Thursday, September 26, 2024

सामाजिक शोध


सामाजिक शोध का अर्थ, उद्देश्य एवं चरण




 

सामाजिक शोध के अर्थ को समझने के पूर्व हमें शोध के अर्थ को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। 


यह स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ  यह प्रारम्भ होती है।



 सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। 


स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है।



 यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। 



प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। 




वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। 


शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। 


शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’


सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।


 पी.वी. यंग (1960:44) के अनुसार,


 ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’


 



सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’


’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है।



 सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। 



सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- 

(1) क्या हो रहा है? और 

(2) क्यों हो रहा है? 


अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। 



‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। 



यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।




सामाजिक शोध का उद्देश्य 

सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है।


( इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है।)


 बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में


 पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है। 



वह प्रशासकीय परिवर्तनों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है।



 सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है।


सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-अर्थात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है। 



सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं। 



व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।


 



गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है।



 उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है। 



व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है।




सामाजिक शोध के चरण 



सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन एक व्यवस्थित पद्धति के अनुसार किया जाता है। 


अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है।



 शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत्य नही है। 


इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है। 



हम यहाँ पहले कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, तत्पश्चात् सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।


स्लूटर (1926 :5) ने सामाजिक शोध के पन्द्रह चरणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं-


शोध विषय का चुनाव।

शोध समस्या को समझने के लिए क्षेत्र सर्वेक्षण।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची का निर्माण।

समस्या को परिभाषित या निर्मित करना।

समस्या के तत्वों का विभेदीकरण और रूपरेखा निर्माण।

आँकड़ों या प्रमाणों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के आधार पर समस्या के तत्वों का वर्गीकरण।

समस्या के तत्वों के आधार पर आँकड़ों या प्रमाणों का निर्धारण।

वांछित आँकड़ों या प्रमाणों की उपलब्धता का अनुमान लगाना।

समस्या के समाधान की जाँच करना।

आँकड़ों तथा सूचनाओं का संकलन।

आँकड़ों को विश्लेषण के लिए व्यवस्थित एवं नियमित करना।

आँकड़ों एवं प्रमाणों का विश्लेषण एवं विवेचन।

प्रस्तुतीकरण के लिए आँकडों को व्यवस्थित करना।

उद्धरणों, सन्दर्भों एवं पाद् टिप्पणीयों का चयन एवं प्रयोग।

शोध प्रस्तुतीकरण के स्वरूप और शैली को विकसित करना।


चरण


शोध समस्या को परिभाषित करना।

 शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना। 

अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना। 

प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना। 

शोध विधियों और तकनीकों का चयन।

 शोध का मानकीकरण 

मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग 

↓ 

शोध सामग्री इकठ्ठा करना।

↓ 

सामग्री का विश्लेषण करना 

व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना 




राम आहूजा -ने मात्र छ: चरणों का उल्लेख किया है, जो कि निम्नवत् हैं-



1-अध्ययन समस्या का निर्धारण।

2-शोध प्रारुप तय करना।

3-निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)

4-आँकड़ा संकलन

5-आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण एवं सारणीयन)।

6-प्रतिवेदन तैयार करना।





शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।

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01प्रथम चरण- 

शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सर्वप्रथम आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है। 


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शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो।


 इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथमत: तो शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।


निश्चित रूप से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।

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02

द्वितीय चरण-

यह तय हो जाने के पश्चात् कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात्। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’ 


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03

तृतीय चरण- 

सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’

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04

चतुर्थ चरण- 

शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।


उपकल्पना



उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं? 




 



लुण्डबर्ग (1951:9) के अनुसार, ‘‘उपकल्पना एक सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना को भी , अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’


गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के अनुसार,


‘‘एक उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी रूप से अपनायी जाती है।’’


 

गुडे तथा हॉट (1952:56) के शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) एक मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’ 



सरल एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित एक काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है।




 विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के पश्चात् जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे।



 ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है। 



इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।



 वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए। 



उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।


उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट एवं सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक उपकल्पना और एक सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस रूप में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि-

 उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी एक के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 



उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है।


 उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है

 (यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने उल्लेख किया है- 



(i) सामान्य संस्कृति 

(ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त 

(iii) सादृश्य (Anology)

 (iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है। 



उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है।



 उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।


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05

पंचम चरण- 

समग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने  जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे।



 इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी। 



चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है। 



इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है। 



समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकायों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम रूप में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।

 



उल्लेखनीय है कि अक्सर निदर्शन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकायों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है।



 ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है।



 इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है।



 इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं, 


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निदर्शन (सैम्पल) ही है। 


अतः

‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’

 



निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- एक को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं। 



निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन किया जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके।


 कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इका का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन किया जाता है।




 ऐसा ही जनगणना कार्य में भी किया जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकायों का अध्ययन किया जाता है।


 इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।

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06

छठवाँ चरण- 

प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं। 


उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें। 



प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं। 



शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। 



शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है। 



कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है।



 स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है। 



इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं।

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07

सप्तम चरण-

प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। 


कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।


यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। 



सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये।



 उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है। 



उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है।


 


तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।

 



यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है। 


अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। 


प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो -मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण रूप से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।


यदि शोध कार्य में क क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि सभी अन्वेषक पूर्ण निष्ठा एवं मानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें।



 तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे  मोबाइल, टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की सहमति जरूरी है।


प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ एकत्रित सूचनाओं की जाँच एवं आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। को नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए।


 तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण एवं निर्वचन दूसरे के द्वारा हो चुका होता है।


 अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।


_______________________🎊


अष्ठम चरण :- 

आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है। 


कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था।



 आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं। 



सारिणीयों के निर्मित हो जाने के पश्चात् उनका तार्किक विश्लेषण किया जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है। 



सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित एवं तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।


अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न किया जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी आवश्यकता के अनुसार फोटोग्राफ, डाग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।


उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही उल्लेखनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए



 

समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है। 

शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं। 



परिणामों की व्याख्या करें। 

निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का उल्लेख करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो। 




 ‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की आवश्यकता होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं।


 प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान एवं समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुरूप शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है। 


उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’


अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं। 






Monday, September 23, 2024

मॉर्निंग फेस .... मुल्कराज आनन्द

मॉर्निंग फ़ेस 

मॉर्निंग फेस* (1971), जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला ।
मुल्कराज आनंद को भारत में गरीबों के यथार्थवादी और सहानुभूतिपूर्ण चित्रण के लिए जाना जाता है ।. उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था
प्रकाशन विवरण:

- लेखक: मुल्कराज आनंद
- प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स
- प्रकाशन वर्ष: 1968
- पृष्ठ संख्या: 272

मॉर्निंग फ़ेस मुल्कराज आनंद द्वारा लिखित एक शक्तिशाली और भावपूर्ण उपन्यास है, जो भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है। यह उपन्यास 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

कहानी:

उपन्यास की कहानी एक युवा लड़के के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और अपने लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है।


मॉर्निंग फ़ेस एक अद्वितीय उपन्यास है, जो भारतीय समाज की विभिन्न परतों को उजागर करता है। आनंद की लेखन शैली सरल और स्पष्ट है, लेकिन साथ ही वह गहरे अर्थ और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं।

उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी पात्रों की गहराई है। पात्र जीवन्त और वास्तविक हैं, और उनके संघर्ष और भावनाएं पाठक को आकर्षित करती हैं।

मॉर्निंग फ़ेस एक  उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य है, और इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए जो भारतीय साहित्य में रुचि रखता है।

मॉर्निंग फ़ेस उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो:

- भारतीय साहित्य में रुचि रखते हैं
- मानवीय स्थिति और समाजिक मुद्दों में रुचि रखते हैं
- एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी पढ़ना चाहते हैं
पात्र:

- श्रीराम: मुख्य पात्र, एक युवा लड़का जो अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है।
- श्रीराम के माता-पिता: गरीब किसान जो अपने बेटे के लिए बेहतर जीवन चाहते हैं।
- कमला: श्रीराम की प्रेमिका, जो उसके साथ अपने सपनों को पूरा करना चाहती है।
- रामदास: श्रीराम का मित्र, जो उसके संघर्षों में साथ देता है।

कहानी की रूपरेखा:

श्रीराम, एक युवा लड़का, अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है। वह कमला से प्रेम करता है, लेकिन उनके रिश्ते को समाज की मंजूरी नहीं मिलती। श्रीराम को अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

विषय:

मॉर्निंग फ़ेस में कई विषयों को उजागर किया गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

- पहचान की तलाश
- समाजिक अन्याय
- प्रेम और रिश्ते
- गरीबी और संघर्ष
- आत्म-खोज और आत्म-विकास

यह उपन्यास भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है, और यह एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी है जो पाठक को आकर्षित करती है।

मॉर्निंग फ़ेस 

मॉर्निंग फेस* (1971), जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिला ।
मुल्कराज आनंद को भारत में गरीबों के यथार्थवादी और सहानुभूतिपूर्ण चित्रण के लिए जाना जाता है ।. उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था
प्रकाशन विवरण:

- लेखक: मुल्कराज आनंद
- प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स
- प्रकाशन वर्ष: 1968
- पृष्ठ संख्या: 272

मॉर्निंग फ़ेस मुल्कराज आनंद द्वारा लिखित एक शक्तिशाली और भावपूर्ण उपन्यास है, जो भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है। यह उपन्यास 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

कहानी:

उपन्यास की कहानी एक युवा लड़के के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और अपने लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है।


मॉर्निंग फ़ेस एक अद्वितीय उपन्यास है, जो भारतीय समाज की विभिन्न परतों को उजागर करता है। आनंद की लेखन शैली सरल और स्पष्ट है, लेकिन साथ ही वह गहरे अर्थ और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं।

उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी पात्रों की गहराई है। पात्र जीवन्त और वास्तविक हैं, और उनके संघर्ष और भावनाएं पाठक को आकर्षित करती हैं।

मॉर्निंग फ़ेस एक  उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य है, और इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए जो भारतीय साहित्य में रुचि रखता है

मॉर्निंग फ़ेस उन लोगों के लिए उपयुक्त है जो:

- भारतीय साहित्य में रुचि रखते हैं
- मानवीय स्थिति और समाजिक मुद्दों में रुचि रखते हैं
- एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी पढ़ना चाहते हैं
पात्र:

- श्रीराम: मुख्य पात्र, एक युवा लड़का जो अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है।
- श्रीराम के माता-पिता: गरीब किसान जो अपने बेटे के लिए बेहतर जीवन चाहते हैं।
- कमला: श्रीराम की प्रेमिका, जो उसके साथ अपने सपनों को पूरा करना चाहती है।
- रामदास: श्रीराम का मित्र, जो उसके संघर्षों में साथ देता है।

कहानी की रूपरेखा:

श्रीराम, एक युवा लड़का, अपने परिवार और समाज की अपेक्षाओं के बीच संघर्ष करता है। वह अपनी पहचान और लक्ष्यों की तलाश में है, लेकिन उसे अपने आसपास की दुनिया की कठोरता और अन्याय का सामना करना पड़ता है। वह कमला से प्रेम करता है, लेकिन उनके रिश्ते को समाज की मंजूरी नहीं मिलती। श्रीराम को अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

विषय:

मॉर्निंग फ़ेस में कई विषयों को उजागर किया गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

- पहचान की तलाश
- समाजिक अन्याय
- प्रेम और रिश्ते
- गरीबी और संघर्ष
- आत्म-खोज और आत्म-विकास

यह उपन्यास भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करता है, और यह एक शक्तिशाली और भावपूर्ण कहानी है जो पाठक को आकर्षित करती है।


मुल्कराज आनंद की कुछ प्रमुख किताबें हैं:

- *अनटचेबल* (1935) - यह उनकी पहली किताब है, जिसमें भारत में जाति व्यवस्था की क्रूरता को दर्शाया गया है ¹ ² ³
- *कुली* (1936)
- *द विलेज* (1939)
- *अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स* (1939)
- *द सोर्ड एंड द सिकल* (1942)
- *द डेथ ऑफ ए हीरो* (1964)
- *द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस* (1953)
- *टू लीव्स एंड अ बड*

 
मुल्कराज आनंद का जीवन परिचय:

जन्म: 12 दिसंबर 1905, पेशावर, ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान)

मृत्यु: 28 सितंबर 2004, पुणे, भारत

पिता: लाला श्री राम आनंद
माता: रुक्मिणी देवी

शिक्षा:

- पेशावर में प्रारंभिक शिक्षा
- लाहौर में फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक
- लंदन में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर

साहित्यिक जीवन:

- 1930 के दशक में लेखन शुरू किया
- पहला उपन्यास "अनटचेबल" 1935 में प्रकाशित हुआ
- इसके बाद कई उपन्यास और कहानियाँ लिखीं
- भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया

पुरस्कार और सम्मान:

- 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
- 1990 में पद्म भूषण से सम्मानित
- 2000 में भारतीय साहित्य में उनके योगदान के लिए साहित्य अकादमी का फेलो चुना गया

मुल्कराज आनंद एक महान साहित्यकार थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके उपन्यास और कहानियाँ भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवीय स्थिति की गहराई को उजागर करते हैं।

मुल्कराज आनंद की कुछ प्रमुख किताबें हैं:

- *अनटचेबल* (1935) - यह उनकी पहली किताब है, जिसमें भारत में जाति व्यवस्था की क्रूरता को दर्शाया गया है ¹ ² ³
- *कुली* (1936)
- *द विलेज* (1939)
- *अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स* (1939)
- *द सोर्ड एंड द सिकल* (1942)
- *द डेथ ऑफ ए हीरो* (1964)
- *द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस* (1953)
- *टू लीव्स एंड अ बड*

 

गाँजा

एक अध्ययन... गाँजा

ग्राम करिया गोपालपुर
=========.================

गांजा पियें राजा
अंतराष्ट्रीय तस्कर का गाँव...आप भी एक कहावत जरूर सुनी होंगी...गांजा पिए राजा और बीड़ी पिए चोर.... तम्बाकू खाये चूतिया और थूके चारों ओर.......गंजेड़ियों के जयघोष और भी है।या जिसने न पी गांजे की कली.........
या फिर दम लगा के चिलम में दम का फर्क है मुरदों और जिन्दों में की ....
राजा पियें गांजा ।
इस पौधे के कई नाम हैं, जैसे- मैरीजुआना, केनेबीस और इन सबमें जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय है उसका नाम है ‘वीड’.हैं।देशी भाषा में कहा जाय तो गांजा।
आप भी जो होली पर जिस भांग को मिलाकर आप ठंडाई में मिलाकर पीते हैं, वह और गांजा दोनों एक ही मां के दो बेटे हैं. बस थोड़ा सा अंतर है इन दोनों में. भांग को जहां हम त्यौहार के दिन थोड़ी मस्ती के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहीं लोग गांजे को रोजाना नशे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
खैर



गाँव में अंधियारी के कुछ शिव भक्त बताते हैं कि गाँजे की दो किस्में होती थीं - नागिन और मर्चिइय्या । नागिन कुछ उत्कृष्ट कोटि की मानी जाती है । बीज छाँटने के बाद जल की कुछ बूँदें टपका कर एक विशिष्ट शैली में मला जाता । खैनी एक हथेली पर रख कर दूसरे हाथ के अँगूठे से मली जाती है । गाँजा एक हथेली पर रख कर दूसरी हथेली से मला जाता है । जमीन पर कागज बिछा कर रगड़ा हुआ गाँजा झड़ने दिया जाता है । चिलम के निचले हिस्से में जहाँ चिलम संकरी हो जाती हैं एक छोटी सी गिट्टी अटका दी जाती है । तैय्यार गाँजा चिलम में दबा कर भरा जाता है ।
 पटसन या नारियल की सुतली को 'कछुआ छाप' अगरबत्ती की आकृति में गोलिया कर उसे जलाया जाता है और चिलम के मुँह पर रख दिया जाता है । एक स्वच्छ , गीला , छोटा कपड़े का टुकड़ा जिसे साफ़ी कहा जाता है - चिलम और चिलमची के बीच बतौर फिल्टर रहता है ।जब इस बूटी को लेकर चेहरे की ब्यूटी बढ़ जाती आंखे लाल उन्मदि सी घर पहुँचता है तो कहता हैं की गांजा यह भूख़ बढ़ाता है ,सर्दी जुख़ाम तुरन्त दूर भगाता है , इत्यादि ।
 गाँव  में गाँजा और भाँग के सेवन के साथ कई नियमों का चलन है । निपटना , नहाना , रियाज और गीजा - पानी  करना इनमें प्रमुख हैं । इनाके पालन में व्यतिक्रम हुआ तब ही शिव के इन प्रसाद से नुक़सान होता है यह मान्यता है । मलाई , रबड़ी जैसे गरिष्ट - पौष्टिक तत्व गाँजा पीने गीजा कहते हैं ।  जैसे खिचड़ी के चार यार चोखा चटनी घी अचार। धारणा प्रचलित है कि गीजा तत्वों को ग्रहण कर लेने से गाँजा- भाँग के नुकसानदेह प्रभाव खत्म हो जाते हैं ।गांजे के नशे में आंखे लाल हो जाती हैं, पर इसका सेवन करने वालों के पास इसका भी इलाज होता है.।वह अपने पास एक खास किस्म का आई ड्रॉप रखते है। जिसके प्रयोग से पल भर में आंखें मोती जैसी चमकने लगती हैं।कहते हैं कि रतोनी दूर हो जाती।पता नहीं पर गाँजा अमूल्य हैं।इसकी चार महीने में खेती हो जाती हैं।गांजा (Cannabis या marijuana), एक मादक पदार्थ (ड्रग) है जो गांजे के पौधे से भिन्न-भिन्न विधियों से बनाया जाता है। इसका उपयोग मनोसक्रिय मादक (psychoactive drug) के रूप में किया जाता है। मादा भांग के पौधे के फूल, आसपास की पत्तियों एवं तनों को सुखाकर बनने वाला गांजा सबसे सामान्य (कॉमन) है।भारत में ही नही अमेरिका में आप के गांजे का बोलबाला है एक बानगी देखा(-1,)- वहां एमबीए और कंप्यूटर इंस्टीट्यूट्स की तरह गांजा करियर इंस्टीट्यूट की शुरूआत भी हो चुकी है. इसमें बताया जाता है कि गांजे का बिज़नेस कैसे करें, उसकी ब्रांडिंग कैसे हो, ग्राहक आपके पास बार-बार लौटे इसके लिए क्या करें, 2-कोलोराडो प्रांत में 20 अप्रैल को गांजा पीने के दिन के तौर पर मनाया जाता है. इस उत्सव का ख़ास आकर्षण अमरीकी गायक और संगीतकार स्नूप डॉग रहे. उन्होंने समा ही बांध दिया।(2 बीबीसी 21अप्रैल 2014) ।3-न्यूयॉर्क पिछले महीने अमरीका का 23वां राज्य बन गया है, जहां स्वास्थ्य क्षेत्र में गांजे के इस्तेमाल को वैध बना दिया गया है. 3(3बीबीसी5 अगस्त 2014)। प्रमुख जी कहते थे कि गांजा शराब के मुक़ाबले कम नुकसानदेह है।सोशल सिस्टम में गाजा को नशे में शराब से हीन माना जाता रहा। लेकिन गौर करनेवाली बात ये है कि अब गांजा नीची नज़र से नहीं देखा जा रहा, उसे शराब के बराबर का दर्जा मिल चुका है और कुछ ही दिनों में शायद उससे ऊपर चला जाए।अब आपको ये तो नहीं लग रहा न कि मैंने भी कश लगा लिया है और हांके जा रहा हूं. यकीन न हो बस।cannabiscareerinstitute.com पर क्लिक करके देख लें.।न्यूयॉर्के में तो बाकायदा एक गांजा वर्ल्ड कांग्रेस हो रहा है जिसका नारा है Cannabis Means Business यानि गांजे का मतलब व्यापार। जब इंटरनेट की शुरूआत हुई थी तो आपको याद होगा ऐसे कांफ्रेंस अक्सर ही होते थे और आज तक जारी हैं। गांजा का सेवन करने पर व्यक्ति की उत्तेजना बढ जाती है। मान्यता हैं कि गांजे मे मिलाई जाने वाली तम्बाकू मिरजी कर्करोग ( Cancer ) का प्रमुख कारण होती है।गजेडीयो की पहचान यह है की गाँजा व्यसनी लोगों के चेहरे पर काले दाग ( spots ) पड जाते है। गांजा के पौधे के औषध से मनोरुग्ण का ईलाज किया जाता है। गाँव के लोग आत्मविश्वास बढाने के लिए गांजा का सेवन करते है। प्रमुख जी ने बताया कि का सबसे बेहतरीन ( Best ) गांजा मलाना हिल्स हिमाचल में ऊगता है। भारतीय लोग गांजा को शिवशंकर  का प्रसाद मानते है और सेवन करते है।नारी पौधों के फूलदार और (अथवा) फलदार शाखाओं को क्रमश: सुखा और दबाकर चप्पड़ों के रूप में गाँजा तैयार किया जाता है। केवल कृषिजात पौधों से, जिनका रेज़िन पृथक्‌ न किया गया हो, गाँजा तैयार होता है। इसकी खेती आर्द्रएवं उष्ण प्रदेशों में भुरभुरी, दोमट (loamy) अथवा बलुई मिट्टी में बरसात में होती है। जून जुलाई में बोआई और दिसंबर जनवरी में, जब नीचे की पत्तियाँ गिर जाती हैं और पुष्पित शाखाग्र पीले पड़ने लगते हैं, कटाई होती है। कारखानों में इनकी पुष्पित शाखाओं को बारंबार उलट-पलट कर सुखाया और दबाया जाता है। फिर गाँजे को गोलाकार बनाकर दबाव के अंदर कुछ समय तक रखने पर इसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो इसे उत्कृष्ट बना देते हैं। अच्छी किस्म के गाँजे में से १५ से २५ प्रतिशत तक रेज़िन और अधिक से अधिक १५ प्रतिशत राख निकलती है।यहाँ के झोला छाप  गजेडी डॉ का कहना है कि इन मादक द्रव्यों का उपयोग चिलम चिकित्सा में भी उनके मनोल्लास-कारक एवं अवसादक गुणों के कारण कितनी पीढ़ी  से होता आया है। ये द्रव्य दीपन, पाचन, ग्राही, निद्राकर, कामोत्तेजक, वेदनानाशक और आक्षेपहर होते हैं। अत: पाचनविकृति, अतिसार, प्रवाहिका, काली खाँसी, अनिद्रा और आक्षेप में इनका उपयोग होता है। 
      हमारे यहाँ धुंआरहित तम्बाकू का उपभोग इस तरह होता हैं ।जैसे-* सुरती या तम्बाकू और बुझा हुआ चूना (खैनी),तम्बाकू वाला पान,पान मसाला,तम्बाकू, सुपारी और बुझे हुए चूने का मिश्रण,मैनपुरी तम्बाकू व मावा।
   गांजा, जिस तरह से युवाओं में इसके लिए दीवानगी कुछ एक सालों में बढ़ी है, वह खतरनाक है. गजब की बात तो यह है कि इसके नशे के लिए उनके पास अजब-गजब बहानों का अंबार है।आप कुछ भी कर लीजिए, पर इसकी गिरफ्त में आये लोग इसको आसानी से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। इनके तम्बाकू के सेवन का सबसे आम तरीका धूम्रपान है और तम्बाकू धूम्रपान किया जाने वाला सबसे आम पदार्थ है। कृषि उत्पाद को अक्सर दूसरे योगज के साथ मिलाया जाता है और फिर सुलगाया जाता है। परिणामस्वरूप भाप को सांस के जरिये अंदर खींचा जाता है फिर सक्रिय पदार्थ को फेफड़ों के माध्यम से कोशिकाओं से अवशोषित कर लिया जाता है। सक्रिय पदार्थ तंत्रिका अंत में रासायनिक प्रतिक्रियाओं को शुरू करती है जिससे हृदय गति, स्मृति और सतर्कता और प्रतिक्रिया की अवधि बढ़ जाती है।[4]
 डोपामाइन (Dopamine) और बाद में एंडोर्फिन(endorphin) का रिसाव होता है जो अक्सर आनंद से जुड़े हुए हैं।तम्बाकू का उपयोग होता है। एक दर्द निवारक के तौर पर यह कान के दर्द और दांत के दर्द और कभी-कभी एक प्रलेप के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। ये लोग  हैं कि धूम्रपान करने से जुकाम ठीक हो जाता है, खासकर यदि तम्बाकू में तेजपात के छोटे पत्ते तेजपात की डोरी या भारतीय गुलमेंहदी या खांसी मूल Leptotaenia multifida मिला दिये जायें, तब जो इसके अतिरिक्त अस्थमा और तपेदिक के लिए विशेष रूप से अच्छा माना गया हैं[5] देखा गया है कि पुरुषों में महिलाओं की तुलना में धूम्रपान की लत पांच गुना अधिक होती हैं,[6] हालांकि छोटे आयु वर्ग में इस लैंगिक अंतर में गिरावट आती है।[7][8] विकसित देशों में पुरुषों में धूम्रपान अपने चरम पर पहुंच चुका है और उसमें गिरावट आनी शुरू हो गयी है हालांकि महिलाओं के मामले में वृद्धि बरकरार है।[9] गांजे का उपभोग-कभी एक समय था जब गांजे का सेवन चरसी और नशाखोर लोग किया करते थे. पर आज कल तो सब कुछ बदल गया है. लोग इतने ‘डाउन टू अर्थ’ हो गये कि गरीब से लेकर अमीर, हर कोई इसका का सेवन करता मिल जाता है।भारत में किस तरह से गांजे का व्यापार बढ़ रहा है।युवाओं को यह इसलिए पसंद आता है, क्योंकि महज़ 50 रूपए में इसकी पुड़िया मिल जाती है।यही वजह से है युवाओं को लगती है लत… गांजा शराब की तरह महकता भी नहीं व आपकी चाल में भी इससे कोई ख़ास बदलाव नहीं देखा जाता. जबकि शराब के नशे में इंसान को आसानी से पहचान लिया जाता है।जो लोग गांजे के शौक़ीन हैं वह अपने साथ हमेशा एक बहाना तैयार रखते हैं ताकि अगर कोई उनके गांजा पीने पर सवाल उठाए तो वह झट से अपने बहानों की पोटरी से कुछ न कुछ निकालकर परोस देंगे. बहाने भी ऐसे-ऐसे कि आप सुनकर कहेंगे सच में ऐसा होता है? नहीं मानते तो पढ़िए एक बानगी:-महादेव का प्रसाद होता है गांजा!नशाखोर इसे भैरो बाबा का प्रसाद बताते हैं.। मैने जितने भी गजेडी से मिला वह यही कहता कि गांजा बिल्कुल हानिकारक नहीं होता।उसका तर्क हैं कि यह पूरी तरह से प्राकृतिक है. इससे कुछ नहीं होता।यह परेशानी दूर करता है, शांति में सहायक नशेबाज कहते हैं गांजे का नशा हमें शांति प्रदान करता है. इसको पीने के बाद हमारे दिमाग की कुछ प्रक्रियाएं बदल जाती हैं और हमें शांति की अनुभूति होती है. यह हमें हंसना सिखाता है.।गाँव के कुछ शराबी व गजेडी जानकार दोनों में भेद बताते हैं कि  शराब में लोग अपने जज़्बात और चाल नहीं संभाल पाते, वैसे ही गांजा इंसान की सोच को धीमा कर देता है, जिससे हर चीज़ बहुत ही अलग सी लगती है.।गांजा पीने के बाद वह काम करने में ज्यादा ध्यान लगा पाते हैं, जिससे रचनात्मकता कार्य को बल मिलता है. अब यह कितना सही है। अभी विज्ञान के अनुसंधान का विषय है लेकिन हमारे गांव के तत्वज्ञानी कर चुके हैं।
मेरी बात...
निष्कर्ष.....अध्ययन से ज्ञात है कि यूनान, चीन, मिस्र आदि प्राचीन सभ्यताओं में तथा यहूदी, ताओ, बौद्ध, सिख व इस्लाम जैसे धर्मों में गांजा या भांग नामक वनस्पति को बहुत महत्व दिया गया है और इसका प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता रहा है|
तथापि गांजा के सबसे पुरातन उल्लेख भारत में मिलते हैं| भारत की प्राचीन आयुर्वेद पद्धति में इसे अमृततुल्य माना गया है| 
अथर्व वेद में इसे पृथ्वी की ५ सबसे पवित्र वनस्पतियों में से एक बताया गया है तथा इसे १५० से अधिक नाम दिए गए हैं जैसे इन्द्रासन, विजया, अजय इत्यादि| सुश्रुत संहिता जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है, जिनमें इसके औषधीय गुणों का विश्लेषण किया गया है| कई आयुर्वेदिक औषधियों में गांजा या भांग का मौलिक रसायन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है|(10)
क्या कारण थे की ऐसी चमत्कारिक व उपयोगी वनस्पति पर, जिसे हमारे पूर्वज अपने सबसे प्रिय भगवान को चढ़ावे के रूप में अर्पण किया करते थे, उसी की मूल धरती, भारत में प्रतिबन्ध लगा दिए गए? कब और किसने लगाये ये प्रतिबन्ध? क्यों ७० वर्षों तक इस प्रतिबन्ध का विरोध करने के बाद भी भारत में गांजा को अवैध घोषित कर दिया गया? आज जब विश्व के असंख्य देश गांजा की चिकित्सा-प्रधान, औद्योगिक तथा पर्यावरण-सम्बन्धी उपयोगिता के कारणवश इसे वैध घोषित कर चुके हैं, क्यों भारत में आज भी इसका निषेध क्यों?
अब नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो वह नशा ही रहता है. फिर चाहे वह शराब, गांजा, सिगरेट, ड्रग्स कुछ भी हो. अक्सर लोग जिस नशे को करते हैं उसे अच्छा समझ कर उसके बचाव में खड़े हो जाते हैं पर नशा हर प्रकार से आपके और आपके परिवार के लिए बेकार है।गांजे की बढ़ती पहुंच एक बहुत ही चिंताजनक बात है। खासतौर पर जिस तरह से युवाओं में लोकप्रिय  गांजे ने तेजी से अपने पांव देश ,गांव में फैलाए हैं।
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सन्दर्भ
1-बीबीसी 29 मई 2015
2-बीबीसी 21 अप्रैल 2014
3-बीबीसी 5 अगस्त 2014
4-Tobacco: A Cultural History of How an Exotic Plant Seduced Civilization, Diane, पपृ॰ 3–7, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-80213-960-4,) अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009)।
5-↑ Balls, Edward K. (1 अक्टूबर 1962), Early Uses of California Plants, University of California Press, पपृ॰ 81–85, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0520000728, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009)
6-Guindon, G. Emmanuel; Boisclair, David (2003), Past, current and future trends in tobacco use (PDF), Washington DC: The International Bank for Reconstruction and Development / The World Bank, पपृ॰ 13–16, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2009।
[7] The World Health Organization, and the Institute for Global Tobacco Control, Johns Hopkins School of Public Health (2001). "Women and the Tobacco Epidemic: Challenges for the 21st Century" (PDF). World Health Organization. पपृ॰ 5–6. मूल (PDF) से 28 नवंबर 2003 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जनवरी 2009.
[8] "Surgeon General's Report—Women and Smoking". Centers for Disease Control and Prevention. 2001. पृ॰ 47. अभिगमन तिथि 3 जनवरी 2009.
[9] Peto, Richard; Lopez, Alan D; Boreham, Jillian; Thun, Michael (2006), Mortality from Smoking in Developed Countries 1950-2000: indirect estimates from national vital statistics (PDF), Oxford University Press, पृ॰ 9, अभिगमन तिथि 22 मार्च 2000

10-https://youtu.be/mLRPqHiuRTk






Friday, September 20, 2024

Aaj ki raat - unplugged (Noor Jahan)

बुद्धं शरणं गच्छामि

सत्यमित्रसत्यमित्र

बुद्धं शरणं गच्छामि:- 

https://youtu.be/a70LOiNf2ns

बुद्ध का अर्थ : जो सम्बुद्ध हो, जिसे सम्बोधि प्राप्त हो. हमारे समय में सम्यक दृष्टि का अभाव होता जा रहा है . संतुलन की कमी. यह कमी सब जगह परिलक्षित होती है : चित्त में , विचार में, जीवन में, देशीयता में , पर्यावरण आदि में.  इसी लिए बुद्ध की दृष्टि चाहिए , वैसा ही मन. सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती हिंसा के बीच बुद्ध की आवश्यकता पहले से अधिक है . उन देशों के लिए तो और भी ज़रूरी , जहां बुद्ध किसी न किसी रूप में पहले से विद्यमान हैं. जैसे एशियाई देश : भारत , चीन, कम्बोडिया ,जापान , लाओस, नेपाल , भूटान आदि.

बुद्ध एक ऐसा विचार-स्तम्भ हैं , जो एशिया को ''एशिया''  बनाते हैं . जिनकी वजह से एशिया की गुरुता बढ़ती है. 

अकेले बुद्ध एशिया को जोड़ सकते हैं या विश्व को गूंथ सकते हैं अथवा गांधी. 

 बुद्ध को केवल धार्मिक व्यक्ति के रूप में देखना एकांगी दृष्टि है . वे सांस्कृतिक आभा हैं , जिससे यह धरती आलोकित होती है.

बुद्ध अतिवादिता से परे थे. हमारा सामान्य भी ऐसा ही है. वहां अतिवादिता की जगह नहीं   . इसीलिए मध्य मार्ग एक आवश्यकता है. 

कहते हैं कि वीणा के तार इतने कसे नहीं जाने चाहिए कि  टूट जाएँ या इतने ढीले न हों कि ध्वनि ही न आये. वास्तविक जीवन में भी बहुत कड़ाई हमें तोड़ देती है तथा बहुत ढिलाई कर्मच्युत कर देती है.


बुद्ध ने कहा था-- संयोगोत्पन्न पदार्थ का क्षय अवश्यम्भावी है.

आकाश असीम है , ज्ञान अनंत ; संसार अकिंचन , संज्ञा और असंज्ञा - दोनों ही अलीक हैं : इस प्रकार सोचते हुए ज्ञाता और ज्ञेय - दोनों का ध्वंस होने से बुद्ध ने परिनिर्वाण -लाभ किया. 
एक बार सिद्धार्थ ने छंदक से कहा था --  मैंने  रूप , रस, गंध, स्पर्श और शब्द इत्यादि अनेक प्रकार की काम्य वस्तु का इस लोक तथा देवलोक में अनंत कल्प तक भोग किया है किन्तु मुझे किसी से भि तृप्ति न मिली. 


बुद्ध का जन्म : गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले नेपाल के लुम्बिनी वन में हुआ। मान्यता हैं कि उनकी माता कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी जब अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो उन्होंने रास्ते में लुम्बिनी वन में बुद्ध को जन्म दिया। कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास उस काल में लुम्बिनी वन हुआ करता था।

उनका जन्म नाम सिद्धार्थ रखा गया। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के राजा थे और उनका सम्मान नेपाल ही नहीं समूचे भारत में था। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया क्योंकि सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माँ का देहांत हो गया था। 


बुद्ध का विवाह : शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का सोलह वर्ष की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ।


यशोधरा से उनको एक पुत्र मिला जिसका नाम राहुल रखा गया। बाद में यशोधरा और राहुल दोनों बुद्ध के भिक्षु हो गए थे।


वैराग्य भाव : बुद्ध के जन्म के बाद एक भविष्यवक्ता ने राजा शुद्धोदन से कहा था कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा, लेकिन यदि वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया तो इसे बुद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता और इसकी ख्‍याति समूचे संसार में अनंतकाल तक कायम रहेगी।

राजा शुद्धोदन सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनते देखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने सिद्धार्थ के आस-पास भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया ताकि किसी भी प्रकार से वैराग्य उत्पन्न न हो। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गाना और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उनकी सेवा में रख दिए गए, लेकिन...एक दिन वसंत ऋ‍तु में सिद्धार्थ बगीचे की सैर करने निकले। रास्ते में सांसारिक दुःख देखकर विचलन हुआ और सब कुछ बदल गया।

निर्वाण : सुजाता नाम की एक महिला ने वटवृक्ष से मन्नत माँगी थी कि मुझको यदि पुत्र हुआ तो खीर का भोग लगाऊँगी। उसकी मन्नत पूरी हो गई तब वह सोने की थाल में गाय के दूध की खीर लेकर वटवृक्ष के पास पहुँची और देखा की सिद्धार्थ उस वट के नीचे बैठे तपस्या कर रहे हैं।

सुजाता ने इसे अपना भाग्य समझा और सोचा कि वटदेवता साक्षात हैं तो सुजाता ने बड़े ही आदर-सत्कार के साथ सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा 'जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है यदि तुम भी किसी मनोकामना से यहाँ बैठे हो तो तुम्हारी मनोकामना भी पूर्ण होगी।'

बोधीवृक्ष : उसी रात को ध्यान लगाते समय सिद्धार्थ को सच्चा बोध हुआ। वहीं उन्हें बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। भारत के बिहार में बोधगया में आज भी वह वटवृक्ष विद्यमान है जिसे अब बोधीवृक्ष कहा जाता है।


धम्मं शरणं गच्छामि:-

धर्मचक्र प्रवर्तन : बोधी प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाने लगे। ज्ञान उपलब्ध होने के बाद वे सारनाथ पहुँचे। वहीं पर उन्होंने लोगों को मध्यम मार्ग अपनाने के लिए कहा।

दुःख के कारण बताए और दुःख से छुटकारा पाने के लिए आष्टांगिक मार्ग बताया। तरह-तरह के देवता, यज्ञ, पशुबलि और व्यर्थ के पूजा-पाठ की निंदा की। अहिंसा पर जोर दिया।

80 वर्ष की उम्र तक गौतम बुद्ध ने जीवन और धर्म के प्रत्येक पहलू पर प्रवचन दिए और लोगों को दीक्षा देकर ‍बुद्ध शिक्षा के लिए प्रचार पर भेजा। सुद्धोधन और राहुल ने भी उनसे दीक्षा ली।

बुद्ध दर्शन के मुख्‍य तत्व : चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएँ, अनात्मवाद और निर्वाण। बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं।

बुद्ध के गुरु : गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त आदि।


बुद्ध के प्रमुख दस शिष्य : आनंद, अनिरुद्ध (अनुरुद्धा), महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, और उपाली (नाई) आदि

धर्म के प्रमुख प्रचारक : अँगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो आदि।

प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु :
भरतीय : विमल मित्र, बोधिसत्व, वैंदा (स्त्री), उपगुप्त (अशोक के गुरु), वज्रबोधि, अश्वघोष, नागार्जुन, चंद्रकीर्ति, मैत्रेयनाथ, आर्य असंग, वसुबंधु, स्थिरमति, दिग्नाग, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित, कमलशील, सौत्रांत्रिक, आम्रपाली, संघमित्रा आदि।

विदेशी : चीनी भिक्षु व्हेन सांग (ह्वेन त्सांग), फा श्येन, ई जिंग, कोरियायी भिक्षु हे चो आदि।

महापरिनिर्वाण : वैशाखी पूर्णिमा के दिन (जन्म और बोधी प्राप्ति वाले दिन ही) ईसा से 483 वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। अर्थात देह छोड़ दी। देह छोड़ने के पूर्व उनके अंतिम वचन थे 'अप्प दिपो भव:...सम्मासती। अपने दीये खुद बनो...स्मरण करो कि तुम भी एक बुद्ध हो।



बुद्ध ने जीवन के प्रत्येक विषय और धर्म के प्रत्येक रहस्य पर जो ‍कुछ भी कहा वह त्रिपिटक में संकलित है। त्रिपिटक अर्थात तीन पिटक- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के एक अंश धम्मपद को पढ़ने का ज्यादा प्रचलन है। इसके अलावा बौद्ध जातक कथाएँ विश्व प्रसिद्ध हैं।

संघं शरणं गच्छामि :-
बुद्ध के धर्म प्रचार से उनके भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तो भिक्षुओं के आग्रह पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बौद्ध संघ में बुद्ध ने स्त्रियों को भी लेने की अनुमति दे दी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में संघ के दो हिस्से हो गए। हीनयान और महायान।

सम्राट अशोक ने 249 ई.पू. में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन कराया था। उसके बाद भी भरपूर प्रयास किए गए सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखे जाने के किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव आता रहा जो आज तक जारी है.....

सत्यमित्र





एक कहानी

एक औरत को आखिर
क्या चाहिए होता है?

एक बार जरुर पढ़े ये छोटी सी कहानी: 

राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए।
हथकड़ियों में जीते हुए पड़ोसी राजा के सम्मुख पेश किए गए। पड़ोसी देश का राजा अपनी जीत से प्रसन्न था और उसने हर्षवर्धन के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा...

यदि तुम एक प्रश्न का जवाब हमें लाकर दे दोगे तो हम तुम्हारा राज्य लौटा देंगे, अन्यथा उम्र कैद के लिए तैयार रहें।

प्रश्न है.. एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ?

इसके लिए तुम्हारे पास एक महीने का समय है हर्षवर्धन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया..
वे जगह जगह जाकर विदुषियों, विद्वानों और तमाम घरेलू स्त्रियों से लेकर नृत्यांगनाओं, वेश्याओं, दासियों और रानियों, साध्वी सब से मिले और जानना चाहा कि एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ? किसी ने सोना, किसी ने चाँदी, किसी ने हीरे जवाहरात, किसी ने प्रेम-प्यार, किसी ने बेटा-पति-पिता और परिवार तो किसी ने राजपाट और संन्यास की बातें कीं, मगर हर्षवर्धन को सन्तोष न हुआ।

महीना बीतने को आया और हर्षवर्धन को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला..

किसी ने सुझाया कि दूर देश में एक जादूगरनी रहती है, उसके पास हर चीज का जवाब होता है शायद उसके पास इस प्रश्न का भी जवाब हो..

हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धराज के साथ जादूगरनी के पास गए और अपना प्रश्न दोहराया।

जादूगरनी ने हर्षवर्धन के मित्र की ओर देखते हुए कहा.. मैं आपको सही उत्तर बताऊंगी परंतु इसके एवज में आपके मित्र को मुझसे शादी करनी होगी ।

जादूगरनी बुढ़िया तो थी ही, बेहद बदसूरत थी, उसके बदबूदार पोपले मुंह से एक सड़ा दाँत झलका जब उसने अपनी कुटिल मुस्कुराहट हर्षवर्धन की ओर फेंकी ।

हर्षवर्धन ने अपने मित्र को परेशानी में नहीं डालने की खातिर मना कर दिया, सिद्धराज ने एक बात नहीं सुनी और अपने मित्र के जीवन की खातिर जादूगरनी से विवाह को तैयार हो गया

तब जादूगरनी ने उत्तर बताया..

"स्त्रियाँ, स्वयं निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं | "


यह उत्तर हर्षवर्धन को कुछ जमा, पड़ोसी राज्य के राजा ने भी इसे स्वीकार कर लिया और उसने हर्षवर्धन को उसका राज्य लौटा दिया

इधर जादूगरनी से सिद्धराज का विवाह हो गया, जादूगरनी ने मधुरात्रि को अपने पति से कहा..

चूंकि तुम्हारा हृदय पवित्र है और अपने मित्र के लिए तुमने कुरबानी दी है अतः मैं चौबीस घंटों में बारह घंटे तो रूपसी के रूप में रहूंगी और बाकी के बारह घंटे अपने सही रूप में, बताओ तुम्हें क्या पसंद है ?

सिद्धराज ने कहा.. प्रिये, यह निर्णय तुम्हें ही करना है, मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया है, और तुम्हारा हर रूप मुझे पसंद है ।

जादूगरनी यह सुनते ही रूपसी बन गई, उसने कहा.. चूंकि तुमने निर्णय मुझ पर छोड़ दिया है तो मैं अब हमेशा इसी रूप में रहूंगी, दरअसल मेरा असली रूप ही यही है।

बदसूरत बुढ़िया का रूप तो मैंने अपने आसपास से दुनिया के कुटिल लोगों को दूर करने के लिए धरा हुआ था ।

अर्थात, सामाजिक व्यवस्था ने औरत को परतंत्र बना दिया है, पर मानसिक रूप से कोई भी महिला परतंत्र नहीं है।

इसीलिए जो लोग पत्नी को घर की मालकिन बना देते हैं, वे अक्सर सुखी देखे जाते हैं। आप उसे मालकिन भले ही न बनाएं, पर उसकी ज़िन्दगी के एक हिस्से को मुक्त कर दें। उसे उस हिस्से से जुड़े निर्णय स्वयं लेने दें।

Monday, September 2, 2024

उत्तराखंड के लोक संस्कृति एवं पारिस्थितिकी के विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण एवं संरचनाएं

...**उत्तराखंड के लोक संस्कृति एवं पारिस्थितिकी के विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण एवं संरचनाएं**

**सारांश**  
उत्तराखंड, अपनी समृद्ध लोक संस्कृति और विविध पारिस्थितिकीय धरोहर के लिए प्रसिद्ध है। इस शोध पत्र का उद्देश्य उत्तराखंड की लोक संस्कृति के विकास एवं पारिस्थितिकी के संरक्षण में योगदान देने वाले सैद्धांतिक दृष्टिकोण और संरचनाओं का विश्लेषण करना है। इसमें विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय तत्वों का अध्ययन किया गया है जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर और पारिस्थितिकीय संतुलन को प्रभावित करते हैं।

**परिचय**  
उत्तराखंड, जो हिमालय की तलहटी में स्थित है, एक विशिष्ट सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय पहचान रखता है। यहाँ की लोक संस्कृति में संगीत, नृत्य, साहित्य, कला, और परंपराएँ शामिल हैं, जो स्थानीय समाज के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। साथ ही, इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी भी अनूठी है, जो यहाँ की संस्कृति पर गहरा प्रभाव डालती है। इस शोध पत्र में हम उत्तराखंड के सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास के सैद्धांतिक ढाँचों की समीक्षा करेंगे।

**सैद्धांतिक दृष्टिकोण**

1. **सांस्कृतिक विकास का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य**  
   उत्तराखंड की लोक संस्कृति का विकास विभिन्न ऐतिहासिक, भौगोलिक और सामाजिक तत्वों के प्रभाव में हुआ है। संस्कृति, किसी भी समाज की पहचान और उसकी जीवनशैली का प्रतीक होती है। उत्तराखंड की संस्कृति में हिमालयी जीवनशैली, यहाँ के धार्मिक विश्वास, और पारंपरिक ज्ञान का बड़ा योगदान है। इसमें पर्वतीय कृषि, पारंपरिक संगीत और नृत्य, एवं धार्मिक उत्सवों का विशेष महत्व है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, संस्कृति के विकास को सामूहिक स्मृति, भाषा, और लोकाचार के साथ जोड़ा जाता है।

2. **पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण**  
   पारिस्थितिकी और संस्कृति के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। उत्तराखंड की पारिस्थितिकी, जो कि इसके जैव विविधता, जल संसाधनों और वनस्पतियों से समृद्ध है, यहाँ की संस्कृति को गहराई से प्रभावित करती है। हिमालय की पारिस्थितिकी पर आधारित ग्रामीण जीवन, यहाँ की लोक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सस्टेनेबिलिटी थ्योरी के तहत, किसी क्षेत्र की पारिस्थितिकी का संरक्षण उसकी सांस्कृतिक धरोहर को भी संरक्षित करता है। उत्तराखंड में पारंपरिक कृषि प्रणाली, जल संरक्षण के उपाय, और जैव विविधता का संरक्षण, इन सैद्धांतिक दृष्टिकोणों से जुड़े हुए हैं।

**संरचनात्मक दृष्टिकोण**

1. **संरचनात्मकता और लोक संस्कृति**  
   संरचनात्मक दृष्टिकोण के तहत, उत्तराखंड की लोक संस्कृति को संरचनाओं में बांटा जा सकता है जो कि सामाजिक संगठन, रीति-रिवाज, और परंपराओं से जुड़ी होती हैं। इन संरचनाओं में परिवार, जाति, और सामाजिक प्रतिष्ठा के मानदंड शामिल हैं। यहाँ की सांस्कृतिक संरचनाएं समाज के अंदर व्याप्त सामाजिक संबंधों को दर्शाती हैं। संरचनात्मक समाजशास्त्र के अनुसार, समाज की संरचनाएं उसके सांस्कृतिक उत्पादों को आकार देती हैं और उन्हें संरक्षित करती हैं।

2. **पारिस्थितिक संरचनाएं**  
   पारिस्थितिक संरचनाओं में यहाँ के वन, जल स्रोत, कृषि प्रणाली, और पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण शामिल है। उत्तराखंड की पारिस्थितिक संरचनाओं का अध्ययन करना इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने के लिए आवश्यक है। जैव विविधता की संरचनात्मक सुरक्षा यहाँ की पारंपरिक कृषि प्रणाली और धार्मिक विश्वासों में देखी जा सकती है। संरचनात्मक पारिस्थितिकी के अंतर्गत, प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग और उनका संरक्षण, सामाजिक स्थिरता और सांस्कृतिक स्थायित्व के लिए अनिवार्य है।

**निष्कर्ष**  
उत्तराखंड की लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के विकास में सैद्धांतिक दृष्टिकोण और संरचनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन दोनों तत्वों के मध्य गहरा संबंध है, जो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखते हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और पारिस्थितिकी का संतुलित विकास तभी संभव है जब हम इन सैद्धांतिक और संरचनात्मक दृष्टिकोणों को समझें और उनका पालन करें। 

**संदर्भ**  
1. सिंह, आर. (2023). "उत्तराखंड की लोक संस्कृति और उसका विकास". सांस्कृतिक अध्ययन जर्नल, 45(3), 112-130.
2. जोशी, एम. (2022). "पारिस्थितिकी और संस्कृति के मध्य संबंध". हिमालयी अनुसंधान पत्रिका, 67(2), 89-105.
3. देव, के. (2021). "उत्तराखंड की जैव विविधता और उसका संरक्षण". पर्यावरण विज्ञान समीक्षा, 38(4), 56-72.

**(इस शोध पत्र का उद्देश्य अध्ययन के लिए है और संदर्भों में दिए गए नाम काल्पनिक हैं।)**

लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण और ढांचे

 लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण और ढांचे

 प्रस्तावना
लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) का विकास एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय पहलुओं से प्रभावित होती है। लोक संस्कृति मानव सभ्यता के विविध अनुभवों, विश्वासों, परंपराओं, और प्रथाओं का समुच्चय है। यह संस्कृति स्थान, समय और समाज के हिसाब से बदलती रहती है। दूसरी ओर, पारिस्थितिकी एक वैज्ञानिक अनुशासन है, जो जीवों और उनके परिवेश के बीच परस्पर संबंधों का अध्ययन करता है। इस शोध पत्र में हम लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास के विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों और ढांचों का विश्लेषण करेंगे।

#### लोक संस्कृति का सैद्धांतिक दृष्टिकोण

1. **संरचनात्मक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, लोक संस्कृति का विकास सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक प्रथाओं के माध्यम से होता है। इसमें सामूहिक विश्वास, धार्मिक अनुष्ठान, और स्थानीय परंपराओं का विशेष महत्व होता है। संरचनात्मक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण के अनुसार, सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक प्रथाओं का विकास समाज की जरूरतों और चुनौतियों के जवाब में होता है।

2. **सांस्कृतिक पारिस्थितिकी दृष्टिकोण**: यह दृष्टिकोण इस बात पर जोर देता है कि संस्कृति और पर्यावरण के बीच एक गहरा संबंध होता है। इसके अनुसार, किसी समाज की संस्कृति उस समाज के पर्यावरणीय संदर्भ और उपलब्ध संसाधनों के साथ तालमेल बिठाने के परिणामस्वरूप विकसित होती है। उदाहरण के लिए, कृषि आधारित समाजों में खेती से संबंधित अनुष्ठानों और पर्वों का विकास हुआ है।

3. **प्रतीकात्मक दृष्टिकोण**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, लोक संस्कृति प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से अपनी पहचान और अस्तित्व को बनाए रखती है। प्रतीकात्मक दृष्टिकोण का तात्पर्य यह है कि समाज के लोग अपनी संस्कृति को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करते हैं, जैसे कि कला, संगीत, और भाषा के माध्यम से। यह दृष्टिकोण समाज के सदस्यों के बीच सांस्कृतिक एकता और पहचान को मजबूत करता है।

#### पारिस्थितिकीय विकास का सैद्धांतिक दृष्टिकोण

1. **प्राकृतिक निर्धारणवाद**: इस दृष्टिकोण के अनुसार, किसी क्षेत्र का पारिस्थितिकीय विकास पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों और भूगोल पर निर्भर करता है। इसके तहत यह माना जाता है कि प्रकृति ही समाज की विकास दिशा और रूपरेखा तय करती है। जैसे, जलवायु, मिट्टी, और वनस्पति, आदि।

2. **सामाजिक पारिस्थितिकी**: यह दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि पारिस्थितिकी का विकास केवल प्राकृतिक संसाधनों पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक संगठनों और मानव गतिविधियों पर भी निर्भर करता है। सामाजिक पारिस्थितिकी के अनुसार, मनुष्य और समाज अपने परिवेश को बदल सकते हैं और उसे अपने अनुकूल बना सकते हैं। इसके अंतर्गत सामुदायिक भागीदारी, संसाधनों का समुचित उपयोग, और पर्यावरण संरक्षण महत्वपूर्ण हैं।

3. **स्थायित्व का सिद्धांत**: पारिस्थितिकीय विकास के संदर्भ में, स्थायित्व का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि विकास प्रक्रियाओं में पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखना और संतुलन बनाना आवश्यक है। यह सिद्धांत भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों का संरक्षण और टिकाऊ विकास की ओर ध्यान केंद्रित करता है।

#### लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के अंतर्संबंध

लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के बीच एक गहरा अंतर्संबंध है। लोक संस्कृति अक्सर स्थानीय पारिस्थितिकी और पर्यावरण से जुड़ी होती है, जैसे कि पर्व, अनुष्ठान, और लोकगीत। इसके अलावा, पारिस्थितिकी में परिवर्तन (जैसे जलवायु परिवर्तन) लोक सांस्कृतिक प्रथाओं पर सीधा प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण स्वरूप, पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि के लिए जलवायु और भूमि की उपलब्धता का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जो लोक संस्कृति के विकास में निर्णायक भूमिका निभाता है।

#### निष्कर्ष

लोक सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय विकास एक परस्पर जुड़ी हुई प्रक्रिया है, जो विभिन्न सैद्धांतिक दृष्टिकोणों और ढांचों के माध्यम से समझी जा सकती है। यह शोध पत्र उन विभिन्न दृष्टिकोणों और सिद्धांतों का विश्लेषण करता है, जो लोक संस्कृति और पारिस्थितिकी के विकास को परिभाषित करते हैं। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक, और पारिस्थितिकीय कारकों के बीच एक गहरा संबंध है, जो मानव समाज के विकास और अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

#### सन्दर्भ
1. गेड्स, पैट्रिक. *इकोलॉजी एंड लोक कल्चर*. (1915).
2. गिडेंस, एंथोनी. *सोशियोलॉजी*. (2009).
3. सच्चर, पॉल. *कल्चरल इकोलॉजी एंड लोक ट्रेडिशनस*. (1980).

Saturday, August 31, 2024

चित्रलेखा

'चित्रलेखा : उपन्यास 
लेखक : भगवती चरण वर्मा 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 
पृष्ठ : 200 
मूल्य : 250 रु.
समीक्षा - डॉ सत्यमित्र

 चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहा है? इस उपन्यास का अंत इस निष्कर्ष से होता है कि संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। सम्मोहक और तर्कपूर्ण भाषा ने इस उपन्यास को मोहक और पठनीय बना दिया है।' 

भगवतीचरण वर्मा का यह उपन्‍यास समाज की दो समांतर वि‍चारधाराओं वैराग्‍य और सांसारि‍कता का वर्णन है। दोनों के बारे में वि‍चि‍त्र बात है कि‍ दोनों एक ही समाज में जन्‍म लेती है और दोनों का एक दूसरे से वि‍रोध है।  हारे , कभी मन के मारे ही वैराग्‍य  लेते। ये दोनों मनुष्‍य के लि‍ए बने हैं या मनुष्‍य ने इन दोनों को बनाया है। एक के रहते दूसरे का अस्‍ति‍त्‍व असंभव है। दोनों में वि‍रोध है। वि‍रोध होते हुए भी दोनों मनुष्‍य के बीच ही जीवि‍त हैं। वस्‍तुत: मनुष्‍य ने ही उन्‍हें जीवित रखा है। 


बीजगुप्त:-
बीजगुप्त भोगी है, उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसके विशाल भवन में भोग-विलास नाचा करते हैं। वैभव ही उसके बस में  है। ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है और उसके हृदय में संसार की समस्त राजसी भोग वासनाओं का निवास।

कहानी में तीन प्रमुख चरित्र चित्रलेखा-बीजगुप्त-कुमारगिरि का चरित्र चित्रण असाधारण है। कुमारगिरि योगी है। खुद उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है।संसार से उसको विरक्ति है ।भोग में अनासक्ति है। और  उसने संसार को भी जान लिया है। उसमें तेज है प्रताप है. उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक बल है।

चि‍त्रलेखा उसी समाज का हि‍स्‍सा जि‍सका हि‍स्‍सा कुमारगि‍री है। जि‍स सभा में चि‍त्रलेखा अपने नृत्‍य से सभासदों का मनोरंजन करती है, उसी सभा में कुमारगि‍रि शास्‍त्रार्थ करने आते हैं। चि‍त्रलेखा के ये वाक्‍य उसके वि‍लासी होने की प्रवृत्ति‍ को तर्कपूर्ण ठंग से सही ठहराते हैं - 'जीवन एक अवि‍कल पि‍पासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है।' और 'जि‍से तुम साधना कहते हो वो आत्‍मा का हनन है।' वह कुमारगि‍रि के वैराग्‍य का यह कहकर वि‍रोध करती है कि‍ शांति‍ अकर्मण्‍यता का दूसरा नाम है और रहा सुख, तो उसकी परि‍भाषा एक नहीं है।

कुमारगि‍रि तर्क देते हैं - 'जि‍से सारा वि‍श्‍व अकर्मण्‍यता कहता है, वास्‍तव में वह अकर्मण्‍यता नहीं है। क्‍योंकि‍ उस स्‍थि‍ति‍ में मस्‍ति‍ष्क कार्य कि‍या करता है। अकर्मण्‍यता के अर्थ होते हैं जि‍स शून्‍य से उत्‍पन्‍न हुए हैं उसी में लय हो जाना। और वही शून्‍य जीवन का नि‍र्धारि‍त लक्ष्‍य है।' 

  उपन्‍यास में घोषि‍त रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही वि‍वेचना है लेकि‍न उपन्‍यास इस बात को भी स्‍पष्ट करता है कि‍ हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फि‍र छल।      
जब कुमारगि‍रि और चि‍त्रलेखा टकराते हैं तो दो वि‍परीत वि‍चारधाराएँ टकराती हैं और एक दूसरे को प्रभावि‍त करती हैं। संसार और वैराग्‍य में द्वंद्व होता है और प्रखर होकर कई रूपों में सामने आता है। कहीं वो प्रेम बनता है, तो कहीं वासना, कहीं घृणा बनता है तो कहीं छलावा। चि‍त्रलेखा के वि‍लासी होने के पीछे उसके अपने तर्क हैं और कुमारगि‍रि‍ के वि‍रागी होने के पीछे उसके अपने तर्क है। जीत-हार कि‍सी की नहीं होती क्‍योंकि‍ तर्क का अंत नहीं है। 

हालाँकि‍ उपन्‍यास की शुरूआत पाप और पापी की खोज, नि‍र्धारण और उसे परि‍भाषि‍त करने से होती है और एक तटस्‍थ उत्‍तर और परि‍णाम पर समाप्त होती है कि‍ पाप और पुण्‍य कुछ नहीं होता ये परिस्‍थि‍ति‍जन्‍य होता है। हम ना पाप करते हैं ना पुण्‍य, हम वो करते हैं जो हमें करना पड़ता है।

चित्रलेखा हँस पड़ी - 'आत्मा का संबंध अमर है! बड़ी विचित्र बात कह रहे हो बीज गुप्त! जो जन्म लेता है, वह मरता है, यदि कोई अमर है तो इसलिए अमर है, पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। ...प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं गिरता। आत्मा का संबंध अनादि नहीं है बीज गुप्त।


"मनुष्य स्वतंत्र विचार वाला प्राणी होते हुए भी परिस्तिथियों का दास है ... यह परिस्थि-चक्र पूर्वजन्म के कर्मों का विधान हैं। मनुष्य की विजय वहीं संभव है जहां वह परिस्तिथियों के चक्र में पड़कर उसके साथ चक्कर न खाये..."

उपन्‍यास में घोषि‍त रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही वि‍वेचना है लेकि‍न उपन्‍यास इस बात को भी स्‍पष्ट करता है कि‍ हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फि‍र छल।

उपन्‍यास की भाषा वि‍लक्षण है। तर्कों के जटि‍ल होने के कारण भाषा अत्‍यंत क्‍लि‍ष्ट है और देशकाल-वातावरण के अनुरूप है। समग्र रूप से चि‍त्रलेखा संपूर्ण मानव समाज पर एक प्रहार है जि‍सके दो चेहरे हैं।
लेखक अपनी कहानी के माध्यम से वासना को परिभाषित कर मनुष्य के जीवन में उसका उपयुक्त स्थान खोजने का प्रयत्न करते हैं। तपस्वी दृष्टिकोण से "वासना पाप है, जीवन को कलुषित बनाने का एकमात्र साधन है। वासनाओं से प्रेरित हो कर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उसमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचीयता ब्रह्म को भूल जाता है ... ईश्वर के तीन गुण हैं - सत, चित, आनंद ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं ..." इस दृष्टिकोण से अपरिचित शिष्य अपने गुरु से एक महत्वपूर्ण प्रश्न कर बैठता है - "...वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं है ? मनुष्य उत्पन्न होता है, क्यूँ? कर्म करने के लिए। उस समय कर्म करने  के साधनों को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है ? .


"संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन:प्रव्रत्ति लेकर उत्पन्न होता है - प्रत्येक व्यक्ति इस्स संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मन:प्रव्रत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है - यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है - विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पाप और पुण्य कैसा?"

संसार से भागे फिरते हो (चित्रलेखा - 1964) Sansar se bhage phirte ho (Chitralekha - 1964)


साहिर ने लिखा...
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे .
 
ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या, रीतों पे धरम की मुहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे
 
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
 
हम कहते हैं ये जग अपना है, तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जायेंगे, तुम जन्म गंवा कर जाओगे

हरी/लाल मिर्च

पढ़ना लिखना और गीत सुनना तो मेरा शौख ही रहा जैसे छू लेने दो नाजुक होठों को कुछ और नहीं बजता हुआ इस तरह के हजारों  गीत हमें बताता है की...ऊष्मा, शीत और स्पर्श संबधित हमारी संवेदनायें हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इन्ही के द्वारा हम अपने आसपास के विश्व को महसूस करते है। अपने रोजमर्रा के जीवन मे हम इन संवेदनाओ को हम बहुत आसानी से लेते है लेकिन हमारा तंत्रिका तंत्र इन को किस तरह से समझता है, वह तापमान और दबाव को किस तरह से महसूस करता है ? .......हरी मिर्च और लाल मिर्च  खाते  काटते हुए जब हाथों में जलन होती थी तो लगता था कि इस मिर्ची में जरूर ऐसा कुछ है जो स्वाद में ही नहीं तीखापन लाती पलकें भी भिगो देती है। हाथों को भी जलाती है इसके पीछे पड़ा रहा हजारों किताबें पढ़ी पन्ने पलटे उत्तर जो सूझा जो समझ में आया वह यहां लिख रहा हूं ।पढ़ा तो बाद में पता चला कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण क्या है वैज्ञानिक डेविड जूलियस ने मिर्च मे पाए जाने वाले एक रसायन कैप्साइसीन का प्रयोग किया, कैप्साइसीन त्वचा मे जलन उत्पन्न करता है। इस रसायन के प्रयोग से से डेविड ने हमारी त्वचा मे एक ऊष्मा महसूस करने वाले तंत्रिका तंत्र के सिरे का पता लगाया। 
हर छूना छूना नहीं होता हर छूने की भी अलग कहानी होती है जो तुमने भी महसूस किया है और हमने भी महसूस किया है लेकिन इसको जब नए सिरे से देखना शुरू किया तब जाना कि वैज्ञानिक अरडेम पेटापुटीन ने दबाव कोशिकाओ के प्रयोग से त्वचा मे यांत्रिकी दबाव महसूस करने वाली एक नई तरह की तंत्रिकाओं का पता लगाया। इन क्रांतिकारी खोजों से हमारी तंत्रिका तंत्र द्वारा ऊष्मा , शीत और यांत्रिकी दबाव के महसूस करने की प्रक्रिया को समझने मे मदद की है। इन वैज्ञानिकों ने हमारी संवेदना और आसपास के वातावरण के मध्य चल रही जटिल प्रक्रियाओ को समझने मे बिखरी कडीयो को जोड़ा है। ......1944 के चिकित्सा नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ एर्लांगर(Joseph Erlanger) और हर्बर्ट गॅसर( Herbert Gasser) ने हर विशिष्ट संवेदना संबधित विशिष्ट न्यूरान का पता लगाया था। जैसे दर्द वाले स्पर्श और सहलाने वाले स्पर्श को महसूस करने वाले न्यूरान। उसके बाद से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि विशिष्ट तरह की संवेदना वाले न्यूरान अपने काम के लिए विशेषज्ञ होते है, और वे हर तरह की संवेदना को अलग से पहचान सकते है, जिससे हम अपने परिवेश को बेहतर रूप से समझ पाते है। जैसे हमारी ऊँगलीओ के सिरे पर उपस्थित न्यूरान ऊष्मा और गरम दर्दनाक ताप दोनों को महसूस कर सकते है।डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुटीन के खोज से पहले हम यह नहीं जानते थे कि हमारा तंत्रिका तंत्र किस तरह से तापमान और दबाव को महसूस करता है। हमारा मस्तिष्क विद्युत संकेत समझता है, लेकिन दबाव और ऊष्मा के संकेत किस तरह से विद्युत संकेत मे बदलते है यह एक बड़ा रहस्य था।....1990 दशक के अंतिम भाग मे डेविड जूलियस ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय कैपसाइसिन रसायन पर कार्य किया, यह रसायन मिर्च मे होता है और त्वचा मे जलन उत्पन्न करता है। हम जानते थे कि कैपसाइसिन दर्द महसूस करनेवाले न्यूरान को उत्तेजित करता है लेकिन कैसे करता है एक रहस्य था। जूलियस और उनके साथियों ने दर्द , ऊष्मा और स्पर्श महसूस करने वाले न्यूरानों मे से करोड़ों डीएनए टूकड़ों का एक संग्रह बनाया और उन्होंने यह प्रस्तावित किया कि इन डीएनए खंडों मे से कोई एक कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करता होगा। एक के बाद एक करके उन्होंने कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया नहीं करने वाले डीएनए खंडों को अलग कर दिया। कड़ी और लंबी मेहनत के बाद वे कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करने वाले जीन (डीएनए खंड) को पहचान गए। इस जिन को TRPV1 नाम दिया गया जोकि एक आयन चैनल प्रोटीन है, और कैपसाइसिन से प्रतिक्रिया करता था। जब जूलियस ने इस संवेदी प्रोटीन की प्रतिक्रिया ऊष्मा से करवाई तो उसने जलन से दर्द महसूस करने वाली प्रतिक्रिया दी, जूलियस ने पाया कि उन्होंने एक ऊष्मा संवेदी रिसेप्टर खोज निकाला है।....डेविड जूलियस ने मिर्च मे पाए जाने वाले कैप्साइसीन के प्रयोग से TRPV1 संवेदक की खोज की जो दर्द उत्पन्न करने वाली ऊष्मा से सक्रिय हो कर न्यूरान को विद्युत संकेत भेजती है।...TRPV1 की खोज तापमान महसूस करने वाले अन्य संवेदको को पहचनाने मे एक बड़ा कदम था। डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुटीन दोनों ने स्वतंत्र रूप से मेन्थोल (ठण्डाई) के प्रयोग से TRPM8 की खोज की जोकि शीतलता महसूस करवाने वाला संवेदक है। TRPV1 और TRPM8 से संबधित अन्य आयन चैनल खोजे गए और पाया गया कि ये संवेदक तापमान की एक बड़ी रेंज मे काम कर सकते है। डेविड जूलियस द्वारा TRP1 की खोज एक क्रांतिकारी खोज थी, जिसने हमारे शरीर द्वारा भिन्न तापमानो को समझ सकने के रहस्य से पर्दा उठाया।....स्पर्श की संवेदना के लिए Piezo2 आयन चैनल मुख्य है। Piezo1 और Piezo2 मिलकर अन्य भौतिक प्रक्रिया जैसे रक्तचाप , श्वशन तथा मूत्रथैली के नियंत्रण के लिए उत्तरदाई है।
बाकी 2021 यानीइस वर्ष का चिकित्सा नोबेल TRPV1,TRPM8 तथा Piezo आयन चैनल की क्रांतिकारी खोज को समर्पित है, यह खोज दर्शाती है कि हम किस तरह से ऊष्मा, शीत और स्पर्श महसूस करने के द्वारा हमारे आसपास के वातावरण को समझते है और उसके साथ समायोजित होते है। TRP चैनल हमारी ऊष्मा संवेदना के लिए महत्वपूर्ण है जबकी Piezo चैनल स्पर्श और हमारे अंगों की स्तिथि जानने और उनके संचालन के लिए महत्वपूर्ण है। इन चैनलों के ऊष्मा और दबाव पर निर्भर कुछ अन्य चयापचय संबधित कार्य भी है।

सन्दर्भ

2021 चिकित्सा नोबेल पुरस्कार :डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुतीन वर्ष 2021 के चिकित्सा नोबेल पुरस्कारों का ऐलान सोमवार 4 अक्टूबर 2021 को किया गया है। इस बार को यह पुरस्कार डेविड जूलियस और अरडेम पेटापुतीन को मिला है।यह पुरस्कार उन्हे ऊष्मा और स्पर्श के संवेदकों (receptors ) की खोज के लिए दिया गया है।








Friday, August 30, 2024

उच्च शिक्षा के दलित

कौन कॉलेज में हो ? 
“उच्च शिक्षा के दलित हैं साब!” 
नहीं मतलब किस जगह से आये हो? 
और अलग की हुये काम से आते हैं साब! 
मुझे लगा उच्च शिक्षा में शिक्षक  हो! 
 हूँ न साब! पर आता हूँ आपके लिपिक काम में। 
क्या खाते हो भाई? 
“अपना बेतन... साब!” 
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो? 
आपसे मार खाता हूँ 
डॉट का भार खाता हूँ 
और छुटियों के नाम cl तो कभी मेडिकल खाता हूँ साब! 
नहीं मुझे लगा कि माल भी खाते हो! 
खाता हूँ न साब! पर आपके काम में। 
क्या पीते हो भाई? 
छुआ-छूत का ग़म 
टूटे घर के अरमानों का दम 
और नंगी आँखों से देखा गया सारा कागज पर भरम साब! 
यहाँ क्या मिला है भाई 
“जो गैरो को मिलता है साब! 
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है? 
ज़िल्लत भरी ज़िंदगी आपकी छोड़ी हुई पोस्टिंग और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की दबगी साब! 
मुझे लगा वादे मिले हैं! 
मिलते हैं न साब! पर आपके काम हो जाने में। 
क्या किया है प्राध्यापक? 
नहीं मतलब क्या-क्या किया है? 
बायो मैट्रिक के हिसाब हर कानून की किताब  से काम किया 
10 से 5 कागज से तर सुबह को शाम किया रात को मोबाइल पर आपका काम किया 
और आते जाते जेडी,नेताओं आप के नोनिहालो को सलाम किया साब! 
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया! 
किया है न साब! अपने काम को आपके काम  बता कर आप का प्रचार!”

Thursday, August 22, 2024

research proposal

Here is the detailed response:

1. Broad Area of Subject: Religious Sociology

2. Specialization: Religious Tourism and Development

3. Project Title: Strategy and Challenges and Solutions for Uttarakhand's Pilgrimage in the World (विश्व में उत्तराखंड की धर्मयात्रा की रणनीति और चुनौतियां व समाधान)

4. Introduction (Origin of Proposal):
This proposal originates from the need to promote Uttarakhand's pilgrimage globally. Uttarakhand is home to numerous sacred Hindu sites, and developing a strategy to promote these sites worldwide is essential.

5. Review of Research and Development in the Proposed Area:

- National Status: Religious tourism is a significant sector in India, with Uttarakhand playing a crucial role.
- International Status: Globally, religious tourism is a growing industry, with many countries developing their religious tourism infrastructure.
- Importance: Promoting Uttarakhand's pilgrimage globally is vital to increase its international reputation and attract more tourists.
- Patents: Not Applicable

1. Objectives of the Proposed Project:

- Develop strategies to promote Uttarakhand's pilgrimage globally.
- Analyze challenges in promoting Uttarakhand's pilgrimage globally.
- Suggest solutions to overcome challenges in promoting Uttarakhand's pilgrimage globally.

1. Methodology:

- Literature Review
- Surveys and Interviews
- Field Study

1. Duration of the Proposed Project: 12 months

2. Work Plan:

- Year 1:
    - Months 1-3: Literature Review and Survey Design
    - Months 4-6: Data Collection and Analysis
    - Months 7-9: Field Study and Interviews
    - Months 10-12: Report Writing and Presentation

1. Relevance of the Proposed Study for Society and Policymaking:

This study will help promote Uttarakhand's pilgrimage globally, leading to:

- Economic growth in Uttarakhand
- Increased religious tourism
- Enhanced international reputation of Uttarakhand

The findings of this study will be useful for policymakers, tourism boards, and stakeholders involved in promoting religious tourism in Uttarakhand.

Thursday, April 25, 2024

एम॰ एन॰ श्रीनिवास


मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास (1916-1999) 

एम. एन. श्रीनिवास -यह भारतीय समाजशास्त्र एक महत्वपूर्ण नाम हैं। समाजशास्त्री  एम. एन. श्रीनिवास का पूरा नाम मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास हैं। उनका जन्म ६ नवंबर, १९१६ में मैसूर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।


भारतीय गांव ,भारत में सामाजिक परिवर्तन संस्कृतिकरण, प्रभु जाति इनके प्रिय विषय थे। उन्होने दक्षिण भारत में 'प्रबल जाति' (Dominant Caste) की अवधारण प्रस्तुत की।   जाति की अवधारणा संख्या बल, भू-स्वामित्व, शिक्षा और नौकरी जैसे कारकों के कारण किसी जाति के गाँव या क्षेत्र विशेष में दबदबे को जाहिर करती है।जिसका आज भी भारतीय राजनीति के विश्लेषण में इसका प्रयोग किया जाता है।अपने शोध अध्ययन के लिए श्रीनिवास ने जिस रामपुरा गाँव को चुना था ।श्रीनिवास का जाति-अध्ययन एक गाँव की स्थानीय संरचना पर केंद्रित था लेकिन वह इस परिघटना की अखिल भारतीय व्याप्ति को लेकर भी सचेत थे। जिसके कारण इनकी विश्वव्यापी समाजशास्त्रीय के रूप में इनकी पहचान बनी।


शिक्षा-दिक्षा

एम. एन. श्रीनिवास ने मुंबई विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट पदवी हासिल येे भारतीय समाजशास्त्र के पितामह जी. एस. घूरे के शिष्य रहे ।

रिलीजन् ऍन्ड् सोसाय्टी अमंग् द कूर्ग्स् ऑफ़् साउथ् इन्डिया" (१९५२ में प्रकाशित)। यह पुस्तक कर्नाटक के कोडावा समुदाय का नृतत्त्वशास्त्रीय अध्ययन थी। यही इनका शोध प्रबंध था।ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वे अपने प्रोफेसर रॅडक्लिफ ब्राउन से बहुत प्रभावित हुए।

... 

भारत मेें समाज शास्त्र विषय मे योगदान


श्रीनिवास कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयो में अध्यापक रह चुके है, जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय; इंस्टीट्यट फॉर सोशियल एंड इकोनोमिक चेंज, बंगलौर; नैशनल इंस्टीट्युट ऑफ अडवान्स्ड स्टडिज़, बंगलौर; महाराज सयाजीराउ बड़ोदरा विश्वविद्यालय और जे. आर्. डी. टाटा इंस्टीट्युट।
श्रीनिवास ने एम. एस. बी. विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभाग की स्थपना करने लिये

में अपना योगदान दिया यहाँ तक कि उन्होने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की पदवी को भी ठुकरा दिया था। बादमें, उन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय में भी समाजशास्त्र के विभाग की स्थापना में सहायता की तथा जीवन भर अध्यापन के क्षेत्र में रहे।

श्रीनिवास संस्थाओं के निर्माता भी थे। बड़ौदा और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विभागों की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। शोध और अध्ययन के उच्चस्तरीय संस्थानों की स्थापना और दिशा-निर्देशन के लिहाज़ से भी भारतीय समाजशास्त्र के विकास में उनका योगदान कालजयी माना जाएगा।

लेखन/रचना

एम. एन. श्रीनिवास ने भारतीय समाज और संस्कृति के कई पहलूओ पर अपनी कलम चलाई है। वे खसकर धर्म, गाँव, जाति प्रथा और सामाजिक परिवर्तन की विषयवस्तुओ पर लिखी पुस्तको के लिये विख्यात है। 

श्रीनिवास की कुछ उतकृष्ट पुस्तके निम्नलिखित है- 

पुस्तके

  • मैरिज एंड फैमिली इन मैसूर (१९४२)
  • रिलिजन एंड सोसाइटी अमंग द कूरगस ऑफ़ साउथ इंडिया (१९५२)
  • कास्ट्स इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एसेज (१९६२), एशिया पब्लिशिंग हाउस
  • द रेमेम्बेरेड विलेज (१९७६, पुनः प्रकाशित २०१३)
  • इंडियन सोसाइटी थ्रू पर्सनल राइटिंग्स (१९९८)
  • विलेज, कास्ट, जेन्डर एंड मेथ्ड़ (१९९८)
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया
  • द डोमिनेंट कास्ट एंड अदर एसेज
  • डाइमेंशन्स ऑफ़ सोशल चेंज इन इंडिया

      •भारत के ग्राम (India’s Villages),१९५२

         •भावी भारत में जाति प्रथा, १९५९ 

        आधुनिक भारत में जाति और अन्य निबंध           (Caste in Modern India and other essays),१९६२

 •दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज (Religion and Society among the Coorgs of South India), १९६५

 •आधुनिक भारत मे सामाजिक परिवर्तन (Social Change in Modern India), १९७२ 

•यादों से रचा गाँव (Remembered Village), १९७६ 

•भारत: सामाजिक संरचना (India: Social Structure), १९८०

 •प्रभावी जाति और अन्य निबंध (The Dominant Caste and other essays), १९८७ 

•संस्कृतीकरण की संसज्जित भूमिका (The Cohesive Role of Sanskritization), १९८९ 

•ग्राम, जाति, लिंग और विधि (Village, Caste, Gender and Method), १९९६

इन रचनाओ के अलावा, श्रीनिवास ने दर्ज़नो और रचनाए की है।



श्रीनिवास के अनुसंधान के  मुद्दे....


•सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक पतिवर्तन एक एसा मुद्द है जिसपर अनेकानेक समाजशास्त्री जाँच और अनुसंधान करते आ रहे है। एम एन श्रीनिवास ने निम्न जातियों द्वारा उच्च जातियों ख़ास तौर पर ब्राह्मण वर्ग की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों, भाषा और वेशभूषा आदि को अपनाने की प्रवृत्ति को ज्ञापित करती हैं। जिसको इन्होंने संस्कृतिकरण का नाम दिया यह इसी संस्कृतिकरण की अवधारणा से बहुुुत ख्याति प्राप्त किए थे।इनकी पाश्चातिकरण  और धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रियाओ के आधार पर गाँवों में सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और प्रकृति को बताया है।संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण, प्रभावी जाति, अंतर-जातिय एवं जाति की आंतरिक एकजुटता जैसे ससंप्रत्ययो काअ प्रयोग कर के श्रीनिवास ने जाति की व्यवस्था की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डाला है।


•धर्म और समाज- एम. एन. श्रीनिवास ने दक्षिण भारत के कूर्ग में धर्म और समाज पर अनुसंधान किया था। उनके जाँच के आधार पर उन्होने भारतीय परंपराओ और जाति-व्यवस्थाकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की।

 उन्कोने हिन्दु संस्कृति, रहन- सहन और सामजिक व्यवस्था के विषयों पर भी चर्चा की। उनके अनुसार भारतीय परंपरा वास्तव में हिन्दु परंपरा है; और हिन्दु परंपरा की जड जाति व्यवस्था है।

•ग्राम एम एन श्रीनिवास के अनुसार गाँव ही भारत का प्रतिनिधी है। श्रीनिवास का यह मानना है कि गाँवो की जाति-व्यवस्था, धर्म , समाज, परिवर्तन और विकास के अध्ययन से हम भारतीय समाज को समझ सकते है।

•जाति व्यवस्था- भारत में जाति एक एसी व्यवस्था है जो केवल धर्म तक ही सीमित नहि है, उसका प्रभाव व्यापार-व्यवसाय, राजनीति और शिक्षा जैसी अन्य व्यवस्थाओ पर भी गहरा प्रभाव है। 

जाति व्यवस्था 'पवित्र' और 'अपवित्र' के बनावटी धारणा पर टिकी हुई है, जिसको धर्म से बढावा मिला है। किसी जाति के आचरण, रीति-रिवाज़ और मूल्यो के आधार पर उस जाति ई श्रेणी तय की जाती है। 

एम एन श्रीनिवास का यह मानना है की निचली वर्ग की जातियाँ अपनी श्रेणी सुधारने के लिये "उच्च" वर्ग की जातियों के आचरण और रीति-रिवाज़ो का अनुकरण करती है; इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते है। 

कहते हैं  संस्कृतीकरण केवल नयी प्रथाओं और आदतों का अंगीकार करना ही नहीं है, बल्कि संस्कृत वाङ्मय में विद्यमान नये विचारों और मूल्यों के साथ साक्षात्कार करना भी इसमें आ जाता है।1

 वे कहते हैं कि कर्म, धर्म, पाप, माया, संसार, मोक्ष आदि ऐसे संस्कृत साहित्य में उपस्थित विचार हैं जो कि संस्कृतीकृत लोगों के बोलचाल में आम हो जाते हैं।




क्रिया-विधि

एम एन श्रीनिवास ने पाश्चातिय दृष्तिकोण को छोड भारतीय दृष्तिकोण को ध्यान में रखकर अपने जाँच-परिणामो को प्रस्तुत किया था। अर्थातश्रीनिवास ने किताबी दृष्तिकोण को नकार कर उन्होने क्षेत्र-जाँच की परियोजना को अपनाया। उनकी रचनाए कूर्ग और रामपुर जैसी जगहो पर किए उनके व्यापक जाँच पर आधारित है। उन्होने प्रत्यक्ष अवलोकन (direct observation) को समाज के अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना।

उनकी क्रिया-विधि और अवलोकन को कई समाजशास्त्रियो अपनाया और आगे बढाया है। उनकी रचना "यादों से रचा गांव, १९७६" उनकी क्रिया-विधि का एक श्रेष्ठ उदाहरण है; क्यो कि यह रचना एक गाँव में बिताए ग्यारह महीनो के उनके अनुभव पर आधारित है।

सम्मान

एम.एन. श्रीनिवास

एम.एन. श्रीनिवास इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकॉनॉमिक चेंज बंगलोर की समाजशास्त्र इकाई के सीनियर फैलो और प्रमुख थे। वे ऑक्स फोर्ड विश्वविद्यालय में (1948-51) भारतीय समाजशास्त्र के व्याख्याता, एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा में (1952-59) और दिल्ली विश्वविद्यालय में (1952-72) समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे।
1953-54 में वह मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के साइमन सीनियर रिसर्च फैलो और 1956-57 में ब्रिटेन और अमेरिका में रॉक फैलर फैलो रहे। वे पहले भारतीय हैं जिन्हें रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड की मानद फैलोशिप मिली। इसके अलावा, 1963 में लेखक कुछ समय के लिए बर्कले, कैलिफोॢनया में टैगोर लैक्चरर और डिपार्टमेंट ऑफ सोशल एन्थ्रॉपॉलॉजी एंड सोशियोलॉजी के साइमन विजि़टिंग प्रोफेसर रहे।

पुरस्कार

   : रॉयल एन्थ्रॉपॉलॉजिकल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड का रिवर्स मेमोरियल मेडल (1955), भारतीय नृतत्त्वशास्त्र में योगदान के लिए शरतचन्द्र रॉय मेमोरियल गोल्ड मेडल (1958) और जी.एस. धुर्वे अवार्ड (1978)। शिकागो, नाइस और मैसूर विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुई हैं।

मृत्यु

एम एन श्रीनिवास का देहांत  30 नवम्बर, 1999

१९९९ में बंगलौर हुआ था।

आलोचना

एम एन श्रिनिवास के काय की कुछ विद्वानों ने आलोचना भी की है जैसे...

 •संस्कृतिकरण को बढावा देने के कारण एम एन श्रीनिवास ने धार्मिक अपवर्गो को और भी उपेक्षित कर दिया है।

 •श्रीनिवास के लिये भारतीय परंपरा हिन्दु परंपरा है जो जाति व्यवस्था और ग्रामो मे दिखाई देती है। इस दावे में धर्म-निश्पक्षता नहि दिखाई देती है। 

•श्रीनिवास का सामाजिक परिवर्तन का विवरण केवल संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण तक ही सीमित है, जो बाकी देशो और समाजो में समान रूप से उपयुक्त या लागु नही है।

 •श्रीनिवास के पहले भी कैइ समाजशास्त्री संस्कृतिकरण, पाश्चातिकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण जैजी संप्रत्ययो की चर्चा कर चुके है, अतः इन संप्रत्ययो में श्रीनिवास की मौलिकता नहि झलकती।

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मेरी बात...
        इन सब आलोचनाओं के बावजूद एम एन श्रीनिवास की भारतीय समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण जगह है। उनकी रचनाओं के अध्ययन के बिना भारतीय समाजशास्त्र का अभ्यास अधूरा है। उनके अनुसंधान और पुस्तकों ने कैइ अन्य समाजशास्त्रियों को प्रेरित किया है। भारतीय समाज और संस्कृति को समझने के लिये एम एन श्री निवास द्वारा रचित पुस्तको और उनके अनुसंधान का अभ्यास करना अनिवार्य है।


2

एक समाजशास्त्री के तौर पर श्रीनिवास ने भारतीय ग्राम और जाति की संरचना को औपनिवेशिक धारणाओं के सैद्धांतिक वर्चस्व से भी मुक्त कराया है। 

श्रीनिवास जब ग्रामीण समुदाय की संकल्पना और गाँवों की आर्थिक-सांस्कृतिक अंतर-निर्भरता की बात करते हैं तो वे अव्यक्त ढंग से अखिल भारतीय सभ्यता की बात भी करते हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

Srinivas, M.N. (1952) Religion and Society Amongst the Coorgs of South India Clarendon Press, Oxford, page 32,

1-Srinivas, Mysore Narasimhachar (1962) Caste in Modern India: And other essays Asia Publishing House, Bombay, page 48,