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Saturday, October 26, 2024

सामाजिक शोध का ---अध्ययन क्षेत्र एवं सार्थकता

सामाजिक शोध का ---
अध्ययन क्षेत्र एवं सार्थकता----

समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। स्वाभाविक है कि सामाजिक शोध का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक होता है।

 सामाजिक शोध के विस्तृत क्षेत्र को  समाज वैज्ञानिक कार्ल पियर्सन  के इस कथन से आसानी से समझा जा सकता है कि....

‘‘सामाजिक शोध का क्षेत्र वस्तुत: असीमित है, और शोध की सामग्री अन्तहीन।



 सामाजिक घटनाओं का प्रत्येक समूह सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू, पूर्व और वर्तमान विकास का प्रत्येक चरण सामाजिक वैज्ञानिक के लिए सामग्री है।’’ 



एक समाजशास्त्री सामाजिक जीवन की किसी विशिष्ट अथवा सामान्य घटना को शोध हेतु चयन कर सकता है। 


सामाजिक शोध के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत मानव समाज व मानव जीवन के सभी पक्ष आते हैं। 

समाजशास्त्र की विविध विशेषीकृत शाखाओं यथा- ग्रामीण समाजशास्त्र, नगरीय समाजशास्त्र, औद्योगिक समाजशास्त्र, वृद्धावस्था का समाजशास्त्र, युवाओं का समाजशास्त्र, चिकित्सा का समाजशास्त्र, विचलन का समाजशास्त्र, सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक वहिष्करण, सामाजिक परिवर्तन, विकास का समाजशास्त्र, जेण्डर स्टडीज, कानून का समाजशास्त्र, दलित अध्ययन, शिक्षा का समाजशास्त्र, परिवार एवं विवाह का समाजशास्त्र इत्यादि-इत्यादि से सामाजिक शोध का व्यापक क्षेत्र स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है।

सामाजिक शोध के उपरोक्त विस्तृत क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में यह कहना कदापि गलत न होगा कि एक विस्तृत सामाजिक क्षेत्र के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करके सामाजिक शोध अज्ञानता का विनाश करता है। 

जब हम वृद्धों की समस्याओं, मजदूरों के शोषण और उनकी शोचनीय कार्यदशाओं, बाल मजदूरी, महिला कामगारों की समस्याओं, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, बेकारी इत्यादि पर सामाजिक शोध करते हैं, तो उसके प्राप्त परिणामों से न केवल समाज कल्याण के क्षेत्र में सहायता प्राप्त होती है अपितु सामाजिक नीतियों के निर्माण के लिए भी आधार उपलब्ध होता है। 


विविध सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित शोध कार्य कानून निर्माण की दिशा में भी योगदान करते हैं।

 सामाजिक शोध से सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक समझ विकसित होती है, कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात होते हैं और अन्तत: विषय की उन्नति होती है। 

सामाजिक शोध न केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होता है, अपितु सामाजिक शोध साामाजिक-आर्थिक प्रगति में भी सहायक होता है।


 सूचना क्रान्ति के इस युग में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्रीय शोध के क्षेत्र को बढ़ा दिया है। 


पुराने विचार और सिद्धान्त अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। नवीन परिस्थितियों ने जटिल सामाजिक यथार्थ को नये सिद्धान्तों एवं विचारों से समझने के लिए बाध्य कर दिया है। 


सामाजिक शोध के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक महत्व का ही परिणाम है कि आज नीति निर्माता, कानूनविद्, पत्रकारिता जगत, प्रशासक, समाज सुधारक, स्वैच्छिक संगठन, बौद्धिक वर्ग के लोग इससे विशेष अपेक्षा रखते हैं।


Thursday, April 25, 2024

एम॰ एन॰ श्रीनिवास


मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास (1916-1999) 

एम. एन. श्रीनिवास -यह भारतीय समाजशास्त्र एक महत्वपूर्ण नाम हैं। समाजशास्त्री  एम. एन. श्रीनिवास का पूरा नाम मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास हैं। उनका जन्म ६ नवंबर, १९१६ में मैसूर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।


भारतीय गांव ,भारत में सामाजिक परिवर्तन संस्कृतिकरण, प्रभु जाति इनके प्रिय विषय थे। उन्होने दक्षिण भारत में 'प्रबल जाति' (Dominant Caste) की अवधारण प्रस्तुत की।   जाति की अवधारणा संख्या बल, भू-स्वामित्व, शिक्षा और नौकरी जैसे कारकों के कारण किसी जाति के गाँव या क्षेत्र विशेष में दबदबे को जाहिर करती है।जिसका आज भी भारतीय राजनीति के विश्लेषण में इसका प्रयोग किया जाता है।अपने शोध अध्ययन के लिए श्रीनिवास ने जिस रामपुरा गाँव को चुना था ।श्रीनिवास का जाति-अध्ययन एक गाँव की स्थानीय संरचना पर केंद्रित था लेकिन वह इस परिघटना की अखिल भारतीय व्याप्ति को लेकर भी सचेत थे। जिसके कारण इनकी विश्वव्यापी समाजशास्त्रीय के रूप में इनकी पहचान बनी।


शिक्षा-दिक्षा

एम. एन. श्रीनिवास ने मुंबई विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट पदवी हासिल येे भारतीय समाजशास्त्र के पितामह जी. एस. घूरे के शिष्य रहे ।

रिलीजन् ऍन्ड् सोसाय्टी अमंग् द कूर्ग्स् ऑफ़् साउथ् इन्डिया" (१९५२ में प्रकाशित)। यह पुस्तक कर्नाटक के कोडावा समुदाय का नृतत्त्वशास्त्रीय अध्ययन थी। यही इनका शोध प्रबंध था।ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वे अपने प्रोफेसर रॅडक्लिफ ब्राउन से बहुत प्रभावित हुए।

... 

भारत मेें समाज शास्त्र विषय मे योगदान


श्रीनिवास कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयो में अध्यापक रह चुके है, जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय; इंस्टीट्यट फॉर सोशियल एंड इकोनोमिक चेंज, बंगलौर; नैशनल इंस्टीट्युट ऑफ अडवान्स्ड स्टडिज़, बंगलौर; महाराज सयाजीराउ बड़ोदरा विश्वविद्यालय और जे. आर्. डी. टाटा इंस्टीट्युट।
श्रीनिवास ने एम. एस. बी. विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभाग की स्थपना करने लिये

में अपना योगदान दिया यहाँ तक कि उन्होने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की पदवी को भी ठुकरा दिया था। बादमें, उन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र के विभाग की स्थापना में सहायता की तथा जीवन भर अध्यापन के क्षेत्र में रहे।

श्रीनिवास संस्थाओं के निर्माता भी थे। बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। शोध और अध्ययन के उच्चस्तरीय संस्थानों की स्थापना और दिशा-निर्देशन के लिहाज़ से भी भारतीय समाजशास्त्र के विकास में उनका योगदान कालजयी माना जाएगा।

लेखन/रचना

एम. एन. श्रीनिवास ने भारतीय समाज और संस्कृति के कई पहलूओ पर अपनी कलम चलाई है। वे खसकर धर्म, गाँव, जाति प्रथा और सामाजिक परिवर्तन की विषयवस्तुओ पर लिखी पुस्तको के लिये विख्यात है। 

श्रीनिवास की कुछ उतकृष्ट पुस्तके निम्नलिखित है- 

पुस्तके

  • मैरिज एंड फैमिली इन मैसूर (१९४२)
  • रिलिजन एंड सोसाइटी अमंग द कूरगस ऑफ़ साउथ इंडिया (१९५२)
  • कास्ट्स इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एसेज (१९६२), एशिया पब्लिशिंग हाउस
  • द रेमेम्बेरेड विलेज (१९७६, पुनः प्रकाशित २०१३)
  • इंडियन सोसाइटी थ्रू पर्सनल राइटिंग्स (१९९८)
  • विलेज, कास्ट, जेन्डर एंड मेथ्ड़ (१९९८)
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया
  • द डोमिनेंट कास्ट एंड अदर एसेज
  • डाइमेंशन्स ऑफ़ सोशल चेंज इन इंडिया

      •भारत के ग्राम (India’s Villages),१९५२

         •भावी भारत में जाति प्रथा, १९५९ 

        आधुनिक भारत में जाति और अन्य निबंध           (Caste in Modern India and other essays),१९६२

 •दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज (Religion and Society among the Coorgs of South India), १९६५

 •आधुनिक भारत मे सामाजिक परिवर्तन (Social Change in Modern India), १९७२ 

•यादों से रचा गाँव (Remembered Village), १९७६ 

•भारत: सामाजिक संरचना (India: Social Structure), १९८०

 •प्रभावी जाति और अन्य निबंध (The Dominant Caste and other essays), १९८७ 

•संस्कृतीकरण की संसज्जित भूमिका (The Cohesive Role of Sanskritization), १९८९ 

•ग्राम, जाति, लिंग और विधि (Village, Caste, Gender and Method), १९९६

इन रचनाओ के अलावा, श्रीनिवास ने दर्ज़नो और रचनाए की है।



श्रीनिवास के अनुसंधान के  मुद्दे....


•सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक पतिवर्तन एक एसा मुद्द है जिसपर अनेकानेक समाजशास्त्री जाँच और अनुसंधान करते आ रहे है। एम एन श्रीनिवास ने निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों ख़ास तौर पर ब्राह्मण वर्ग की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, भाषा और वेशभूषा आदि को अपनाने की प्रवृत्ति को ज्ञापित करती हैं। जिसको इन्होंने संस्कृतिकरण का नाम दिया यह इसी संस्कृतिकरण की अवधारणा से बहुुुत ख्याति प्राप्त किए थे।इनकी पाश्चातिकरण  और धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रियाओ के आधार पर गाँवों में सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और प्रकृति को बताया है।संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण, प्रभावी जाति, अंतर-जातिय एवं जाति की आंतरिक एकजुटता जैसे ससंप्रत्ययो काअ प्रयोग कर के श्रीनिवास ने जाति की व्यवस्था की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डाला है।


•धर्म और समाज- एम. एन. श्रीनिवास ने दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज पर अनुसंधान किया था। उनके जाँच के आधार पर उन्होने भारतीय परंपराओ और जाति-व्यवस्थाकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की।

 उन्कोने हिन्दु संस्कृति, रहन- सहन और सामजिक व्यवस्था के विषयों पर भी चर्चा की। उनके अनुसार भारतीय परंपरा वास्तव में हिन्दु परंपरा है; और हिन्दु परंपरा की जड जाति व्यवस्था है।

•ग्राम एम एन श्रीनिवास के अनुसार गाँव ही भारत का प्रतिनिधी है। श्रीनिवास का यह मानना है कि गाँवो की जाति-व्यवस्था, धर्म , समाज, परिवर्तन और विकास के अध्ययन से हम भारतीय समाज को समझ सकते है।

•जाति व्यवस्था- भारत में जाति एक एसी व्यवस्था है जो केवल धर्म तक ही सीमित नहि है, उसका प्रभाव व्यापार-व्यवसाय, राजनीति और शिक्षा जैसी अन्य व्यवस्थाओ पर भी गहरा प्रभाव है। 

जाति व्यवस्था 'पवित्र' और 'अपवित्र' के बनावटी धारणा पर टिकी हुई है, जिसको धर्म से बढावा मिला है। किसी जाति के आचरण, रीति-रिवाज़ और मूल्यो के आधार पर उस जाति ई श्रेणी तय की जाती है। 

एम एन श्रीनिवास का यह मानना है की निचली वर्ग की जातियाँ अपनी श्रेणी सुधारने के लिये "उच्च" वर्ग की जातियों के आचरण और रीति-रिवाज़ो का अनुकरण करती है; इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते है। 

कहते हैं  संस्कृतीकरण केवल नयी प्रथाओं और आदतों का अंगीकार करना ही नहीं है, बल्कि संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान नये विचारों और मूल्यों के साथ साक्षात्कार करना भी इसमें आ जाता है।1

 वे कहते हैं कि कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मोक्ष आदि ऐसे संस्कृत साहित्य में उपस्थित विचार हैं जो कि संस्कृतीकृत लोगों के बोलचाल में आम हो जाते हैं।




क्रिया-विधि

एम एन श्रीनिवास ने पाश्चातिय दृष्तिकोण को छोड भारतीय दृष्तिकोण को ध्यान में रखकर अपने जाँच-परिणामो को प्रस्तुत किया था। अर्थातश्रीनिवास ने किताबी दृष्तिकोण को नकार कर उन्होने क्षेत्र-जाँच की परियोजना को अपनाया। उनकी रचनाए कूर्ग और रामपुर जैसी जगहो पर किए उनके व्यापक जाँच पर आधारित है। उन्होने प्रत्यक्ष अवलोकन (direct observation) को समाज के अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना।

उनकी क्रिया-विधि और अवलोकन को कई समाजशास्त्रियो अपनाया और आगे बढाया है। उनकी रचना "यादों से रचा गांव, १९७६" उनकी क्रिया-विधि का एक श्रेष्ठ उदाहरण है; क्यो कि यह रचना एक गाँव में बिताए ग्यारह महीनो के उनके अनुभव पर आधारित है।

सम्मान

एम.एन. श्रीनिवास

एम.एन. श्रीनिवास इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकॉनॉमिक चेंज बंगलोर की समाजशास्त्र इकाई के सीनियर फैलो और प्रमुख थे। वे ऑक्स फोर्ड विश्वविद्यालय में (1948-51) भारतीय समाजशास्त्र के व्याख्याता, एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा में (1952-59) और दिल्ली विश्वविद्यालय में (1952-72) समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे।
1953-54 में वह मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के साइमन सीनियर रिसर्च फैलो और 1956-57 में ब्रिटेन और अमेरिका में रॉक फैलर फैलो रहे। वे पहले भारतीय हैं जिन्हें रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड की मानद फैलोशिप मिली। इसके अलावा, 1963 में लेखक कुछ समय के लिए बर्कले, कैलिफोॢनया में टैगोर लैक्चरर और डिपार्टमेंट ऑफ सोशल एन्थ्रॉपॉलॉजी एंड सोशियोलॉजी के साइमन विजि़टिंग प्रोफेसर रहे।

पुरस्कार

   : रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड का रिवर्स मेमोरियल मेडल (1955), भारतीय नृतत्त्वशास्त्र में योगदान के लिए शरतचन्द्र रॉय मेमोरियल गोल्ड मेडल (1958) और जी.एस. धुर्वे अवार्ड (1978)। शिकागो, नाइस और मैसूर विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुई हैं।

मृत्यु

एम एन श्रीनिवास का देहांत  30 नवम्बर, 1999

१९९९ में बंगलौर हुआ था।

आलोचना

एम एन श्रिनिवास के काय की कुछ विद्वानों ने आलोचना भी की है जैसे...

 •संस्कृतिकरण को बढावा देने के कारण एम एन श्रीनिवास ने धार्मिक अपवर्गो को और भी उपेक्षित कर दिया है।

 •श्रीनिवास के लिये भारतीय परंपरा हिन्दु परंपरा है जो जाति व्यवस्था और ग्रामो मे दिखाई देती है। इस दावे में धर्म-निश्पक्षता नहि दिखाई देती है। 

•श्रीनिवास का सामाजिक परिवर्तन का विवरण केवल संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण तक ही सीमित है, जो बाकी देशो और समाजो में समान रूप से उपयुक्त या लागु नही है।

 •श्रीनिवास के पहले भी कैइ समाजशास्त्री संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण जैजी संप्रत्ययो की चर्चा कर चुके है, अतः इन संप्रत्ययो में श्रीनिवास की मौलिकता नहि झलकती।

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मेरी बात...
        इन सब आलोचनाओं के बावजूद एम एन श्रीनिवास की भारतीय समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण जगह है। उनकी रचनाओं के अध्ययन के बिना भारतीय समाजशास्त्र का अभ्यास अधूरा है। उनके अनुसंधान और पुस्तकों ने कैइ अन्य समाजशास्त्रियों को प्रेरित किया है। भारतीय समाज और संस्कृति को समझने के लिये एम एन श्री निवास द्वारा रचित पुस्तको और उनके अनुसंधान का अभ्यास करना अनिवार्य है।


2

एक समाजशास्त्री के तौर पर श्रीनिवास ने भारतीय ग्राम और जाति की संरचना को औपनिवेशिक धारणाओं के सैद्धांतिक वर्चस्व से भी मुक्त कराया है। 

श्रीनिवास जब ग्रामीण समुदाय की संकल्पना और गाँवों की आर्थिक-सांस्कृतिक अंतर-निर्भरता की बात करते हैं तो वे अव्यक्त ढंग से अखिल भारतीय सभ्यता की बात भी करते हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

Srinivas, M.N. (1952) Religion and Society Amongst the Coorgs of South India Clarendon Press, Oxford, page 32,

1-Srinivas, Mysore Narasimhachar (1962) Caste in Modern India: And other essays Asia Publishing House, Bombay, page 48,








Wednesday, May 5, 2021

सामाजिक परिवर्तन


सामाजिक परिवर्तन 




 

सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत हम मुख्य रूप से तीन तथ्यों का अध्ययन करते हैं- 


(क) सामाजिक संरचना में परिवर्तन,

 (ख) संस्कृति में परिवर्तन एवं

 (ग) परिवर्तन के कारक। 



सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख परिभाषाओं पर विचार करेंगे।


सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा-


मेकावर एवं पेज 

(R.M. MacIver and C.H. Page) ने अपनी पुस्तक Society में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए बताया है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे। 


 

डेविस (K. Davis) के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में परिवर्तन है।  



एच0एम0 जॉनसन (H.M. Johnson) ने सामाजिक परिवर्तन को बहुत ही संक्षिप्त एवं अर्थपूर्ण शब्दों में स्पष्ट करते हुए बताया कि मूल अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ संरचनात्मक परिवर्तन है।



 जॉनसन की तरह गिडेन्स ने बताया है कि सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बुनियादी संरचना


 (Underlying Structure) या बुनियादी संस्था (Basic Institutions) में परिवर्तन से है।

ऊपर की परिभाषाओं के संबंध में यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन एक व्यापक प्रक्रिया है। 


समाज के किसी भी क्षेत्र में विचलन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। 


विचलन का अर्थ यहाँ खराब या असामाजिक नहीं है।



 सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। 



यह विचलन स्वयं प्रकृति के द्वारा या मानव समाज द्वारा योजनाबद्ध रूप में हो सकता है।



 परिवर्तन या तो समाज के समस्त ढाँचे में आ सकता है अथवा समाज के किसी विशेक्ष पक्ष तक ही सीमित हो सकता है। परिवर्तन एक सर्वकालिक घटना है।


 यह किसी-न-किसी रूप में हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है। परिवर्तन क्यों और कैसे होता है, इस प्रश्न पर समाजशास्त्री अभी तक एकमत नहीं हैं।



 इसलिए परिवर्तन जैसी महत्वपूर्ण किन्तु जटिल प्रक्रिया का अर्थ आज भी विवाद का एक विषय है। किसी भी समाज में परिवर्तन की क्या गति होगी, यह उस समाज में विद्यमान परिवर्तन के कारणों तथा उन कारणों का समाज में सापेक्षिक महत्व क्या है, इस पर निर्भर करता है।



 सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए यहाँ इसकी प्रमुख विशेषताओं की चर्चा अपेक्षित है।




सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं

सामाजिक परिवर्तन एक विश्वव्यापी प्रक्रिया (Universal Process) है। 


अर्थात्-


 सामाजिक परिवर्तन दुनिया के हर समाज में घटित होता है।


 दुनिया में ऐसा कोई भी समाज नजर नहीं आता, जो लम्बे समय तक स्थिर रहा हो या स्थिर है।



 यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। 

सामुदायिक परिवर्तन ही वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन है। इस कथन का मतलब यह है कि सामाजिक परिवर्तन का नाता किसी विशेष व्यक्ति या समूह के विशेष भाग तक नहीं होता है। 



वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है।


 

सामाजिक परिवर्तन के विविध स्वरूप होते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग, समायोजन, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न रूपों में प्रकट होता है।




 परिवर्तन कभी एकरेखीय (Unilinear) तो कभी बहुरेखीय (Multilinear) होता है। उसी तरह परिवर्तन कभी समस्यामूलक होता है तो कभी कल्याणकारी।



 परिवर्तन कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रांतिकारी भी हो सकता है। 



परिवर्तन कभी अल्प अवधि के लिए होता है तो कभी दीर्घकालीन।




सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक (Irregular and Relative) होती है। समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति समान नहीं होती है


। 

सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं।



 समाजशास्त्री मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के

 जनसांख्यिकीय (Demographic), 

प्रौद्योगिक (Technological) 

सांस्कृतिक (Cultural) एवं आर्थिक (Economic)

 कारकों की चर्चा करते हैं। 


इसके अलावा सामाजिक परिवर्तन के अन्य कारक भी होते हैं, क्योंकि मानव-समूह की भौतिक (Material) एवं अभौतिक (Non-material) आवश्यकताएँ अनन्त हैं और वे बदलती रहती हैं। 



सामाजिक परिवर्तन की कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अनेक आकस्मिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पैदा करते हैं।



विलबर्ट इ0 मोर (Wilbert E. Moore, 1974) ने आधुनिक समाज को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं की चर्चा अपने ढंग से की है, वे हैं-

सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से घटित होते रहते हैं। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। 

बीते समय की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। आज परिवर्तनों का अवलोकन हम अधिक स्पष्ट रूप में कर सकते हैं। 



परिवर्तन का विस्तार सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं के क्षेत्र में, विचारों एवं संस्थाओं की तुलना में, परिवर्तन अधिक तीव्र गति से होता है। 



हमारे विचारों एवं सामाजिक संरचना पर स्वाभाविक ढंग और सामान्य गति के परिवर्तन का प्रभाव अधिक पड़ता है।

सामाजिक परिवर्तन का अनुमान तो हम लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से हम इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। 



सामाजिक परिवर्तन गुणात्मक (Qualitative) होता है। समाज की एक इकाई दूसरी इकाई को परिवर्तित करती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक पूरा समाज उसके अच्छे या बुरे प्रभावों से परिचित नहीं हो जाता। 



आधुनिक समाज में सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से किया जा सकता है और न ही इसे पूर्णत: स्वतंत्र और असंगठित छोड़ दिया जा सकता है। आज हर समाज में नियोजन (Planning) के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील किया जा सकता है।



सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण स्रोत

खोज-



मनुष्य ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है।



 जैसे शरीर में रक्त संचालन, बहुत सारी बीमारियों के कारणों, खनिजों, खाद्य पदार्थों, पृथ्वी गोल है एवं वह सूर्य की परिक्रमा करती है आदि हजारों किस्म के तथ्यों की मानव ने खोज की, जिनसे उनके भौतिक एवं अभौतिक जीवन में काफी परिवर्तन आया।



आविष्कार

विज्ञान और प्रौद्यागिकी के जगत में मनुष्य के आविष्कार इतने अधिक हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। आविष्कारों ने मानव समाज में एक युगान्तकारी एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है।



प्रसार

सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है।


 पश्चिमीकरण (Westernization), आधुनिकीकरण (Modernization), एवं भूमंडलीकरण (Globalization) जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। 


आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का इतना अधिक विकास हुआ है कि प्रसार की गति बहुत तेज हो गयी है।



आन्तरिक विभेदीकरण

(Internal Differentiation)—जब हम सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हैं, तो ऐसा लगता है कि परिवर्तन का एक चौथा स्रोत भी संभव है- वह है आन्तरिक विभेदीकरण।



 इस तथ्य की पुष्टि उद्विकासीय सिद्धान्त (Evolutionary Theory) के प्रवर्तकों के विचारों से होती है। उन लोगों का मानना है कि समाज में परिवर्तन समाज के स्वाभाविक उद्विकासीय प्रक्रिया से ही होता है। हरेक समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है।



 समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने अपने उद्विकासीय सिद्धान्त में स्वत: चलने वाली आन्तरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया पर काफी बल दिया है।



सामाजिक परिवर्तन की कुछ संबंधित अवधारणाएं

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया कई रूपों में प्रकट होती हैं, 



जैसे- उद्विकास (Evolution), प्रगति (Progress), विकास (Development), सामाजिक आन्दोलन (Social Movement), क्रांति (Revolution) इत्यादि। चूँकि इन सामाजिक प्रक्रियाओं का सामाजिक परिवर्तन से सीधा संबंध है या कभी-कभी इन संबंधों को सामाजिक परिवर्तन का पर्यायवाची माना जाता है, इसलिए इन शब्दों के अर्थ के संबंध में काफी उलझनें हैं। इनका स्पष्टीकरण हैं।




उद्विकास

‘उद्विकास’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले जीव-विज्ञान के क्षेत्र में चाल्र्स डार्विन (Charles Darwin) ने किया था। डार्विन के अनुसार उद्विकास की प्रक्रिया में जीव की संरचना सरलता से जटिलता (Simple to Complex) की ओर बढ़ती है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक चयन (Natural Selection) के सिद्धान्त पर आधारित है। 



आरंभिक समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने जैविक परिवर्तन (Biological Changes) की भाँति ही सामाजिक परिवर्तन को भी कुछ आन्तरिक शक्तियों (Internal Forces) के कारण संभव माना है और कहा है कि उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है। 



उद्विकास की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए मकीवर एवं पेज ने लिखा है कि उद्विकास एक किस्म का विकास है। पर प्रत्येक विकास उद्विकास नहीं है क्योंकि विकास की एक निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। 



किसी भी क्षेत्र में विकास करना उद्विकास कहा जाएगा। मकीवर एवं पेज ने बताया है कि उद्विकास सिर्फ आकार में नहीं बल्कि संरचना में भी विकास है। यदि समाज के आकार में वृद्धि नहीं होती है और वह पहले से ज्यादा आन्तरिक रूप से जटिल हो जाता है तो उसे उद्विकास कहेंगे।



प्रगति

परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है।


 प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने बताया है कि प्रगति का अर्थ अच्छाई के निमित्त परिवर्तन है। इसलिए प्रगति इच्छित परिवर्तन है। इसके माध्यम से हम पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को पाना चाहते हैं।


मकीवर एवं पेज आगाह करते हुए कहा है कि हम लोगों को उद्विकास और प्रगति को एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं करना चाहिए। दोनों बिल्कुल अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।



विकास

जिस प्रकार उद्विकास के अर्थ बहुत स्पष्ट एवं निश्चित नहीं हैं, विकास की अवधारणा भी बहुत स्पष्ट नहीं है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में विकास का अर्थ सामाजिक विकास से है। प्रारंभिक समाजशास्त्रियों विशेषकर कौंत, स्पेन्सर एवं हॉबहाउस ने सामाजिक उद्विकास (Social Evolution), प्रगति (Progress) एवं सामाजिक विकास (Social Development) को एक ही अर्थ में प्रयोग किया था। आधुनिक समाजशास्त्री इन शब्दों को कुछ विशेष अर्थ में ही इस्तेमाल करते हैं।


आज समाजशास्त्र के क्षेत्र में विकास से हमारा तात्पर्य मुख्यत: सामाजिक विकास से है। इसका प्रयोग विशेषकर उद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण के चलते विकसित एवं विकासशील देशों के बीच अन्तर स्पष्ट करने के लिए होता है।



 सामाजिक विकास में आर्थिक विकास का भी भाव छिपा होता है और उसी के तहत हम परम्परागत समाज (Traditional Society), संक्रमणशील समाज (Transitional Society) एवं आधुनिक समाज (Modern Society) की चर्चा करते हैं। 



आधुनिक शिक्षा का विकास भी एक प्रकार का सामाजिक विकास है। उसी तरह से कृषि पर आधारित सामाजिक व्यवस्था से उद्योग पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की ओर अग्रसर होना भी सामाजिक विकास कहा जाएगा।



 दूसरे शब्दों में, सामन्तवाद (Feudalism) से पूँजीवाद (Capitalism) की ओर जाना भी एक प्रकार का विकास है।



सामाजिक आन्दोलन

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का एक बहुत प्रमुख कारक रहा है। विशेषकर दकियानूसी समाज में सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा काफी परिवर्तन आए हैं।


गिडेन्स के अनुसार सामूहिक आन्दोलन व्यक्ेितयों का ऐसा प्रयास है जिसका एक सामान्य उद्देश्य होता है और उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थागत सामाजिक नियमों का सहारा न लेकर लोग अपने ढंग से व्यवस्थित होकर किसी परम्परागत व्यवस्था को बदलने का प्रयास करते हैं।


 



गिडेन्स ने कहा है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि सामाजिक आन्दोलन और औपचारिक संगठन (Formal Organization) एक ही तरह की चीजें हैं, पर दोनों बिल्कुल भिन्न हैं।



 सामाजिक आन्दोलन के अन्तर्गत नौकरशाही व्यवस्था जैसे नियम नहीं होते, जबकि औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत नौकरशाही नियम-कानून की अधिकता होती है। इतना ही नहीं दोनों के बीच उद्देश्यों का भी फर्क होता है।



 उसी तरह से कबीर पंथ, आर्य समाज, बह्मो समाज या हाल का पिछड़ा वर्ग आन्दोलन (Backward Class Movement) को सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है। औपचारिक व्यवस्था नहीं।



क्रांति

सामाजिक आन्दोलन से भी ज्यादा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम क्रांति है, इसलिए यहाँ इसकी भी चर्चा आवश्यक है। क्रांति के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन पिछली दो-तीन शताब्दियों में मानव इतिहास में काफी, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ आई हैं, जिससे कुछ राष्ट्रों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हुए हैं। 



इस संदर्भ में 1775-83 की अमेरिकी क्रांति एवं 1789 की फ्रांसीसी क्रांति विशेष रूप से उललेखनीय हैं। इन क्रांतियों के चलते आज समस्त विश्व में स्वतंत्रता (Liberty), सामाजिक समानता (Social Equality) और प्रजातंत्र (Democracy) की बात की जाती है। 



उसी तरह से रूसी और चीनी क्रांति का विश्व स्तर पर अपना ही महत्व है। अब्राम्स (Abrams, 1982) ने बताया है कि विश्व में अधिकांश क्रांतियाँ मौलिक सामाजिक पुनर्निमाण के लिए हुई हैं। अरेंड (Nannah Arendt, 1963) के अनुसार क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य परम्परागत व्यवस्था से अपने-आपको अलग करना एवं नये समाज का निर्माण करना है। 




इतिहास में कभी-कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। कुछ ऐसी भी क्रांतियाँ हुई हैं, जिनके द्वारा हम समाज को और भी पुरातन समय में ले जाने की कोशिश करते हैं।



सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के संबंध में विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त का उल्लेख किया है। इन सिद्धान्तों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।


उद्वविकासवादी के प्रमुख प्रवर्तक हर्बर्ट स्पेन्सर हैं जिनके अनुसार सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे, सरल से जटिल की और कुछ निश्चित स्तरों से गुजरता हुआ होता है।


 



संरचनात्मक कार्यात्मक सिद्धांत के प्रवर्तकों में दुर्खीम, वेबर, पार्सन्स, मर्टन आदि विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है। इन विद्वानों के मतानुसार सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली प्रत्येक इकाई का अपना एक प्रकार्य होता है और यह प्रकार्य उसके अस्तित्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण होता है। इस प्रकार सामाजिक सरंचना और इसको बनाने वाली इकाइयों (संस्थाओं, समूहों आदि) के बीच एक प्रकार्यात्मक संबंध होता है और इसीलिए इन प्रकार्यों में जब परिवर्तन होता है तो सामाजिक संरचना भी उसी अनुसार बदल जाती है। सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। आगर्बन द्वारा प्रस्तुत ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (Cultural Lag) के सिद्धान्त को भी कुछ विद्वान इसी श्रेणी में सम्मिलित करते हैं।


 



संघर्ष या द्वन्द्व के सिद्धांत के समर्थक कार्ल मार्क्स, कोजर, डेहर डोर्फ़ आदि हैं। इनके सिद्धान्तों का सार-तत्व यह है कि सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तन का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों या शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है।


चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तक स्पेगलट, परेटो आदि हैं जो कि परिवर्तन की दिशा को चक्र की भाँति मानते हैं।




चक्रीय सिद्धान्त

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की मूल मान्यता यह है कि सामाजिक परिवर्तन की गति और दिशा एक चक्र की भाँति है और इसलिए सामाजिक परिवर्तन जहाँ से आरम्भ होता है, अन्त में घूम कर फिर वहीं पहुँच कर समाप्त होता है। यह स्थिति चक्र की तरह पूरी होने के बाद बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराती है। इसका उत्तम उदाहरण भारत, चीन व ग्रीक की सभ्यताएँ हैं। चक्रीय सिद्धान्त के कतिपय प्रवर्तकों ने अपने सिद्धान्त के सार-तत्व को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि इतिहास अपने को दुहराता है’।


चक्रीय सिद्धान्त विचारानुसार परिवर्तन की प्रकृति एक चक्र की भाँति होती है। अर्थात् जिस स्थिति से परिवर्तन शुरू होता है, परिवर्तन की गति गोलाकार में आगे बढ़ते-बढ़ते पुन: उसी स्थान पर लौट आती है जहाँ पर कि वह आरम्भ में थी। विल्फ्रेडो परेटो ने सामाजिक परिवर्तन के अपने चक्रीय सिद्धान्त में यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि किस भाँति राजनीतिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में चक्रीय गति से परिवर्तन होता रहता है।




परेटो का चक्रीय सिद्धान्त

परेटो के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संरचना में जो ऊँच-नीच का संस्तरण होता है, वह मोटे तौर पर दो वर्गों द्वारा होता है- उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग। इनमें से कोई भी वर्ग स्थिर नहीं होता, अपितु इनमें ‘चक्रीय गति’ (Cyclical Movement) पाई जाती है। चक्रीय गति इस अर्थ में कि समाज में इन दो वर्गों में निरन्तर ऊपर से नीचे या अधोगामी और नीचे से ऊपर या ऊध्र्वगामी प्रवाह होता रहता है। जो वर्ग सामाजिक संरचना में ऊपरी भाग में होते हैं वह कालान्तर में भ्रष्ट हो जाने के कारण अपने पद और प्रतिष्ठा से गिर जाते हैं, अर्थात। अभिजात-वर्ग अपने गुणों को खोकर या असफल होकर निम्न वर्ग में आ जाते हैं। दूसरी ओर, उन खाली जगहों को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो बुद्धिमान, कुशल, चरित्रवान तथा योग्य लोग होते हैं, वे नीचे से ऊपर की ओर जाते रहते हैं। इस प्रकार उच्च वर्ग का निम्न वर्ग में आने या उसका विनाश होने और निम्न वर्ग का उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चक्रीय ढंग से चलती रहती है। इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक ढाँचा परिवर्तित हो जाता है या सामाजिक परिवर्तन होता है।


 

परेटो के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के चक्र के तीन मुख्य पक्ष हैं- राजनीतिक, आर्थिक तथा आदर्शात्मक। राजनीतिक क्षेत्र में चक्रीय परिवर्तन तब गतिशील होता है जब शासन-सत्ता उस वर्ग के लोगों के हाथों में आ जाती है जिनमें समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक अधिक शक्तिशाली होते हैं। इन्हें ‘शेर’ (Lions) कहा जाता है। समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक द्वारा अत्यधिक प्रभावित होने के कारण इन ‘शेर’ लोगों का कुछ आदर्शवादी लक्ष्यों पर दृढ़ विश्वास होता है और उन आदर्शों की प्राप्ति के लिए ये शक्ति का भी सहारा लेने में नहीं झिझकते। शक्ति-प्रयोग की प्रतिक्रिया भयंकर हो सकती है, इसलिए यह तरीका असुविधाजनक होता है। इस कारण वे कूटनीति का सहारा लेते हैं, और ‘शेर, से अपने को ‘लोमड़ियों’ (foxes) में बदल लेते हैं और लोमड़ी की भाँति चालाकी से काम लेते हैं। लेकिन निम्न वर्ग में भी लोमड़ियाँ होती हैं और वे भी सत्ता को अपने हाथ में लेने की फिराक में रहती हैं। अन्त में, एक समय ऐसा भी आता है जबकि वास्तव में उच्च वर्ग की लोमड़ियों के हाथ से सत्ता निकालकर निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ में आ जाती है, तभी राजनीतिक क्षेत्र में या राजनीतिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन होता है।


जहाँ तक आर्थिक क्षेत्र या आर्थिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन का प्रश्न है, परेटो हमारा ध्यान समाज के दो आर्थिक वर्गों की ओर आकर्षित करते हैं। वे दो वर्ग हैं- (1) सट्टेबाज (speculators) और (2) निश्चित आय वाला वर्ग (rentiers)। पहले वर्ग के सदस्यों की आय बिल्कुल अनिश्चित होती है, कभी कम तो कभी ज्यादा; पर जो कुछ भी इस वर्ग के लोग कमाते हैं वह अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर ही कमाते हैं। इसके विपरीत, दूसरे वर्ग की आय निश्चित या लगभग निश्चित होती है क्योंकि वह सट्टेबाजों की भाँति अनुमान पर निर्भर नहीं है। सट्टेबाजों में सम्मिलन के विशिष्ट-चालक की प्रधानता तथा निश्चित आय वाले वर्ग के समूह में स्थायित्व के विशिष्ट-चालक की प्रमुखता पाई जाती है। इसी कारण पहले वर्ग के लोग आविष्कारकर्ता, लोगों के नेता या कुशल व्यवसायी आदि होते हैं। यह वर्ग अपने आर्थिक हित या अन्य प्रकार की शक्ति के मोह से चालाकी और भ्रष्टाचार का स्वयं शिकार हो जाता है जिसके कारण उसका पतन होता है और दूसरा वर्ग उसका स्थान ले लेता है। समाज की समृद्धि या विकास इसी बात पर निर्भर है कि सम्मिलन का विशिष्ट-चालक वाला वर्ग नए-नए सम्मिलन और आविष्कार के द्वारा राष्ट्र को नवप्रवर्तन की ओर ले जाए और समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक वाला वर्ग उन नए सम्मिलनों से मिल सकने वाले समस्त लाभों को प्राप्त करने में सहायता दें। आर्थिक प्रगति या परिवर्तन का रहस्य इसी में छिपा हुआ है।


 



उसी प्रकार में अविश्वास और विश्वास का चक्र चलता रहता है। किसी एक समय-विशेष में समाज में विश्वासवादियों का प्रभुत्व रहता है परन्तु वे अपनी दृढ़ता या रूढ़िवादिता के कारण अपने पतन का साधन अपने-आप ही जुटा लेते हैं और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं।

उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त




चक्रीय सिद्धान्त से मिलता-जुलता सोरोकिन का ‘सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त’ (Theory of Socio-cultural Dynamics) या उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त है। कतिपय विद्वानों ने इसे चक्रीय सिद्धान्त की श्रेणी में ही रखा है।


हैस स्पीयर के शब्दों में, सोरोकिन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट पता चलता है कि कोई प्रगति नहीं हुई है, न कोई चक्रीय परिवर्तन हुआ है। सोरोकिन के अनुसार जो कुछ भी है वह केवल मात्र उतार-चढ़ाव (Fluctuation) है। संस्कृति के बुनियादी स्वरूपों का उतार-चढ़ाव, सामाजिक संबंधों का उतार-चढ़ाव, शक्ति के केन्द्रीकरण का उतार-चढ़ाव यहाँ तक कि आर्थिक अवस्थाओं में सर्वत्र ही उतार-चढ़ाव है।’’ इसी उतार-चढ़ाव में समस्त सामाजिक घटनाओं और परिवर्तनों का रहस्य छिपा हुआ है।


 



सोरोकिन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव में व्यक्त होता है। उतार-चढ़ाव की धारणा सोरोकिन के सिद्धान्त का प्रथम आधार है। यह उतार-चढ़ाव दो सांस्कृतिक व्यवस्थाओं-चेतनात्मक संस्कृति तथा भावनात्मक संस्कृति-के बीच होता है। दूसरे शब्दों में, जब समाज चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में या भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में बदलता है, तभी सामाजिक परिवर्तन होता है। अर्थात् तभी विज्ञान, दर्शन, धर्म, कानून, नैतिकता, आर्थिक व्यवस्था, राजनीति, कला, साहित्य, सामाजिक संबंध सब-कुछ बदल जाता है। इस प्रकार सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा आधार चेतनात्मक संस्कृति और भावनात्मक संस्कृति के बीच भेद है।


 



सोरोकिन  के अनुसार जब एक सांस्कृतिक व्यवस्था, उदाहरणार्थ चेतनात्मक संस्कृति व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो उसे अपनी गति को विपरीत दिशा, अर्थात् भावनात्मक संस्कृति व्यवस्था की ओर मोड़ना ही पड़ता है। अर्थात् पहले की व्यवस्था के स्थान पर दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है; क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था की-चाहे वह कितनी ही अच्छी हो या बुरी-पनपने, आगे बढ़ने अथवा विकसित होने की एक सीमा है। यही सोरोकिन का ‘सीमाओं का सिद्धान्त’ है जो कि सामाजिक परिवर्तन का तीसरा आधार है।


इन सीमाओं के सिद्धान्त को बीरस्टीड द्वारा प्रस्तुत एक उदाहरण की सहायता से अति सरलता से समझा जा सकता है। यदि आप प्यानों की एक कुंजी को उँगली मारेंगे तो उससे कुछ ध्वनि उत्पन्न होगी। यदि आप जरा जोर से उँगली मारेंगे तो अवश्य ही ध्वनि भी अधिक जोर की होगी। परन्तु इस प्रकार जोर से उँगली मारने और अधिक जोर से ध्वनि निकालने की एक सीमा है। एक सीमा से अधिक जोर से यदि आप प्यानों पर आघात करेंगे तो अधिक जोर से ध्वनि निकलने की अपेक्षा स्वयं प्यानों ही टूट जाएगा। यही बात सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर भी लागू होती है। एक सांस्कृतिक व्यवस्था एक सीमा तक पहुँच जाने के बाद फिर आगे नहीं बढ़ सकती और तब तक विपरीत प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और टूटे हुए प्यानों की भाँति उस व्यवस्था के स्थान पर एक नवीन सांस्कृतिक व्यवस्था स्वत: उदय होती है।


सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का यह है कि सांस्कृतिक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन होता तो अवश्य है, परन्तु होता है अनियमित रूप में। दूसरे शब्दों में, सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव को किन्हीं निश्चित बन्धनों में बाँधा नहीं जा सकता है। यद्यपि यह सच है कि संस्कृति एक गतिशील व्यवस्था है फिर भी हम यह आशा नहीं कर सकते कि एक सांस्कृतिक व्यवस्था किसी एक निश्चित दिशा की ओर स्थायी रूप में गतिशील रहेगी।


अब प्रश्न यह उठता है कि चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था में या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था में जो परिवर्तन होता है उस परिवर्तन को लाने वाली कौन-सी शक्ति हैं? सोरोकिन ने इस प्रश्न का उत्तर ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ (Principle of Immanent Change) के आधारपर दिया है और यही आपके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का आधार है। ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ है कि परिवर्तन होने का कारण या परिवर्तन लाने वाली शक्ति स्वयं संस्कृति की अपनी प्रकृति में ही अन्तर्निहित है। परिवर्तन लाने वाली कोई बाहरी शक्ति नहीं बल्कि संस्कृति की प्रकृति में ही क्रियाशील आन्तरिक शक्ति या शक्तियाँ हैं। संक्षेप में, सोरोकिन के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जोकि संस्कृति के अन्दर ही क्रियाशील कुछ शक्तियों का परिणाम होती है। सामाजिक परिवर्तन एक कृत्रिम प्रक्रिया है या किसी बाह्य शक्ति द्वारा प्रेरित होती है- ऐसा सोचना गलत है। चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था का या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था का परिवर्तन एक स्वाभाविक तथा आन्तरिक प्रक्रिया है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसा होना ही स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ, गुलाब का एक बीज केवल गुलाब के ही पौधे में, न कि अन्य प्रकार के पौधे में, इसलिए विकसित होता है क्योंकि यही स्वाभाविक है या वह उस बीज के स्वभाव में अन्तर्निहित है।



रेखीय परिवर्तन का सिद्धान्त

यह सामाजिक परिवर्तन का वह स्वरूप है; जिसमें परिवर्तन की दिशा सदैव ऊपर की ओर होती है। परिवर्तन एक सिलसिले या क्रम से विकास की ओर एक ही दिशा में निरन्तर होता जाता है। जो आविष्कार आज हुआ है उससे आगे ही आविष्कार होगा, जैसे रेडियों के बाद टेलीविजन का अविष्कार हुआ उसे और विकसित करके टेलीफोन से बात करते समय दूसरी ओर से बात करने वाले को देखा भी जा सकेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि परिवर्तन के इस प्रतिमान में परिवर्तन रेखीय होता है और उसे हम एक रेखा से प्रदर्शित कर सकते हैं। इस परिवर्तन की गति तीव्र या मंद हो सकती है।


आदिम समाज में परिवर्तन धीमी गति से था जबकि आधुनिक समाजों में गति तीव्र है, परन्तु दोनों समाजों में परिवर्तन एक रेखा में ही अर्थात आगे बढ़ता हुआ है। सामाजिक परिवर्तन के रेखाीय सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से समझने के लिए अगर इसका अन्तर चक्रीय सिद्धान्त से किया जाए तो इसकी प्रकृति को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। दोनों में अन्तर निम्न प्रकार से किया जा सकता है-


रेखीय सिद्धान्त इस विचार पर आधारित है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ने की होती है, इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन सदैव उतार-चढ़ाव से युक्त होते हैं अर्थात प्रत्येक परिवर्तन सदैव नई दिशा उत्पन्न नहीं करता बल्कि इसके कारण समूह द्वारा कभी नई विशेषताओं और कभी पहले छोड़ी जा चुकी विशेषताओं को पुन: ग्रहण किया जा सकता है।

रेखीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की दिशा साधारणतया अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने की होती है। चक्रीय सिद्धान्त में परिवर्तन के किसी ऐसे क्रम को स्पष्ट नहीं किया जा सकता, इसमें परिवर्तन पूर्णता से अपूर्णता अथवा अपूर्णता से पूर्णता किसी भी दिशा की ओर हो सकता है। 



रेखीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन की गति आरम्भ में धीमी होती है लेकिन एक निश्चित बिन्दु तक पहुँचने के बाद परिवर्तन बहुत स्पष्ट रूप से तथा तेजी से होने लगता है। प्रौद्योगिक विचार से उत्पन्न परिवर्तन इस कथन की पुष्टि करते हैं। जबकि इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार एक विशेष परिवर्तन को किसी निश्चित अवधि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता । परिवर्तन कभी जल्दी-जल्दी हो सकते हैं और कभी बहुत सामान्य गति से। 

रेखीय सिद्धान्त की तुलना में चक्रीय सिद्धान्तों पर विकासवाद (Evolutionism) का प्रभाव बहुत कम है। तात्पर्य यह है कि रेखाीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन की प्रवृत्ति एक ही दिशा में तथा सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है। इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में भेद करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि विकासवादी प्रक्रिया अधिक से अधिक सामाजिक परिवर्तन में ही देखने को मिलती है जबकि सांस्कृतिक जीवन और विशेष मूल्यों तथा लोकाचारों में होने वाला परिवर्तन उतार-चढ़ाव से युक्त रहता है। 



रेखीय सिद्धान्त सैद्धान्तिकता (indoctrination) पर अधिक बल देते हैं, ऐतिहासिक साक्षियों पर नहीं। जब कि चक्रीय सिद्धान्त के द्वारा उतार-चढ़ाव से युक्त परिवर्तनों को ऐतिहासिक प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है इस प्रकार उनके प्रतिपादकों का दावा है कि उनके सिद्धान्त अनुभवसिद्ध हैं। 



रेखीय परिवर्तन व्यक्ति के जागरूक प्रयत्नों से संबंधित है। इतना अवश्य है कि रेखीय परिवर्तन एक विशेष भौतिक पर्यावरण से प्रभावित होते हैं लेकिन भौतिक पर्यावरण स्वयं मनुष्य के चेतन प्रयत्नों से निर्मित होता है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन एक बड़ी सीमा तक मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक दशाओं, मानवीय आवश्यकताओं तथा प्रवृत्तियों (Attitudes) में होने वाले परिवर्तन के साथ सामाजिक संरचना स्वयं ही एक विशेष रूप ग्रहण करना आरम्भ कर देती है। 



रेखीय सिद्धान्त परिवर्तन के एक विशेष कारण पर ही बल देता है और यही कारण है कि कुछ भौतिक दशाएँ सदैव अपने और समूह के बीच एक आदर्श सन्तुलन अथवा अभियोजनशीलता (Adjustment) स्थापित करने का प्रयत्न करती है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त परिवर्तन का कोई विशेष कारण स्पष्ट नहीं करते बल्कि इनके अनुसार समाज में अधिकांश परिवर्तन इसलिए उत्पन्न होते हैं कि परिवर्तन का स्वाभाविक नियम है।



रेखीय सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देते हैं कि परिवर्तन का क्रम सभी समाजों पर समान रूप से लागू होता है। इसका कारण यह है कि एक स्थान के भौतिक अथवा प्रौद्योगिक पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले परिवर्तन को शीघ्र ही दूसरे समाज द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। बल्कि चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार एक विशेष प्रकृति के परिवर्तन का रूप सर्वव्यापी नहीं होता; अर्थात विभिन्न समाजों और विभिन्न अवधियों में परिवर्तन की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार से मानव समूहों को प्रभावित करती है।



द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त 

द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि समाज में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों व शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है। इस सिद्धान्त के समर्थक यह मानने से इन्कार करते हैं कि समाज बिना किसी बाधा, गतिरोध या संघर्ष के उद्विकासीय ढंग से सरल से उच्च व जटिल स्तर तक पहुँच जाता या परिवर्तित होता है। उनके अनुसार समाज की प्रत्येक क्रिया, उप-व्यवस्था (sub-system) और वर्ग का विरोधी तत्व अवश्य होता है और इसीलिए उनमें विरोधी प्रतिक्रिया या संघर्ष अवश्य होता है। इस संघर्ष के फलस्वरूप ही सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तन घटित होता है। साथ ही, ये परिवर्तन सदा शान्तिपूर्ण ढंग से होता हो, यह बात भी नहीं है क्योंकि समाज विस्फोटक तत्वों या शक्तियों से भरा हुआ होता है। इसलिए क्रान्ति के द्वारा भी परिवर्तन घटित हो सकता है। क्रान्ति के इस कष्ट को सहन किए बिना नए युग का प्रारम्भ उसी प्रकार सम्भव नहीं जैसे प्रसव पीड़ा को सहन किए बिना नव सन्तान का जन्म सम्भव नहीं। इसी सन्दर्भ में संघर्ष के कुछ सिद्धान्तों की विवेचना है।

कार्ल मार्क्स का सिद्धांत

वेबलन का का सिद्धांत

टोयनोबी का सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार या प्रारूप

सभी समाज और सभी कालों में सामाजिक परिवर्तन एक जैसा नहीं होता है। अत: हमें सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप के सन्दर्भ में उसके प्रतिरूप (Patterns), प्रकार (Kinds) या प्रारूप (Models) पर विचार करना चाहिए। अर्थ की दृष्टि से तीनों शब्दों में काफी भेद है, पर विषय-वस्तु की दृष्टि से समानता। वे सभी एक ही किस्म की विषय-वस्तु के द्योतक हैं। निम्न विवरण से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी।


सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिरूप (Patterns) देखने को मिलते हैं। कुछ विचारकों ने सर्वसम्मत, विरोध मत एवं एकीकृत प्रतिमानों की चर्चा की है। मकीवर एवं पेज ने सामाजिक प्रतिरूप के मुख्य तीन स्वरूपों की चर्चा की है, जो इस प्रकार हैं-

सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी क्रमबद्ध तरीके से एक ही दिशा में निरंतर चलता रहता है भले ही परिवर्तन का आरंभ एकाएक ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए हम विभिन्न अविष्कारों के पश्चात् परिवर्तन के क्रमों की चर्चा कर सकते हैं। विज्ञान के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रकृति एक ही दिशा में निरंतर आगे बढ़ने की होती है



इसलिए ऐसे परिवर्तन को हम रेखीय (Linear) परिवर्तन कहते हैं। अधिकांश उद्विकासीय समाजशास्त्री (Evolutionary Sociologists) एक रेखीय सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करते हैं। 



कुछ सामाजिक परिवर्तनों में परिवर्तन की प्रकृति ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने की होती है, इसलिए इसे उतार-चढ़ाव परिवर्तन (Fluctuating Changes) के नाम से भी हम जानते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय सांस्कृतिक परिवर्तन की चर्चा कर सकते हैं। 


पहले भारत के लोग आध्यात्मवाद (Spiritualism) की ओर बढ़ रहे थे, जबकि आज वे उसके विपरीत भौतिकवाद (Materialism) की ओर बढ़ रहे हैं। पहले का सामाजिक मूल्य ‘त्याग’ पर जोर देता था, जबकि आज का सामाजिक मूल्य ‘भोग’ एवं संचय पर जोर देता है।


 इस प्रतिरूप के अन्तर्गत यह निश्चित नहीं होता कि परिवर्तन कब और किस दिशा की ओर उन्मुख होगा। 



परिवर्तन के तृतीय प्रतिरूप को तरंगीय परिवर्तन के भी नाम से जाना जाता है। इस परिवर्तन के अन्तर्गत उतार-चढ़ावदार परिवर्तन में परिवर्तन की दिशा एक सीमा के बाद विपरीत दिशा की ओर उन्मुख हो जाती है। इसमें लहरों (Waves) की भाँति एक के बाद दूसरा परिवर्तन आता है। 



ऐसा कहना मुश्किल होता है कि दूसरी लहर पहली लहर के विपरीत है। हम यह भी कहने की स्थिति में नहीं होते हैं कि दूसरा परिवर्तन पहले की तुलना में उन्नति या अवनति का सूचक है। इस प्रतिरूप का सटीक उदाहरण है फैशन।



 हर समाज में नये-नये फैशन की लहरें आती रहती हैं। हर फैशन में लोगों को कुछ-न-कुछ नया परिवर्तन दिखाई देता है। ऐसे परिवर्तनों में उत्थान, पतन और प्रगति की चर्चा फिजूल है।




सामाजिक परिवर्तन के कारक



सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत कारक हैं। कारकों की प्रमुखता देश और काल से प्रभावित होती है। जिन कारणों से आज सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनमें से बहुत कारक प्राचीन काल में मौजूद नहीं थे। परिवर्तन के जिन कारकों की महत्ता प्राचीन एवं मध्य काल में रही है, आज उसकी महत्ता उतनी नहीं रह गयी है। समय के साथ परिवर्तन का स्वरूप और कारक दोनों बदलते रहते हैं। 



एच0एम0 जॉनसन ने परिवर्तन के स्रोतों को ध्यान में रखकर परिवर्तन के सभी कारकों को मुख्य रूप से तीन भागों में रखा है।




आन्तरिक कारण -

सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी आन्तरिक कारणों से भी होता है। व्यवस्था का विरोध आन्तरिक विरोध (Internal Contradictions) से भी होता है। जब लोग किसी कारणवश अपनी परम्परागत व्यवस्था से खुश नहीं होते हैं तो उसमें फेरबदल करने की कोशिश करते रहते हैं। आमतौर पर एक बन्द समाज में परिवर्तन का मुख्य स्रोत अंतर्जात (Endogenous/Orthogenetic) कारक ही रहा है। धर्म सुधार आन्दोलन से जो हिन्दू समाज में परिवर्तन आया है, वह अंतर्जात कारक का एक उदाहरण है।

बाहरी कारण -

जब दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्था, प्रतिमान एवं मूल्य एक-दूसरे से मिलते हैं तो सामाजिक परिवर्तन की स्थिति का निर्माण होता है। पश्चिमीकरण या पाश्चात्य प्रौद्योगिकी के द्वारा जो भारतीय समाज में परिवर्तन आया है, उसे इसी श्रेणी में रखा जाएगा। साधारणत: युग में परिवर्तन के आन्तरिक स्रोतों की तुलना में बहिर्जात (Exogenous/Heterogenetic) कारकों की प्रधानता होती है।



गैरसामाजिक कारण -

सामाजिक परिवर्तन का स्रोत हमेशा सामाजिक कारण ही नहीं होता। कभी-कभी भौगोलिक या भौतिक स्थितियों में परिवर्तन से भी सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। आदिम एवं पुरातनकाल में जो समाज में परिवर्तन हुए हैं, उन परिवर्तनों से गैरसामाजिक कारकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है।