Friday, March 1, 2024

एक शिखर व्यक्तित्व -ः महाराज कर्ण सिंह

एक शिखर व्यक्तित्व -ः महाराज कर्ण सिंह

भारत की परंपरा, संस्कृति तथा स्वाधीन चेतना को आधी शताब्दी तक अपने सतत जागरूक व्यक्त्वि एवं रचनात्मक सोच से जिस महानुभावों ने उत्प्रेरित और विकसित किया है, ऐसे लोगो के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैंै। आदमी का ऊॅचा होना, अपने व्यक्त्वि को चमकाकर, मांजकर एवरेस्ट बना देना एक बड़ी बात है, पर अपने समकालीन समाज की सोच को, चिंतन के स्तर को पूरी काॅम की अस्मिता को झकझोर कर एक बालिस्त भर उठा देना सम्भवतः उससे भी बड़ी बात है।

      डाॅ0 कर्ण सिंह ऐसे ही शिखर व्यक्तित्व के हैं, जो रूप आकृति से, सोच और रचनाशीलता से विलक्षण बुद्वि और गहरे अध्ययन से, चिन्तन और लेखने से, निर्विवाद राजनीतिक कद से अप्रतिम धर्मबुद्वि से सम्यक सांस्कृतिक भूझ से स्वतंत्र भारत के अद्वितीय अमोद्य, अजातशत्रु , अमिताभ के रूप में विख्यात हैं।

 महान रघुवंशियों की उत्तरवर्ती शाखा जिसने साकेत से अलवर, भटिण्डा से रोहतक और उससे भी आगे बढकर जम्मू कश्मीर में अपना प्रभुत्व व प्रभाव विस्तरित किया था के यशस्वी वरद पुत्र हैं, महाराज कर्ण सिंह। महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में विशेषणों की एक लम्बी श्रृंखला जोड़कर रघुवंश का वर्णन प्रारम्भ किया है-

 सोेहम आजन्म शुद्वानाम, आॅलोदम वर्मणाम

आसमुद्र शितीषानाम अनाकरथ र्बत्मनाम।

  यथाविधि हुताग्निनाम, यथा कामार्चितार्थीनाम

                    यथापराध दण्डानाम यथाकाल प्रबोधिनाम 

                    त्यागाय संवृतार्थानाम सत्यायमित भाषिणाम

                    यशसे विजयीषुणाम, पूजाायै गृहमेदिनाम

जन्म से ही शुद्व, फलोत्पत्ति तक कार्यरत रहने वाले , विधि पूर्वक यज्ञाहुति करने त्याग के लिए अर्थ संग्रह करने वाले, समय से जगने वाले, सत्य बोलने के लिए कम बोलने वाले आदि अनेक गुणों के मूर्तिमान रूप में अवतीर्ण हुए युवराज कर्ण सिंह उमके थी यशोगाथा प्राचीन रघुवंशियों के अनरूप व अनुवर्तिनी ही रही है।

जम्मू कश्मीर के राजा हरी सिंह और राजमहिषी श्रीमती तारा देवी का यह --और यशस्वी पुत्र भारत आर्य व्यक्तित्व और सनातन धर्म- कर्म का साक्षात विग्रह प्रतिमा है। महाराजा कर्ण सिंह कर्मवीर, दानवीर, दयावीर तथा धर्मवीरत्व के आधुनिक प्रतिमान है। वे सांस्कृतिक, चेतना के संवाहक, अतीत के अध्येता तथा भारत के भावी आलोक के उदगाता रहे हैं।युग के साथ संचरण काटे हुए भी वे कालातीत परम पुरूष की ज्ञान ज्योति के सम्यक प्रस्तोता हैं, वे सबके हैं, पूरे आर्यवर्त, पूरी दुनियाॅ, पूरे ब्रम्हाण्ड के हैं, इसीलिए वे इतिहास के नहीं भाव संसार के व्यक्ति हैं।

नेपाल की राजकन्या यशोराज लक्ष्मी का यह पति यशस्वी पुत्रों का पिता तथा सच्चा भारतीय है। 1949 में अठारह वर्ष की ही अवस्था में वे जम्मू कश्मीर के रेजिडेन्ट बनाये गये। विख्यात दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर उन्होने जम्मू कश्मीर वि0वि0 से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।दिल्ली वि0वि0 से राजनीतिशास्त्र में 1957 में प्रथम श्रेणी प्रथम स्थान प्राप्त कर उन्होंने एम0ए की डिग्री हासिल की तथा वहीं से महर्षि अरविन्द के राजनीतिक विचार विषय पर डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।अदभुत प्रतिभा और विलक्षण मेधा सम्पन्न उनका अप्रतिम योग रहा है। बनारस हिन्दू वि0वि0 के अरविन्द शोध पीठ के चेयरमैन प्रोफेसर रहे। वे जम्मू कश्मीर वि0वि0 और का हि0वि0वि0के महाकुलाधिपति रहे हैं, वे जम्मू कश्मीर के सदर-ए- रियासत, गर्वनर भी रहे हैं। उन्होने सर्वप्रथम स्वेच्छा से ही प्रिवीपर्स का त्याग किया था, वर्ष 1967 में वे स्व0 श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रीमंडल में 36 वर्ष की सबसे कम उम्र के माननीय मंत्री पर्यटन भारत सरकार बनाये गये। वर्ष 1973 में उन्हें स्वास्थय एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का दायित्व सौंपा गया और वे उधमपुर लोकसभा क्षेत्र से विशाल बहुमत से विजयी सदस्य के रूप में अभिनंदित किए गये । उन्होंने  1971,1977, तथा 1980 में अपनी विशेष विजयों का कीर्तिमान कायम किया पर एक सुखद आश्चर्य ही है कि उन्होने गरीब देश से वेतन के रूपये में न कोई धनराशि ली और न सरकारी बंगले में काबिज हुए। बाद में कांग्रेसी मंत्रियों ने जो लूट खसोट और घोटालों किये हैं, उन्हें देख सुनकर उनकी आत्मा पीडा़ से, घृणा से तिलमिलाती रही है, पर वे निर्विकल्प तथा निर्लेप चरित्र के धनी ही बने अपनी सम्पूर्ण चल अचल सम्पत्ति को हरी-तारा ट्रस्ट को समर्पित कर अपना अदभुत राजमहल उन्होने पर्वतीय स्थापत्य, कला और पुस्तकालय तथा संग्रहालय में रूपान्तरित कर दिया । देश का रूपातंरण का वह सपना जो उन्हें राम की रक्त शुद्वता, समरसता लोक से दास में मिली थी ।

वह ऊर्जा, वह दर्शन जिसे उन्होंने महर्षि अरविंद से आत्म साथ किया था, उसका सम्यक उपयोग भारत की परवर्ती पीढी़ नहीं कर पायी।इस अप्रतिम व्यक्तित्व का वह मूल्य,वहमान, उपभोक्ता पीढी़ तथा उन्मुक्त व्यापार वाली स्वार्थी राजनीति ने समझा ही नहीं, जिसके समझ लेने मात्र भर से देश की दिशा और दशा बदल सकती थी । आज मनुवादी व्यवस्था, ब्राम्हाणवादी कर्मकाण्डी व्यवस्था की लानत मलामत हो रही है और पण्डित सुखराम , कैप्टन सतीश शर्मा, नरसिंह राव, हर्ष मेहता, चन्द्रास्वामी के घोटालों का पर्दाफाश हो रहे है तो बार-बार उन लोगों पर नजर जाती हैं। जिन्होनें समय≤ पर समाज को जागरूक बनाने तथा ढोंग लूट एवं धनसंचयी बुद्वि को चुनौती दिया है। पता नहीं क्यों लगता है, कि जनक, विश्वामित्र, चार्वक, वाल्मिकी केवल ऐलुष, एकलव्य,कर्ण, युधिष्ठिर, गौतम, महावीर, कबीर, गांधी, आचार्य नर देव सिंह, लोहिया, लाल बहादुर, कर्ण सिंह, बी0पी0 सिंह, ही संस्कृति के देश पुरूष के रूप में मान्य रहेगें। स्ववार्थी और पाखण्डी, सुख की भौतिक ऐसाग में मशगूल सारे सत्तालोलूप चमत्कारिक पुरूषों के नाम-निशान काल के प्रवाह में बह जायेगें । 

     डाॅ0 कर्ण सिंह को देश विदेश में बेहद प्यार और सम्मान मिला, का0टी0वि0वि0अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा ओशोक विश्वविद्यालय टोकेयो से डाक्टेरेट की मानक उपाधियाॅ मिली। वे रोम के सर्वाधिक सम्मानित क्लब के आजीवन सदस्य बनाये गये, उन्होंने दर्शन, राजनीति, स्थापत्य, नृत्य, संगीत ,हिन्दी, अंग्रेजी, के अप्रतिम अध्येता तथा विद्वान वक्ता के रूप में समादृत है।निबन्ध, यात्रवृतांत और गंम्भीर प्रकृति की कविताओं की संरचना में उन्हें महारत हासिल हैं।

भारत के अमेरिका राजदूत, सांस्कृतिक समितियोें के संयोजक सदस्य के रूप में उन्होंनेें न केवल अमेरिका वरन विश्व के तमाम देशों में भारत का सम्मान बढाया है। सर राधाकृष्णन के पश्चात वे एक मात्र ऐसे भारतीय हैं, जिनकी चितंन शक्ति, वाणी वैदग्ध और धारा प्रवाह वक्हता से विश्व के गणमान्य बौद्विक चमत्कृत होते रहे हैं। उनकी भौतिक उपलब्धि है, उनकी पुत्री ज्योत्सा, पुत्र विक्रम तथा अजातशत्रु ।

उनकी इन तीन संततियों के नाम ही उनका सबसे सटीक परिचय है, वक सरल, सहज ,शालीन, मृदुभाषी, विजयी, विनयी, और अजातशत्रु के प्रतिमान के रूप में जाने जाते हैं। वे प्राकृत संगीत छाया और प्रकाश वेलकम दि मूनराइज जैसी उत्कृष्ट काव्य कृतियों के सृजक हैं।भारतीय राष्ट्रीयता के देवदूत उनकी अप्रतिम गद्य संरचना है, समकालीन निबन्ध उनके व्यक्ति व्यंजक तथा विश्लेषणात्मक निबंधों का संग्रह धर्म के पास तथा हिन्दुत्व के संबंध में उनकी सांस्कृतिक सोच के संवाहक हैं।उन्होंने जीवनवृत, यात्रावृत, संस्मरण आदि भी लिखे हैं, पर सबसे बड़ी बात है, उनकी स्वतः स्फूर्त वाग्मिता जो उन्होंने मुख्य -अतिथि , अध्यक्ष पदों से बोलते हुए अनेक स्थलों, स्थानों पर अभिव्यक्त किया हैउनके चितंन उनकी मनीषा, उनकी अध्यवसायिता उनकी वाजी से फूलों के मानिन्द भरी है।जिसका पान स्रोता समूह अपलक, अनिमेष करता रहता है, इस विशाल भारत भूमि पर वे आर्य चिंतन के आर्य वाणी के आदर्श चरित्र एवं उदान्त जीवन मूल्यों के अन्वेषी और संस्थापक है। वे भारत की सनातन प्रतिमा को समादृत करने का संकल्प साधने वाले राजर्षि मनीषी हैंवे राष्ट्रीय अस्मिता तथा सांस्कृतिक अस्तीत्व के सजीव स्मारक हैं, वे है इसी से हम गौरवान्वित है।वे रहें इसी से संतुष्ट हैं, वे सक्रिय और सचेत रहें, तो हमारी सहज चेतना संतोष का लाभ पाती रहेगी हम उनकी तेजस्वी संचेतना को सौ वर्षो तक शुभ्र ज्योत्रना सस्वर भास्वरता के रूप में देखने के आकांक्षी है।हम चाहते हैं - तमाम जिल्रों पर लिखने दो करन ढाई आखर जरा सी जिंदगी बेहतर किताब क्या देखें।

                                  न्यौछावर उस पर सिंगार 


वह परम पूर्ण पूरन परमेश्वर

अजर अमर वह निराकार

वह गुणातीत गुनसागर वह

सच्चिदानन्द वह निर्विकार ।

योगेश्वर, ज्ञानी र्निविकल्प

उत्तम गृहस्थ शोभा अपार

वह निर्मोही निर्वाण परम

वह मूर्तिमान वह सदाचार ।

वह पूर्णरसिक, करूणा सागर

वह ज्ञान कर्म वह गुणगार ।

वह भाव पुरूष, वह योगीराज,

वह धर्मतत्व सर्जन संहार ।

वह गायक, वादक नर्तक वह

माधुर्य-मंत्र का महोच्यार ।

वह परम प्रकृति, वह प्रथम पुरूष

वह दिव्य देह पूर्णवितार।

वह कूटनीति मर्मज्ञ परम रसिया,

स्वतंत्र उत्तम विचार।

वह ज्ञान गीत गीता गायक 

वह सरवा सहज सुन्दर दुलार


प्रणयी वह शोषण, सजीला वह

अवछावर उस पर रस सिंगार ।










































       


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