Thursday, November 5, 2020

पीढ़ी दर पीढ़ी

किताब का अंश जो लिखा नहीं गया बस कुछ ऐसा ही महसूस किया गया

जो आप से साझा कर रहा हूँ...


#विज्ञान
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पिता दिवस
(तेरे मेरे अमरत्व की बात)
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(गोत्र,प्रवर,सपिंड)
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 #सात पीढ़ी
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पूर्वजों की स्मृति और उनका सम्मान 
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हैपी फादर्स डे ! एसआरवाई ज़िन्दाबाद ! 
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 #पितृत्व - पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है।एक चलन के अनुसार अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है।
xx- पुत्री। XY पुत्र। सर एलिज़बेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर औरजैक शोस्टाक ने इस बात की खोज की है कि मानव शरीर कैसे क्रोमोज़ोम्स या गुणसूत्रों की रक्षा करता है।पुरुषत्व है , तो पितृत्व है। पुरुष होने का आनुवंशिक हस्ताक्षर छियालीस गुणसूत्रों में से एक वाई गुणसूत्र है। सबसे छोटा। वाई गुणसूत्र पर यौन-पहचान का जीन एसआरवाई होता है। इसके होने से ही मैं पुरुष हूँ।
वह एसआरवाई से तय होता है , वह रहेगा। इसलिए #पुरुष भी रहेंगे और पिता भी। प्रेम भी जीवित रहेगा और यौन-सम्बन्ध भी। जैसा कि आप जानते हैं- मानव शरीर कोशिकाओं से बना होता है और इन कोशिकाओं में गुणसूत्र या #क्रोमोज़ोम्स होते हैं।  मनुष्य में 46 गुणसूत्र होते हैं. गुणसूत्रों को मानव के आनुवंशिक गुणों का वाहक माना जाता है।डीएनए के गुणसूत्रों के अंतिम सिरों पर टेलोमीटर होत है।   इसी टेलोमेयर औरउसको बना नेवाले एंज़ाइम #टेलोमेरेज़ का पता लगाया।वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि गुणसूत्रों की नकल के बनने का सारा रहस्य छिपा रहता हैदो चीज़ों में – टेलोमेयर और टेलोमेरेज ये ही जनक के आनुवंशिक (hereditary) गुणों को उनकी संतानों तक पहुँचाते हैं।

हिन्दू धर्म शास्त्रों से...जो आज भी ग्रामीण परिवेश आप को दिख जाएगी....

पिण्ड चावल और जौ के आटे, काले तिल तथा घी से निर्मित गोल आकार के होते हैं जो अन्त्येष्टि में तथा #श्राद्ध में पितरों को अर्पित किये जाते हैं। पूर्वज पूजा की प्रथा विश्व के अन्य देशों की भाँति बहुत प्राचीन है। यह प्रथा यहाँ वैदिक काल से प्रचलित रही है। 

विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं। पितरों का आह्वान किया जाता है कि वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें।

 पितरों को आराधना में लिखी #ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (१०.१४.१) में यम तथा वरुण का भी उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है (कृ. १०.१५.१ एवं यजु. सं. १९४२)। संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। 

ऋग्वेद (१०.१५) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ #श्रद्धेय हैं।

 ऋग्वेद (१०.१६) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें। 

ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं। पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु #पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है।

 पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों (वाज. सं. १९.४६)।

 पितृर्पण के हेतु श्राद्धसंस्कारों की महत्ता परिलक्षित होती है। मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। #पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।

श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है।

 वेदवर्णित कर्तव्यों में श्राद्धसंस्कारों का विशेष स्थान है। कर्तव्यपरायणता के हित में वंशजों द्वारा इनका पालन आवश्यक है। आज भी प्रत्येक हिंदू इस कर्तव्य का पालन वैदिक रीति के अनुसार करता है।
इस प्रथा के दार्शनिक आधार की पहली मान्यता मनुष्य में आध्यात्मिक तत्व की #अमरता है। 

(यहाँ जो ऋग्वेद,ऐतरेय ब्राह्मण को कोट किया गया है जो प्रमुख जी जैसा कहा था उसे वैसा ही लिख दिया गया हैं ...खैर...)

उठा लेते है कलम
और लिखते हैं
यादों के #गीत
तो बन जाती हैं
# प्रार्थना
पितृ पक्ष की
बिना विश्वास के
प्रार्थना का रूदन
स्वयं के कानों तक भी नहीं पहुँचता
यही न कहते थे....
चिल्लाते और बरसते हुए
दोष देते थे
टूटता #चूल्हा
बँटती मुँडेर
मुठ्ठी भर इज्जत,
कुछ भी न बचा
लालची #नस्लों से....
तब फफक कर
रो पडती है।
प्रार्थना
क्योंकि अब हो चुकी
अवशेषी #स्मृतियों के लिए
कोई #मणिकर्णिका घाट नहीं है
तुम्हारी बहुत सी
निशानियाँ फेंकने से पहले
अवशेषी स्मृतियाँ गाड़ते हुए
तूम आ जाते हों
पिता
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हाँ
अंतिम यात्रा पर निकले पिता
बरामदे में,कोठरी में,बन्द फाइलों में कितनी जगह रह जाते हैं......
हमारे भी,तुम्हारे भी
जैसे
#चौकी के निचे चप्पल और छड़ी में...

बैठक के  पेपर ,
रेडियो और #गायत्री वाले झोल में
टँगी टोपी,धोती और #पतंजलि की दवाई , शीशी,च्यम्पराशो में......

कितना कुछ हरा है..अब भी
घर के बाहर से आने वाले एकाद लिफाफों के नाम में लिख आना
#प्रमुख.......

कितना कुछ  आज भी भरा है,
सबकुछ सहेजते,बन्द किवाड़ों में
सुलगते जलते ठंठ के कऊडो में
मछरदानियो और मुकदमें में
आलमारियों में ,डायरियों में
कितने हिसाब,कितने बकायेदार
सब ठीक है में गले रूधँते हैं
तुम रोज लौटते हो ........
#आपाधापी में, #अस्पष्ट_निर्णयो में
गुजरे कल की बातों में
तुमसे बिरही जंजालों में,खेतों में
मेरे अपने किये क्रिया कलापों में
यादों में,जज्बातों में
हर जगह #रस्म आने वाले #त्यौहारों में

जैसे
मृत्यु बाद #पिता अक्सर लौट आते है पर
तुम रोज लौट के आते हो.......



पीढ़ी दर पीढ़ी

हमने  आपने ही हैं खोजे 
देव, देवालय, सिद्ध-पुरुष, औषधियां...
और जाने... न ...जाने क्या क्या...
फिर भी बात न बनी...
तो इनके दर्द के साथ  रख ली
हमने - आपने कुछ गढ़ीं हुई
मुस्कुराहटें...
फिर भी बात न बनी
तभी
हमने आपने लिखी  कुछ बातें
वही हुई कविताएं
आवो गुन गुनाये
साझी कविताएं
क्यू की यही जिंदा रहती है
पीढ़ी दर पीढ़ी।
(~ समि
https://youtu.be/g23p9HlTlVU)
प्रमुख जी एक कथा सुनाते थे...
जो कुछ इस तरह थीं...

एक कथा

कल की भी आज की भी....

पात्र....
कभी याज्ञवल्क्य कभी आप....

 याज्ञवल्क्य छोड़ कर जा रहा है।  जीवन के अंतिम दिन आ गए हैं और अब वह चाहता है कि दूर खो जाए किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में। उसकी दो पत्नियां थीं और बहुत धन था उसके पास। वह उस समय का प्रकांड पंडित था। उसका कोई मुकाबला नहीं था पंडितों में। तर्क में उसकी प्रतिष्ठा थी। ऐसी उसकी प्रतिष्ठा थी कि कहानी है कि जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौएं, उनके सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी कर दीं और कहा: जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा। यह पुरस्कार है। बड़े पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीता, कौन हारा। और तब दोपहर को याज्ञवल्क्य आया अपने शिष्यों के साथ। दरवाजे पर उसने देखा–गौएं खड़ी-खड़ी सुबह से थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उसने अपने शिष्यों को कहा, ऐसा करो, तुम गौओं को खदेड़ कर घर ले जाओ, मैं विवाद निपटा कर आता हूं।

जनक की भी हिम्मत नहीं पड़ी यह कहने की कि यह क्या हिसाब हुआ, पहले विवाद तो जीतो! किसी एकाध पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार पहले ही!

लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा, मुझे भरोसा है। तुम फिक्र न करो। विवाद तो मैं जीत ही लूंगा, विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।

शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।

शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़ी प्रतिष्ठा का व्यक्ति था। बहुत धन उसके पास था। बड़े सम्राट उसके शिष्य थे। और जब वह जाने लगा, उसकी दो पत्नियां थीं, उसने उन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि आधा-आधा धन तुम्हें बांट देता हूं। बहुत है, सात पीढ़ियों तक भी चुकेगा नहीं। इसलिए तुम निश्चिंत रहो, तुम्हें कोई अड़चन न आएगी। और मैं अब जंगल जा रहा हूं। अब मेरे अंतिम दिन आ गए। अब ये अंतिम दिन मैं परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाना चाहता हूं। अब मैं कोई और दूसरा प्रपंच नहीं चाहता। एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं लगाना चाहता।

एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञवल्क्य के पास, उसमें से आधा मुझे मिल रहा है, अब तो मजे ही मजे करूंगी। लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहां जाते हो? और अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।
(आज भी ऐसी होती है भारतीय ग्रामीण पत्नी जो धन से नहीं धर्म से जुड़ी होती है।
खैर कहानी अभी आगे है...

और याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़ा रहा। अब इस स्त्री को क्या कहे! कहे कि नहीं मिला, तो फिर बांटने की इतनी अकड़ क्या! बड़े गौरव से बांट रहा था कि देखो इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! बड़े गौरव से बांट रहा था। उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूं! किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उसके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूं तुम्हारे साथ।

तो जो धन बांट रहा है वह क्या खाक बांट रहा है! उसके पास कुछ और मूल्यवान नहीं है। और जो ज्ञान बांट रहा है, पाठशालाएं खोल रहा है, धर्मशास्त्र समझा रहा है, अगर उसने स्वयं ध्यान और समाधि में डुबकी नहीं मारी है, तो कचरा बांट रहा है। 
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एक  कविता

जो कह दिया वह *शब्द* थे ;
जो नहीं कह सके
वो *अनुभूति* थी ।।
और,
जो कहना है मगर ;
कह नहीं सकते,
वो *मर्यादा* है ।।
..........................


*बात पर गौर करना*- ----

*पत्तों* सी होती है
कई *रिश्तों की उम्र*,
आज *हरे*-------!
कल *सूखे* -------!

क्यों न हम,
जड़ों से;
रिश्ते निभाना सीखें ।।

रिश्तों को निभाने के लिए,
कभी अंधा
कभी *गूँगा*,
और कभी *बहरा;
होना ही पड़ता है ।।

*बरसात गिरी
और *कानों* में इतना कह गई कि---------!
 *गर्मी* हमेशा किसी की भी नहीं रहती।। 

*नसीहत
*नर्म लहजे* में ही
अच्छी लगती है ।
क्योंकि,

*दस्तक का मकसद*,
*दरवाजा* खुलवाना होता है;
तोड़ना नहीं ।।

*घमंड*-----------!
किसी का भी नहीं रहा,
*टूटने से पहले* ,
*गुल्लक* को भी लगता है कि ;
*सारे पैसे उसी के हैं* ।

जिस बात पर ,
कोई *मुस्कुरा* दे;
बात --------!
बस वही *खूबसूरत* है ।।

थमती नहीं,
*जिंदगी* कभी,
किसी के बिना ।।
मगर,
यह *गुजरती
भी नहीं,
अपनों के बिना।....#समि

#सोचो #साथ #क्या #जायेगा......
इतिहास आप को किस तरह देखेगा....

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