Thursday, May 22, 2025

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यहाँ Patricia Uberoi की पुस्तक Family, Kinship and Marriage in India (1993) पर आधारित एक उपयोगी हैंडआउट दिया गया है, जिसे आप स्नातकोत्तर (MA) या शोध स्तर के छात्रों के लिए उपयोग कर सकते हैं।


Patricia Uberoi: Family, Kinship and Marriage in India (1993)

हैंडआउट नोट्स


1. पुस्तक की पृष्ठभूमि

  • यह पुस्तक भारतीय समाज में परिवार, संबंध और विवाह की संस्थाओं का समाजशास्त्रीय और मानवविज्ञानात्मक अध्ययन प्रस्तुत करती है।
  • इसमें पारंपरिक और आधुनिक संदर्भों में इन संस्थाओं के निरंतर परिवर्तनशील स्वरूप को रेखांकित किया गया है।
  • पुस्तक में विभिन्न लेखकों के निबंधों का संग्रह है, जिसे Patricia Uberoi ने संपादित किया है।

2. प्रमुख विषयवस्तु

A. परिवार (Family)

  • पारंपरिक संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार
  • परिवार का संरचनात्मक विश्लेषण (structure-functional approach)
  • नगरीकरण और औद्योगीकरण का प्रभाव
  • महिला सशक्तिकरण और पारिवारिक संबंधों में परिवर्तन

B. कुटुम्ब और वंश (Kinship and Descent)

  • उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत की कुटुंब संरचना
  • पितृवंशीय (Patrilineal) बनाम मातृवंशीय (Matrilineal) प्रणाली
  • गोत्र, कुल, विवाह निषेध, और कुटुंबीय नियम
  • Marcel Mauss के ‘gift’ सिद्धांत के संदर्भ में विवाह-संबंध

C. विवाह (Marriage)

  • अरेंज्ड मैरिज और प्रेम विवाह की बहस
  • विवाह नियम: एंडोगैमी और एक्सोगैमी
  • डाउरी बनाम ब्राइडवेल्थ (Dowry vs Bridewealth)
  • विवाह में जाति और वर्ग की भूमिका
  • राज्य की नीतियों का हस्तक्षेप (जैसे Special Marriage Act)

3. मुख्य तर्क और निष्कर्ष

  • भारतीय विवाह और कुटुंब की व्यवस्था केवल सामाजिक संरचना नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक शक्ति-संरचनाओं से गहराई से जुड़ी हुई है।
  • Uberoi ने यह दिखाया कि परिवार और विवाह का विश्लेषण करते समय स्त्रीवाद, वर्ग, और जाति को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
  • परंपरा और आधुनिकता का सहअस्तित्व – ‘Negotiated Modernity’ का सिद्धांत
  • विवाह एक सामाजिक अनुबंध से अधिक, एक 'राजनीतिक और आर्थिक गठबंधन' भी है।

4. भारत के संदर्भ में प्रासंगिकता

  • समकालीन भारत में विवाह-संबंधों में बदलाव (जैसे अंतरजातीय विवाह, ऑनलाइन विवाह मंच)
  • वैवाहिक हिंसा, दहेज हत्या, लिव-इन रिलेशनशिप जैसे मुद्दे
  • LGBTQ+ विवाह पर समाज की प्रतिक्रिया

यहाँ एक हैंडआउट दिया गया है, जो समकालीन भारत में विवाह-संबंधों में हो रहे बदलावों और उनसे जुड़ी सामाजिक प्रवृत्तियों को उदाहरणों और आँकड़ों सहित प्रस्तुत करता है:


हैंडआउट: समकालीन भारत में विवाह संबंधों में परिवर्तन – एक समाजशास्त्रीय अवलोकन

प्रस्तुतकर्ता: सत्यमित्र
स्त्रोत: सरकारी रिपोर्टें, शोध अध्ययन, मीडिया रिपोर्ट्स, एवं सामाजिक सर्वेक्षण


1. विवाह संबंधों में बदलाव

(क) अंतरजातीय विवाह

  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार, भारत में लगभग 10% शादियाँ अंतरजातीय हैं।
  • शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा थोड़ा अधिक (12-14%) है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह कम है।
  • उत्तर भारत में विशेष रूप से अंतरजातीय विवाहों पर सामाजिक प्रतिरोध अधिक है।
  • प्रासंगिक उदाहरण:
    • "लव जिहाद" जैसे मुद्दों को लेकर राज्यों में कानून बनाए गए, जिससे यह दर्शाता है कि ऐसे विवाहों पर समाज का नजरिया अभी भी मिश्रित है।

(ख) ऑनलाइन विवाह मंचों का उपयोग

  • Shaadi.com, Jeevansathi.com, Bharat Matrimony जैसे प्लेटफार्मों का तेजी से प्रसार हुआ है।
  • KPMG रिपोर्ट (2020) के अनुसार, भारत का ऑनलाइन मैचमेकिंग बाज़ार ₹2000 करोड़ से अधिक का हो चुका है।
  • डिजिटल माध्यमों ने जाति, वर्ग और स्थान की सीमाएँ आंशिक रूप से तोड़ी हैं, परंतु अधिकांश प्रोफाइल में अभी भी जाति प्राथमिकता बनी हुई है।

2. वैवाहिक हिंसा, दहेज हत्या एवं लिव-इन रिलेशनशिप

(क) वैवाहिक हिंसा

  • NFHS-5 के अनुसार, 18-49 वर्ष की लगभग 29.3% विवाहित महिलाओं ने शारीरिक या मानसिक हिंसा की शिकायत की।
  • सबसे आम कारण: दहेज, संतान ना होना, शराब पीना, या पत्नी की नौकरी।

(ख) दहेज हत्या

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2022:
    • औसतन हर दिन 20 दहेज मृत्यु के मामले दर्ज होते हैं।
    • उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में संख्या सबसे अधिक है।
  • कानून होने के बावजूद, IPC की धारा 304B का क्रियान्वयन कमजोर है।

(ग) लिव-इन रिलेशनशिप

  • सुप्रीम कोर्ट ने कई बार लिव-इन को सहमति पर आधारित संबंध माना है (जैसे Indra Sarma vs V.K.V. Sarma केस)।
  • यहाँ आपके "लिव-इन रिलेशनशिप" हेंडआउट के लिए एक प्रारंभिक मसौदा दिया गया है, जिसे आप अपने पाठ्यक्रम या कक्षा वितरण के अनुसार संपादित कर सकते हैं:


    हैंडआउट: लिव-इन रिलेशनशिप (Live-in Relationship)

    परिभाषा:
    लिव-इन रिलेशनशिप वह व्यवस्था है जिसमें एक वयस्क पुरुष और महिला विवाह किए बिना एक साथ रहते हैं और एक वैवाहिक संबंध की तरह जीवन जीते हैं। यह सहमति पर आधारित निजी संबंध है, जो पारंपरिक विवाह संस्था से अलग होता है।

    भारतीय परिप्रेक्ष्य में कानूनी स्थिति:

    • सुप्रीम कोर्ट का रुख: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप को संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त सहमति आधारित संबंध माना है।

      • Indra Sarma vs V.K.V. Sarma (2013): कोर्ट ने कहा कि यदि पुरुष और महिला दोनों वयस्क हैं और स्वतंत्र रूप से बिना किसी दबाव के सहमति से साथ रहते हैं, तो यह अवैध नहीं है।
      • D. Velusamy vs D. Patchaiammal (2010): कोर्ट ने ‘मैरिज लाइक रिलेशनशिप’ की परिभाषा स्पष्ट की, जिससे महिलाएं घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षण प्राप्त कर सकें।
    • घरेलू हिंसा से संरक्षण:
      Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005 के अंतर्गत यदि लिव-इन रिलेशनशिप nature of marriage की तरह है, तो महिला को क़ानूनी सुरक्षा और सहायता मिल सकती है।

    • संतान का अधिकार:
      यदि लिव-इन संबंध लंबे समय तक चला हो, तो उसमें जन्मी संतान को वैध माना जाता है और उसे माता-पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त हो सकता है (Supreme Court, 2008)।

    सामाजिक दृष्टिकोण:

    • पारंपरिक भारतीय समाज में लिव-इन रिलेशनशिप को सामाजिक स्वीकृति सीमित रूप से ही प्राप्त है।
    • यह शहरी क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है, किंतु ग्रामीण समाज में इसे प्रायः अनैतिक समझा जाता है।

    विवाद और चिंताएँ:

    • नैतिकता, पारिवारिक मूल्यों का क्षरण, और महिला शोषण की संभावना जैसे प्रश्न प्रायः उठते हैं।
    • कानूनी अस्पष्टता और सामाजिक कलंक के कारण लिव-इन संबंधों में रहने वालों को कई बार सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।

    निष्कर्ष:
    लिव-इन रिलेशनशिप भारत में एक उभरती सामाजिक वास्तविकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे सहमति और स्वतंत्रता के सिद्धांतों के तहत कानूनी सुरक्षा दी है, लेकिन सामाजिक स्वीकृति अभी भी सीमित है। यह विषय समकालीन समाजशास्त्र, स्त्री अध्ययन और कानून के क्षेत्र में विमर्श के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।



  • परंतु, सामाजिक मान्यता अब भी सीमित है – विशेषकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में इसे अनैतिक माना जाता है
  • NCRB में घरेलू हिंसा के कुछ मामले लिव-इन संबंधों से जुड़े भी मिलते हैं।

3. LGBTQ+ विवाह पर समाज की प्रतिक्रिया

(क) विधिक स्थिति

  • धारा 377 को 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त किया, जिससे समलैंगिक संबंध वैध हो गए।
  • परंतु LGBTQ+ विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिली (2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विवाह की मान्यता देने से इंकार)।

(ख) सामाजिक प्रतिक्रिया

  • शहरों में कुछ स्तर पर सहयोग और स्वीकृति देखी गई (जैसे Pride Marches, Netflix series आदि)।
  • परंतु बड़े पैमाने पर अभी भी भेदभाव, बहिष्कार और हिंसा की घटनाएँ होती हैं।
  • क्वीर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा आज भी परिवार से अस्वीकार किया जाता है, और उन्हें मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

निष्कर्ष (Relevance in Indian Context)

  • भारतीय समाज में विवाह अब भी एक संस्थागत संरचना है, परंतु उसमें आवश्यक बदलाव और विविधता प्रवेश कर रही है।
  • युवा पीढ़ी सामाजिक सीमाओं को चुनौती दे रही है, लेकिन सांस्कृतिक और पारिवारिक दबाव अब भी प्रभावी हैं।
  • विवाह को लेकर समाज का रवैया परिवर्तनशील और वर्ग/क्षेत्र/लिंग के आधार पर भिन्न है।



5. शोध और अध्ययन के लिए संभावित प्रश्न

  1. Uberoi के अनुसार पारिवारिक संबंधों में लिंग का क्या स्थान है?
  2. विवाह संस्था में जाति और वर्ग की भूमिका कैसे बदल रही है?
  3. ‘Negotiated modernity’ को समझाइए Patricia Uberoi के संदर्भ में।
  4. विवाह और कुटुंब पर राज्य की नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा है?

आपके चारों प्रश्न समाजशास्त्र में परिवार, विवाह और राज्य नीति से संबंधित हैं, विशेषकर Patricia Uberoi के दृष्टिकोण से। नीचे हर प्रश्न का उत्तर क्रमवार, संक्षिप्त एवं स्पष्ट रूप से दिया गया है:


1. Uberoi के अनुसार पारिवारिक संबंधों में लिंग का क्या स्थान है?
Patricia Uberoi के अनुसार, भारतीय पारिवारिक व्यवस्था मूलतः पितृसत्तात्मक (patriarchal) है, जिसमें लिंग का निर्धारण पारिवारिक भूमिकाओं और अधिकारों में असमानता को जन्म देता है। महिलाओं की भूमिका परंपरागत रूप से घरेलू कार्यों और संतान पालन तक सीमित रही है, जबकि निर्णय लेने की शक्ति पुरुषों के पास रहती है। Uberoi यह भी दर्शाती हैं कि विवाह और कुटुंब की संरचना में महिलाओं की एजेंसी सीमित होती है, लेकिन शहरीकरण और शिक्षा के प्रसार से यह स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है।


2. विवाह संस्था में जाति और वर्ग की भूमिका कैसे बदल रही है?
भारतीय विवाह व्यवस्था में परंपरागत रूप से जाति और वर्ग की बड़ी भूमिका रही है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें परिवर्तन आया है:

  • जाति: पहले विवाह समान जाति (endogamy) में ही होते थे, पर अब अंतरजातीय विवाह की प्रवृत्ति बढ़ रही है, खासकर शहरी और शिक्षित वर्ग में।
  • वर्ग: आर्थिक हैसियत और सामाजिक प्रतिष्ठा अब जाति से अधिक निर्णायक भूमिका निभा रही है।
  • मैट्रिमोनियल वेबसाइट्स और सोशल मीडिया ने विकल्प बढ़ाए हैं और ‘क्लास-कम्युनिटी’ नेटवर्क को मजबूत किया है।
    Patricia Uberoi के अनुसार, यह बदलाव पारंपरिक व्यवस्था का अंत नहीं बल्कि उसके नए रूपों में पुनर्गठन है।

3. ‘Negotiated Modernity’ को समझाइए Patricia Uberoi के संदर्भ में।
‘Negotiated Modernity’ का तात्पर्य है—पारंपरिक मूल्यों और आधुनिक जीवनशैली के बीच एक मध्य मार्ग खोजना। Patricia Uberoi इसे विशेष रूप से विवाह और पारिवारिक संस्थाओं के संदर्भ में देखती हैं, जहाँ आधुनिक शिक्षा, रोजगार और प्रेम विवाह जैसी प्रवृत्तियों के बावजूद लोग जाति, परिवार और सामूहिक निर्णय को महत्व देते हैं।
उदाहरण: एक शिक्षित युवती प्रेम विवाह करना चाहती है, लेकिन वह अपने माता-पिता की सहमति से और अपनी जाति या वर्ग के भीतर ही विवाह करती है। यह पारंपरिक और आधुनिक मूल्यों के बीच ‘negotiation’ है।


4. विवाह और कुटुंब पर राज्य की नीतियों का क्या प्रभाव पड़ा है? (Handout से उदाहरण सहित)
राज्य की नीतियों ने विवाह और परिवार संस्था को विभिन्न रूपों में प्रभावित किया है:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: विवाह को कानूनी रूप देकर विधवा पुनर्विवाह, तलाक, और महिला अधिकारों को मान्यता दी।
  • घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005: महिलाओं को पारिवारिक हिंसा से संरक्षण दिया गया।
  • जनसंख्या नीति: परिवार नियोजन कार्यक्रमों ने कुटुंब के आकार और संरचना को प्रभावित किया।
  • उत्तराखंड UCC का उदाहरण: समान नागरिक संहिता ने विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के नियमों को धर्मनिरपेक्ष बनाने का प्रयास किया।
    Patricia Uberoi के अनुसार, राज्य की नीतियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे को पूरी तरह बदलने के बजाय उसमें आंशिक हस्तक्षेप करती हैं, जिससे संस्थाएं पुनर्गठित होती हैं।






Handout on Pierre Bourdieu’s Distinction: A Social Critique of the Judgement of Taste (1979)

1. लेखक का परिचय:

  • Pierre Bourdieu (1930–2002): फ्रांसीसी समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी और दार्शनिक।
  • प्रमुख योगदान: सामाजिक वर्ग, सांस्कृतिक पूंजी, हैबिटस (Habitus), क्षेत्र (Field) और सामाजिक पुनरुत्पादन (Social Reproduction) के सिद्धांत।

2. पुस्तक का मूल उद्देश्य:

  • यह पुस्तक यह विश्लेषण करती है कि 'स्वाद' (Taste) केवल व्यक्तिगत पसंद नहीं बल्कि एक सामाजिक निर्माण है, जो वर्ग संरचना से जुड़ा होता है।
  • बौर्डीयू दिखाते हैं कि कैसे सांस्कृतिक पसंद और जीवनशैली उच्च वर्गों द्वारा वर्चस्व और भेदभाव के उपकरण के रूप में कार्य करती हैं।

3. मुख्य अवधारणाएँ (Key Concepts):

a. Habitus (हैबिटस):

  • व्यक्तियों का जीवन अनुभव, सामाजिक स्थिति और पारिवारिक पृष्ठभूमि से निर्मित एक संरचित प्रवृत्ति प्रणाली।
  • यह व्यक्ति की पसंद, व्यवहार और सोचने के तरीके को आकार देता है।

b. Capital (पूंजी के प्रकार):

  1. Economic Capital – धन, सम्पत्ति
  2. Cultural Capital – शिक्षा, भाषा, कला-सम्बंधी ज्ञान
  3. Social Capital – सामाजिक नेटवर्क, संबंध
  4. Symbolic Capital – मान-सम्मान, प्रतिष्ठा

c. Taste (स्वाद):

  • "स्वाद" कोई स्वाभाविक या सार्वभौमिक गुण नहीं है, बल्कि एक वर्ग-आधारित निर्माण है।
  • उच्च वर्ग अपने सांस्कृतिक स्वाद को "शुद्ध" और निम्न वर्ग के स्वाद को "अशुद्ध" या "सस्ता" बताकर सामाजिक वर्चस्व बनाए रखता है।

d. Distinction (भेद):

  • भौतिक और सांस्कृतिक वस्तुओं की पसंद के माध्यम से सामाजिक वर्गों के बीच भेद स्थापित किया जाता है।
  • जैसे: कला, संगीत, भोजन, कपड़े आदि के चयन में वर्गीय पहचान प्रकट होती है।

4. प्रमुख तर्क (Major Arguments):

  • Bourideu मानते हैं कि शिक्षा और संस्कृति के माध्यम से सामाजिक असमानता को दोहराया जाता है।
  • समाज में कला और सौंदर्यशास्त्र की सराहना वर्गीय संरचनाओं के अनुरूप विकसित होती है।
  • यह पुस्तक कला और संस्कृति के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की दिशा बदलने वाली कृति है।

5. समकालीन प्रासंगिकता:

  • आज के उपभोक्तावादी समाज में ब्रांड, फैशन, स्वाद और स्टाइल के ज़रिए सामाजिक प्रतिष्ठा दर्शाना Bourdieu के सिद्धांतों की पुष्टि करता है।
  • यह पुस्तक शिक्षा, मीडिया, उपभोक्ता संस्कृति, और जाति-आधारित सांस्कृतिक भेदभाव की समझ के लिए भी अत्यंत उपयोगी है।

6. आलोचना (Criticism):

  • कुछ आलोचकों का मानना है कि बौर्डीयू का दृष्टिकोण बहुत निर्धारणवादी (Deterministic) है।
  • व्यक्तियों की सक्रिय भूमिका और व्यक्तिगत चयन की संभावना को कुछ हद तक सीमित करता है।

7. निष्कर्ष: Distinction यह स्पष्ट करती है कि हमारी पसंद और नापसंद सामाजिक रूप से गहराई से निर्मित होती हैं।
Pierre Bourdieu ने सांस्कृतिक स्वाद और वर्ग संबंधों के बीच अंतर्संबंध को समझाने के लिए एक प्रभावशाली ढांचा प्रस्तुत किया।

बिलकुल, नीचे Pierre Bourdieu की अवधारणाओं को बिंदुवार (पॉइंट्स) में उदाहरण सहित विस्तार से प्रस्तुत किया गया है:


1. स्वाद (Taste) – वर्गीय स्थिति का संकेत

  • हमारी पसंद-नापसंद केवल निजी रुचि नहीं होती, बल्कि सामाजिक वर्ग से गहराई से जुड़ी होती है।
  • उदाहरण: उच्च वर्ग के लोग शास्त्रीय संगीत, ओपेरा, या कला फिल्मों की सराहना करते हैं, जबकि निम्न वर्ग बॉलीवुड, टीवी धारावाहिकों या मसाला फिल्मों में रुचि रखते हैं।
  • इन पसंदों के ज़रिए समाज में ‘श्रेष्ठ’ और ‘गिरा हुआ’ का भेद बनाया जाता है।

2. Habitus – सामाजिक अनुभव से निर्मित दृष्टिकोण

  • यह व्यक्ति के जीवन अनुभवों से उत्पन्न एक मानसिक संरचना होती है, जो उसके सोचने, महसूस करने और कार्य करने के तरीकों को तय करती है।
  • उदाहरण: जिस व्यक्ति ने बचपन से किताबों, संगीत, और कला के बीच जीवन बिताया है, वह साहित्य उत्सवों या कला प्रदर्शनियों में सहज महसूस करेगा; वहीं एक ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसमें असहज हो सकता है।

3. सांस्कृतिक पूंजी (Cultural Capital) – सामाजिक प्रतिष्ठा का साधन

  • यह पूंजी भाषा, शिक्षा, अभिव्यक्ति, और कलात्मक समझ जैसी चीज़ों में निहित होती है।
  • उदाहरण: अंग्रेज़ी भाषा का अच्छा ज्ञान, अच्छे पहनावे और आत्मविश्वास के साथ इंटरव्यू देना – ये सब उच्च वर्ग की सांस्कृतिक पूंजी माने जाते हैं, जो उन्हें नौकरियों और अवसरों में बढ़त देती है।

4. प्रतीकात्मक हिंसा (Symbolic Violence) – सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दमनकारी प्रयोग

  • यह वह स्थिति है जब किसी सामाजिक वर्ग के स्वाद या संस्कृति को “कमतर” या “असभ्य” घोषित किया जाता है।
  • उदाहरण: लोकगीत सुनने वाले या पारंपरिक पहनावे में रहने वाले व्यक्ति का मज़ाक उड़ाना, और उसे 'गंवार' कहना – यह सांस्कृतिक अपमान होता है।

5. असमानता का पुनरुत्पादन (Reproduction of Inequality)

  • समाज में जो वर्गीय भेद हैं, वे शिक्षा, संस्कृति और संस्थाओं के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराए जाते हैं।
  • उदाहरण: प्राइवेट स्कूल के बच्चों को भाषा, प्रस्तुति, सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़िया प्रशिक्षण मिलता है, जबकि सरकारी स्कूलों में यह कम होता है – जिससे आगे की जिंदगी में अवसरों में फर्क आ जाता है।




वीणा दास – समाजशास्त्रीय योगदान

1. परिचय:
वीणा दास एक प्रसिद्ध भारतीय सामाजिक नृविज्ञानी हैं। उनका शोध समाज के उन पहलुओं पर केंद्रित है जो अक्सर अदृश्य रह जाते हैं – जैसे कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हिंसा, पीड़ा, गरीबी, बीमारी और राज्य की भूमिका।

2. प्रमुख अध्ययन क्षेत्र:

  • रोज़मर्रा के जीवन में हिंसा और सामाजिक पीड़ा
  • शहरी गरीबों की ज़िंदगी
  • राज्य और नागरिक के बीच संबंध
  • स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं की पहुँच
  • महिलाओं के अनुभव, विशेषकर आपदा या दंगे के बाद

3. मुख्य विचार:

  • सामाजिक जीवन की समझ केवल बड़े बदलावों से नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के अनुभवों से आती है।
  • जब लोग संकट या हिंसा का सामना करते हैं, तो वे धीरे-धीरे अपनी दुनिया को फिर से बनाते हैं – यही सामाजिक पुनर्निर्माण है।
  • राज्य की नीतियाँ, न्याय और देखभाल की प्रक्रियाएँ आम लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं।

4. फील्डवर्क और उदाहरण:

  • दिल्ली की झुग्गियों में रहकर वहाँ के लोगों के जीवन, समस्याओं और राज्य के साथ संबंधों का अध्ययन।
  • 1984 के सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों पर अध्ययन, विशेषकर महिलाओं की भूमिका और सरकारी मुआवज़े के सामाजिक प्रभाव।
  • स्वास्थ्य सेवाओं (जैसे टीबी उपचार) में सरकारी और निजी संस्थानों की भूमिका का विश्लेषण।

5. प्रमुख कृतियाँ:

  • Life and Words: Violence and the Descent into the Ordinary
  • Critical Events: An Anthropological Perspective on Contemporary India
  • Textures of the Ordinary: Doing Anthropology after Wittgenstein

6. प्रासंगिकता:
वीणा दास का कार्य यह समझने में मदद करता है कि समाजशास्त्र केवल सिद्धांतों का अध्ययन नहीं, बल्कि आम लोगों की ज़िंदगी, संघर्ष और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को समझने का माध्यम है।

7. महत्वपूर्ण उद्धरण:

“The everyday is far from fixed. Rather, it is the fragile result of subjects’ ongoing efforts to carve out a life under challenging circumstances.”


A



पुस्तक शीर्षक: Life and Words: Violence and the Descent into the Ordinary
लेखिका: वीणा दास
प्रकाशन वर्ष: 2007
प्रकाशक: University of California Press


1. विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय:

यह पुस्तक उस प्रश्न को संबोधित करती है कि जब समाज बड़े पैमाने की हिंसा (जैसे सांप्रदायिक दंगे, बलात्कार, युद्ध) से गुजरता है, तो उसके बाद लोगों का "सामान्य जीवन" (ordinary life) कैसे दोबारा बनता है?
वीणा दास इस पुस्तक में बताती हैं कि हिंसा केवल सार्वजनिक या राजनीतिक घटना नहीं होती — वह लोगों के रोज़मर्रा के जीवन, भाषा, और संबंधों में समा जाती है।


2. प्रमुख अध्ययन संदर्भ:

  • 1984 के सिख विरोधी दंगे
  • भारत में बलात्कार और स्त्री हिंसा
  • दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में जीवन
  • रोज़मर्रा के संवादों में पीड़ा की भाषा

3. मुख्य तर्क और विचार:

  • हिंसा की पुनरावृत्ति:
    हिंसा एक बार की घटना नहीं है; वह रोज़मर्रा के जीवन में बार-बार लौटती है — यादों, भाषणों, चुप्पियों और रिश्तों के माध्यम से।

  • दैनिक जीवन में उतरना (Descent into the Ordinary):
    पीड़ित लोग धीरे-धीरे, चुपचाप और बिना ‘नायक’ बने, अपने जीवन को फिर से सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं।

  • भाषा और पीड़ा:
    दर्द को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त भाषा स्वयं में सीमित होती है; पीड़ा को पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन वह संबंधों में परिलक्षित होती है।

  • राज्य और महिला अनुभव:
    न्याय और राज्य-प्रणालियाँ अक्सर हिंसा से गुज़री महिलाओं को नहीं समझ पातीं, बल्कि उनके अनुभवों को साधारण प्रशासनिक श्रेणियों में बांट देती हैं।


4. समीक्षा (Critique):

सकारात्मक पक्ष:

  • यह पुस्तक हिंसा की पारंपरिक राजनीतिक समझ को चुनौती देती है और इसे मानवीय स्तर पर समझने का प्रयास करती है।
  • लेखन शैली में गहराई और संवेदनशीलता है।
  • पीड़ितों की आवाज़ और अनुभव को केंद्र में रखा गया है, न कि केवल आँकड़ों को।

सीमाएँ:

  • कुछ अध्यायों की भाषा जटिल है, जो सामान्य पाठक या प्रारंभिक छात्र के लिए कठिन हो सकती है।
  • पुस्तक में कई दार्शनिक संदर्भ (जैसे विट्गेंश्टाइन) दिए गए हैं, जिन्हें समझने के लिए पृष्ठभूमि आवश्यक है।

5. यह पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए?

  • यदि आप यह समझना चाहते हैं कि समाज हिंसा के बाद कैसे पुनर्निर्मित होता है, यह पुस्तक अनिवार्य है।
  • यह पुस्तक हमें सिखाती है कि समाजशास्त्र केवल डेटा या नीतियों का अध्ययन नहीं है — यह दुख, मौन, रिश्तों और रोज़मर्रा की उम्मीदों को भी समझने की कोशिश है।
  • महिलाओं और हाशिए के लोगों के अनुभवों को एक नई दृष्टि से देखने में यह पुस्तक मदद करती है।
  • यह पुस्तक समाज, राज्य और न्याय को मानवीय नजरिए से देखने का अवसर देती है।

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6. प्रमुख भारतीय समाजशास्त्री और उनके संबंधित कार्य

  • A. R. Desai

    • किताब: Social Background of Indian Nationalism (1948)
    • प्रासंगिकता: भारतीय समाज के वर्गीय और जातीय स्वरूपों का अध्ययन, ग्रामीण समाज के विकास और सामाजिक आंदोलनों की भूमिका। यह शोध ग्रामीण समाज और उसमें महिलाओं की भूमिका को समझने में सहायक है।
  • Leela Dube

    • किताब: Women and Kinship: Comparative Perspectives on Gender in South and South-East Asia (1997)
    • प्रासंगिकता: लीलादेबी ने महिलाओं की स्थिति, परिवार में उनकी भूमिका और पारिवारिक संरचनाओं पर गहन अध्ययन किया है, जो परिवार कल्याण और महिला सशक्तिकरण के शोध के लिए महत्वपूर्ण है।
  • G. S. Ghurye

    • किताब: Caste and Race in India (1969)
    • प्रासंगिकता: जाति और सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन से ग्रामीण समाज की जटिलताओं को समझने में मदद मिलती है, जो परिवार कल्याण कार्यक्रमों के प्रभाव को आंकने के लिए आवश्यक है।
  • Veena Das

    • किताब: Critical Events: An Anthropological Perspective on Contemporary India (1995)
    • प्रासंगिकता: सामाजिक संरचनाओं में परिवर्तन और महिलाओं के अनुभवों का विश्लेषण, जो ग्रामीण महिलाओं की चेतना और व्यवहार समझने में सहायक है।
  • Patricia Uberoi

    • किताब: Family, Kinship and Marriage in India (1993)
    • प्रासंगिकता: भारतीय परिवार और विवाह प्रणाली के अध्ययन के माध्यम से महिला सशक्तिकरण और परिवार कल्याण कार्यक्रमों का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण।
  • Nandini Sundar

    • किताब: Subalterns and Sovereigns: An Anthropological History of Bastar (1854-2006) (2007)
    • प्रासंगिकता: आदिवासी और ग्रामीण समाज में सशक्तिकरण और सामाजिक नियंत्रण के मुद्दों पर केंद्रित अध्ययन।

7. विश्व के प्रमुख समाजशास्त्री और उनके संबंधित कार्य

  • Emile Durkheim

    • किताब: The Division of Labour in Society (1893)
    • प्रासंगिकता: सामाजिक एकता, सामाजिक कार्य और संस्थानों का विश्लेषण, जो सामाजिक नियंत्रण और विकास के लिए मौलिक सिद्धांत प्रदान करता है।
  • Max Weber

    • किताब: The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism (1905)
    • प्रासंगिकता: सामाजिक क्रियाओं का विश्लेषण और वैचारिक ढांचे, जो सामाजिक संस्थाओं एवं विकास में भूमिका निभाते हैं।
  • Pierre Bourdieu

    • किताब: Distinction: A Social Critique of the Judgement of Taste (1979)
    • प्रासंगिकता: सामाजिक पूंजी, सांस्कृतिक पूंजी और वर्ग संरचनाओं की व्याख्या, जो ग्रामीण महिलाओं के सामाजिक संदर्भ और सशक्तिकरण को समझने में उपयोगी है।
  • Judith Butler

    • किताब: Gender Trouble: Feminism and the Subversion of Identity (1990)
    • प्रासंगिकता: लिंग के सामाजिक निर्माण पर प्रभावशाली विचार, जो महिला सशक्तिकरण की थ्योरी को विकसित करता है।
  • Anthony Giddens

    • किताब: The Constitution of Society (1984)
    • प्रासंगिकता: संरचनात्मक कार्यवाद और एजेंसी का सिद्धांत, जो सामाजिक बदलाव और विकास के अध्ययन के लिए आवश्यक है।
  • Amartya Sen

    • किताब: Development as Freedom (1999)
    • प्रासंगिकता: विकास और स्वतंत्रता के बीच संबंध, विशेष रूप से महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय के संदर्भ में।

यदि आप चाहें तो इस जानकारी को मैं एक फाइल में भी तैयार कर सकता हूँ। क्या यह ठीक रहेगा?


।।।यहाँ आपके सभी शोध-पत्रों की जानकारी 

1. ग्रामीण महिलाओं में परिवार कल्याण कार्यक्रम एवं महिला सशक्तिकरण

  • जर्नल का नाम: शोध प्रेरक
  • UGC जर्नल नंबर: 47168
  • ISSN: 2231-413X
  • Volume: 8 | Issue: 2
  • प्रकाशन तिथि: फरवरी 2018

2. परिवार कल्याण एवं नियोजन: एक समाजशास्त्रीय अध्ययन

  • जर्नल का नाम: वैचारिकी (Vaichariki)
  • UGC जर्नल नंबर: 2249
  • ISSN: 2249-8907
  • प्रकाशन तिथि: 2017

3. जनसंख्या विस्फोट और ग्रामीण नारी

  • जर्नल का नाम: शोध दृष्टि
  • UGC जर्नल नंबर: 2249
  • ISSN: 2229-7308
  • प्रकाशन तिथि: 2017

4. हिंदी विश्व संदर्भ में

  • जर्नल का नाम: जिज्ञासा
  • Volume: 12
  • UGC जर्नल नंबर: 618624
  • प्रकाशन तिथि: फरवरी 2019

5. वैश्वीकरण युग में डॉ. अंबेडकर की प्रासंगिकता

  • जर्नल का नाम: आकांक्षा (AKSHARA Multidisciplinary Research Journal)
  • ISSN: 2582-5429
  • प्रकाशन तिथि: अगस्त 2023
  • UGC सूची में स्थिति: NIL

6. भारतीय समाज में लैंगिक समानता: कानून और संविधान

  • जर्नल का नाम: शोध दृष्टि
  • UGC जर्नल नंबर: 49321
  • ISSN: 0976-6650
  • प्रकाशन तिथि: फरवरी 2023


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