Monday, September 23, 2024

मॉर्निंग फेस .... मुल्कराज आनन्द

मॉर्निंग फ़ेस 

मॉर्निंग फेस* (1971), जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला ।
मुल्कराज आनंद को भारत में गरीबों के यथार्थवादी और सहानुभूतिपूर्ण चित्रण के लिए जाना जाता है ।. उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था
प्रकाशन विवरण:

- लेखक: मुल्कराज आनंद
- प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स
- प्रकाशन वर्ष: 1968
- पृष्ठ संख्या: 272

मॉर्निंग फ़ेस मुल्कराज आनंद द्वारा लिखित एक शक्तिशाली और भावपूर्ण उपन्यास है, जो भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है। यह उपन्यास 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

कहानी:

उपन्यास की कहानी एक युवा लड़के के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और अपने लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है।


मॉर्निंग फ़ेस एक अद्वितीय उपन्यास है, जो भारतीय समाज की विभिन्न परतों को उजागर करता है। आनंद की लेखन शैली सरल और स्पष्ट है, लेकिन साथ ही वह गहरे अर्थ और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं।

उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी पात्रों की गहराई है। पात्र जीवन्त और वास्तविक हैं, और उनके संघर्ष और भावनाएं पाठक को आकर्षित करती हैं।

मॉर्निंग फ़ेस एक  उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य है, और इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए जो भारतीय साहित्य में रुचि रखता है।

मॉर्निंग फ़ेस उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो:

- भारतीय साहित्य में रुचि रखते हैं
- मानवीय स्थिति और समाजिक मुद्दों में रुचि रखते हैं
- एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी पढ़ना चाहते हैं
पात्र:

- श्रीराम: मुख्य पात्र, एक युवा लड़का जो अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है।
- श्रीराम के माता-पिता: गरीब किसान जो अपने बेटे के लिए बेहतर जीवन चाहते हैं।
- कमला: श्रीराम की प्रेमिका, जो उसके साथ अपने सपनों को पूरा करना चाहती है।
- रामदास: श्रीराम का मित्र, जो उसके संघर्षों में साथ देता है।

कहानी की रूपरेखा:

श्रीराम, एक युवा लड़का, अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है। वह कमला से प्रेम करता है, लेकिन उनके रिश्ते को समाज की मंजूरी नहीं मिलती। श्रीराम को अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

विषय:

मॉर्निंग फ़ेस में कई विषयों को उजागर किया गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

- पहचान की तलाश
- समाजिक अन्याय
- प्रेम और रिश्ते
- गरीबी और संघर्ष
- आत्म-खोज और आत्म-विकास

यह उपन्यास भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है, और यह एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी है जो पाठक को आकर्षित करती है।

मॉर्निंग फ़ेस 

मॉर्निंग फेस* (1971), जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला ।
मुल्कराज आनंद को भारत में गरीबों के यथार्थवादी और सहानुभूतिपूर्ण चित्रण के लिए जाना जाता है ।. उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था
प्रकाशन विवरण:

- लेखक: मुल्कराज आनंद
- प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स
- प्रकाशन वर्ष: 1968
- पृष्ठ संख्या: 272

मॉर्निंग फ़ेस मुल्कराज आनंद द्वारा लिखित एक शक्तिशाली और भावपूर्ण उपन्यास है, जो भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है। यह उपन्यास 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

कहानी:

उपन्यास की कहानी एक युवा लड़के के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और अपने लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है।


मॉर्निंग फ़ेस एक अद्वितीय उपन्यास है, जो भारतीय समाज की विभिन्न परतों को उजागर करता है। आनंद की लेखन शैली सरल और स्पष्ट है, लेकिन साथ ही वह गहरे अर्थ और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं।

उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी पात्रों की गहराई है। पात्र जीवन्त और वास्तविक हैं, और उनके संघर्ष और भावनाएं पाठक को आकर्षित करती हैं।

मॉर्निंग फ़ेस एक  उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य है, और इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए जो भारतीय साहित्य में रुचि रखता है

मॉर्निंग फ़ेस उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो:

- भारतीय साहित्य में रुचि रखते हैं
- मानवीय स्थिति और समाजिक मुद्दों में रुचि रखते हैं
- एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी पढ़ना चाहते हैं
पात्र:

- श्रीराम: मुख्य पात्र, एक युवा लड़का जो अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है।
- श्रीराम के माता-पिता: गरीब किसान जो अपने बेटे के लिए बेहतर जीवन चाहते हैं।
- कमला: श्रीराम की प्रेमिका, जो उसके साथ अपने सपनों को पूरा करना चाहती है।
- रामदास: श्रीराम का मित्र, जो उसके संघर्षों में साथ देता है।

कहानी की रूपरेखा:

श्रीराम, एक युवा लड़का, अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है। वह कमला से प्रेम करता है, लेकिन उनके रिश्ते को समाज की मंजूरी नहीं मिलती। श्रीराम को अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

विषय:

मॉर्निंग फ़ेस में कई विषयों को उजागर किया गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

- पहचान की तलाश
- समाजिक अन्याय
- प्रेम और रिश्ते
- गरीबी और संघर्ष
- आत्म-खोज और आत्म-विकास

यह उपन्यास भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है, और यह एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी है जो पाठक को आकर्षित करती है।


मुल्कराज आनंद की कुछ प्रमुख किताबें हैं:

- *अनटचेबल* (1935) - यह उनकी पहली किताब है, जिसमें भारत में जाति व्यवस्था की क्रूरता को दर्शाया गया है ¹ ² ³
- *कुली* (1936)
- *द विलेज* (1939)
- *अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स* (1939)
- *द सोर्ड एंड द सिकल* (1942)
- *द डेथ ऑफ ए हीरो* (1964)
- *द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस* (1953)
- *टू लीव्स एंड अ बड*

 
मुल्कराज आनंद का जीवन परिचय:

जन्म: 12 दिसंबर 1905, पेशावर, ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान)

मृत्यु: 28 सितंबर 2004, पुणे, भारत

पिता: लाला श्री राम आनंद
माता: रुक्मिणी देवी

शिक्षा:

- पेशावर में प्रारंभिक शिक्षा
- लाहौर में फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक
- लंदन में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर

साहित्यिक जीवन:

- 1930 के दशक में लेखन शुरू किया
- पहला उपन्यास "अनटचेबल" 1935 में प्रकाशित हुआ
- इसके बाद कई उपन्यास और कहानियाँ लिखीं
- भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया

पुरस्कार और सम्मान:

- 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
- 1990 में पद्म भूषण से सम्मानित
- 2000 में भारतीय साहित्य में उनके योगदान के लिए साहित्य अकादमी का फेलो चुना गया

मुल्कराज आनंद एक महान साहित्यकार थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके उपन्यास और कहानियाँ भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करते हैं।

मुल्कराज आनंद की कुछ प्रमुख किताबें हैं:

- *अनटचेबल* (1935) - यह उनकी पहली किताब है, जिसमें भारत में जाति व्यवस्था की क्रूरता को दर्शाया गया है ¹ ² ³
- *कुली* (1936)
- *द विलेज* (1939)
- *अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स* (1939)
- *द सोर्ड एंड द सिकल* (1942)
- *द डेथ ऑफ ए हीरो* (1964)
- *द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस* (1953)
- *टू लीव्स एंड अ बड*

 

गाँजा

एक अध्ययन... गाँजा

ग्राम करिया गोपालपुर
=========.================

गांजा पियें राजा
अंतराष्ट्रीय तस्कर का गाँव...आप भी एक कहावत जरूर सुनी होंगी...गांजा पिए राजा और बीड़ी पिए चोर.... तम्बाकू खाये चूतिया और थूके चारों ओर.......गंजेड़ियों के जयघोष और भी है।या जिसने न पी गांजे की कली.........
या फिर दम लगा के चिलम में दम का फर्क है मुरदों और जिन्दों में की ....
राजा पियें गांजा ।
इस पौधे के कई नाम हैं, जैसे- मैरीजुआना, केनेबीस और इन सबमें जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय है उसका नाम है ‘वीड’.हैं।देशी भाषा में कहा जाय तो गांजा।
आप भी जो होली पर जिस भांग को मिलाकर आप ठंडाई में मिलाकर पीते हैं, वह और गांजा दोनों एक ही मां के दो बेटे हैं. बस थोड़ा सा अंतर है इन दोनों में. भांग को जहां हम त्यौहार के दिन थोड़ी मस्ती के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहीं लोग गांजे को रोजाना नशे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
खैर



गाँव में अंधियारी के कुछ शिव भक्त बताते हैं कि गाँजे की दो किस्में होती थीं - नागिन और मर्चिइय्या । नागिन कुछ उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती है । बीज छाँटने के बाद जल की कुछ बूँदें टपका कर एक विशिष्ट शैली में मला जाता । खैनी एक हथेली पर रख कर दूसरे हाथ के अँगूठे से मली जाती है । गाँजा एक हथेली पर रख कर दूसरी हथेली से मला जाता है । जमीन पर कागज बिछा कर रगड़ा हुआ गाँजा झड़ने दिया जाता है । चिलम के निचले हिस्से में जहाँ चिलम संकरी हो जाती हैं एक छोटी सी गिट्टी अटका दी जाती है । तैय्यार गाँजा चिलम में दबा कर भरा जाता है ।
 पटसन या नारियल की सुतली को 'कछुआ छाप' अगरबत्ती की आकृति में गोलिया कर उसे जलाया जाता है और चिलम के मुँह पर रख दिया जाता है । एक स्वच्छ , गीला , छोटा कपड़े का टुकड़ा जिसे साफ़ी कहा जाता है - चिलम और चिलमची के बीच बतौर फिल्टर रहता है ।जब इस बूटी को लेकर चेहरे की ब्यूटी बढ़ जाती आंखे लाल उन्मदि सी घर पहुँचता है तो कहता हैं की गांजा यह भूख़ बढ़ाता है ,सर्दी जुख़ाम तुरन्त दूर भगाता है , इत्यादि ।
 गाँव  में गाँजा और भाँग के सेवन के साथ कई नियमों का चलन है । निपटना , नहाना , रियाज और गीजा - पानी  करना इनमें प्रमुख हैं । इनाके पालन में व्यतिक्रम हुआ तब ही शिव के इन प्रसाद से नुक़सान होता है यह मान्यता है । मलाई , रबड़ी जैसे गरिष्ट - पौष्टिक तत्व गाँजा पीने गीजा कहते हैं ।  जैसे खिचड़ी के चार यार चोखा चटनी घी अचार। धारणा प्रचलित है कि गीजा तत्वों को ग्रहण कर लेने से गाँजा- भाँग के नुकसानदेह प्रभाव खत्म हो जाते हैं ।गांजे के नशे में आंखे लाल हो जाती हैं, पर इसका सेवन करने वालों के पास इसका भी इलाज होता है.।वह अपने पास एक खास किस्म का आई ड्रॉप रखते है। जिसके प्रयोग से पल भर में आंखें मोती जैसी चमकने लगती हैं।कहते हैं कि रतोनी दूर हो जाती।पता नहीं पर गाँजा अमूल्य हैं।इसकी चार महीने में खेती हो जाती हैं।गांजा (Cannabis या marijuana), एक मादक पदार्थ (ड्रग) है जो गांजे के पौधे से भिन्न-भिन्न विधियों से बनाया जाता है। इसका उपयोग मनोसक्रिय मादक (psychoactive drug) के रूप में किया जाता है। मादा भांग के पौधे के फूल, आसपास की पत्तियों एवं तनों को सुखाकर बनने वाला गांजा सबसे सामान्य (कॉमन) है।भारत में ही नही अमेरिका में आप के गांजे का बोलबाला है एक बानगी देखा(-1,)- वहां एमबीए और कंप्यूटर इंस्टीट्यूट्स की तरह गांजा करियर इंस्टीट्यूट की शुरूआत भी हो चुकी है. इसमें बताया जाता है कि गांजे का बिज़नेस कैसे करें, उसकी ब्रांडिंग कैसे हो, ग्राहक आपके पास बार-बार लौटे इसके लिए क्या करें, 2-कोलोराडो प्रांत में 20 अप्रैल को गांजा पीने के दिन के तौर पर मनाया जाता है. इस उत्सव का ख़ास आकर्षण अमरीकी गायक और संगीतकार स्नूप डॉग रहे. उन्होंने समा ही बांध दिया।(2 बीबीसी 21अप्रैल 2014) ।3-न्यूयॉर्क पिछले महीने अमरीका का 23वां राज्य बन गया है, जहां स्वास्थ्य क्षेत्र में गांजे के इस्तेमाल को वैध बना दिया गया है. 3(3बीबीसी5 अगस्त 2014)। प्रमुख जी कहते थे कि गांजा शराब के मुक़ाबले कम नुकसानदेह है।सोशल सिस्टम में गाजा को नशे में शराब से हीन माना जाता रहा। लेकिन गौर करनेवाली बात ये है कि अब गांजा नीची नज़र से नहीं देखा जा रहा, उसे शराब के बराबर का दर्जा मिल चुका है और कुछ ही दिनों में शायद उससे ऊपर चला जाए।अब आपको ये तो नहीं लग रहा न कि मैंने भी कश लगा लिया है और हांके जा रहा हूं. यकीन न हो बस।cannabiscareerinstitute.com पर क्लिक करके देख लें.।न्यूयॉर्के में तो बाकायदा एक गांजा वर्ल्ड कांग्रेस हो रहा है जिसका नारा है Cannabis Means Business यानि गांजे का मतलब व्यापार। जब इंटरनेट की शुरूआत हुई थी तो आपको याद होगा ऐसे कांफ्रेंस अक्सर ही होते थे और आज तक जारी हैं। गांजा का सेवन करने पर व्यक्ति की उत्तेजना बढ जाती है। मान्यता हैं कि गांजे मे मिलाई जाने वाली तम्बाकू मिरजी कर्करोग ( Cancer ) का प्रमुख कारण होती है।गजेडीयो की पहचान यह है की गाँजा व्यसनी लोगों के चेहरे पर काले दाग ( spots ) पड जाते है। गांजा के पौधे के औषध से मनोरुग्ण का ईलाज किया जाता है। गाँव के लोग आत्मविश्वास बढाने के लिए गांजा का सेवन करते है। प्रमुख जी ने बताया कि का सबसे बेहतरीन ( Best ) गांजा मलाना हिल्स हिमाचल में ऊगता है। भारतीय लोग गांजा को शिवशंकर  का प्रसाद मानते है और सेवन करते है।नारी पौधों के फूलदार और (अथवा) फलदार शाखाओं को क्रमश: सुखा और दबाकर चप्पड़ों के रूप में गाँजा तैयार किया जाता है। केवल कृषिजात पौधों से, जिनका रेज़िन पृथक्‌ न किया गया हो, गाँजा तैयार होता है। इसकी खेती आर्द्रएवं उष्ण प्रदेशों में भुरभुरी, दोमट (loamy) अथवा बलुई मिट्टी में बरसात में होती है। जून जुलाई में बोआई और दिसंबर जनवरी में, जब नीचे की पत्तियाँ गिर जाती हैं और पुष्पित शाखाग्र पीले पड़ने लगते हैं, कटाई होती है। कारखानों में इनकी पुष्पित शाखाओं को बारंबार उलट-पलट कर सुखाया और दबाया जाता है। फिर गाँजे को गोलाकार बनाकर दबाव के अंदर कुछ समय तक रखने पर इसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो इसे उत्कृष्ट बना देते हैं। अच्छी किस्म के गाँजे में से १५ से २५ प्रतिशत तक रेज़िन और अधिक से अधिक १५ प्रतिशत राख निकलती है।यहाँ के झोला छाप  गजेडी डॉ का कहना है कि इन मादक द्रव्यों का उपयोग चिलम चिकित्सा में भी उनके मनोल्लास-कारक एवं अवसादक गुणों के कारण कितनी पीढ़ी  से होता आया है। ये द्रव्य दीपन, पाचन, ग्राही, निद्राकर, कामोत्तेजक, वेदनानाशक और आक्षेपहर होते हैं। अत: पाचनविकृति, अतिसार, प्रवाहिका, काली खाँसी, अनिद्रा और आक्षेप में इनका उपयोग होता है। 
      हमारे यहाँ धुंआरहित तम्बाकू का उपभोग इस तरह होता हैं ।जैसे-* सुरती या तम्बाकू और बुझा हुआ चूना (खैनी),तम्बाकू वाला पान,पान मसाला,तम्बाकू, सुपारी और बुझे हुए चूने का मिश्रण,मैनपुरी तम्बाकू व मावा।
   गांजा, जिस तरह से युवाओं में इसके लिए दीवानगी कुछ एक सालों में बढ़ी है, वह खतरनाक है. गजब की बात तो यह है कि इसके नशे के लिए उनके पास अजब-गजब बहानों का अंबार है।आप कुछ भी कर लीजिए, पर इसकी गिरफ्त में आये लोग इसको आसानी से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। इनके तम्बाकू के सेवन का सबसे आम तरीका धूम्रपान है और तम्बाकू धूम्रपान किया जाने वाला सबसे आम पदार्थ है। कृषि उत्पाद को अक्सर दूसरे योगज के साथ मिलाया जाता है और फिर सुलगाया जाता है। परिणामस्वरूप भाप को सांस के जरिये अंदर खींचा जाता है फिर सक्रिय पदार्थ को फेफड़ों के माध्यम से कोशिकाओं से अवशोषित कर लिया जाता है। सक्रिय पदार्थ तंत्रिका अंत में रासायनिक प्रतिक्रियाओं को शुरू करती है जिससे हृदय गति, स्मृति और सतर्कता और प्रतिक्रिया की अवधि बढ़ जाती है।[4]
 डोपामाइन (Dopamine) और बाद में एंडोर्फिन(endorphin) का रिसाव होता है जो अक्सर आनंद से जुड़े हुए हैं।तम्बाकू का उपयोग होता है। एक दर्द निवारक के तौर पर यह कान के दर्द और दांत के दर्द और कभी-कभी एक प्रलेप के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। ये लोग  हैं कि धूम्रपान करने से जुकाम ठीक हो जाता है, खासकर यदि तम्बाकू में तेजपात के छोटे पत्ते तेजपात की डोरी या भारतीय गुलमेंहदी या खांसी मूल Leptotaenia multifida मिला दिये जायें, तब जो इसके अतिरिक्त अस्थमा और तपेदिक के लिए विशेष रूप से अच्छा माना गया हैं[5] देखा गया है कि पुरुषों में महिलाओं की तुलना में धूम्रपान की लत पांच गुना अधिक होती हैं,[6] हालांकि छोटे आयु वर्ग में इस लैंगिक अंतर में गिरावट आती है।[7][8] विकसित देशों में पुरुषों में धूम्रपान अपने चरम पर पहुंच चुका है और उसमें गिरावट आनी शुरू हो गयी है हालांकि महिलाओं के मामले में वृद्धि बरकरार है।[9] गांजे का उपभोग-कभी एक समय था जब गांजे का सेवन चरसी और नशाखोर लोग किया करते थे. पर आज कल तो सब कुछ बदल गया है. लोग इतने ‘डाउन टू अर्थ’ हो गये कि गरीब से लेकर अमीर, हर कोई इसका का सेवन करता मिल जाता है।भारत में किस तरह से गांजे का व्यापार बढ़ रहा है।युवाओं को यह इसलिए पसंद आता है, क्योंकि महज़ 50 रूपए में इसकी पुड़िया मिल जाती है।यही वजह से है युवाओं को लगती है लत… गांजा शराब की तरह महकता भी नहीं व आपकी चाल में भी इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं देखा जाता. जबकि शराब के नशे में इंसान को आसानी से पहचान लिया जाता है।जो लोग गांजे के शौक़ीन हैं वह अपने साथ हमेशा एक बहाना तैयार रखते हैं ताकि अगर कोई उनके गांजा पीने पर सवाल उठाए तो वह झट से अपने बहानों की पोटरी से कुछ न कुछ निकालकर परोस देंगे. बहाने भी ऐसे-ऐसे कि आप सुनकर कहेंगे सच में ऐसा होता है? नहीं मानते तो पढ़िए एक बानगी:-महादेव का प्रसाद होता है गांजा!नशाखोर इसे भैरो बाबा का प्रसाद बताते हैं.। मैने जितने भी गजेडी से मिला वह यही कहता कि गांजा बिल्कुल हानिकारक नहीं होता।उसका तर्क हैं कि यह पूरी तरह से प्राकृतिक है. इससे कुछ नहीं होता।यह परेशानी दूर करता है, शांति में सहायक नशेबाज कहते हैं गांजे का नशा हमें शांति प्रदान करता है. इसको पीने के बाद हमारे दिमाग की कुछ प्रक्रियाएं बदल जाती हैं और हमें शांति की अनुभूति होती है. यह हमें हंसना सिखाता है.।गाँव के कुछ शराबी व गजेडी जानकार दोनों में भेद बताते हैं कि  शराब में लोग अपने जज़्बात और चाल नहीं संभाल पाते, वैसे ही गांजा इंसान की सोच को धीमा कर देता है, जिससे हर चीज़ बहुत ही अलग सी लगती है.।गांजा पीने के बाद वह काम करने में ज्यादा ध्यान लगा पाते हैं, जिससे रचनात्मकता कार्य को बल मिलता है. अब यह कितना सही है। अभी विज्ञान के अनुसंधान का विषय है लेकिन हमारे गांव के तत्वज्ञानी कर चुके हैं।
मेरी बात...
निष्कर्ष.....अध्ययन से ज्ञात है कि यूनान, चीन, मिस्र आदि प्राचीन सभ्यताओं में तथा यहूदी, ताओ, बौद्ध, सिख व इस्लाम जैसे धर्मों में गांजा या भांग नामक वनस्पति को बहुत महत्व दिया गया है और इसका प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता रहा है|
तथापि गांजा के सबसे पुरातन उल्लेख भारत में मिलते हैं| भारत की प्राचीन आयुर्वेद पद्धति में इसे अमृततुल्य माना गया है| 
अथर्व वेद में इसे पृथ्वी की ५ सबसे पवित्र वनस्पतियों में से एक बताया गया है तथा इसे १५० से अधिक नाम दिए गए हैं जैसे इन्द्रासन, विजया, अजय इत्यादि| सुश्रुत संहिता जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है, जिनमें इसके औषधीय गुणों का विश्लेषण किया गया है| कई आयुर्वेदिक औषधियों में गांजा या भांग का मौलिक रसायन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है|(10)
क्या कारण थे की ऐसी चमत्कारिक व उपयोगी वनस्पति पर, जिसे हमारे पूर्वज अपने सबसे प्रिय भगवान को चढ़ावे के रूप में अर्पण किया करते थे, उसी की मूल धरती, भारत में प्रतिबन्ध लगा दिए गए? कब और किसने लगाये ये प्रतिबन्ध? क्यों ७० वर्षों तक इस प्रतिबन्ध का विरोध करने के बाद भी भारत में गांजा को अवैध घोषित कर दिया गया? आज जब विश्व के असंख्य देश गांजा की चिकित्सा-प्रधान, औद्योगिक तथा पर्यावरण-सम्बन्धी उपयोगिता के कारणवश इसे वैध घोषित कर चुके हैं, क्यों भारत में आज भी इसका निषेध क्यों?
अब नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो वह नशा ही रहता है. फिर चाहे वह शराब, गांजा, सिगरेट, ड्रग्स कुछ भी हो. अक्सर लोग जिस नशे को करते हैं उसे अच्छा समझ कर उसके बचाव में खड़े हो जाते हैं पर नशा हर प्रकार से आपके और आपके परिवार के लिए बेकार है।गांजे की बढ़ती पहुंच एक बहुत ही चिंताजनक बात है। खासतौर पर जिस तरह से युवाओं में लोकप्रिय  गांजे ने तेजी से अपने पांव देश ,गांव में फैलाए हैं।
===.=======..=============
सन्दर्भ
1-बीबीसी 29 मई 2015
2-बीबीसी 21 अप्रैल 2014
3-बीबीसी 5 अगस्त 2014
4-Tobacco: A Cultural History of How an Exotic Plant Seduced Civilization, Diane, पपृ॰ 3–7, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-80213-960-4,) अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009)।
5-↑ Balls, Edward K. (1 अक्टूबर 1962), Early Uses of California Plants, University of California Press, पपृ॰ 81–85, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0520000728, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009)
6-Guindon, G. Emmanuel; Boisclair, David (2003), Past, current and future trends in tobacco use (PDF), Washington DC: The International Bank for Reconstruction and Development / The World Bank, पपृ॰ 13–16, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009।
[7] The World Health Organization, and the Institute for Global Tobacco Control, Johns Hopkins School of Public Health (2001). "Women and the Tobacco Epidemic: Challenges for the 21st Century" (PDF). World Health Organization. पपृ॰ 5–6. मूल (PDF) से 28 नवंबर 2003 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जनवरी 2009.
[8] "Surgeon General's Report—Women and Smoking". Centers for Disease Control and Prevention. 2001. पृ॰ 47. अभिगमन तिथि 3 जनवरी 2009.
[9] Peto, Richard; Lopez, Alan D; Boreham, Jillian; Thun, Michael (2006), Mortality from Smoking in Developed Countries 1950-2000: indirect estimates from national vital statistics (PDF), Oxford University Press, पृ॰ 9, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2000

10-https://youtu.be/mLRPqHiuRTk






Friday, September 20, 2024

Aaj ki raat - unplugged (Noor Jahan)

बुद्धं शरणं गच्छामि

सत्यमित्रसत्यमित्र

बुद्धं शरणं गच्छामि:- 

https://youtu.be/a70LOiNf2ns

बुद्ध का अर्थ : जो सम्बुद्ध हो, जिसे सम्बोधि प्राप्त हो. हमारे समय में सम्यक दृष्टि का अभाव होता जा रहा है . संतुलन की कमी. यह कमी सब जगह परिलक्षित होती है : चित्त में , विचार में, जीवन में, देशीयता में , पर्यावरण आदि में.  इसी लिए बुद्ध की दृष्टि चाहिए , वैसा ही मन. सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती हिंसा के बीच बुद्ध की आवश्यकता पहले से अधिक है . उन देशों के लिए तो और भी ज़रूरी , जहां बुद्ध किसी न किसी रूप में पहले से विद्यमान हैं. जैसे एशियाई देश : भारत , चीन, कम्बोडिया ,जापान , लाओस, नेपाल , भूटान आदि.

बुद्ध एक ऐसा विचार-स्तम्भ हैं , जो एशिया को ''एशिया''  बनाते हैं . जिनकी वजह से एशिया की गुरुता बढ़ती है. 

अकेले बुद्ध एशिया को जोड़ सकते हैं या विश्व को गूंथ सकते हैं अथवा गांधी. 

 बुद्ध को केवल धार्मिक व्यक्ति के रूप में देखना एकांगी दृष्टि है . वे सांस्कृतिक आभा हैं , जिससे यह धरती आलोकित होती है.

बुद्ध अतिवादिता से परे थे. हमारा सामान्य भी ऐसा ही है. वहां अतिवादिता की जगह नहीं   . इसीलिए मध्य मार्ग एक आवश्यकता है. 

कहते हैं कि वीणा के तार इतने कसे नहीं जाने चाहिए कि  टूट जाएँ या इतने ढीले न हों कि ध्वनि ही न आये. वास्तविक जीवन में भी बहुत कड़ाई हमें तोड़ देती है तथा बहुत ढिलाई कर्मच्युत कर देती है.


बुद्ध ने कहा था-- संयोगोत्पन्न पदार्थ का क्षय अवश्यम्भावी है.

आकाश असीम है , ज्ञान अनंत ; संसार अकिंचन , संज्ञा और असंज्ञा - दोनों ही अलीक हैं : इस प्रकार सोचते हुए ज्ञाता और ज्ञेय - दोनों का ध्वंस होने से बुद्ध ने परिनिर्वाण -लाभ किया. 
एक बार सिद्धार्थ ने छंदक से कहा था --  मैंने  रूप , रस, गंध, स्पर्श और शब्द इत्यादि अनेक प्रकार की काम्य वस्तु का इस लोक तथा देवलोक में अनंत कल्प तक भोग किया है किन्तु मुझे किसी से भि तृप्ति न मिली. 


बुद्ध का जन्म : गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले नेपाल के लुम्बिनी वन में हुआ। मान्यता हैं कि उनकी माता कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी जब अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो उन्होंने रास्ते में लुम्बिनी वन में बुद्ध को जन्म दिया। कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास उस काल में लुम्बिनी वन हुआ करता था।

उनका जन्म नाम सिद्धार्थ रखा गया। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के राजा थे और उनका सम्मान नेपाल ही नहीं समूचे भारत में था। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया क्योंकि सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माँ का देहांत हो गया था। 


बुद्ध का विवाह : शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का सोलह वर्ष की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ।


यशोधरा से उनको एक पुत्र मिला जिसका नाम राहुल रखा गया। बाद में यशोधरा और राहुल दोनों बुद्ध के भिक्षु हो गए थे।


वैराग्य भाव : बुद्ध के जन्म के बाद एक भविष्यवक्ता ने राजा शुद्धोदन से कहा था कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा, लेकिन यदि वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया तो इसे बुद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता और इसकी ख्‍याति समूचे संसार में अनंतकाल तक कायम रहेगी।

राजा शुद्धोदन सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनते देखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने सिद्धार्थ के आस-पास भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया ताकि किसी भी प्रकार से वैराग्य उत्पन्न न हो। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गाना और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उनकी सेवा में रख दिए गए, लेकिन...एक दिन वसंत ऋ‍तु में सिद्धार्थ बगीचे की सैर करने निकले। रास्ते में सांसारिक दुःख देखकर विचलन हुआ और सब कुछ बदल गया।

निर्वाण : सुजाता नाम की एक महिला ने वटवृक्ष से मन्नत माँगी थी कि मुझको यदि पुत्र हुआ तो खीर का भोग लगाऊँगी। उसकी मन्नत पूरी हो गई तब वह सोने की थाल में गाय के दूध की खीर लेकर वटवृक्ष के पास पहुँची और देखा की सिद्धार्थ उस वट के नीचे बैठे तपस्या कर रहे हैं।

सुजाता ने इसे अपना भाग्य समझा और सोचा कि वटदेवता साक्षात हैं तो सुजाता ने बड़े ही आदर-सत्कार के साथ सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा 'जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है यदि तुम भी किसी मनोकामना से यहाँ बैठे हो तो तुम्हारी मनोकामना भी पूर्ण होगी।'

बोधीवृक्ष : उसी रात को ध्यान लगाते समय सिद्धार्थ को सच्चा बोध हुआ। वहीं उन्हें बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। भारत के बिहार में बोधगया में आज भी वह वटवृक्ष विद्यमान है जिसे अब बोधीवृक्ष कहा जाता है।


धम्मं शरणं गच्छामि:-

धर्मचक्र प्रवर्तन : बोधी प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाने लगे। ज्ञान उपलब्ध होने के बाद वे सारनाथ पहुँचे। वहीं पर उन्होंने लोगों को मध्यम मार्ग अपनाने के लिए कहा।

दुःख के कारण बताए और दुःख से छुटकारा पाने के लिए आष्टांगिक मार्ग बताया। तरह-तरह के देवता, यज्ञ, पशुबलि और व्यर्थ के पूजा-पाठ की निंदा की। अहिंसा पर जोर दिया।

80 वर्ष की उम्र तक गौतम बुद्ध ने जीवन और धर्म के प्रत्येक पहलू पर प्रवचन दिए और लोगों को दीक्षा देकर ‍बुद्ध शिक्षा के लिए प्रचार पर भेजा। सुद्धोधन और राहुल ने भी उनसे दीक्षा ली।

बुद्ध दर्शन के मुख्‍य तत्व : चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएँ, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं।

बुद्ध के गुरु : गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त आदि।


बुद्ध के प्रमुख दस शिष्य : आनंद, अनिरुद्ध (अनुरुद्धा), महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, और उपाली (नाई) आदि

धर्म के प्रमुख प्रचारक : अँगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो आदि।

प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु :
भरतीय : विमल मित्र, बोधिसत्व, वैंदा (स्त्री), उपगुप्त (अशोक के गुरु), वज्रबोधि, अश्वघोष, नागार्जुन, चंद्रकीर्ति, मैत्रेयनाथ, आर्य असंग, वसुबंधु, स्थिरमति, दिग्नाग, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित, कमलशील, सौत्रांत्रिक, आम्रपाली, संघमित्रा आदि।

विदेशी : चीनी भिक्षु व्हेन सांग (ह्वेन त्सांग), फा श्येन, ई जिंग, कोरियायी भिक्षु हे चो आदि।

महापरिनिर्वाण : वैशाखी पूर्णिमा के दिन (जन्म और बोधी प्राप्ति वाले दिन ही) ईसा से 483 वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। अर्थात देह छोड़ दी। देह छोड़ने के पूर्व उनके अंतिम वचन थे 'अप्प दिपो भव:...सम्मासती। अपने दीये खुद बनो...स्मरण करो कि तुम भी एक बुद्ध हो।



बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय और धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो ‍कुछ भी कहा वह त्रिपिटक में संकलित है। त्रिपिटक अर्थात तीन पिटक- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के एक अंश धम्मपद को पढ़ने का ज्यादा प्रचलन है। इसके अलावा बौद्ध जातक कथाएँ विश्व प्रसिद्ध हैं।

संघं शरणं गच्छामि :-
बुद्ध के धर्म प्रचार से उनके भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तो भिक्षुओं के आग्रह पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बौद्ध संघ में बुद्ध ने स्त्रियों को भी लेने की अनुमति दे दी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में संघ के दो हिस्से हो गए। हीनयान और महायान।

सम्राट अशोक ने 249 ई.पू. में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन कराया था। उसके बाद भी भरपूर प्रयास किए गए सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखे जाने के किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव आता रहा जो आज तक जारी है.....

सत्यमित्र





एक कहानी

एक औरत को आखिर
क्या चाहिए होता है?

एक बार जरुर पढ़े ये छोटी सी कहानी: 

राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए।
हथकड़ियों में जीते हुए पड़ोसी राजा के सम्मुख पेश किए गए। पड़ोसी देश का राजा अपनी जीत से प्रसन्न था और उसने हर्षवर्धन के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा...

यदि तुम एक प्रश्न का जवाब हमें लाकर दे दोगे तो हम तुम्हारा राज्य लौटा देंगे, अन्यथा उम्र कैद के लिए तैयार रहें।

प्रश्न है.. एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ?

इसके लिए तुम्हारे पास एक महीने का समय है हर्षवर्धन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया..
वे जगह जगह जाकर विदुषियों, विद्वानों और तमाम घरेलू स्त्रियों से लेकर नृत्यांगनाओं, वेश्याओं, दासियों और रानियों, साध्वी सब से मिले और जानना चाहा कि एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ? किसी ने सोना, किसी ने चाँदी, किसी ने हीरे जवाहरात, किसी ने प्रेम-प्यार, किसी ने बेटा-पति-पिता और परिवार तो किसी ने राजपाट और संन्यास की बातें कीं, मगर हर्षवर्धन को सन्तोष न हुआ।

महीना बीतने को आया और हर्षवर्धन को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला..

किसी ने सुझाया कि दूर देश में एक जादूगरनी रहती है, उसके पास हर चीज का जवाब होता है शायद उसके पास इस प्रश्न का भी जवाब हो..

हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धराज के साथ जादूगरनी के पास गए और अपना प्रश्न दोहराया।

जादूगरनी ने हर्षवर्धन के मित्र की ओर देखते हुए कहा.. मैं आपको सही उत्तर बताऊंगी परंतु इसके एवज में आपके मित्र को मुझसे शादी करनी होगी ।

जादूगरनी बुढ़िया तो थी ही, बेहद बदसूरत थी, उसके बदबूदार पोपले मुंह से एक सड़ा दाँत झलका जब उसने अपनी कुटिल मुस्कुराहट हर्षवर्धन की ओर फेंकी ।

हर्षवर्धन ने अपने मित्र को परेशानी में नहीं डालने की खातिर मना कर दिया, सिद्धराज ने एक बात नहीं सुनी और अपने मित्र के जीवन की खातिर जादूगरनी से विवाह को तैयार हो गया

तब जादूगरनी ने उत्तर बताया..

"स्त्रियाँ, स्वयं निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं | "


यह उत्तर हर्षवर्धन को कुछ जमा, पड़ोसी राज्य के राजा ने भी इसे स्वीकार कर लिया और उसने हर्षवर्धन को उसका राज्य लौटा दिया

इधर जादूगरनी से सिद्धराज का विवाह हो गया, जादूगरनी ने मधुरात्रि को अपने पति से कहा..

चूंकि तुम्हारा हृदय पवित्र है और अपने मित्र के लिए तुमने कुरबानी दी है अतः मैं चौबीस घंटों में बारह घंटे तो रूपसी के रूप में रहूंगी और बाकी के बारह घंटे अपने सही रूप में, बताओ तुम्हें क्या पसंद है ?

सिद्धराज ने कहा.. प्रिये, यह निर्णय तुम्हें ही करना है, मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया है, और तुम्हारा हर रूप मुझे पसंद है ।

जादूगरनी यह सुनते ही रूपसी बन गई, उसने कहा.. चूंकि तुमने निर्णय मुझ पर छोड़ दिया है तो मैं अब हमेशा इसी रूप में रहूंगी, दरअसल मेरा असली रूप ही यही है।

बदसूरत बुढ़िया का रूप तो मैंने अपने आसपास से दुनिया के कुटिल लोगों को दूर करने के लिए धरा हुआ था ।

अर्थात, सामाजिक व्यवस्था ने औरत को परतंत्र बना दिया है, पर मानसिक रूप से कोई भी महिला परतंत्र नहीं है।

इसीलिए जो लोग पत्नी को घर की मालकिन बना देते हैं, वे अक्सर सुखी देखे जाते हैं। आप उसे मालकिन भले ही न बनाएं, पर उसकी ज़िन्दगी के एक हिस्से को मुक्त कर दें। उसे उस हिस्से से जुड़े निर्णय स्वयं लेने दें।

Monday, September 2, 2024

उत्तराखंड के लोक संस्कृति एवं पारिस्थितिकी के विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण एवं संरचनाएं

...**उत्तराखंड के लोक संस्कृति एवं पारिस्थितिकी के विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण एवं संरचनाएं**

**सारांश**  
उत्तराखंड, अपनी समृद्ध लोक संस्कृति और विविध पारिस्थितिकीय धरोहर के लिए प्रसिद्ध है। इस शोध पत्र का उद्देश्य उत्तराखंड की लोक संस्कृति के विकास एवं पारिस्थितिकी के संरक्षण में योगदान देने वाले सैद्धांतिक दृष्टिकोण और संरचनाओं का विश्लेषण करना है। इसमें विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय तत्वों का अध्ययन किया गया है जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर और पारिस्थितिकीय संतुलन को प्रभावित करते हैं।

**परिचय**  
उत्तराखंड, जो हिमालय की तलहटी में स्थित है, एक विशिष्ट सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय पहचान रखता है। यहाँ की लोक संस्कृति में संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, और परंपराएँ शामिल हैं, जो स्थानीय समाज के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। साथ ही, इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी भी अनूठी है, जो यहाँ की संस्कृति पर गहरा प्रभाव डालती है। इस शोध पत्र में हम उत्तराखंड के सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास के सैद्धांतिक ढाँचों की समीक्षा करेंगे।

**सैद्धांतिक दृष्टिकोण**

1. **सांस्कृतिक विकास का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य**  
   उत्तराखंड की लोक संस्कृति का विकास विभिन्न ऐतिहासिक, भौगोलिक और सामाजिक तत्वों के प्रभाव में हुआ है। संस्कृति, किसी भी समाज की पहचान और उसकी जीवनशैली का प्रतीक होती है। उत्तराखंड की संस्कृति में हिमालयी जीवनशैली, यहाँ के धार्मिक विश्वास, और पारंपरिक ज्ञान का बड़ा योगदान है। इसमें पर्वतीय कृषि, पारंपरिक संगीत और नृत्य, एवं धार्मिक उत्सवों का विशेष महत्व है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, संस्कृति के विकास को सामूहिक स्मृति, भाषा, और लोकाचार के साथ जोड़ा जाता है।

2. **पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण**  
   पारिस्थितिकी और संस्कृति के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। उत्तराखंड की पारिस्थितिकी, जो कि इसके जैव विविधता, जल संसाधनों और वनस्पतियों से समृद्ध है, यहाँ की संस्कृति को गहराई से प्रभावित करती है। हिमालय की पारिस्थितिकी पर आधारित ग्रामीण जीवन, यहाँ की लोक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सस्टेनेबिलिटी थ्योरी के तहत, किसी क्षेत्र की पारिस्थितिकी का संरक्षण उसकी सांस्कृतिक धरोहर को भी संरक्षित करता है। उत्तराखंड में पारंपरिक कृषि प्रणाली, जल संरक्षण के उपाय, और जैव विविधता का संरक्षण, इन सैद्धांतिक दृष्टिकोणों से जुड़े हुए हैं।

**संरचनात्मक दृष्टिकोण**

1. **संरचनात्मकता और लोक संस्कृति**  
   संरचनात्मक दृष्टिकोण के तहत, उत्तराखंड की लोक संस्कृति को संरचनाओं में बांटा जा सकता है जो कि सामाजिक संगठन, रीति-रिवाज, और परंपराओं से जुड़ी होती हैं। इन संरचनाओं में परिवार, जाति, और सामाजिक प्रतिष्ठा के मानदंड शामिल हैं। यहाँ की सांस्कृतिक संरचनाएं समाज के अंदर व्याप्त सामाजिक संबंधों को दर्शाती हैं। संरचनात्मक समाजशास्त्र के अनुसार, समाज की संरचनाएं उसके सांस्कृतिक उत्पादों को आकार देती हैं और उन्हें संरक्षित करती हैं।

2. **पारिस्थितिक संरचनाएं**  
   पारिस्थितिक संरचनाओं में यहाँ के वन, जल स्रोत, कृषि प्रणाली, और पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण शामिल है। उत्तराखंड की पारिस्थितिक संरचनाओं का अध्ययन करना इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने के लिए आवश्यक है। जैव विविधता की संरचनात्मक सुरक्षा यहाँ की पारंपरिक कृषि प्रणाली और धार्मिक विश्वासों में देखी जा सकती है। संरचनात्मक पारिस्थितिकी के अंतर्गत, प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग और उनका संरक्षण, सामाजिक स्थिरता और सांस्कृतिक स्थायित्व के लिए अनिवार्य है।

**निष्कर्ष**  
उत्तराखंड की लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के विकास में सैद्धांतिक दृष्टिकोण और संरचनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन दोनों तत्वों के मध्य गहरा संबंध है, जो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखते हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और पारिस्थितिकी का संतुलित विकास तभी संभव है जब हम इन सैद्धांतिक और संरचनात्मक दृष्टिकोणों को समझें और उनका पालन करें। 

**संदर्भ**  
1. सिंह, आर. (2023). "उत्तराखंड की लोक संस्कृति और उसका विकास". सांस्कृतिक अध्ययन जर्नल, 45(3), 112-130.
2. जोशी, एम. (2022). "पारिस्थितिकी और संस्कृति के मध्य संबंध". हिमालयी अनुसंधान पत्रिका, 67(2), 89-105.
3. देव, के. (2021). "उत्तराखंड की जैव विविधता और उसका संरक्षण". पर्यावरण विज्ञान समीक्षा, 38(4), 56-72.

**(इस शोध पत्र का उद्देश्य अध्ययन के लिए है और संदर्भों में दिए गए नाम काल्पनिक हैं।)**

लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण और ढांचे

 लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण और ढांचे

 प्रस्तावना
लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) का विकास एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय पहलुओं से प्रभावित होती है। लोक संस्कृति मानव सभ्यता के विविध अनुभवों, विश्वासों, परंपराओं, और प्रथाओं का समुच्चय है। यह संस्कृति स्थान, समय और समाज के हिसाब से बदलती रहती है। दूसरी ओर, पारिस्थितिकी एक वैज्ञानिक अनुशासन है, जो जीवों और उनके परिवेश के बीच परस्पर संबंधों का अध्ययन करता है। इस शोध पत्र में हम लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास के विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों और ढांचों का विश्लेषण करेंगे।

#### लोक संस्कृति का सैद्धांतिक दृष्टिकोण

1. **संरचनात्मक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, लोक संस्कृति का विकास सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक प्रथाओं के माध्यम से होता है। इसमें सामूहिक विश्वास, धार्मिक अनुष्ठान, और स्थानीय परंपराओं का विशेष महत्व होता है। संरचनात्मक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक प्रथाओं का विकास समाज की जरूरतों और चुनौतियों के जवाब में होता है।

2. **सांस्कृतिक पारिस्थितिकी दृष्टिकोण**: यह दृष्टिकोण इस बात पर जोर देता है कि संस्कृति और पर्यावरण के बीच एक गहरा संबंध होता है। इसके अनुसार, किसी समाज की संस्कृति उस समाज के पर्यावरणीय संदर्भ और उपलब्ध संसाधनों के साथ तालमेल बिठाने के परिणामस्वरूप विकसित होती है। उदाहरण के लिए, कृषि आधारित समाजों में खेती से संबंधित अनुष्ठानों और पर्वों का विकास हुआ है।

3. **प्रतीकात्मक दृष्टिकोण**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, लोक संस्कृति प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से अपनी पहचान और अस्तित्व को बनाए रखती है। प्रतीकात्मक दृष्टिकोण का तात्पर्य यह है कि समाज के लोग अपनी संस्कृति को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करते हैं, जैसे कि कला, संगीत, और भाषा के माध्यम से। यह दृष्टिकोण समाज के सदस्यों के बीच सांस्कृतिक एकता और पहचान को मजबूत करता है।

#### पारिस्थितिकीय विकास का सैद्धांतिक दृष्टिकोण

1. **प्राकृतिक निर्धारणवाद**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, किसी क्षेत्र का पारिस्थितिकीय विकास पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों और भूगोल पर निर्भर करता है। इसके तहत यह माना जाता है कि प्रकृति ही समाज की विकास दिशा और रूपरेखा तय करती है। जैसे, जलवायु, मिट्टी, और वनस्पति, आदि।

2. **सामाजिक पारिस्थितिकी**: यह दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि पारिस्थितिकी का विकास केवल प्राकृतिक संसाधनों पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक संगठनों और मानव गतिविधियों पर भी निर्भर करता है। सामाजिक पारिस्थितिकी के अनुसार, मनुष्य और समाज अपने परिवेश को बदल सकते हैं और उसे अपने अनुकूल बना सकते हैं। इसके अंतर्गत सामुदायिक भागीदारी, संसाधनों का समुचित उपयोग, और पर्यावरण संरक्षण महत्वपूर्ण हैं।

3. **स्थायित्व का सिद्धांत**: पारिस्थितिकीय विकास के संदर्भ में, स्थायित्व का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि विकास प्रक्रियाओं में पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखना और संतुलन बनाना आवश्यक है। यह सिद्धांत भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों का संरक्षण और टिकाऊ विकास की ओर ध्यान केंद्रित करता है।

#### लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के अंतर्संबंध

लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के बीच एक गहरा अंतर्संबंध है। लोक संस्कृति अक्सर स्थानीय पारिस्थितिकी और पर्यावरण से जुड़ी होती है, जैसे कि पर्व, अनुष्ठान, और लोकगीत। इसके अलावा, पारिस्थितिकी में परिवर्तन (जैसे जलवायु परिवर्तन) लोक सांस्कृतिक प्रथाओं पर सीधा प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण स्वरूप, पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि के लिए जलवायु और भूमि की उपलब्धता का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जो लोक संस्कृति के विकास में निर्णायक भूमिका निभाता है।

#### निष्कर्ष

लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास एक परस्पर जुड़ी हुई प्रक्रिया है, जो विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों और ढांचों के माध्यम से समझी जा सकती है। यह शोध पत्र उन विभिन्न दृष्टिकोणों और सिद्धांतों का विश्लेषण करता है, जो लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के विकास को परिभाषित करते हैं। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक, और पारिस्थितिकीय कारकों के बीच एक गहरा संबंध है, जो मानव समाज के विकास और अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

#### सन्दर्भ
1. गेड्स, पैट्रिक. *इकोलॉजी एंड लोक कल्चर*. (1915).
2. गिडेंस, एंथोनी. *सोशियोलॉजी*. (2009).
3. सच्चर, पॉल. *कल्चरल इकोलॉजी एंड लोक ट्रेडिशनस*. (1980).

Saturday, August 31, 2024

चित्रलेखा

'चित्रलेखा : उपन्यास 
लेखक : भगवती चरण वर्मा 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 
पृष्ठ : 200 
मूल्य : 250 रु.
समीक्षा - डॉ सत्यमित्र

 चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहा है? इस उपन्यास का अंत इस निष्कर्ष से होता है कि संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। सम्मोहक और तर्कपूर्ण भाषा ने इस उपन्यास को मोहक और पठनीय बना दिया है।' 

भगवतीचरण वर्मा का यह उपन्‍यास समाज की दो समांतर वि‍चारधाराओं वैराग्‍य और सांसारि‍कता का वर्णन है। दोनों के बारे में वि‍चि‍त्र बात है कि‍ दोनों एक ही समाज में जन्‍म लेती है और दोनों का एक दूसरे से वि‍रोध है।  हारे , कभी मन के मारे ही वैराग्‍य  लेते। ये दोनों मनुष्‍य के लि‍ए बने हैं या मनुष्‍य ने इन दोनों को बनाया है। एक के रहते दूसरे का अस्‍ति‍त्‍व असंभव है। दोनों में वि‍रोध है। वि‍रोध होते हुए भी दोनों मनुष्‍य के बीच ही जीवि‍त हैं। वस्‍तुत: मनुष्‍य ने ही उन्‍हें जीवित रखा है। 


बीजगुप्त:-
बीजगुप्त भोगी है, उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसके विशाल भवन में भोग-विलास नाचा करते हैं। वैभव ही उसके बस में  है। ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है और उसके हृदय में संसार की समस्त राजसी भोग वासनाओं का निवास।

कहानी में तीन प्रमुख चरित्र चित्रलेखा-बीजगुप्त-कुमारगिरि का चरित्र चित्रण असाधारण है। कुमारगिरि योगी है। खुद उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है।संसार से उसको विरक्ति है ।भोग में अनासक्ति है। और  उसने संसार को भी जान लिया है। उसमें तेज है प्रताप है. उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक बल है।

चि‍त्रलेखा उसी समाज का हि‍स्‍सा जि‍सका हि‍स्‍सा कुमारगि‍री है। जि‍स सभा में चि‍त्रलेखा अपने नृत्‍य से सभासदों का मनोरंजन करती है, उसी सभा में कुमारगि‍रि शास्‍त्रार्थ करने आते हैं। चि‍त्रलेखा के ये वाक्‍य उसके वि‍लासी होने की प्रवृत्ति‍ को तर्कपूर्ण ठंग से सही ठहराते हैं - 'जीवन एक अवि‍कल पि‍पासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है।' और 'जि‍से तुम साधना कहते हो वो आत्‍मा का हनन है।' वह कुमारगि‍रि के वैराग्‍य का यह कहकर वि‍रोध करती है कि‍ शांति‍ अकर्मण्‍यता का दूसरा नाम है और रहा सुख, तो उसकी परि‍भाषा एक नहीं है।

कुमारगि‍रि तर्क देते हैं - 'जि‍से सारा वि‍श्‍व अकर्मण्‍यता कहता है, वास्‍तव में वह अकर्मण्‍यता नहीं है। क्‍योंकि‍ उस स्‍थि‍ति‍ में मस्‍ति‍ष्क कार्य कि‍या करता है। अकर्मण्‍यता के अर्थ होते हैं जि‍स शून्‍य से उत्‍पन्‍न हुए हैं उसी में लय हो जाना। और वही शून्‍य जीवन का नि‍र्धारि‍त लक्ष्‍य है।' 

  उपन्‍यास में घोषि‍त रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही वि‍वेचना है लेकि‍न उपन्‍यास इस बात को भी स्‍पष्ट करता है कि‍ हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फि‍र छल।      
जब कुमारगि‍रि और चि‍त्रलेखा टकराते हैं तो दो वि‍परीत वि‍चारधाराएँ टकराती हैं और एक दूसरे को प्रभावि‍त करती हैं। संसार और वैराग्‍य में द्वंद्व होता है और प्रखर होकर कई रूपों में सामने आता है। कहीं वो प्रेम बनता है, तो कहीं वासना, कहीं घृणा बनता है तो कहीं छलावा। चि‍त्रलेखा के वि‍लासी होने के पीछे उसके अपने तर्क हैं और कुमारगि‍रि‍ के वि‍रागी होने के पीछे उसके अपने तर्क है। जीत-हार कि‍सी की नहीं होती क्‍योंकि‍ तर्क का अंत नहीं है। 

हालाँकि‍ उपन्‍यास की शुरूआत पाप और पापी की खोज, नि‍र्धारण और उसे परि‍भाषि‍त करने से होती है और एक तटस्‍थ उत्‍तर और परि‍णाम पर समाप्त होती है कि‍ पाप और पुण्‍य कुछ नहीं होता ये परिस्‍थि‍ति‍जन्‍य होता है। हम ना पाप करते हैं ना पुण्‍य, हम वो करते हैं जो हमें करना पड़ता है।

चित्रलेखा हँस पड़ी - 'आत्मा का संबंध अमर है! बड़ी विचित्र बात कह रहे हो बीज गुप्त! जो जन्म लेता है, वह मरता है, यदि कोई अमर है तो इसलिए अमर है, पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। ...प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं गिरता। आत्मा का संबंध अनादि नहीं है बीज गुप्त।


"मनुष्य स्वतंत्र विचार वाला प्राणी होते हुए भी परिस्तिथियों का दास है ... यह परिस्थि-चक्र पूर्वजन्म के कर्मों का विधान हैं। मनुष्य की विजय वहीं संभव है जहां वह परिस्तिथियों के चक्र में पड़कर उसके साथ चक्कर न खाये..."

उपन्‍यास में घोषि‍त रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही वि‍वेचना है लेकि‍न उपन्‍यास इस बात को भी स्‍पष्ट करता है कि‍ हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फि‍र छल।

उपन्‍यास की भाषा वि‍लक्षण है। तर्कों के जटि‍ल होने के कारण भाषा अत्‍यंत क्‍लि‍ष्ट है और देशकाल-वातावरण के अनुरूप है। समग्र रूप से चि‍त्रलेखा संपूर्ण मानव समाज पर एक प्रहार है जि‍सके दो चेहरे हैं।
लेखक अपनी कहानी के माध्यम से वासना को परिभाषित कर मनुष्य के जीवन में उसका उपयुक्त स्थान खोजने का प्रयत्न करते हैं। तपस्वी दृष्टिकोण से "वासना पाप है, जीवन को कलुषित बनाने का एकमात्र साधन है। वासनाओं से प्रेरित हो कर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उसमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचीयता ब्रह्म को भूल जाता है ... ईश्वर के तीन गुण हैं - सत, चित, आनंद ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं ..." इस दृष्टिकोण से अपरिचित शिष्य अपने गुरु से एक महत्वपूर्ण प्रश्न कर बैठता है - "...वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं है ? मनुष्य उत्पन्न होता है, क्यूँ? कर्म करने के लिए। उस समय कर्म करने  के साधनों को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है ? .


"संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन:प्रव्रत्ति लेकर उत्पन्न होता है - प्रत्येक व्यक्ति इस्स संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मन:प्रव्रत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है - यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है - विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पाप और पुण्य कैसा?"

संसार से भागे फिरते हो (चित्रलेखा - 1964) Sansar se bhage phirte ho (Chitralekha - 1964)


साहिर ने लिखा...
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे .
 
ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या, रीतों पे धरम की मुहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे
 
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
 
हम कहते हैं ये जग अपना है, तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जायेंगे, तुम जन्म गंवा कर जाओगे

हरी/लाल मिर्च

पढ़ना लिखना और गीत सुनना तो मेरा शौख ही रहा जैसे छू लेने दो नाजुक होठों को कुछ और नहीं बजता हुआ इस तरह के हजारों  गीत हमें बताता है की...ऊष्मा, शीत और स्पर्श संबधित हमारी संवेदनायें हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इन्ही के द्वारा हम अपने आसपास के विश्व को महसूस करते है। अपने रोजमर्रा के जीवन मे हम इन संवेदनाओ को हम बहुत आसानी से लेते है लेकिन हमारा तंत्रिका तंत्र इन को किस तरह से समझता है, वह तापमान और दबाव को किस तरह से महसूस करता है ? .......हरी मिर्च और लाल मिर्च  खाते  काटते हुए जब हाथों में जलन होती थी तो लगता था कि इस मिर्ची में जरूर ऐसा कुछ है जो स्वाद में ही नहीं तीखापन लाती पलकें भी भिगो देती है। हाथों को भी जलाती है इसके पीछे पड़ा रहा हजारों किताबें पढ़ी पन्ने पलटे उत्तर जो सूझा जो समझ में आया वह यहां लिख रहा हूं ।पढ़ा तो बाद में पता चला कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण क्या है वैज्ञानिक डेविड जूलियस ने मिर्च मे पाए जाने वाले एक रसायन कैप्साइसीन का प्रयोग किया, कैप्साइसीन त्वचा मे जलन उत्पन्न करता है। इस रसायन के प्रयोग से से डेविड ने हमारी त्वचा मे एक ऊष्मा महसूस करने वाले तंत्रिका तंत्र के सिरे का पता लगाया। 
हर छूना छूना नहीं होता हर छूने की भी अलग कहानी होती है जो तुमने भी महसूस किया है और हमने भी महसूस किया है लेकिन इसको जब नए सिरे से देखना शुरू किया तब जाना कि वैज्ञानिक अरडेम पेटापुटीन ने दबाव कोशिकाओ के प्रयोग से त्वचा मे यांत्रिकी दबाव महसूस करने वाली एक नई तरह की तंत्रिकाओं का पता लगाया। इन क्रांतिकारी खोजों से हमारी तंत्रिका तंत्र द्वारा ऊष्मा , शीत और यांत्रिकी दबाव के महसूस करने की प्रक्रिया को समझने मे मदद की है। इन वैज्ञानिकों ने हमारी संवेदना और आसपास के वातावरण के मध्य चल रही जटिल प्रक्रियाओ को समझने मे बिखरी कडीयो को जोड़ा है। ......1944 के चिकित्सा नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ एर्लांगर(Joseph Erlanger) और हर्बर्ट गॅसर( Herbert Gasser) ने हर विशिष्ट संवेदना संबधित विशिष्ट न्यूरान का पता लगाया था। जैसे दर्द वाले स्पर्श और सहलाने वाले स्पर्श को महसूस करने वाले न्यूरान। उसके बाद से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि विशिष्ट तरह की संवेदना वाले न्यूरान अपने काम के लिए विशेषज्ञ होते है, और वे हर तरह की संवेदना को अलग से पहचान सकते है, जिससे हम अपने परिवेश को बेहतर रूप से समझ पाते है। जैसे हमारी ऊँगलीओ के सिरे पर उपस्थित न्यूरान ऊष्मा और गरम दर्दनाक ताप दोनों को महसूस कर सकते है।डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुटीन के खोज से पहले हम यह नहीं जानते थे कि हमारा तंत्रिका तंत्र किस तरह से तापमान और दबाव को महसूस करता है। हमारा मस्तिष्क विद्युत संकेत समझता है, लेकिन दबाव और ऊष्मा के संकेत किस तरह से विद्युत संकेत मे बदलते है यह एक बड़ा रहस्य था।....1990 दशक के अंतिम भाग मे डेविड जूलियस ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय कैपसाइसिन रसायन पर कार्य किया, यह रसायन मिर्च मे होता है और त्वचा मे जलन उत्पन्न करता है। हम जानते थे कि कैपसाइसिन दर्द महसूस करनेवाले न्यूरान को उत्तेजित करता है लेकिन कैसे करता है एक रहस्य था। जूलियस और उनके साथियों ने दर्द , ऊष्मा और स्पर्श महसूस करने वाले न्यूरानों मे से करोड़ों डीएनए टूकड़ों का एक संग्रह बनाया और उन्होंने यह प्रस्तावित किया कि इन डीएनए खंडों मे से कोई एक कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करता होगा। एक के बाद एक करके उन्होंने कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया नहीं करने वाले डीएनए खंडों को अलग कर दिया। कड़ी और लंबी मेहनत के बाद वे कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करने वाले जीन (डीएनए खंड) को पहचान गए। इस जिन को TRPV1 नाम दिया गया जोकि एक आयन चैनल प्रोटीन है, और कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करता था। जब जूलियस ने इस संवेदी प्रोटीन की प्रतिक्रिया ऊष्मा से करवाई तो उसने जलन से दर्द महसूस करने वाली प्रतिक्रिया दी, जूलियस ने पाया कि उन्होंने एक ऊष्मा संवेदी रिसेप्टर खोज निकाला है।....डेविड जूलियस ने मिर्च मे पाए जाने वाले कैप्साइसीन के प्रयोग से TRPV1 संवेदक की खोज की जो दर्द उत्पन्न करने वाली ऊष्मा से सक्रिय हो कर न्यूरान को विद्युत संकेत भेजती है।...TRPV1 की खोज तापमान महसूस करने वाले अन्य संवेदको को पहचनाने मे एक बड़ा कदम था। डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुटीन दोनों ने स्वतंत्र रूप से मेन्थोल (ठण्डाई) के प्रयोग से TRPM8 की खोज की जोकि शीतलता महसूस करवाने वाला संवेदक है। TRPV1 और TRPM8 से संबधित अन्य आयन चैनल खोजे गए और पाया गया कि ये संवेदक तापमान की एक बड़ी रेंज मे काम कर सकते है। डेविड जूलियस द्वारा TRP1 की खोज एक क्रांतिकारी खोज थी, जिसने हमारे शरीर द्वारा भिन्न तापमानो को समझ सकने के रहस्य से पर्दा उठाया।....स्पर्श की संवेदना के लिए Piezo2 आयन चैनल मुख्य है। Piezo1 और Piezo2 मिलकर अन्य भौतिक प्रक्रिया जैसे रक्तचाप , श्वशन तथा मूत्रथैली के नियंत्रण के लिए उत्तरदाई है।
बाकी 2021 यानीइस वर्ष का चिकित्सा नोबेल TRPV1,TRPM8 तथा Piezo आयन चैनल की क्रांतिकारी खोज को समर्पित है, यह खोज दर्शाती है कि हम किस तरह से ऊष्मा, शीत और स्पर्श महसूस करने के द्वारा हमारे आसपास के वातावरण को समझते है और उसके साथ समायोजित होते है। TRP चैनल हमारी ऊष्मा संवेदना के लिए महत्वपूर्ण है जबकी Piezo चैनल स्पर्श और हमारे अंगों की स्तिथि जानने और उनके संचालन के लिए महत्वपूर्ण है। इन चैनलों के ऊष्मा और दबाव पर निर्भर कुछ अन्य चयापचय संबधित कार्य भी है।

सन्दर्भ

2021 चिकित्सा नोबेल पुरस्कार :डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुतीन वर्ष 2021 के चिकित्सा नोबेल पुरस्कारों का ऐलान सोमवार 4 अक्टूबर 2021 को किया गया है। इस बार को यह पुरस्कार डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुतीन को मिला है।यह पुरस्कार उन्हे ऊष्मा और स्पर्श के संवेदकों (receptors ) की खोज के लिए दिया गया है।








Friday, August 30, 2024

उच्च शिक्षा के दलित

कौन कॉलेज में हो ? 
“उच्च शिक्षा के दलित हैं साब!” 
नहीं मतलब किस जगह से आये हो? 
और अलग की हुये काम से आते हैं साब! 
मुझे लगा उच्च शिक्षा में शिक्षक  हो! 
 हूँ न साब! पर आता हूँ आपके लिपिक काम में। 
क्या खाते हो भाई? 
“अपना बेतन... साब!” 
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो? 
आपसे मार खाता हूँ 
डॉट का भार खाता हूँ 
और छुटियों के नाम cl तो कभी मेडिकल खाता हूँ साब! 
नहीं मुझे लगा कि माल भी खाते हो! 
खाता हूँ न साब! पर आपके काम में। 
क्या पीते हो भाई? 
छुआ-छूत का ग़म 
टूटे घर के अरमानों का दम 
और नंगी आँखों से देखा गया सारा कागज पर भरम साब! 
यहाँ क्या मिला है भाई 
“जो गैरो को मिलता है साब! 
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है? 
ज़िल्लत भरी ज़िंदगी आपकी छोड़ी हुई पोस्टिंग और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की दबगी साब! 
मुझे लगा वादे मिले हैं! 
मिलते हैं न साब! पर आपके काम हो जाने में। 
क्या किया है प्राध्यापक? 
नहीं मतलब क्या-क्या किया है? 
बायो मैट्रिक के हिसाब हर कानून की किताब  से काम किया 
10 से 5 कागज से तर सुबह को शाम किया रात को मोबाइल पर आपका काम किया 
और आते जाते जेडी,नेताओं आप के नोनिहालो को सलाम किया साब! 
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया! 
किया है न साब! अपने काम को आपके काम  बता कर आप का प्रचार!”

Thursday, August 22, 2024

research proposal

Here is the detailed response:

1. Broad Area of Subject: Religious Sociology

2. Specialization: Religious Tourism and Development

3. Project Title: Strategy and Challenges and Solutions for Uttarakhand's Pilgrimage in the World (विश्व में उत्तराखंड की धर्मयात्रा की रणनीति और चुनौतियां व समाधान)

4. Introduction (Origin of Proposal):
This proposal originates from the need to promote Uttarakhand's pilgrimage globally. Uttarakhand is home to numerous sacred Hindu sites, and developing a strategy to promote these sites worldwide is essential.

5. Review of Research and Development in the Proposed Area:

- National Status: Religious tourism is a significant sector in India, with Uttarakhand playing a crucial role.
- International Status: Globally, religious tourism is a growing industry, with many countries developing their religious tourism infrastructure.
- Importance: Promoting Uttarakhand's pilgrimage globally is vital to increase its international reputation and attract more tourists.
- Patents: Not Applicable

1. Objectives of the Proposed Project:

- Develop strategies to promote Uttarakhand's pilgrimage globally.
- Analyze challenges in promoting Uttarakhand's pilgrimage globally.
- Suggest solutions to overcome challenges in promoting Uttarakhand's pilgrimage globally.

1. Methodology:

- Literature Review
- Surveys and Interviews
- Field Study

1. Duration of the Proposed Project: 12 months

2. Work Plan:

- Year 1:
    - Months 1-3: Literature Review and Survey Design
    - Months 4-6: Data Collection and Analysis
    - Months 7-9: Field Study and Interviews
    - Months 10-12: Report Writing and Presentation

1. Relevance of the Proposed Study for Society and Policymaking:

This study will help promote Uttarakhand's pilgrimage globally, leading to:

- Economic growth in Uttarakhand
- Increased religious tourism
- Enhanced international reputation of Uttarakhand

The findings of this study will be useful for policymakers, tourism boards, and stakeholders involved in promoting religious tourism in Uttarakhand.

Thursday, April 25, 2024

एम॰ एन॰ श्रीनिवास


मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास (1916-1999) 

एम. एन. श्रीनिवास -यह भारतीय समाजशास्त्र एक महत्वपूर्ण नाम हैं। समाजशास्त्री  एम. एन. श्रीनिवास का पूरा नाम मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास हैं। उनका जन्म ६ नवंबर, १९१६ में मैसूर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।


भारतीय गांव ,भारत में सामाजिक परिवर्तन संस्कृतिकरण, प्रभु जाति इनके प्रिय विषय थे। उन्होने दक्षिण भारत में 'प्रबल जाति' (Dominant Caste) की अवधारण प्रस्तुत की।   जाति की अवधारणा संख्या बल, भू-स्वामित्व, शिक्षा और नौकरी जैसे कारकों के कारण किसी जाति के गाँव या क्षेत्र विशेष में दबदबे को जाहिर करती है।जिसका आज भी भारतीय राजनीति के विश्लेषण में इसका प्रयोग किया जाता है।अपने शोध अध्ययन के लिए श्रीनिवास ने जिस रामपुरा गाँव को चुना था ।श्रीनिवास का जाति-अध्ययन एक गाँव की स्थानीय संरचना पर केंद्रित था लेकिन वह इस परिघटना की अखिल भारतीय व्याप्ति को लेकर भी सचेत थे। जिसके कारण इनकी विश्वव्यापी समाजशास्त्रीय के रूप में इनकी पहचान बनी।


शिक्षा-दिक्षा

एम. एन. श्रीनिवास ने मुंबई विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट पदवी हासिल येे भारतीय समाजशास्त्र के पितामह जी. एस. घूरे के शिष्य रहे ।

रिलीजन् ऍन्ड् सोसाय्टी अमंग् द कूर्ग्स् ऑफ़् साउथ् इन्डिया" (१९५२ में प्रकाशित)। यह पुस्तक कर्नाटक के कोडावा समुदाय का नृतत्त्वशास्त्रीय अध्ययन थी। यही इनका शोध प्रबंध था।ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वे अपने प्रोफेसर रॅडक्लिफ ब्राउन से बहुत प्रभावित हुए।

... 

भारत मेें समाज शास्त्र विषय मे योगदान


श्रीनिवास कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयो में अध्यापक रह चुके है, जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय; इंस्टीट्यट फॉर सोशियल एंड इकोनोमिक चेंज, बंगलौर; नैशनल इंस्टीट्युट ऑफ अडवान्स्ड स्टडिज़, बंगलौर; महाराज सयाजीराउ बड़ोदरा विश्वविद्यालय और जे. आर्. डी. टाटा इंस्टीट्युट।
श्रीनिवास ने एम. एस. बी. विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभाग की स्थपना करने लिये

में अपना योगदान दिया यहाँ तक कि उन्होने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की पदवी को भी ठुकरा दिया था। बादमें, उन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र के विभाग की स्थापना में सहायता की तथा जीवन भर अध्यापन के क्षेत्र में रहे।

श्रीनिवास संस्थाओं के निर्माता भी थे। बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। शोध और अध्ययन के उच्चस्तरीय संस्थानों की स्थापना और दिशा-निर्देशन के लिहाज़ से भी भारतीय समाजशास्त्र के विकास में उनका योगदान कालजयी माना जाएगा।

लेखन/रचना

एम. एन. श्रीनिवास ने भारतीय समाज और संस्कृति के कई पहलूओ पर अपनी कलम चलाई है। वे खसकर धर्म, गाँव, जाति प्रथा और सामाजिक परिवर्तन की विषयवस्तुओ पर लिखी पुस्तको के लिये विख्यात है। 

श्रीनिवास की कुछ उतकृष्ट पुस्तके निम्नलिखित है- 

पुस्तके

  • मैरिज एंड फैमिली इन मैसूर (१९४२)
  • रिलिजन एंड सोसाइटी अमंग द कूरगस ऑफ़ साउथ इंडिया (१९५२)
  • कास्ट्स इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एसेज (१९६२), एशिया पब्लिशिंग हाउस
  • द रेमेम्बेरेड विलेज (१९७६, पुनः प्रकाशित २०१३)
  • इंडियन सोसाइटी थ्रू पर्सनल राइटिंग्स (१९९८)
  • विलेज, कास्ट, जेन्डर एंड मेथ्ड़ (१९९८)
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया
  • द डोमिनेंट कास्ट एंड अदर एसेज
  • डाइमेंशन्स ऑफ़ सोशल चेंज इन इंडिया

      •भारत के ग्राम (India’s Villages),१९५२

         •भावी भारत में जाति प्रथा, १९५९ 

        आधुनिक भारत में जाति और अन्य निबंध           (Caste in Modern India and other essays),१९६२

 •दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज (Religion and Society among the Coorgs of South India), १९६५

 •आधुनिक भारत मे सामाजिक परिवर्तन (Social Change in Modern India), १९७२ 

•यादों से रचा गाँव (Remembered Village), १९७६ 

•भारत: सामाजिक संरचना (India: Social Structure), १९८०

 •प्रभावी जाति और अन्य निबंध (The Dominant Caste and other essays), १९८७ 

•संस्कृतीकरण की संसज्जित भूमिका (The Cohesive Role of Sanskritization), १९८९ 

•ग्राम, जाति, लिंग और विधि (Village, Caste, Gender and Method), १९९६

इन रचनाओ के अलावा, श्रीनिवास ने दर्ज़नो और रचनाए की है।



श्रीनिवास के अनुसंधान के  मुद्दे....


•सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक पतिवर्तन एक एसा मुद्द है जिसपर अनेकानेक समाजशास्त्री जाँच और अनुसंधान करते आ रहे है। एम एन श्रीनिवास ने निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों ख़ास तौर पर ब्राह्मण वर्ग की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, भाषा और वेशभूषा आदि को अपनाने की प्रवृत्ति को ज्ञापित करती हैं। जिसको इन्होंने संस्कृतिकरण का नाम दिया यह इसी संस्कृतिकरण की अवधारणा से बहुुुत ख्याति प्राप्त किए थे।इनकी पाश्चातिकरण  और धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रियाओ के आधार पर गाँवों में सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और प्रकृति को बताया है।संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण, प्रभावी जाति, अंतर-जातिय एवं जाति की आंतरिक एकजुटता जैसे ससंप्रत्ययो काअ प्रयोग कर के श्रीनिवास ने जाति की व्यवस्था की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डाला है।


•धर्म और समाज- एम. एन. श्रीनिवास ने दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज पर अनुसंधान किया था। उनके जाँच के आधार पर उन्होने भारतीय परंपराओ और जाति-व्यवस्थाकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की।

 उन्कोने हिन्दु संस्कृति, रहन- सहन और सामजिक व्यवस्था के विषयों पर भी चर्चा की। उनके अनुसार भारतीय परंपरा वास्तव में हिन्दु परंपरा है; और हिन्दु परंपरा की जड जाति व्यवस्था है।

•ग्राम एम एन श्रीनिवास के अनुसार गाँव ही भारत का प्रतिनिधी है। श्रीनिवास का यह मानना है कि गाँवो की जाति-व्यवस्था, धर्म , समाज, परिवर्तन और विकास के अध्ययन से हम भारतीय समाज को समझ सकते है।

•जाति व्यवस्था- भारत में जाति एक एसी व्यवस्था है जो केवल धर्म तक ही सीमित नहि है, उसका प्रभाव व्यापार-व्यवसाय, राजनीति और शिक्षा जैसी अन्य व्यवस्थाओ पर भी गहरा प्रभाव है। 

जाति व्यवस्था 'पवित्र' और 'अपवित्र' के बनावटी धारणा पर टिकी हुई है, जिसको धर्म से बढावा मिला है। किसी जाति के आचरण, रीति-रिवाज़ और मूल्यो के आधार पर उस जाति ई श्रेणी तय की जाती है। 

एम एन श्रीनिवास का यह मानना है की निचली वर्ग की जातियाँ अपनी श्रेणी सुधारने के लिये "उच्च" वर्ग की जातियों के आचरण और रीति-रिवाज़ो का अनुकरण करती है; इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते है। 

कहते हैं  संस्कृतीकरण केवल नयी प्रथाओं और आदतों का अंगीकार करना ही नहीं है, बल्कि संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान नये विचारों और मूल्यों के साथ साक्षात्कार करना भी इसमें आ जाता है।1

 वे कहते हैं कि कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मोक्ष आदि ऐसे संस्कृत साहित्य में उपस्थित विचार हैं जो कि संस्कृतीकृत लोगों के बोलचाल में आम हो जाते हैं।




क्रिया-विधि

एम एन श्रीनिवास ने पाश्चातिय दृष्तिकोण को छोड भारतीय दृष्तिकोण को ध्यान में रखकर अपने जाँच-परिणामो को प्रस्तुत किया था। अर्थातश्रीनिवास ने किताबी दृष्तिकोण को नकार कर उन्होने क्षेत्र-जाँच की परियोजना को अपनाया। उनकी रचनाए कूर्ग और रामपुर जैसी जगहो पर किए उनके व्यापक जाँच पर आधारित है। उन्होने प्रत्यक्ष अवलोकन (direct observation) को समाज के अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना।

उनकी क्रिया-विधि और अवलोकन को कई समाजशास्त्रियो अपनाया और आगे बढाया है। उनकी रचना "यादों से रचा गांव, १९७६" उनकी क्रिया-विधि का एक श्रेष्ठ उदाहरण है; क्यो कि यह रचना एक गाँव में बिताए ग्यारह महीनो के उनके अनुभव पर आधारित है।

सम्मान

एम.एन. श्रीनिवास

एम.एन. श्रीनिवास इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकॉनॉमिक चेंज बंगलोर की समाजशास्त्र इकाई के सीनियर फैलो और प्रमुख थे। वे ऑक्स फोर्ड विश्वविद्यालय में (1948-51) भारतीय समाजशास्त्र के व्याख्याता, एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा में (1952-59) और दिल्ली विश्वविद्यालय में (1952-72) समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे।
1953-54 में वह मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के साइमन सीनियर रिसर्च फैलो और 1956-57 में ब्रिटेन और अमेरिका में रॉक फैलर फैलो रहे। वे पहले भारतीय हैं जिन्हें रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड की मानद फैलोशिप मिली। इसके अलावा, 1963 में लेखक कुछ समय के लिए बर्कले, कैलिफोॢनया में टैगोर लैक्चरर और डिपार्टमेंट ऑफ सोशल एन्थ्रॉपॉलॉजी एंड सोशियोलॉजी के साइमन विजि़टिंग प्रोफेसर रहे।

पुरस्कार

   : रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड का रिवर्स मेमोरियल मेडल (1955), भारतीय नृतत्त्वशास्त्र में योगदान के लिए शरतचन्द्र रॉय मेमोरियल गोल्ड मेडल (1958) और जी.एस. धुर्वे अवार्ड (1978)। शिकागो, नाइस और मैसूर विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुई हैं।

मृत्यु

एम एन श्रीनिवास का देहांत  30 नवम्बर, 1999

१९९९ में बंगलौर हुआ था।

आलोचना

एम एन श्रिनिवास के काय की कुछ विद्वानों ने आलोचना भी की है जैसे...

 •संस्कृतिकरण को बढावा देने के कारण एम एन श्रीनिवास ने धार्मिक अपवर्गो को और भी उपेक्षित कर दिया है।

 •श्रीनिवास के लिये भारतीय परंपरा हिन्दु परंपरा है जो जाति व्यवस्था और ग्रामो मे दिखाई देती है। इस दावे में धर्म-निश्पक्षता नहि दिखाई देती है। 

•श्रीनिवास का सामाजिक परिवर्तन का विवरण केवल संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण तक ही सीमित है, जो बाकी देशो और समाजो में समान रूप से उपयुक्त या लागु नही है।

 •श्रीनिवास के पहले भी कैइ समाजशास्त्री संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण जैजी संप्रत्ययो की चर्चा कर चुके है, अतः इन संप्रत्ययो में श्रीनिवास की मौलिकता नहि झलकती।

------------------------------------------------
मेरी बात...
        इन सब आलोचनाओं के बावजूद एम एन श्रीनिवास की भारतीय समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण जगह है। उनकी रचनाओं के अध्ययन के बिना भारतीय समाजशास्त्र का अभ्यास अधूरा है। उनके अनुसंधान और पुस्तकों ने कैइ अन्य समाजशास्त्रियों को प्रेरित किया है। भारतीय समाज और संस्कृति को समझने के लिये एम एन श्री निवास द्वारा रचित पुस्तको और उनके अनुसंधान का अभ्यास करना अनिवार्य है।


2

एक समाजशास्त्री के तौर पर श्रीनिवास ने भारतीय ग्राम और जाति की संरचना को औपनिवेशिक धारणाओं के सैद्धांतिक वर्चस्व से भी मुक्त कराया है। 

श्रीनिवास जब ग्रामीण समुदाय की संकल्पना और गाँवों की आर्थिक-सांस्कृतिक अंतर-निर्भरता की बात करते हैं तो वे अव्यक्त ढंग से अखिल भारतीय सभ्यता की बात भी करते हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

Srinivas, M.N. (1952) Religion and Society Amongst the Coorgs of South India Clarendon Press, Oxford, page 32,

1-Srinivas, Mysore Narasimhachar (1962) Caste in Modern India: And other essays Asia Publishing House, Bombay, page 48,








Friday, March 1, 2024

एक शिखर व्यक्तित्व -ः महाराज कर्ण सिंह

एक शिखर व्यक्तित्व -ः महाराज कर्ण सिंह

भारत की परंपरा, संस्कृति तथा स्वाधीन चेतना को आधी शताब्दी तक अपने सतत जागरूक व्यक्त्वि एवं रचनात्मक सोच से जिस महानुभावों ने उत्प्रेरित और विकसित किया है, ऐसे लोगो के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैंै। आदमी का ऊॅचा होना, अपने व्यक्त्वि को चमकाकर, मांजकर एवरेस्ट बना देना एक बड़ी बात है, पर अपने समकालीन समाज की सोच को, चिंतन के स्तर को पूरी काॅम की अस्मिता को झकझोर कर एक बालिस्त भर उठा देना सम्भवतः उससे भी बड़ी बात है।

      डाॅ0 कर्ण सिंह ऐसे ही शिखर व्यक्तित्व के हैं, जो रूप आकृति से, सोच और रचनाशीलता से विलक्षण बुद्वि और गहरे अध्ययन से, चिन्तन और लेखने से, निर्विवाद राजनीतिक कद से अप्रतिम धर्मबुद्वि से सम्यक सांस्कृतिक भूझ से स्वतंत्र भारत के अद्वितीय अमोद्य, अजातशत्रु , अमिताभ के रूप में विख्यात हैं।

 महान रघुवंशियों की उत्तरवर्ती शाखा जिसने साकेत से अलवर, भटिण्डा से रोहतक और उससे भी आगे बढकर जम्मू कश्मीर में अपना प्रभुत्व व प्रभाव विस्तरित किया था के यशस्वी वरद पुत्र हैं, महाराज कर्ण सिंह। महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में विशेषणों की एक लम्बी श्रृंखला जोड़कर रघुवंश का वर्णन प्रारम्भ किया है-

 सोेहम आजन्म शुद्वानाम, आॅलोदम वर्मणाम

आसमुद्र शितीषानाम अनाकरथ र्बत्मनाम।

  यथाविधि हुताग्निनाम, यथा कामार्चितार्थीनाम

                    यथापराध दण्डानाम यथाकाल प्रबोधिनाम 

                    त्यागाय संवृतार्थानाम सत्यायमित भाषिणाम

                    यशसे विजयीषुणाम, पूजाायै गृहमेदिनाम

जन्म से ही शुद्व, फलोत्पत्ति तक कार्यरत रहने वाले , विधि पूर्वक यज्ञाहुति करने त्याग के लिए अर्थ संग्रह करने वाले, समय से जगने वाले, सत्य बोलने के लिए कम बोलने वाले आदि अनेक गुणों के मूर्तिमान रूप में अवतीर्ण हुए युवराज कर्ण सिंह उमके थी यशोगाथा प्राचीन रघुवंशियों के अनरूप व अनुवर्तिनी ही रही है।

जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह और राजमहिषी श्रीमती तारा देवी का यह --और यशस्वी पुत्र भारत आर्य व्यक्तित्व और सनातन धर्म- कर्म का साक्षात विग्रह प्रतिमा है। महाराजा कर्ण सिंह कर्मवीर, दानवीर, दयावीर तथा धर्मवीरत्व के आधुनिक प्रतिमान है। वे सांस्कृतिक, चेतना के संवाहक, अतीत के अध्येता तथा भारत के भावी आलोक के उदगाता रहे हैं।युग के साथ संचरण काटे हुए भी वे कालातीत परम पुरूष की ज्ञान ज्योति के सम्यक प्रस्तोता हैं, वे सबके हैं, पूरे आर्यवर्त, पूरी दुनियाॅ, पूरे ब्रम्हाण्ड के हैं, इसीलिए वे इतिहास के नहीं भाव संसार के व्यक्ति हैं।

नेपाल की राजकन्या यशोराज लक्ष्मी का यह पति यशस्वी पुत्रों का पिता तथा सच्चा भारतीय है। 1949 में अठारह वर्ष की ही अवस्था में वे जम्मू कश्मीर के रेजिडेन्ट बनाये गये। विख्यात दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर उन्होने जम्मू कश्मीर वि0वि0 से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।दिल्ली वि0वि0 से राजनीतिशास्त्र में 1957 में प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान प्राप्त कर उन्होंने एम0ए की डिग्री हासिल की तथा वहीं से महर्षि अरविन्द के राजनीतिक विचार विषय पर डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।अदभुत प्रतिभा और विलक्षण मेधा सम्पन्न उनका अप्रतिम योग रहा है। बनारस हिन्दू वि0वि0 के अरविन्द शोध पीठ के चेयरमैन प्रोफेसर रहे। वे जम्मू कश्मीर वि0वि0 और का हि0वि0वि0के महाकुलाधिपति रहे हैं, वे जम्मू कश्मीर के सदर-ए- रियासत, गर्वनर भी रहे हैं। उन्होने सर्वप्रथम स्वेच्छा से ही प्रिवीपर्स का त्याग किया था, वर्ष 1967 में वे स्व0 श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रीमंडल में 36 वर्ष की सबसे कम उम्र के माननीय मंत्री पर्यटन भारत सरकार बनाये गये। वर्ष 1973 में उन्हें स्वास्थय एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का दायित्व सौंपा गया और वे उधमपुर लोकसभा क्षेत्र से विशाल बहुमत से विजयी सदस्य के रूप में अभिनंदित किए गये । उन्होंने  1971,1977, तथा 1980 में अपनी विशेष विजयों का कीर्तिमान कायम किया पर एक सुखद आश्चर्य ही है कि उन्होने गरीब देश से वेतन के रूपये में न कोई धनराशि ली और न सरकारी बंगले में काबिज हुए। बाद में कांग्रेसी मंत्रियों ने जो लूट खसोट और घोटालों किये हैं, उन्हें देख सुनकर उनकी आत्मा पीडा़ से, घृणा से तिलमिलाती रही है, पर वे निर्विकल्प तथा निर्लेप चरित्र के धनी ही बने अपनी सम्पूर्ण चल अचल सम्पत्ति को हरी-तारा ट्रस्ट को समर्पित कर अपना अदभुत राजमहल उन्होने पर्वतीय स्थापत्य, कला और पुस्तकालय तथा संग्रहालय में रूपान्तरित कर दिया । देश का रूपातंरण का वह सपना जो उन्हें राम की रक्त शुद्वता, समरसता लोक से दास में मिली थी ।

वह ऊर्जा, वह दर्शन जिसे उन्होंने महर्षि अरविंद से आत्म साथ किया था, उसका सम्यक उपयोग भारत की परवर्ती पीढी़ नहीं कर पायी।इस अप्रतिम व्यक्तित्व का वह मूल्य,वहमान, उपभोक्ता पीढी़ तथा उन्मुक्त व्यापार वाली स्वार्थी राजनीति ने समझा ही नहीं, जिसके समझ लेने मात्र भर से देश की दिशा और दशा बदल सकती थी । आज मनुवादी व्यवस्था, ब्राम्हाणवादी कर्मकाण्डी व्यवस्था की लानत मलामत हो रही है और पण्डित सुखराम , कैप्टन सतीश शर्मा, नरसिंह राव, हर्ष मेहता, चन्द्रास्वामी के घोटालों का पर्दाफाश हो रहे है तो बार-बार उन लोगों पर नजर जाती हैं। जिन्होनें समय≤ पर समाज को जागरूक बनाने तथा ढोंग लूट एवं धनसंचयी बुद्वि को चुनौती दिया है। पता नहीं क्यों लगता है, कि जनक, विश्वामित्र, चार्वक, वाल्मिकी केवल ऐलुष, एकलव्य,कर्ण, युधिष्ठिर, गौतम, महावीर, कबीर, गांधी, आचार्य नर देव सिंह, लोहिया, लाल बहादुर, कर्ण सिंह, बी0पी0 सिंह, ही संस्कृति के देश पुरूष के रूप में मान्य रहेगें। स्ववार्थी और पाखण्डी, सुख की भौतिक ऐसाग में मशगूल सारे सत्तालोलूप चमत्कारिक पुरूषों के नाम-निशान काल के प्रवाह में बह जायेगें । 

     डाॅ0 कर्ण सिंह को देश विदेश में बेहद प्यार और सम्मान मिला, का0टी0वि0वि0अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा ओशोक विश्वविद्यालय टोकेयो से डाक्टेरेट की मानक उपाधियाॅ मिली। वे रोम के सर्वाधिक सम्मानित क्लब के आजीवन सदस्य बनाये गये, उन्होंने दर्शन, राजनीति, स्थापत्य, नृत्य, संगीत ,हिन्दी, अंग्रेजी, के अप्रतिम अध्येता तथा विद्वान वक्ता के रूप में समादृत है।निबन्ध, यात्रवृतांत और गंम्भीर प्रकृति की कविताओं की संरचना में उन्हें महारत हासिल हैं।

भारत के अमेरिका राजदूत, सांस्कृतिक समितियोें के संयोजक सदस्य के रूप में उन्होंनेें न केवल अमेरिका वरन विश्व के तमाम देशों में भारत का सम्मान बढाया है। सर राधाकृष्णन के पश्चात वे एक मात्र ऐसे भारतीय हैं, जिनकी चितंन शक्ति, वाणी वैदग्ध और धारा प्रवाह वक्हता से विश्व के गणमान्य बौद्विक चमत्कृत होते रहे हैं। उनकी भौतिक उपलब्धि है, उनकी पुत्री ज्योत्सा, पुत्र विक्रम तथा अजातशत्रु ।

उनकी इन तीन संततियों के नाम ही उनका सबसे सटीक परिचय है, वक सरल, सहज ,शालीन, मृदुभाषी, विजयी, विनयी, और अजातशत्रु के प्रतिमान के रूप में जाने जाते हैं। वे प्राकृत संगीत छाया और प्रकाश वेलकम दि मूनराइज जैसी उत्कृष्ट काव्य कृतियों के सृजक हैं।भारतीय राष्ट्रीयता के देवदूत उनकी अप्रतिम गद्य संरचना है, समकालीन निबन्ध उनके व्यक्ति व्यंजक तथा विश्लेषणात्मक निबंधों का संग्रह धर्म के पास तथा हिन्दुत्व के संबंध में उनकी सांस्कृतिक सोच के संवाहक हैं।उन्होंने जीवनवृत, यात्रावृत, संस्मरण आदि भी लिखे हैं, पर सबसे बड़ी बात है, उनकी स्वतः स्फूर्त वाग्मिता जो उन्होंने मुख्य -अतिथि , अध्यक्ष पदों से बोलते हुए अनेक स्थलों, स्थानों पर अभिव्यक्त किया हैउनके चितंन उनकी मनीषा, उनकी अध्यवसायिता उनकी वाजी से फूलों के मानिन्द भरी है।जिसका पान स्रोता समूह अपलक, अनिमेष करता रहता है, इस विशाल भारत भूमि पर वे आर्य चिंतन के आर्य वाणी के आदर्श चरित्र एवं उदान्त जीवन मूल्यों के अन्वेषी और संस्थापक है। वे भारत की सनातन प्रतिमा को समादृत करने का संकल्प साधने वाले राजर्षि मनीषी हैंवे राष्ट्रीय अस्मिता तथा सांस्कृतिक अस्तीत्व के सजीव स्मारक हैं, वे है इसी से हम गौरवान्वित है।वे रहें इसी से संतुष्ट हैं, वे सक्रिय और सचेत रहें, तो हमारी सहज चेतना संतोष का लाभ पाती रहेगी हम उनकी तेजस्वी संचेतना को सौ वर्षो तक शुभ्र ज्योत्रना सस्वर भास्वरता के रूप में देखने के आकांक्षी है।हम चाहते हैं - तमाम जिल्रों पर लिखने दो करन ढाई आखर जरा सी जिंदगी बेहतर किताब क्या देखें।

                                  न्यौछावर उस पर सिंगार 


वह परम पूर्ण पूरन परमेश्वर

अजर अमर वह निराकार

वह गुणातीत गुनसागर वह

सच्चिदानन्द वह निर्विकार ।

योगेश्वर, ज्ञानी र्निविकल्प

उत्तम गृहस्थ शोभा अपार

वह निर्मोही निर्वाण परम

वह मूर्तिमान वह सदाचार ।

वह पूर्णरसिक, करूणा सागर

वह ज्ञान कर्म वह गुणगार ।

वह भाव पुरूष, वह योगीराज,

वह धर्मतत्व सर्जन संहार ।

वह गायक, वादक नर्तक वह

माधुर्य-मंत्र का महोच्यार ।

वह परम प्रकृति, वह प्रथम पुरूष

वह दिव्य देह पूर्णवितार।

वह कूटनीति मर्मज्ञ परम रसिया,

स्वतंत्र उत्तम विचार।

वह ज्ञान गीत गीता गायक 

वह सरवा सहज सुन्दर दुलार


प्रणयी वह शोषण, सजीला वह

अवछावर उस पर रस सिंगार ।










































       


Wednesday, November 22, 2023

A1000

01


Research Proposal Format


 Chief Minister Higher Education Research Encouragement Scheme 2023-24 (Department of Higher Education, Govt. of Uttarakhand) 


1: Broad area of Subject: Sociology


2: Specialization:Rural Sociology 


3: Project Title:

जागरूकता के संदर्भ में थारू जनजाति के महाविद्यालयी छात्र /छात्राओं का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

(ऊधम सिंह जनपद के विशेष सन्दर्भ में)

                           


4: Name, Post and Address of Principal Investigator:Dr.Satya mitra Singh Assistant Professor Sociology Government PG College Sitarganj


5: Name, Post and Address of Co-Investigator:

6: Name of the institution where a project is being executed/likely to be executed: 

Government P.G College Sitarganj Uttarakhand


7: Introduction (Origin of Proposal):


थारू जनजाति

उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र की सर्वाधिक आबादी वाली जनजाति थारू है ।थारू जनजाति ऊधमसिंह नगर के खटीमा, किच्छा, नानकमता व सितारगंज के 144 गांवो में 90% निवास करते है।ऊधम सिंह नगर क्षेत्र के अंतर्गत आता है थारू जनजाति इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश बिहार और नेपाल में प्रमुखता से पाई जाती हैं यह आदिम जातियां स्थानीय कृषि और पशुपालन होते हैं।

8. Review of research and development in the proposed area: (National and International status, Importance, patents)

अध्ययन क्षेत्र (Research Area)

- शोध क्षेत्र के रूप में ऊधमसिंहनगर जनपद के राजकीय महाविद्यालय रुद्रपुर राजकीय महाविद्यालय खटीमा ,राजकीय महाविद्यालय नानकमत्ता ,राजकीय महाविद्यालय सितारगंज में पढ़ने वाले 90% विद्यार्थी स्टूडेंट थारू समुदाय के इन्ही महाविद्यालय में पढ़ते हैं ।

 यह शोध महाविद्यालयी विद्यार्थियों में जागरूकता से सम्बन्धित है। शोध कार्य में प्राथमिक तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तथा यथा सम्भव द्वितीयक स्रोतों द्वारा प्राप्त तथ्यों का प्रयोग भी किया जायेगा। प्राथमिक प्रत्यक्ष तथ्य संकलन हेतु जनपद की सितारगंज तहसील के लगभग सभी जनजातीय युवाओं साक्षात्कार किया जायेगा सितारगंज तहसील के जिन जिन ग्रामों में थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं उन सभी का सर्वेक्षण किया जायेगा और इनमें रहने वाले  नई शिक्षा नीति से आच्छादित 18 से 35 वर्ष की आयु के छात्र/ छात्रों  का साक्षात्कार किया जायेगा।

 जनजातीय (थारू)छात्र/छात्रों के साथ-साथ लगभग उतनी ही संख्या में सामान्य वर्ग के इस क्षेत्र के युवक युवतियों का साक्षात्कार भी किया जायेगा ताकि जनजातीय तथा सामान्य युवाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके। वर्तमान में थारु बाहुल्य ग्रामों में सामान्य वर्ग के विभिन्न समुदायों जैसे पंजाबी, बंगाली, कुमाऊँनी, गढ़वाली तथा पूर्वाचली (भोजपुरी) के लोगो निवास कर रहे हैं अतः सामान्य वर्ग के युवाओं के साथ-साथ जनजातीय युवाओं का तुल्नात्मक अध्ययन करना अनिवार्य व सार्थक प्रतीत होता है साक्षात्कार हेतु साक्षात्कार अनुसूची व प्रश्नावली का प्रयोग किया जायेगा। सर्वेक्षण के दौरान अन्य तकनीकीय यंत्रों जैसे मोबाइल, कैमरा आदि का प्रयोग भी किया जायेगा।

द्वितीयक स्रोतों के रूप में विषय से सम्बन्धित अब तक हुए शोध कार्यों,प्रकाशित पुस्तकों, सरकारी अभिलेखों, पत्र-पत्रिकाओं आदि का प्रयोग किया जायेगा। प्राथमिक स्रोतों से संकलित तथ्यों का वर्गीकरण कर सारणीबद्ध किया जायेगा तथा उनका तार्किक व अन्वेषणात्मक विश्लेषण किया जायेगा तथ्यों के विश्लेषण में सांख्यिकीय पद्धतियों तथा चित्रमय प्रदर्शन की सहायता ली जायेगी।

 धारणाओं की पुष्टि तुलनात्मक व्याख्या तथा पूर्व में विकसित धारणाओं के प्रस्तुतीकरण हेतु द्वितीय से प्राप्त प्रयोग किया जाना भी द्वितीयको की सहायता ली जायेगी।

 9: Objectives of the Proposed Project: 


            अध्ययन के उद्देश्य : प्रस्तुत शोध अध्ययन के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1- वर्तमान में कौशल विकास के स्वरूप का अध्ययन करना

2.उत्तराखण्ड में थारू जनजाति के विद्यार्थियों पर संचार माध्यमों का प्रभाव

3-उत्तराखण्ड में थारू जनजाति के विद्यार्थियों पर औधोगिकरण का प्रभाव

4-उत्तराखण्ड में थारू जनजाति के विद्यार्थियों के थारू भाषा में अन्य भाषा का प्रभाव

5- स्वास्थ्य व नवाचारों के प्रभाव का आकलन करना

6- उत्तराखंड की जनजाति नित व थारू जनजाति के प्रभावी अंतर संबंध ज्ञात करना

7- जनजाति क्षेत्र के संसाधनों की समीक्षा समस्याओं और आवश्यकताओं की पुणे पहचान करना तथा उचित सुझाव प्रस्तुत करना



10: Methodology:

शोध कार्य की रूपरेखा (Methodology)


अध्ययन पद्धति :--

 जनजातीय युवाओं के अध्ययन के लिए इस शोध कार्य में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जायेगा ।

जिसके निम्नलिखित चरण होंगे- 

1- समस्या / विषय का चयन 

2-  उपकल्पना का निर्माण, 

3- तथ्यों का संकलन,

4- तथ्यों कानिरीक्षण परीक्षण तथा वर्गीकरण, 

5- निष्कर्ष निकालना



Methodology

अनुसंधान पद्धति

यह अध्ययन क्षेत्र में प्राथमिक डेटा संग्रह पर आधारित है । उधम सिंह नगर जनपद के गुणात्मक तथा मात्रात्मक डेटा संग्रह का विश्लेषण और व्याख्या करने के लिए तथा वर्णनात्मक अनुसंधान में थारू समुदाय के रीति-रिवाज परंपरा में परिवर्तन के तरीकों का वर्णन होगा।इस शोध विश्लेषणपरक है क्योंकि यह थारू समुदाय के सामाजिक जागरूकता अवस्था में परिवर्तन के क्रम तथा सीमाओं से संबंधित है ।इस शोध अध्ययन पद्धति में विश्लेषणात्मक और व्याख्यात्मक दोनों पद्धतियों का प्रयोग किया गया है। जिससे सामाजिक आर्थिक स्थिति और सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के कई पहलुओं का व्यवस्थित रूप से पता लगेगा। इस अध्ययन के लिए उत्तरदाताओं के चयन के लिए अनुपातिक यादृच्छिक नमूना का प्रयोग किया जाएगा। नमूना लेते समय मजबूत और खराब आर्थिक स्थिति वाले थारू परिवार साक्षर इत्यादि को लिया जाएगा। यह अध्ययन प्राथमिक और द्वितीय दोनों डाटा पर आधारित है इस अध्ययन के लिए आवश्यक डाटा प्राथमिक स्रोतों से प्राप्त किया गया है प्राथमिक डाटा विभिन्न तरीकों से एकत्र किया गया है जैसे इंटरव्यू ऑब्जरवेशन हाउसहोल्ड सर्वे आदि कुछ डाटा एकत्र किया जाएगा। प्रश्नावली विधि से भूमि और पशुधन इतिहास के आंकड़े लिए जाएंगे प्रायमरी डाटा कलेक्शन के क्षेत्र के लिए प्रासंगिक जानकारी प्राप्त करने के लिए इंटरव्यू शेड्यूल तकनीक को मुख्य रूप से अपनाया जाएगा। यह विभिन्न उम्र लिंग और आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ आयोजित की जाएगी की इनफार्मेशन इंटरव्यू साक्षात्कार में थारू लोग जो विभिन्न पदों पर पहुंचे हैं वह इनके विषय मे समझ में अन्य समुदाय के शिक्षक सामाजिक  कार्यकर्ता को भी शामिल किया जाएगा जो उनकी परंपरा रीतिबद्ध और सामाजिक आर्थिक स्थिति का वर्णन करने में सक्षम होंगे

Participatory Rapid Appraisal (PRA)

 पार्टिसिपेशन रैपिड अपप्रसियाल पी आर ए सहभागी तीव्र मूल्यांकन- इस अध्ययन के लिए डेटा संग्रह का सबसे प्रभावी माध्यम PRA मैथड है। PRA मैथड को समुदाय के नेताओं शिक्षकों महिलाओं सामाजिककार्यकर्ता तथा इच्छुक समूह के माध्यम से लिया जाएगा । स्थानीय लोगों की धारणाओं की अपेक्षाओं और दृष्टिकोण की संस्कृति समस्या दृष्टिकोण सामूहिक संभावना और मौजूदा कारणों पर ज्ञान प्राप्त करने में PRA पद्धति सबसे महत्वपूर्ण  होगी। सेकेंडरी डाटा कलेक्शन या विभिन्न थारू संबंधित पत्रिकाओं संगठन दस्तावेज ग्राम जिला से डाटा एकत्र किया जाएगा। थारू संस्कृति पर लिखे गए शोध प्रबंध ,पुस्तकें विभिन्न दस्तावेज इतिहास के प्रासंगिक प्रमाणिक साहित्य और प्रशासन का अध्ययन किया जाएगा। डेटा विश्लेषण एकत्रित आंकड़ों का वर्णनात्मक विश्लेषणात्मक किया जाएगा आंकड़ों को व्यवस्थित सारणीयन और निष्कर्ष का विश्लेषण और व्याख्या के लिए सांख्यिकी विधि का उपयोग किया जाएगा।

.......

 01 अनुसंधान डिजाइन अध्ययन क्षेत्र से प्राथमिक डेटा संग्रह पर आधारित है।  संबंधित क्षेत्र से गुणात्मक और मात्रात्मक डेटा संग्रह का विश्लेषण और व्याख्या करने के लिए वर्णनात्मक अनुसंधान डिजाइन को अनुकूलित किया गया है।  यह वर्णनात्मक है क्योंकि यह थारू समुदाय में प्रचलित पुरानी परंपरा और रीति-रिवाजों को चित्रित करता है और यह उस समुदाय में परिवर्तन के पैटर्न का भी वर्णन करता है।  यह शोध विश्लेषणात्मक भी है क्योंकि यह थारू समुदाय की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन के कारणों और सीमा से संबंधित ह।

 

11: Duration of the Proposed Project: 

                                                            2years= 24 months


12: Work Plan: Year wise plan of work and targets to be achieved. 

शोधकार्य की वार्षिक योजना 

(Year-wise Plan of Work and Targets to be Achieve)

प्रथम वर्ष

01-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण व तथ्य संकलन करना।

02-तीन माह

संकलित तथ्यों का वर्गीकरण तथा रिपोर्ट तैयार करना और उद्देश्य संख्या एक को पूर्ण करना किए गये कार्य को प्रकाशित कराना।

03-तीन माह

शोध क्षेत्र का पुनः सर्वेक्षण तथा तथ्य संकलन करना।

04-तीन माह

संकलित तथ्यों के वर्गीकरण व विश्लेषण से उद्देश्य संख्या दो तथा तीन को प्राप्त करना और निकाले गये निष्कर्षो को प्रकाशित कराना।

द्वितीय वर्ष

01-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण कर तथ्य संकलन करना।

02-तीन माह

संकलित तथ्यों के वर्गीकरण व विश्लेषण द्वारा उद्देश्य संख्या चार की प्राप्ति करना तथा किए गये कार्य को प्रकाशित कराना।

03-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण कर तथ्य संकलन तथा पूर्व में हो चुके शोध कार्यों और विषय सम्बन्धी उपलब्ध प्रकाशित व अपंकाशित सामग्री की सहायता से उद्देश्य संख्या पाँच की प्राप्ति करना तथा शोध कार्य क प्रकाशित करना।

अंतिम तीन माह

समस्त शोध कार्य की एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को प्रेषित करना।

सहायता

(सहयोग)

1.टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज मुम्बई

2. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी

3.कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

4.उत्तरांचल प्रशासन अकादमी नैनीताल

5.जी०बी० पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पन्तनगर

6. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नई दिल्ली

7. आई०सी०एस०एस०आर० नई दिल्ली

13: Relevance of the proposed study for society and policy making. 

14: References:




—---/

डॉ



1.

















समस्या का मूल 

(Origin of the Problem)


उत्तरांचल की पौधों जनजातियों (थारू, बुक्सा भोटिया, वनरावत तथा जौनसारी) पर अब त शोध कार्य हो चुका है। अभी तक हुए लगभग सभी शोध कार्य इन जनजातियों की पारम्परि संस्कृति व सामाजिक आर्थिक व्यवस्था पर केन्द्रित हैं। वर्तमान में लगभग सभी जनजातियाँ परिवर्तन । सास्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रही है। ऐसे में इन जनजातियों से सम्बन्धित विभिन्न सन्दर्भों आधारित नवीन अनुसंधान की आवश्यकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि आज जनजातियों का स् वह नहीं रहा जो वर्षो पहले था। आधुनिकता, औद्योगीकरण, नगरीकरण, शिक्षा प्रसार, रातनैतिक चेतन आजनीय संस्कृति एवं व्यवस्था के मूल ढाँचे पर प्रभाव डाला है जिसका परिणाम है कि यह जनजातियों अब विकास की मुख्य धारा से जुड़ने लगी है। कम से कम उत्तरांचल के संदर्भ में तो यह बात शत प्रतिशत सत्य है। उत्तराचल के जनजातीय समुदाय के युवाओं में नवीन चेतना का उदय हुआ है। पुरानी पीढ़ी की तुलना में नई पीढ़ी के जनजातीय लोग आधुनिक व स्वतंत्र विचारधारा को अधिक अपना रहे है किन्तु यर्थाथ यह भी है कि आधुनिक होने तथा जागरूकता फैलने की गति जितनी तंत्र सामान्य समाज के युवाओं मे है उतनी तीव्र जनजातीय युवाओं में नहीं है। हर जनजाति के युवाओं में जागरुकता की मात्रा अलग-अलग है। ऊधमसिंहनगर जनपद में मुख्य रूप से थारू, बुक्सा तथा भोटिया जनताति के लोग निवास करते है भोटिया जनजाति के युवाओं में थारू एवं बुक्सा जनजातियों के युवाओं की तुलना में अधिक जागरूकता पायी जाती है। जिसका कारण यह भी हो सकता है कि भोटिया जनजाति मूलतः ऊँचे पर्वतीय क्षेत्र के निवासी है तथा वहाँ के जागरूक परिवार ही आकर तराई क्षेत्र में बसे है। कारण कुछ भी हो परन्तु सत्यता यही है कि ऊधमसिंहनगर जनपद में थारु बुक्सा जनजातियों के युवा भोटिया जनजाति के युवाओं की तुलना में कम जागरूक है। इस कथन के प्रमाण में यह तथ्य भी सामने रखा जा सकता है कि अब तक थारू एवं बुक्सा जनजातियों में से कोई भी युवा आईएएस या पी०सी०एस० जैसी प्रतिष्ठित सरकारी सेवाओं में नहीं चुना गया है जबकि भोटिया जनजाति में अनेक लोग इन सेवाओं में चयनित हुए ।

हैं15


ऊधमसिंहनगर जनपद में खटीमा तथा सितारगंज तहसीलों में लगभग डेढ़ सौ ग्रामों में थारू जनजाति के लोग निवास करते है। दोनों तहसीलों में थारू जनजाति की जनसंख्या लगभग सत्तर हजार है। बाजपुर तथा गदरपुर तहसीलों में बुक्सा जनजाति के लगभग तीस हजार लोग निवास करते हैं।" रूद्रपुर, काशीपुर, खटीमा, सितारगंज, बाजपुर, किच्छा, गदरपुर तथा दिनेशपुर कस्बों में थारू, बुक्सा तथा भोटिया जनजातियों के कुछ परिवार निवास करते है जो रोजगार आदि के कारण अपने मूल स्थानों से आकर यहाँ बस गये है। परिवारों का प्रतिशत कुल जनजातीय जनसंख्या का लगभग आधा प्रतिशत भाग ही नगरीय क्षेत्र में निवास करता है सितारगंज तहसील में थारु जनजाति की जनसंख्या लगभग 26000 है जो कुल जनसंख्या का लगभग 24 प्रतिशत है।


थारू जनजाति के युवाओं में धीरे धीरे जागरूकता तो आ रही है किन्तु उस गति से नहीं जिस गति से सामान्य समाज के युवाओं में आ रही है। थारू जनजाति में अभी कम आयु के विवाह प्रचलित है। वर्तमान में भी तीन चौथाई से अधिक विवाह वैधानिक आयु सीमा से पहले ही हो जाते हैं। विवा के मामले में थारू जनजाति की परम्परागत विवाह पद्धतियों जैसे उदरा, घुसपैठ आदि युवाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता प्रदान करती है इनकी तुलना हम गन्धर्व एवं हक विवाह से कर सकते ।। थारु युवाओं के सम्बन्ध में एक तथ्य विशेष रूप से विचारणीय है कि यह लोग अपनी परम्परागत संस्कृति के प्रति उदासीन तो होते जा रहे हैं पर नये सामाजिक मूल्यों व चेतना को इस सीमा तक ग्रहण नहीं कर पा रहे है कि वह भोटिया जनजाति अथवा अन्य सामान्य वर्ग के युवाओं की भाँति तेजी से प्रगति कर सके। थारू जनजाति में अभी तक मात्र एक युवक प्रेम सिंह राणा ने पी-एच०डी० की उपाधि प्रा की एक व्यक्ति लक्ष्मण सिंह राणा डिग्री कालेज में प्राध्यापक है मात्र एक व्यक्ति श्री गोपाल सिंह राणा विधायक चुने गये है। हों अधिक जनसंख्या होने के कारण ग्राम प्रधान क्षेत्र पंचायत सदस्य

02

क्यूब्लाक प्रमुख आदि पदो पर तो कई थारू युवा चुने गये हैं। अराजपत्रित पदों पर तो अनेक थारू युवा सेवारत है पर राजपत्रित पदों पर अभी भी इनकी संख्या नगण्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा एवं उच्च पदों पर चयनित होने के लिए भी थारू युवाओं के सामने आदर्श एवं उत्प्ररको के अभाव है जब किसी समुदाय में कुछ लोग उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त कर उच्च पद प्राप्त कर लेते हैं तो वह अपने समुदाय के लिए आदर्श एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। थारु समुदाय में अभी इनकी कमी है। अतः यही कारण प्रतीत होता है कि थारू युवा तेजी से विकास नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाओं के प्रति थारू युवा काफी सचेत प्रतीत होते हैं किन्तु यह चेतना सिर्फ ग्राम स्तर तक ही दिखाई देती है। विभिन्न सरकारी योजनाओं जैसे जलागम, ट्राइरोम, स्वयं सहायता समूह आदि में यह लोग बढ़-चढ़ कर भाग लेते है किन्तु बड़ी सफलताओं हेतु अधिक प्रयास नहीं करते। 


उत्तरांचल बनने के बाद उत्तरांचल की जनजातियों हेतु पी०सी०एस० में आरक्षण होने के बाद भी कोई थारू युवा राज्य की प्रथम पी०सी०एस० परीक्षा में सफल नहीं हुआ थारू युवाओं के सम्बन्ध में यदि कोई संन्तोषजनक बात है तो यह है कि यह लोग स्थानीय स्तर पर परम्परागत व आधुनिक खेलों में पर्यान्त रूचि रखते हैं। थारू युवा एथ्लेटिक्स, कबड्डी, बॉलीबॉल, क्रिकेट, फुटबॉल, हांकी आदि खेलों पर विशेष ध्यान देते हैं। इस क्षेत्र के विद्यालयों की खेल टीमों में थारू युवाओं की अधिकांश भागीदारी रहती है। इस सम्बन्ध में एक चिन्ताजनक पहलू यह भी है कि उचित सुविधाओं व मार्गदर्शन के अभाव में थारू युवा राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी खेल प्रतिभा का प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। यदि इन्हें सुविधाएं व अवसर मिलें तो यह काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। राजनैतिक चेतना के सन्दर्भ में धारू युवक स्थानीय राजनीति के प्रति तो काफी सजग हैं पर राष्ट्रीय और अर्न्तराष्ट्रीय राजनैतिद गतिविधियों से प्रायः अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। थारू जनजाति का अपना संगठन है जिसे यह लोग था राणा परिषद कहते हैं। यह परिषद थारू समाज के विकास हेतु कार्य करती है। थारू राणा परिषद के अन्य सह संगठन भी कार्य कर रहे हे जिनमें जाति सुधार सभा, थारू उत्थान युवा संगठन, २ महिला कल्याण समिति, एकीकृत थारू जनजाति समिति आदि प्रमुख हैं। थारू राणा परिषद ने थाल समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने तथा विकास की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए कुछ प्रस्ताव पारित किए हैं जैसे विवाह में कन्याधन न लेना, शराब का निर्माण व सेवन न करना, बच्चों की शिक्षा अनिवा करना, विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध न करना, बाल विवाह न करना आदि। थारू समुदाय के श्री दौलत सिंह राणा, श्री ओम प्रकाश राणा, जिला पंचायत के उपाध्यक्ष व श्री बादाम सिंह राणा, श्री भीम सिंह राणा ब्लाक प्रमुख जैसे प्रमुख स्थानीय निकाय के पदों को प्राप्त करचुके हैं किन्तु अभी तक कोई थारू केन्द्र अथवा राज्य सरकार में मंत्री नहीं बन पाया है।

थारूओं के क्षेत्र में कुछ ईसाई संस्थाएं थारू युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। ईसाई संस्थाओं ने इस क्षेत्र में शिक्षा व चिकित्सा सम्बन्धी विकास के बहाने अपने धर्म प्रचार हेतु गिरिजाघरों, स्कूलों व अस्पतालों की स्थापना की है यह संस्थाएं विशेषतौर पर थारू युवाओं को अपने जाल में फंसाती है और उन्हें विकास के शब्जबाग दिखाकर ईसाई धर्म ग्रहण कराती हैं हाँलाकि थारू युवा इन संस्थाओं के षडयंत्र से परिचित हो चुके हैं अतः इनका विरोध होने लगा है। इक्का-दुक्का लोग ही ईसाई धर्म में दीक्षित हुए हैं। थारू युवाओं में अपराध की भावना कम पायी जाती है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि शराब

आदि नशील पदार्थों का सेवन करने के बाद भी यह लोग आपराधिक कार्यों से प्रायः दूर रहते हैं। हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती जैसे जघन्य अपराध थारू युवाओं में प्रायः नहीं पाये जाते थारू युवा भोले-भाले और शर्मीले होते हैं। स्त्रियों के प्रति अपराध तो थारू जनजाति में न के बराबर होते हैं 24 गाँवों से शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति तो थारू युवाओं में आई है परन्तु यह ज्यादा अधिक नहीं हैं। अधिकांश युवा ग्रामों में ही रहते हैं। पढ़ने-लिखने के साथ-साथ यह लोग प्राय: कृषि व पशुपालन में भी अपने परिजनों की मदद करते हैं। वर्तमान में संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है फिर भी लगभग 25 प्रतिशत परिवार संयुक्त परिवार हैं थारूओं में एक अनोखी परम्परा 'मिलाई' का पालन अभी भी किया जाता


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सन्दर्भ


1- जोशी अवनींद्र कुमार (1983) 'जियोलॉजिकल ट्राइब्स, प्रकाश बुक डिपो बरेली पी


2-- मजूमदार, डी0एन0 (1942), दि थोरूज एण्ड दियर ब्लड ग्रुप, जर्नल ऑफ राफयल एशियाटिक


सोसाइटी कलकत्ता बाल्यूम XXXXI पृष्ठ-33


3- पाण्डे, बद्रीदत्त (1990) कुमाऊँ का इतिहास', अल्मोडा बुक डिपो अल्मोड़ा पृष्ठ-548


4- अग्रवाल, जी.के. (1989) सोशल एंथ्रोपोलॉजी' आगरा बुक स्टोर आगरा, पृष्ठ-361


5- पाण्डे, बद्रीदत्त (1990) उपरोक्त ही पृष्ठ 549


उप्रेती, हरिचंद्र (1970) इंडियन ट्राइब्स, राजस्थान यूनिवर्सिटी, जयपुर पृष्ठ-64 अशोककीर्ति, भिक्षु (1999) "निःस्वार्थ आत्म पत्रिका के मूल की खोज" नेपाली 



6-अध्ययन, रॉयल नेपाल अकादमी काठमांडू,


8- http://en.wikipedia.org/wiki/tharu. पेज 3


9-


10- बिष्ट, भगवान सिंह (1996) उत्तराखंड आज, अल्मोड़ा बुक डिपों अल्मोडा, पृष्ठ-9


उपरोक्त ही


11- भाषा कोड के लिए एथनोलॉग 14 रिपोर्ट: टीएचएल पृष्ठ-1 http://www.ethnologue.com/ पर


14/show_Language.asp उपरोक्त ही 12-


13- http://crafts. Indianetzone.com/patch_work.htm, पेज-1


14- सुभाषचन्द्र (2004) उत्तर प्रदेश की थारू जनजाति का समाजशास्त्रीय अध्ययन (अप्रकाशित


15- उपरोक्त ही पृष्ठ-178


5


निबंध) डॉ. बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा पृष्ठ-1


16 बिष्ट भगवान सिंह (1996) उत्तराखंड आज अल्मोड़ा बुक डिपो एवं प्रकाशक, अल्मोडा,


पृष्ठ-161


17- संख्या पत्रिका 2001, जिला सांख्यिकी कार्यालय ऊधम सिंह नगर, पृष्ठ-6 उपरोक्त ही


18-


19- सुभाषचन्द्र (2004) उपरोक्त ही उपरोक्त ही पृष्ठ 55


20-


21- 22- वरीयता सूची (राजपत्रित) उच्च शिक्षा विभाग उत्तरांचल शासन कार्यालय, जिला पंचायत राज अधिकारी, ऊधम सिंह नगर की सूचनानुसार


23- राणा, प्रेम सिंह (1999) खटीमा विकास खंड में आवासित थारु ईसाई परिवारों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन (अपकाशित शोध प्रबन्ध) कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल, पृष्ठ-70


24- मुखर्जी, रविन्द्र नाथ (1997) सामाजिक मानव शास्त्र की रूपरेखा, विवेक प्रकाशन दिल्ली,


पृष्ठ-381


25- सुभाषचन्द्र (2004) उपरोक्त ही पृष्ठ-34


26- श्रीवास्तव (1958) द थारूज़ आगरा यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन पृष्ठ 96-9


27- सकलानी, शक्ति प्रसाद (1996) तराई रुद्रपुर का इतिहास औ विकास गौरव प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ 69-70


28- अमर उजाला बरेली, 30 दिसम्बर 2002


29- "ऊधमसिंहनगर तब और अब सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग, उत्तरांचल की रिपोर्ट-2005


पृष्ठ-54 उपरोक्त ही. 30- पृष्ठ-22



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थारू जनजाति थारू जनजाति भारत में निवास करने वाली सैकड़ों जनजातियों में से एक है। उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली जनसंख्या की दृष्टि से पाँच प्रमुख जनजातियों में से थारू पहले स्थान पर हैं। थारू अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आते हैं। अवध गजेटियर के अनुसार थारू का शाब्दिक अर्थ ठहरे है, अर्थात जो लोग तराई के वनों में आकर ठहर गये। अध्ययन के अन्तर्गत थारू जनजाति से तात्पर्य उत्तराखण्ड के कुमायूँ मण्डल में निवास कर रही जनजाति से है।


(ii) प्रस्तुत अध्ययन में माध्यमिक स्तर से आशय उत्तराखण्ड के विद्यालयों में कक्षा 12 से लेकर कक्षा स्नाकोत्तर तक अध्ययनरत् विद्यार्थियों से है।


(iii) शैक्षिक समस्यायें प्रस्तुत अध्ययन में शैक्षिक समस्याओं के अन्तर्गत विशेष रूप से विद्यार्थियों के अध्ययन के अन्तर्गत आने वाली समस्याओं का अध्ययन तथा साथ ही सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का भी अध्ययन किया गया हैं।


 


अध्ययन क्षेत्र (Research Area)

शोध क्षेत्र के रूप में ऊधमसिंहनगर जनपद की सितारगंज तहसील को चुना गया है।तहसील के अधिकांश ग्रामों में थारू जनजाति की बहुलता है। शोध का विषय इस तहसील जनजातीय महाविद्यालयी विद्यार्थियों में जागरूकता से सम्बन्धित है। शोध कार्य में प्राथमिक तथ्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तथा यथा सम्भव द्वितीयक स्रोतों द्वारा प्राप्त तथ्यों का प्रयोग भी किया जायेगा। प्राथमिक प्रत्यक्ष तथ्य संकलन हेतु जनपद की सितारगंज तहसील के लगभग सभी जनजातीय युवाओं साक्षात्कार किया जायेगा सितारगंज तहसील के जिन जिन ग्रामों में थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं उन सभी का सर्वेक्षण किया जायेगा और इनमें रहने वाले 18 से 35 वर्ष की आयु के युवा युवतियों का साक्षात्कार किया जायेगा। जनजातीय (थारू) युवक युवतियों के साथ-साथ लगभग उतनी ही संख्या में सामान्य वर्ग के युवक युवतियों का साक्षात्कार भी किया जायेगा ताकि जनजातीय तथा सामान्य युवाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके। वर्तमान में थारु बाहुल्य ग्रामों में सामान्य वर्ग के विभिन्न समुदायों जैसे पंजाबी, बंगाली, कुमाऊँनी, गढ़वाली तथा पूर्वाचली (भोजपुरी) के लोगो निवास कर रहे हैं अतः सामान्य वर्ग के युवाओं के साथ-साथ जनजातीय युवाओं का तुल्नात्मक अध्ययन करना अनिवार्य व सार्थक प्रतीत होता है साक्षात्कार हेतु साक्षात्कार अनुसूची व प्रश्नावली का प्रयोग किया जायेगा। सर्वेक्षण के दौरान अन्य तकनीकीय यंत्रों जैसे मोबाइल, कैमरा, , वाइस रिकार्डर आदि का प्रयोग भी किया जायेगा।द्वितीयक स्रोतों के रूप में विषय से सम्बन्धित अब तक हुए शोध कार्यों,प्रकाशित पुस्तकों, सरकारी अभिलेखों, पत्र-पत्रिकाओं आदि का प्रयोग किया जायेगा। प्राथमिक स्रोतों से संकलित तथ्यों का वर्गीकरण कर सारणीबद्ध किया जायेगा तथा उनका तार्किक व अन्वेषणात्मक विश्लेषण किया जायेगा तथ्यों के विश्लेषण में सांख्यिकीय पद्धतियों तथा चित्रमय प्रदर्शन की सहायता ली जायेगी। धारणाओं की पुष्टि तुलनात्मक व्याख्या तथा पूर्व में विकसित धारणाओं के प्रस्तुतीकरण हेतु द्वितीय से प्राप्त प्रयोग किया जाना भी द्वितीयको की सहायता ली जायेगी करने प्रकारकये जायेंगे भारत नेपाल ने किया प्रकार के सम्बन्ध और समानताएं हैं तथा अन्तर



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शोध कार्य की रूपरेखा (Methodology)



हेतु यह रचना ही अधिक उपयुक्त रहेगी।


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Duration of the Proposed work

     2years= 24 months


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शोधकार्य की वार्षिक योजना 

(Year-wise Plan of Work and Targets to be Achieve)


प्रथम वर्ष

01-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण व तथ्य संकलन करना।

02-तीन माह

संकलित तथ्यों का वर्गीकरण तथा रिपोर्ट तैयार करना और उद्देश्य संख्या एक को पूर्ण करना किए गये कार्य को प्रकाशित कराना।

03-तीन माह

शोध क्षेत्र का पुनः सर्वेक्षण तथा तथ्य संकलन करना।

04-तीन माह

संकलित तथ्यों के वर्गीकरण व विश्लेषण से उद्देश्य संख्या दो तथा तीन को प्राप्त करना और निकाले गये निष्कर्षो को प्रकाशित कराना।

द्वितीय वर्ष

01-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण कर तथ्य संकलन करना।

02-तीन माह

संकलित तथ्यों के वर्गीकरण व विश्लेषण द्वारा उद्देश्य संख्या चार की प्राप्ति करना तथा किए गये कार्य को प्रकाशित कराना।

03-तीन माह

शोध क्षेत्र का सर्वेक्षण कर तथ्य संकलन तथा पूर्व में हो चुके शोध कार्यों और विषय सम्बन्धी उपलब्ध प्रकाशित व अपंकाशित सामग्री की सहायता से उद्देश्य संख्या पाँच की प्राप्ति करना तथा शोध कार्य क प्रकाशित करना।

अंतिम तीन माह

समस्त शोध कार्य की एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को प्रेषित करना।

सहायता

(सहयोग)

1.टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज मुम्बई

2. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणासी

3.कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

4.उत्तरांचल प्रशासन अकादमी नैनीताल

5.जी०बी० पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पन्तनगर

6. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नई दिल्ली

7. आई०सी०एस०एस०आर० नई दिल्ली