10 पर्वत और 10 गुफाएं हैं। क्या आप इन सभी के बारे में विस्तार से जानने हैं? नहीं जानते हैं तो जानना का प्रयास करना चाहिए।

# ये 10 महाविद्या : 1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4. भुवनेश्‍वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला। बहुत कम लोग जानते हैं कि ये 10 देवियां कौन हैं। नवदुर्गा के अलावा इन 10 देवियों के बारे में विस्तार से जानने के बाद ही इनकी पूजा या प्रार्थना करना चाहिए। बहुत से हिन्दू सभी को शिव की पत्नीं मानकरपूजते हैं जोकि अनुचित है।

# ये 10 धार्मिक सुगंध : गुग्गुल, चंदन, गुलाब, केसर, कर्पूर, अष्टगंथ, गुढ़-घी, समिधा, मेहंदी, चमेली। समय समय पर इनका इस्तेमाल करना बहुत शुभ, शांतिदायक और समृद्धिदायक होता है।

# 10 यम-नियम :1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह। 6.शौच 7.संतोष, 8.तप, 9.स्वाध्याय और 10.ईश्वर-प्रणिधान। ये 10 ऐसे यम और नियम है जिनके बारे में प्रत्येक हिन्दू को जानना चाहिए यह सिर्फ योग के नियम ही नहीं है ये वेद और पुराणों के यम-नियम हैं। क्यों जरूरी है? क्योंकि इनके बारे में आप विस्तार से जानकर अच्छे से जीवन यापन कर सकेंगे। इनको जानने मात्र से ही आधे संताप मिट जाते हैं

# 10 बाल पुस्तकें : 1.पंचतंत्र, 2.हितोपदेश, 3.जातक कथाएं, 4.उपनिषद कथाएं, 5.वेताल पच्चिसी, 6.कथासरित्सागर, 7.सिंहासन बत्तीसी, 8.तेनालीराम, 9.शुकसप्तति, 10.बाल कहानी संग्रह। अपने बच्चों को ये पुस्तकें जरूर पढ़ाए। इनको पढ़कर उनमें समझदारी का विकास होगा और उन्हें जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी।

# 10 ध्वनियां : 1.घंटी, 2.शंख, 3.बांसुरी, 4.वीणा, 5. मंजीरा, 6.करतल, 7.बीन (पुंगी), 8.ढोल, 9.नगाड़ा और 10.मृदंग। घंटी बजाने से जिस प्रकार घर और मंदिर में एक आध्यात्मि वातावरण निर्मित होता है उसी प्रकार सभी ध्वनियों का अलग अलग महत्व है।

# 10 दिशाएं : दिशाएं 10 होती हैं जिनके नाम और क्रम इस प्रकार हैं- उर्ध्व, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और अधो। एक मध्य दिशा भी होती है। इस तरह कुल मिलाकर 11 दिशाएं हुईं। इन दिशाओं के प्रभाव और महत्व को जानकरी ही घर का वास्तु निर्मित किया जाता है। इन सभी दिशाओं के एक एक द्वारपाल भी होते हैं जिन्हें दिग्पाल कहते हैं।

10 दिग्पाल : 10 दिशाओं के 10 दिग्पाल अर्थात द्वारपाल होते हैं या देवता होते हैं। उर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।

# 10 देवीय आत्मा : 1.कामधेनु गाय, 2.गरुढ़, 3.संपाति-जटायु, 4.उच्चै:श्रवा अश्व, 5.ऐरावत हाथी, 6.शेषनाग-वासुकि, 7.रीझ मानव, 8.वानर मानव, 9.येति, 10.मकर। इन सभी के बारे में विस्तार से जानना चाहिए।

# 10 देवीय वस्तुएं : 1.कल्पवृक्ष, 2.अक्षयपात्र, 3.कर्ण के कवच कुंडल, 4.दिव्य धनुष और तरकश, 5.पारस मणि, 6.अश्वत्थामा की मणि, 7.स्यंमतक मणि, 8.पांचजन्य शंख, 9.कौस्तुभ मणि और 10.संजीवनी बूटी।

 हरि ॐ 
https://youtu.be/I7IDNp_kbJc

समाजशास्त्र बी0 ए0 प्रथम वर्ष 2021 समिति एवं संस्था समुदाय

समाजशास्त्र विभाग

बी0 ए0 प्रथम वर्ष 2020



समुदाय, समिति एवं संस्था | Community, Association and Institution 


समुदाय, समिति एवं संस्था (Community, Association and Institution)



समुदाय (Community)

समुदाय का तात्पर्य व्यक्तियों के ऐसे समूह से है ,जो किसी निश्चित भू-क्षेत्र में रहते हैं तथा सभी व्यक्ति
आर्थिक एवं राजनैतिक क्रियाओं में एक साथ भाग लेते हैं एवं एक स्वायत्त इकाई का निर्माण करते हैं |

 समुदाय का एक साझा मूल्य होता है जिससे वे एक दूसरे से जुड़े रहने की अनुभूति करते हैं | 

जैसे – गाँव, टोला ,पड़ोस ,कस्बा आदि | 

किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार “समुदाय वह सबसे छोटा क्षेत्रीय समूह जिसके अंतर्गत जीवन के सभी पहलू आ जाते हैं |”

गिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार समुदाय एक निश्चित भू-भाग में रहने वाली वह समस्त जनसंख्या है , जो सामान्य नियमों की व्यवस्था द्वारा जीवन की अंतःक्रिया को प्रभावित कर साथ-साथ रहते हैं |

समुदाय में सामाजिक संबंधों का होना आवश्यक नहीं है, इसमें अंतः क्रिया या संबंध हो भी सकता है और नहीं भी| वस्तुतः समुदाय निर्माण का मुख्य आधार स्वजातीय चेतना (Consciousness of Kind) या हम की भावना (We Feeling) होती है |

स्वजातीय चेतना उस चेतना को कहते हैं जिसके द्वारा समुदाय के सदस्य यह अनुभव करते हैं कि वे साझे रुप से समान विचारों ,लक्षणों तथा परिस्थितियों से बधें हैं | 

किसी एक पर समस्या या खतरा पूरे समूह या समुदाय के संकट के रूप में महसूस किया जाने लगता है | उदाहरण के लिए यदि गाँव में किसी के यहाँ चोरी या डकैती होती है तो गांव के सभी लोग संकट या डर महसूस करने लगते हैं | यही कारण है कि समुदाय में “हम की भावना” पायी जाती है |

बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार समुदाय का विचार पड़ोस से आरंभ होकर संपूर्ण विश्व तक पहुँच जाता है|

समुदाय की विशेषताएं

(1) व्यक्तियों का समूह (Group of Individuals) – समुदाय व्यक्तियों का समूह होता है | अतः यह एक मूर्त संगठन है ,जिसमें एक दूसरे की सहायता से सभी के सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है |

(2) निश्चित भू-भाग (Definite Territory) – प्रत्येक समुदाय का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है, इसे मैकाइवर स्थानीय क्षेत्र कहते हैं | कभी-कभी इस क्षेत्र में परिवर्तन भी होता है , जैसे उद्योग में वृद्धि होने से किसी गाँव की जनसंख्या में वृद्धि हो जाय , और उसके भ-ूक्षेत्र में विस्तार हो जाए |

(3) सामुदायिक भावना (Community Sentiments) – इसे हम की भावना भी कहते हैं | निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में लोगों के एक दूसरे के साथ रहने एवं जीवन की सामान्य गतिविधियों में भाग लेने से सामूहिक लगाव हो जाता है एवं समुदाय को व्यक्ति स्वयं से जोड़ लेता है | इसे ही सामुदायिक भावना कहते हैं |

(4) साझा संपूर्ण जीवन (Common Total Life) – प्रत्येक समुदाय के कुछ सामान्य नियम ,परम्पराएं, विश्वास, रीति-रिवाज आदि होते हैं ,जो उस समुदाय के लोगों को एकता के सूत्र में बाँधे रहता है | समुदाय में ही व्यक्ति की सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक , सांस्कृतिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , यहीं व्यक्ति का संपूर्ण जीवन व्यतीत होता है |

(5) स्वाभाविक विकास (Spontaneous Development) – समुदाय का निर्माण नियोजित रूप से नहीं किया जाता , बल्कि कुछ लोग जब एक साथ विशेष स्थान पर रहने लगते हैं , तो सभी लोगों उस समूह को अपना समूह मानने लगते हैं एवं इस तरह उनमें हम की भावना के निर्माण होने से समुदाय का निर्माण हो जाता है |

(6) आत्मनिर्भरता (Self Sufficiency) – समुदाय के व्यक्ति लगभग अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति अपने ही समुदाय से करता है , किसी अन्य समुदाय पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है |


सीमावर्ती समुदाय (Borderline Community)

मैकाइवर के अनुसार सीमावर्ती समुदाय की कुछ विशेषताएं तो समुदाय से मिलती हैं , लेकिन कुछ विशेषताएं समुदाय से भिन्न होती हैं |

 समुदाय की विशेषताओं के आधार पर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि यह समुदाय है अथवा नहीं |

 मैकाइवर ने ऐसे समूह को सीमावर्ती समुदाय कहा है | उनके अनुसार जाति, आधुनिक पड़ोस एवं जेल सीमावर्ती समुदाय के उदाहरण हैं |

समिति (Association)

मनुष्य अपने दिन-प्रतिदिन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति समुदाय से कर लेता है , किंतु उसके विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति समुदाय से नहीं हो पाती है | अतः विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब कुछ लोग संगठन बनाकर प्रयत्न करते हैं , तो ऐसे संगठन को समिति कहा जाता है | 

समिति में संगठित सामाजिक संबंध पाया जाता है एवं यह शक्ति के विभाजन पर आधारित होता है, जैसे किसी समिति का अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष अन्य सदस्य आदी |

 समिति के सदस्यों के उद्देश्य समान होते हैं | इस तरह समिति आर्थिक ,राजनीतिक ,धार्मिक ,सांस्कृतिक ,मनोरंजनात्मक उद्देश्यों के लिए कि प्राप्ति के लिए हो सकती है |

मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) के अनुसार "समिति मनुष्यों का एक समूह है जिसे किसी सामान्य उद्देश्य या उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संगठित किया जाता है |"

बोटोमोर (Bottomore) के अनुसार राज्य समाज के अंदर एक समिति है न कि पूर्ण समाज |

बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार "समिति से तात्पर्य लोगों का किसी खास उद्देश्य के लिए साथ-साथ कार्य करना है |"

समिति की विशेषताएं (Characteristics of Association)

(1) व्यक्तियों का समूह (Group of Individuals) – समिति का निर्माण कुछ लोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साथ मिलकर करते हैं | इस तरह यह एक मूर्त संगठन भी है |

(2) निश्चित उद्देश्य – उद्देश्य के निर्धारण के बाद ही समिति का निर्माण किया जाता है | किसी भी उद्देश्यहीन समूह को समिति नहीं कहा जा सकता है |

(3) एक औपचारिक संगठन (A Formal Organization) – समिति के सदस्यों का कार्य निश्चित नियमों के अनुसार निर्धारित कर दिया जाता है एवं प्रत्येक सदस्य शक्ति के विभाजन के आधार पर औपचारिक रूप से संगठित होकर कार्य करते हैं |

(4) ऐच्छिक सदस्यता (Voluntary Membership) – किसी भी समिति का सदस्य बनना या न बनना पूर्णतः व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है | व्यक्ति अपने हित या रुचि के अनुसार समिति का सदस्य बन सकता है एवं अपनी इच्छानुसार सदस्यता से त्यागपत्र दे सकता है |

(5) अस्थाई प्रकृति (Temporary Nature) – समिति साधारणत: कुछ निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनायी जाती है | उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाने पर समिति को समाप्त कर दिया जाता है |

(6) साध्य न होकर साधन (Means not End) – समिति स्वयं में साधन न होकर उद्देश्य प्राप्त करने का साधन है | जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी मनोरंजन क्लब का सदस्य है तो क्लब उसके मनोरंजन का साधन है न कि अपने आप में साध्य |

मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) के अनुसार छात्रसंघ ,राजनीतिक दल ,ट्रेड यूनियन , क्लब एवं व्यावसायिक संघ समिति के उदाहरण हैं |

समुदाय एवं समिति में अंतर (Difference between Community and Association)

समुदाय के द्वारा व्यक्ति की सामान्य आवश्यकता की पूर्ति होती है | लेकिन विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति समुदाय द्वारा नहीं हो पाती है , इस पूर्ति के लिए जब व्यक्ति अपने जैसे हित वाले व्यक्तियों के साथ तालमेल करता है एवं परस्पर सहयोग कर संगठित रूप सेे हितों को पूरा करने के लिए समूह का निर्माण करता है तो इसे समिति कहते हैं , जैसे क्रिकेट खेलने में रूचि लेने वाले व्यक्ति क्लब बनाकर सदस्य बन जाते हैं |

(1) समुदाय एक बड़ा मानव समूह होता है जबकि समिति में अपेक्षाकृत कम सदस्य होते हैं |

(2) समुदाय का एक निश्चित भू-क्षेत्र होता है,जबकि समिति भू-क्षेत्र से बँधी नहीं होती है |

(3) समुदाय का विकास स्वतः होता है, जबकि समिति को विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कृत्रिम रुप से बनाया जाता है |

(4) समुदाय की सदस्यता अनिवार्य होती है जबकि समिति की सदस्यता ऐच्छिक होती है

(5) समुदाय, प्रथाओं एवं परंपराओं के माध्यम से कार्य करती है , जबकि समिति निर्मित नियम के माध्यम से कार्य करती है |

(6) समुदाय में हम कि भावना प्रमुख तत्व होता है,जबकि समिति में हम की भावना आवश्यक नहीं है |

(7) समुदाय में व्यक्ति के समग्र जीवन का एक बड़ा भाग शामिल होता है,जबकि समिति में समग्र जीवन का छोटा भाग शामिल होता है |


संस्था (Institution)

संस्थान नियमों एवं कार्य-प्रणालियों की एक व्यवस्था है |यह अमूर्त होता है | जब एक ही इकाई को व्यक्तियों के संगठन के रूप में देखते हैं तो उसे हम समिति कहते हैं | लेकिन जब उसे एक निर्धारित एवं मान्य प्रणाली के रूप में देखते हैं तो वह संस्था हो जाती है | जैसे स्कूल , हॉस्पिटल आदि सदस्यों के रूप में समिति है लेकिन कार्य प्रणालियों के रुठ में संस्था है |

किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) के अनुसार "संस्था जनरीतियों एवं रूढ़ियों का ऐसा संगठन है ,जो अनेक कार्यों को करती है |"

संस्था के उद्विकासीय क्रम की चर्चा सर्वप्रथम डब्लू. जी. समनर (W. G. Sumner) ने अपनी पुस्तक फॉकवेज (Folkways) में किया एवं संस्थाओं को चरम जनरीतियों (Institutions are super folkways) से संबोधित किया | उनके अनुसार कोई विचार (Idea) या क्रिया की पुनरावृत्ति जब व्यक्तिगत स्तर पर होती है तो इसे आदत (Habit) कहते हैं ,जब इसे समूह द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है तो इसे जनरीति (Folkways) कहा जाता है | जनरीतियों के अंतर्गत व्यवहार के तरीके एवं शिष्टाचार आदि आते हैं , जो लोगों पर बाध्य तो नहीं होते लेकिन ऐसा करने की अपेक्षा समाज जरूर करता है | जनरीति में जब सामूहिक कल्याण की भावना एवं नैतिकता (Ethics) जुड़ जाती है तब यह लोकाचार (Mores) में बदल जाती है | लोकाचार वे नियम हैं जो लोगों पर बाध्य होते हैं | नियमों की अवहेलना व्यक्ति को दण्ड का भागीदार बनाता है ,जैसे – ड्रग लेना , धार्मिक कार्यों में विपरीत वस्त्र पहनना | लोकाचार के नियम जब एक निश्चित संरचना में व्यवस्थित हो जाते हैं ,तब उसे संस्था (Institution op) कहा जाता है |

अतीत से जुड़ी हुई जनरीतियों को प्रथा (Custom) कहते हैं | प्रथा का अनुपालन हम इसलिए करते हैं कि अतीत में ऐसा होता आया है | एलेक्स इंकल्स (Alex Inkeles) के अनुसार जनरीतियों को वैकल्पिक रुप से प्रथा कहा जाता है | (Folkways alternatively called customs) किसी देश के कानून निर्माण में प्रथा का बहुत ही महत्त्व होता है |

कहीं-कहीं तो प्रथागत कानून (Customary Law) पाए जाते हैं | जनजातीय समाज में तो प्रथा ही कानून के रूप में कार्य करता है | रूथ बेनेडिक्ट (Ruth Benedict) के अनुसार प्रथा वह चश्मा है ,जिसके बिना देखा नहीं जा सकता |(Custom is the lens without which one can not see at all.)

पारसन्स (Parsons) ने समाज के अस्तित्व के लिए पाँच मूलभूत संस्थाओं की चर्चा की है -

(1) परिवार (Family) (2) अर्थव्यवस्था (Economy) (3) राज व्यवस्था (Polity)
(4) शिक्षा (Education) (5) धर्म (Religion)

समनर ने संस्था को दो श्रेणियों में विभाजित किया -

(1) स्वत: निर्मित (Crescive) - इसकी उत्पत्ति लोकाचार से होती है | इसकी उत्पत्ति अचेतन रूप से होती है जैसे -संपत्ति ,विवाह ,धर्म आदि |

(2) निर्मित (Enacted) - निश्चित उद्देश्य के लिए चेतन रुप से संगठित किया जाता है ,जैसे - स्कूल ,कॉलेज ,बैंक आदि |

बेलार्ड (Ballard) ने संस्था के दो प्रकार बताए हैं -

(1) मूलभूत संस्थाएं (Basic Institutions) - यह सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक मानी जाती है ,जैसे परिवार ,अर्थव्यवस्था ,धर्म राजनीति व्यवस्था, शिक्षण व्यवस्था |
(2) सहायक संस्थाएं (Subsidiary Institutions) - यह समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक नहीं मानी जाती है ,जैसे - मनोरंजनात्मक संस्था |

संस्था की विशेषताएं

(1) रीति-रिवाज एवं कार्य-प्रणालियों की व्यवस्था (System of usage and Procedures) – संस्था व्यक्तियों का समूह न होकर नियमों एवं कार्य-प्रणालियों की व्यवस्था है | जब जनरीतियाँ, प्रथाएं आदि अधिक विकसित हो जाती हैं, तब इनसे संबंधित व्यवस्थित नियम बन जाते हैं जिन्हें संस्था कहते हैं |

(2) सुस्पष्ट उद्देश्य (Well defined objectives) – प्रत्येक संस्था के स्पष्ट उद्देश्य होते हैं जो सांस्कृतिक प्रतिमानों से बँधे रहते हैं , जैसे विवाह एक संस्था है इसका उद्देश्य संबंधों को नियंत्रित करना होता है |

(3) संस्कृति की वाहक (Transmitter of Culture) -संस्थाएं संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करती हैं ,उदाहरण के लिए परिवार एक संस्था है जो संस्कृति के हस्तांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है |

(4) अमूर्त प्रकृति (Abstract Nature) – संस्थाएं रीति- रिवाज एवं कार्य-प्रणालियों का एक गुच्छा है ,जो दिखाई नहीं देता | अतः यह अमूर्त है |

(5) स्थाई प्रकृति (Permanent Nature) – व्यवहार का कोई तरीका जब लंबे समय तक अपनी उपयोगिता सिद्ध कर देता है ,तभी वह संस्था का स्वरूप ग्रहण करता है | अतः इसकी प्रकृति स्थाई होती है|

समिति एवं संस्था में अंतर (Difference between Association and Institution)

संस्था नियमों की व्यवस्था है,जबकि समिति व्यक्तियों का समूह होता है | इस तरह समिति में भी जो नियम पाये जाते हैं ,उसे संस्था कहते हैं | इसीलिए मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) ने कहा है कि संस्थाएं समितियों के माध्यम से कार्य करती हैं |

जहाँ नियम प्राथमिक होंगे वह संगठन संस्था के रूप में जाना जाने लगता है एवं जहाँ व्यक्ति प्राथमिक एवं नियम गौण हो जाते हैं ,उसे मुख्यतः समिति के रूप में जाना जाता है | संस्था एवं समिति में अंतर को निम्न
बिंदुओं में भी देखा जा सकता है –

(1) समिति व्यक्तियों का संग्रह है, जबकि संस्था नियमों के संग्रह को व्यक्त करती है |

(2) समिति मूर्त होती है, जबकि संस्था अमूर्त होती है |

(3) समिति स्थायी प्रकृति की होती है, जबकि संस्था अपेक्षाकृत स्थायी होती है|

(4) समिति में निश्चित एवं सीमित लक्ष्य होते हैं,जबकि संस्था ,समितियों के लक्ष्य को प्राप्त करने के नियम रूपी साधन होते हैं |

(5) समिति को किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निर्मित किया जाता है, जबकि संस्था का निर्माण धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से होता है |

(6) समिति व्यक्तिगत हितों को अधिक महत्व देता है, जबकि संस्था सामूहिक हितों को अधिक महत्व देता है |


Thursday, November 5, 2020

समाज

समाज का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
  


समाज-
अर्थ
   समाज शब्द संस्कृत के दो शब्दों सम् एवं अज से बना है।

 सम् का अर्थ है इक्ट्ठा व एक साथ 

अज का अर्थ है साथ रहना। 

इसका अभिप्राय है कि समाज शब्द का अर्थ हुआ एक साथ रहने वाला समूह। 

मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है। डर,व सफल जीवन के लिए   संगठन का निर्माण किया है। वह ज्यों-ज्यों मस्तिष्क जैसी अमूल्य शक्ति का प्रयोग करता गया, उसकी जीवन पद्धति बदलती गयी और जीवन पद्धतियों के बदलने से आवश्यकताओं में परिवर्तन हुआ और इन आवश्यकताओं ने मनुष्य को एक सूत्र में बाधना प्रारभ्म किया और इस बंधन से संगठन बने और यही संगठन समाज कहलाये ।
फिर मनुष्य इन्हीं संगठनों का अंग बनता चला गया। बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने मानव को विभिन्न समूहों एवं व्यवसायों को अपनाते हुये विभक्त करते गये और मनुष्य की परस्पर निर्भरता बढ़ी और इसने मजबूत सामाजिक बंधनों को जन्म दिया।

वर्तमान सभ्यता मे मानव का समाज के साथ वही घनिष्ठ सम्बंध हो गया है और शरीर में शरीर के किसी अवयव का होता है। 

मानव स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है, इसीलिये उसने बहुत समय के अनुभव से यह सीख लिया है कि उसके व्यक्तित्व तथा सामूहिक कार्यों का सम्यक् विकास सामाजिक जीवन द्वारा ही सम्भव है। 


समाज की परिभाषा

ग्रीन ने समाज की अवधारणा की जो व्याख्या की है उसके अनुसार समाज एक बहुत बड़ा समूह है जिसका को भी व्यक्ति सदस्य हो सकता है। समाज जनसंख्या, संगठन, समय, स्थान और स्वार्थों से बना होता है।

एडम स्मिथ-  मनुष्य ने पारस्परिक लाभ के निमित्त जो कृत्रिम उपाय किया है वह समाज है।

डॉ0 जेम्स-  मनुष्य के शान्तिपूर्ण सम्बन्धों की अवस्था का नाम समाज है।

प्रो0 गिडिंग्स-  समाज स्वयं एक संघ है, यह एक संगठन है और व्यवहारों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बंधित है।

प्रो0 मैकाइवर-  समाज का अर्थ मानव द्वारा स्थापित ऐसे सम्बंधों से है, जिन्हें स्थापित करने के लिये उसे विवश होना पड़ता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है, समाज एक उद्देश्यपूर्ण समूह हेाता है, जो किसी एक क्षेत्र में बनता है, उसके सदस्य एकत्व एवं अपनत्व में बंधे हेाते हैं।

समाज की विशेषताएँ 
समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा क अर्थों में दी है। समाज के साथ जुड़ी हु कतिपय विशेषताएँ हैं और ये विशेषताएँ ही समाज के अर्थ को स्पष्ट करती है। 

हालके समाजशास्त्रियों में जॉनसन ने समाजशास्त्र के लक्षणों को वृहत् अर्थों में रखा है। यहाँ हम समाज की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख करेंगे जिन्हें सामान्यतया सभी समाजशास्त्री स्वीकार करते हैं। ये विशेषताएँ हैं :

एक से अधिक सदस्य 
को भी समाज हो, उसके लिये एक से अधिक सदस्यों की आवश्यकता होती है। अकेला व्यक्ति जीवनयापन नहीं कर सकता है और यदि वह किसी तरह जीवन निर्वाह कर भी ले, तब भी वह समाज नहीं कहा जा सकता। समाज के लिये यह अनिवार्य है कि उसमें दो या अधिक व्यक्ति हों। साधु, सन्यासी, योगी आदि जो कन्दराओं और जंगलों में निवास करते हैं, तपस्या या साधना का जीवन बिताते है, समाज नहीं कहे जा सकते।

वृहद संस्कृति 

समाज में अगणित समूह होते हैं। इन समूहों को एथनिक समूह कहते हैं इन एथनिक समूहों की अपनी एक संस्कृति होती है, एक सामान्य भाषा होती है, खान-पान होता है, जीवन पद्धति होती है, और तिथि त्यौहार होते हैं। इस तरह की बहुत उप-संस्कृतियाँ जब तक देश के क्षेत्र में मिल जाती है तब वे एक वृहद संस्कृति का निर्माण करती हैं। दूसरें शब्दों में, समाज की संस्कृति अपने आकार-प्रकार में वृहद होती है जिसमें अगणित उप-संस्कृतियाँ होती है। 

उदाहरण के लिये जब हम भारतीय संस्कृति की चर्चा करते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य यह है कि यह संस्कृति वृहद है जिसमें क संस्कृतियाँ पा जाती है। हमारे देश में अनेकानेक उप-संस्कृतियां है। एक ओर इस देश में गुजराती, पंजाबी यानी भांगड़ा और डांडिया संस्कृति है वही बंगला संस्कृति भी है। 

उप-संस्कृतियों में विभिन्नता होते हुए भी कुछ ऐसे मूलभूत तत्व है जो इन संस्कृतियों को जोड़कर भारतीय संस्कृति बनाते हैं। हमारे संविधान ने भी इन उप-संस्कृतियों के विकास को पूरी स्वतंत्रता दी है जो भी एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के क्षेत्र में दखल नहीं देती। संविधान जहा प्रजातंत्र, समानता, सामाजिक न्याय आदि को राष्ट्रीय मुहावरा बनाकर चलता है, वहीं वह विभिन्न उप-संस्कृतियों के विकास के भी पूरे अवसर देता है। 


ये सब तत्व किसी भी समाज की वृहद संस्कृति को बनाते हैं। जब हम अमरीकी और यूरोपीय समाजों की बात करते हैं जो इन समाजों में भी क उप-संस्कृतियों से बनी हु वृहद संस्कृति होती है। अमरीका में क प्रजातियाँ - काकेशियन, मंगोलियन, नीग्रो, इत्यादि। इस समाज में क राष्ट्रों के लोग निवास करते हैं - एशिया, यूरोप, आस्ट्रेलिया इत्यादि। यूरोपीय समाज की संस्कृति भी इसी भांति वृहद है।

क्षेत्रीयता 
जॉनसन का आग्रह है कि किसी भी संस्कृति का को न को उद्गम का क्षेत्र अवश्य होता है। प्रत्येक देश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाएँ होती है। इसी को देश की क्षेत्रीयता कहते हैं। इस क्षेत्रीयता की भूमि से ही संस्कृति का जुड़ाव होता है। यदि हम उत्तराखण्ड की संस्कृति की बात करते हैं तो इसका मतलब हुआ कि इस संस्कृति का जुड़ाव हिमाचल या देव भूमि के साथ है। मराठी संस्कृति या इस अर्थ में मलयालम संस्कृति भी अपने देश के भू-भाग से जुड़ी होती है।

यह संभव है कि किसी निश्चित क्षेत्र में पायी जाने वाली संस्कृति अपने सदस्यों के माध्यम से दूसरे में पहुंच जाए, ऐसी अवस्था में जिस क्षेत्र का उद्गम हुआ है उसी क्षेत्र के नाम से संस्कृति की पहचान होगी। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड या न्यूयार्क में रहने वाला भारतीय अपने आपको भारतीय संस्कृति या भारतीय समाज का अंग कह सकता है, जबकि तकनीकी दृष्टि से अमेरीका में रहकर वह भारतीय क्षेत्र में नहीं रहता। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षेत्र में संस्कृति का उद्गम हुआ है, उसी क्षेत्र के समाज के साथ में उसे पहचाना हुआ मानता है। उत्तरप्रदेश में रहने वाला एक गुजराती अपने आपको गुजराती संस्कृति के साथ जुड़ा हुआ मानता है। उसकी भाषा, खान-पान, तिथि, त्यौहार, उत्तरप्रदेश में रहकर भी गुजराती संस्कृति के होते हैं

सामाजिक संबंधों का दायरा 
समाज के सदस्यों के सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के होते हैं। समाज जितना जटिल होगा, सम्बन्ध भी उतने ही भिन्न और जटिल होंगे। सम्बन्ध क तरह के होते हैं : पति-पत्नी, मालिक मजदूर, व्यापारी-उपभोक्ता आदि। इन विभिन्न सम्बन्धों में कुछ सम्बन्ध संघर्षात्मक होते हैं और कुछ सहयोगात्मक। समाज का चेहरा हमेशा प्रेम, सहयोग और ममता से दैदीप्यमान नहीं होता, इसके चेहरे पर एक पहलू बदसूरत भी होता है। समाज में संघर्ष, झगड़े-टंटे, मार-पीट और दंगे भी होते हैं। जिस भांति समाज का उजला पक्ष समाज का लक्षण है, वैसे ही बदसूरत पक्ष भी समाज का ही अंग है। अत: समाज जहाँ मतैक्य का प्रतीक है, वही वह संघर्ष का स्वरूप भी है।

श्रम विभाजन 
समाज की गतिविधियाँ कभी भी समान नहीं होती। यह इसलिये कि समाज की आवश्यकताएँ भी विविध होती है। कुछ लोग खेतों में काम करते हैं और बहुत थोड़े लोग उद्योगों में जुटे होते हैं। सच्चा यह है कि समाज में शक्ति होती है। इस शक्ति का बंटवारा कभी भी समान रूप से नहीं हो सकता। सभी व्यक्ति तो राष्ट्रपति नहीं बन सकते और सभी व्यक्ति क्रिकेट टीम के कप्तान नहीं बन सकते। शक्ति प्राय: न्यून मात्रा में होती है और इसके पाने के दावेदार बहुत अधिक होते हैं। इसी कारण समाज कहीं का भी, उसमें शक्ति बंटवारे की को न को व्यवस्था अवश्य होती है। शक्ति के बंटवारे का यह सिद्धांत ही समाज में गैर-बराबरी पैदा करता है। यह अवश्य है कि किसी समाज में गैर-बराबरी थोड़ी होती है और किसी में अधिक। हमारे देश में गरीबी का जो स्वरूप है वह यूरोप या अमेरिका की गरीबी की तुलना में बहुत अधिक वीभत्स है। जब कभी समाज की व्याख्या की जाती है जो इसमें श्रम विभाजन की व्यवस्था एक अनिवार्य बिन्दु होता है। को भी समाज, जो विकास के किसी भी स्तर पर हो, उसमें श्रम विभाजन का होना अनिवार्य है।

काम प्रजनन 
समाज की वृद्धि और विकास के लिये बराबर नये सदस्यों की भर्ती की आवश्यकता रहती है। ऐसा होना समाज की निरन्तरता के लिये आवश्यक है। यदि समाज की सदस्यता में निरन्तरता नहीं रहती तो लगता है कि समाज का अस्तित्व खतरे में है। सदस्यों की यह भर्ती क तरीकों से हो सकती है - सामा्रज्य विस्तार, उपनिवेश और आप्रवासन। पर सामान्यतया समाज की सदस्यतया की सततता को बनाये रखने का तरीका काम प्रजनन है। इसका मतलब है, समाज के सदस्यों की सन्तान समाज के भावी उत्तरदायित्व को निभाती है।

मानव एवं समाज के सम्बन्ध के सिद्धान्त
मानव एवं समाज अन्योन्याश्रित है पर समाजशास्त्री इस सम्बंध के विषय में पृथक-पृथक विचार रखते हैं, इनके विचारों को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।

सामाजिक संविदा का सिद्धान्त - 
यह अत्यन्त पा्र चीन सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को मानने वाले महाभारत कौटिल्य के अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, जैन और बौद्ध साहित्य आदि सभी इस सिद्धान्त का समर्थन करते हैं आधुनिक पाश्चात्य् दार्शनिक में टामस हाब्स, लाक और रूसो इस मत का प्रबल समर्थक है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज नैसर्गिक नहीं बल्कि एक कृत्रिम संस्था है। मनुष्यों ने अपने स्वार्थ के लिये समाज का नियंत्रण स्वीकार किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार एकांकी जीवन के कठिनाइयों एवं दबंगो के दबाव को झेलते हुये व्यक्ति ने स्वयं को संगठित कर लिया और इन संगठनों को समाज की संज्ञा दी गयी। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अरस्तु के कथन को मैकाइवर व पेज ने अपनी रचना सोसाइटी में लिखा कि- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य सुरक्षा आराम, पोषण, शिक्षा, उपकरण, अवसर तथा उन विभिन्न सेवाओं के लिये जिन्हें समाज उपलब्ध कराता है, समाज पर निर्भर है।

समाज का अवयवी सिद्धान्त- 
इस सिद्धान्त का अन्तनिर्हित अथर् है समाज एक जीवित शरीर है और मनुष्य उसका अंग है। इस सिद्धान्त के समर्थक मानते हैं कि समाज विभिन्न अंगों में विभाजित है और सभी अंग अपने प्रकार्यों के माध् यम से समाज को जीवन व गति प्रदान करते हैैं। समाज रूपी शरीर में व्यक्ति कोशिका की तरह है, और इसके अन्य अवयव समितियां तथा संस्थायें है। वास्तव में यह सिद्धान्त आज के युग में प्रासांगिक है इसके अनुसार समाज मानव के ऊपर है, यह बात सच है कि मनुष्य समाज का अंग है, और समाज को शरीर मानकर और मनुष्य को कोशिका मानकर मानव अस्तित्व को स्वीकारना ठीक नहीं है। सत्यकेतु विद्यलंकार ने स्पष्ट किया है कि समाज हमारे स्वभाव में है अत: स्थायित्व उसका स्वभाविक गुण है। शरीर सिद्धान्त के अनुसार समाज में स्वतंत्र रूप से व्यक्तियों की को स्थिति नहीं है, जिसे स्वीकारना भी सम्भव नहीं है।

मनुष्य एवं समाज में आश्रिता- 
व्यक्ति व समाज एक-दूसरे के पूरक है व्यक्ति मिलकर समाज का निर्माण करते हैं और समाज व्यक्ति के अस्तित्व एवं आवश्यकता को पूरा करता है, ये दोनों परस्पर आश्रित हैं। व्यक्तियों के योग से समाज उत्पन्न होता है। हैवी हस्र्ट तथा न्यू गार्टन ने अपनी पुस्तक सोसाइटी एण्ड एजुकेशन में समाजीकरण की व्याख्या करते हुये लिखा है सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से बच्चे अपने समाज के स्वीकृत ढंगों को सीखते है, और इन ढंगों को अपने व्यक्तित्व का एक अंग बना देते हैं। सामाजिक संस्था का सदस्य होने के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं अस्तित्व दोनो सुरक्षित रहता है, और व्यक्ति का स्व समाज के स्व के अधीन हो जाता है। स्वस्थ समाज वही है, जो लेाकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करता है समाज में स्वतंत्रता व्यक्ति की उन्नति का आधार बनता है। समाज और व्यक्ति के मध्य अक्सर संघर्ण उत्पन्न हो जाता है। उसका कारण व्यक्ति की इच्छायें एवं समाज की उससे अपेक्षाये होती है।

समाज के प्रमुख तत्व 
समाज के निर्माण के क तत्व है, इसे जानने के पश्चात् ही समाज का अर्थ पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगा-

समाज की आत्मा से मनुष्य का अमूर्त सम्बंध है। समाज एक प्रकार से भावना का आधार लेकर बनता है। व्यक्ति समाज के अवयव के रूप में है। व्यक्तियों के बीच की विविधता समाज में समन्वय के रूप में परिलक्षित होती है। कोहरे राबर्टस के अनुसार-’’तनिक सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज के अभाव में व्यक्ति एक खोखली संज्ञा मात्र है। मानव कभी अकेले नहीं रह सकता वह समाज का सदस्य बनकर रह जाता है। मानव का अध्ययन मानव समाज का अध् ययन है, व्यक्ति का विकास समाज में ही सम्भव है।’’ रॉस ने स्पष्ट किया-’’समाज से अलग वैयक्तिकता का को मूल्य नहीं रह जाता है और व्यक्तित्व एक अर्थ ही न संज्ञा मात्र है।’’ 
समाज में हम की भावना होती है। इस भावना के अन्तर्गत व्यक्तिगत मैं निहित होता है, और यही सामाजिक बंधन को जन्म देता है। पर समाज के सम्पूर्ण बंधन स्वार्थपूर्ण हेाते हैं। 
समाज में समूह मन व समूह आत्मा होती है।, यह सम्बंध पारस्परिक चेतना से युक्त हेाती है, समूह मन में यह चेतना होती है और उनके यह व्यवहार में प्रकट होती है। 
समाज में अपनी सुरक्षा की भावना पायी जाती है, इसके लिये वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है, और समाज अपनी निजता को बनाये रखने के लिये नियम कानून रीति रिवाज संस्कृति व सभ्यता को विकसित व निर्मित करता है। 
समाज की आर्थिक स्थिति उसके सदस्यों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है तो उनसे आर्थिक स्थिति की विविधता पायी जाती है परन्तु इन सबके बाद भी उनमें एक समाज अधिकार भावना पायी जाती है, कि हम समाज के सदस्य है। 
समाज के जीवन एवं संस्कृति सभ्यता के कारण व्यक्तियों के आचार-विचार व्यवहार मान्यताओं में एका पायी जाती है। जिसे हम जीवन का सामान्य तरीका के रूप में देख सकते हैं। 
समाज निश्चित उद्देश्यों को रखकर निर्मित होते है, जिसमें पारस्परिक लाभ, मैत्रीपूर्ण व शान्तिपूर्ण जीवन आदर्शों एवं कार्यों की पूर्ति आदि के रूप् में देखे जा सकते है। 
समाज में स्थायित्व की भावना होती है क्येांकि सभी सदस्य क पीढ़ियों से उसी समाज के आजीवन सदस्य रहते हैं, इससे समाज बना रहता है। 
समाज क समूहों के संगठन होते है जिनमें अन्योन्याश्रितता होती ।

पीढ़ी दर पीढ़ी

किताब का अंश जो लिखा नहीं गया बस कुछ ऐसा ही महसूस किया गया

जो आप से साझा कर रहा हूँ...


#विज्ञान
------------------------------------------
पिता दिवस
(तेरे मेरे अमरत्व की बात)
 ==================
(गोत्र,प्रवर,सपिंड)
  ============= 
============
 #सात पीढ़ी
===========
पूर्वजों की स्मृति और उनका सम्मान 
===================

हैपी फादर्स डे ! एसआरवाई ज़िन्दाबाद ! 
-------------------------------------------------------+--
 #पितृत्व - पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है।एक चलन के अनुसार अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है।
xx- पुत्री। XY पुत्र। सर एलिज़बेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर औरजैक शोस्टाक ने इस बात की खोज की है कि मानव शरीर कैसे क्रोमोज़ोम्स या गुणसूत्रों की रक्षा करता है।पुरुषत्व है , तो पितृत्व है। पुरुष होने का आनुवंशिक हस्ताक्षर छियालीस गुणसूत्रों में से एक वाई गुणसूत्र है। सबसे छोटा। वाई गुणसूत्र पर यौन-पहचान का जीन एसआरवाई होता है। इसके होने से ही मैं पुरुष हूँ।
वह एसआरवाई से तय होता है , वह रहेगा। इसलिए #पुरुष भी रहेंगे और पिता भी। प्रेम भी जीवित रहेगा और यौन-सम्बन्ध भी। जैसा कि आप जानते हैं- मानव शरीर कोशिकाओं से बना होता है और इन कोशिकाओं में गुणसूत्र या #क्रोमोज़ोम्स होते हैं।  मनुष्य में 46 गुणसूत्र होते हैं. गुणसूत्रों को मानव के आनुवंशिक गुणों का वाहक माना जाता है।डीएनए के गुणसूत्रों के अंतिम सिरों पर टेलोमीटर होत है।   इसी टेलोमेयर औरउसको बना नेवाले एंज़ाइम #टेलोमेरेज़ का पता लगाया।वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि गुणसूत्रों की नकल के बनने का सारा रहस्य छिपा रहता हैदो चीज़ों में – टेलोमेयर और टेलोमेरेज ये ही जनक के आनुवंशिक (hereditary) गुणों को उनकी संतानों तक पहुँचाते हैं।

हिन्दू धर्म शास्त्रों से...जो आज भी ग्रामीण परिवेश आप को दिख जाएगी....

पिण्ड चावल और जौ के आटे, काले तिल तथा घी से निर्मित गोल आकार के होते हैं जो अन्त्येष्टि में तथा #श्राद्ध में पितरों को अर्पित किये जाते हैं। पूर्वज पूजा की प्रथा विश्व के अन्य देशों की भाँति बहुत प्राचीन है। यह प्रथा यहाँ वैदिक काल से प्रचलित रही है। 

विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं। पितरों का आह्वान किया जाता है कि वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें।

 पितरों को आराधना में लिखी #ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (१०.१४.१) में यम तथा वरुण का भी उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है (कृ. १०.१५.१ एवं यजु. सं. १९४२)। संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। 

ऋग्वेद (१०.१५) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ #श्रद्धेय हैं।

 ऋग्वेद (१०.१६) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें। 

ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं। पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु #पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है।

 पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों (वाज. सं. १९.४६)।

 पितृर्पण के हेतु श्राद्धसंस्कारों की महत्ता परिलक्षित होती है। मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। #पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।

श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है।

 वेदवर्णित कर्तव्यों में श्राद्धसंस्कारों का विशेष स्थान है। कर्तव्यपरायणता के हित में वंशजों द्वारा इनका पालन आवश्यक है। आज भी प्रत्येक हिंदू इस कर्तव्य का पालन वैदिक रीति के अनुसार करता है।
इस प्रथा के दार्शनिक आधार की पहली मान्यता मनुष्य में आध्यात्मिक तत्व की #अमरता है। 

(यहाँ जो ऋग्वेद,ऐतरेय ब्राह्मण को कोट किया गया है जो प्रमुख जी जैसा कहा था उसे वैसा ही लिख दिया गया हैं ...खैर...)

उठा लेते है कलम
और लिखते हैं
यादों के #गीत
तो बन जाती हैं
# प्रार्थना
पितृ पक्ष की
बिना विश्वास के
प्रार्थना का रूदन
स्वयं के कानों तक भी नहीं पहुँचता
यही न कहते थे....
चिल्लाते और बरसते हुए
दोष देते थे
टूटता #चूल्हा
बँटती मुँडेर
मुठ्ठी भर इज्जत,
कुछ भी न बचा
लालची #नस्लों से....
तब फफक कर
रो पडती है।
प्रार्थना
क्योंकि अब हो चुकी
अवशेषी #स्मृतियों के लिए
कोई #मणिकर्णिका घाट नहीं है
तुम्हारी बहुत सी
निशानियाँ फेंकने से पहले
अवशेषी स्मृतियाँ गाड़ते हुए
तूम आ जाते हों
पिता
---------------------------
हाँ
अंतिम यात्रा पर निकले पिता
बरामदे में,कोठरी में,बन्द फाइलों में कितनी जगह रह जाते हैं......
हमारे भी,तुम्हारे भी
जैसे
#चौकी के निचे चप्पल और छड़ी में...

बैठक के  पेपर ,
रेडियो और #गायत्री वाले झोल में
टँगी टोपी,धोती और #पतंजलि की दवाई , शीशी,च्यम्पराशो में......

कितना कुछ हरा है..अब भी
घर के बाहर से आने वाले एकाद लिफाफों के नाम में लिख आना
#प्रमुख.......

कितना कुछ  आज भी भरा है,
सबकुछ सहेजते,बन्द किवाड़ों में
सुलगते जलते ठंठ के कऊडो में
मछरदानियो और मुकदमें में
आलमारियों में ,डायरियों में
कितने हिसाब,कितने बकायेदार
सब ठीक है में गले रूधँते हैं
तुम रोज लौटते हो ........
#आपाधापी में, #अस्पष्ट_निर्णयो में
गुजरे कल की बातों में
तुमसे बिरही जंजालों में,खेतों में
मेरे अपने किये क्रिया कलापों में
यादों में,जज्बातों में
हर जगह #रस्म आने वाले #त्यौहारों में

जैसे
मृत्यु बाद #पिता अक्सर लौट आते है पर
तुम रोज लौट के आते हो.......



पीढ़ी दर पीढ़ी

हमने  आपने ही हैं खोजे 
देव, देवालय, सिद्ध-पुरुष, औषधियां...
और जाने... न ...जाने क्या क्या...
फिर भी बात न बनी...
तो इनके दर्द के साथ  रख ली
हमने - आपने कुछ गढ़ीं हुई
मुस्कुराहटें...
फिर भी बात न बनी
तभी
हमने आपने लिखी  कुछ बातें
वही हुई कविताएं
आवो गुन गुनाये
साझी कविताएं
क्यू की यही जिंदा रहती है
पीढ़ी दर पीढ़ी।
(~ समि
https://youtu.be/g23p9HlTlVU)
प्रमुख जी एक कथा सुनाते थे...
जो कुछ इस तरह थीं...

एक कथा

कल की भी आज की भी....

पात्र....
कभी याज्ञवल्क्य कभी आप....

 याज्ञवल्क्य छोड़ कर जा रहा है।  जीवन के अंतिम दिन आ गए हैं और अब वह चाहता है कि दूर खो जाए किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में। उसकी दो पत्नियां थीं और बहुत धन था उसके पास। वह उस समय का प्रकांड पंडित था। उसका कोई मुकाबला नहीं था पंडितों में। तर्क में उसकी प्रतिष्ठा थी। ऐसी उसकी प्रतिष्ठा थी कि कहानी है कि जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौएं, उनके सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी कर दीं और कहा: जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा। यह पुरस्कार है। बड़े पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीता, कौन हारा। और तब दोपहर को याज्ञवल्क्य आया अपने शिष्यों के साथ। दरवाजे पर उसने देखा–गौएं खड़ी-खड़ी सुबह से थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उसने अपने शिष्यों को कहा, ऐसा करो, तुम गौओं को खदेड़ कर घर ले जाओ, मैं विवाद निपटा कर आता हूं।

जनक की भी हिम्मत नहीं पड़ी यह कहने की कि यह क्या हिसाब हुआ, पहले विवाद तो जीतो! किसी एकाध पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार पहले ही!

लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा, मुझे भरोसा है। तुम फिक्र न करो। विवाद तो मैं जीत ही लूंगा, विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।

शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।

शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़ी प्रतिष्ठा का व्यक्ति था। बहुत धन उसके पास था। बड़े सम्राट उसके शिष्य थे। और जब वह जाने लगा, उसकी दो पत्नियां थीं, उसने उन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि आधा-आधा धन तुम्हें बांट देता हूं। बहुत है, सात पीढ़ियों तक भी चुकेगा नहीं। इसलिए तुम निश्चिंत रहो, तुम्हें कोई अड़चन न आएगी। और मैं अब जंगल जा रहा हूं। अब मेरे अंतिम दिन आ गए। अब ये अंतिम दिन मैं परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाना चाहता हूं। अब मैं कोई और दूसरा प्रपंच नहीं चाहता। एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं लगाना चाहता।

एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञवल्क्य के पास, उसमें से आधा मुझे मिल रहा है, अब तो मजे ही मजे करूंगी। लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहां जाते हो? और अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।
(आज भी ऐसी होती है भारतीय ग्रामीण पत्नी जो धन से नहीं धर्म से जुड़ी होती है।
खैर कहानी अभी आगे है...

और याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़ा रहा। अब इस स्त्री को क्या कहे! कहे कि नहीं मिला, तो फिर बांटने की इतनी अकड़ क्या! बड़े गौरव से बांट रहा था कि देखो इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! बड़े गौरव से बांट रहा था। उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूं! किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उसके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूं तुम्हारे साथ।

तो जो धन बांट रहा है वह क्या खाक बांट रहा है! उसके पास कुछ और मूल्यवान नहीं है। और जो ज्ञान बांट रहा है, पाठशालाएं खोल रहा है, धर्मशास्त्र समझा रहा है, अगर उसने स्वयं ध्यान और समाधि में डुबकी नहीं मारी है, तो कचरा बांट रहा है। 
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एक  कविता

जो कह दिया वह *शब्द* थे ;
जो नहीं कह सके
वो *अनुभूति* थी ।।
और,
जो कहना है मगर ;
कह नहीं सकते,
वो *मर्यादा* है ।।
..........................


*बात पर गौर करना*- ----

*पत्तों* सी होती है
कई *रिश्तों की उम्र*,
आज *हरे*-------!
कल *सूखे* -------!

क्यों न हम,
जड़ों से;
रिश्ते निभाना सीखें ।।

रिश्तों को निभाने के लिए,
कभी अंधा
कभी *गूँगा*,
और कभी *बहरा;
होना ही पड़ता है ।।

*बरसात गिरी
और *कानों* में इतना कह गई कि---------!
 *गर्मी* हमेशा किसी की भी नहीं रहती।। 

*नसीहत
*नर्म लहजे* में ही
अच्छी लगती है ।
क्योंकि,

*दस्तक का मकसद*,
*दरवाजा* खुलवाना होता है;
तोड़ना नहीं ।।

*घमंड*-----------!
किसी का भी नहीं रहा,
*टूटने से पहले* ,
*गुल्लक* को भी लगता है कि ;
*सारे पैसे उसी के हैं* ।

जिस बात पर ,
कोई *मुस्कुरा* दे;
बात --------!
बस वही *खूबसूरत* है ।।

थमती नहीं,
*जिंदगी* कभी,
किसी के बिना ।।
मगर,
यह *गुजरती
भी नहीं,
अपनों के बिना।....#समि

#सोचो #साथ #क्या #जायेगा......
इतिहास आप को किस तरह देखेगा....