Wednesday, May 5, 2021

सामाजिक शोध


सामाजिक शोध -




 

सामाजिक शोध के अर्थ को समझने के पूर्व हमें शोध के अर्थ को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। 


यह स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ  यह प्रारम्भ होती है।



 सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। 


स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है।



 यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। 



प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। 




वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। 

समाज


शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। 


शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’


सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।


 पी.वी. यंग (1960:44) के अनुसार,


 ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’


 



सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’


’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है।



 सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। 



सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- 

(1) क्या हो रहा है? और 

(2) क्यों हो रहा है? 


अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। 



‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। 



यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।




सामाजिक शोध का उद्देश्य 

सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है।


( इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है।)


 बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में


 पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है। 



वह प्रशासकीय परिवर्तनों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है।



 सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है।


सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-अर्थात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है। 



सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं। 



व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।


 



गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है।



 उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है। 



व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है।





सामाजिक शोध के चरण 



सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन एक व्यवस्थित पद्धति के अनुसार किया जाता है। 


अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है।



 शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत्य नही है। 


इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है। 



हम यहाँ पहले कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, तत्पश्चात् सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।



चरण


शोध समस्या को परिभाषित करना।

 शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना। 

अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना। 

प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना। 

शोध विधियों और तकनीकों का चयन।

 शोध का मानकीकरण 

मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग 

↓ 

शोध सामग्री इकठ्ठा करना।

↓ 

सामग्री का विश्लेषण करना 

व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना 




राम आहूजा -ने मात्र छ: चरणों का उल्लेख किया है, जो कि निम्नवत् हैं-



1-अध्ययन समस्या का निर्धारण।

2-शोध प्रारुप तय करना।

3-निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)

4-आँकड़ा संकलन

5-आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण एवं सारणीयन)।

6-प्रतिवेदन तैयार करना।





शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।

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01प्रथम चरण- 

शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सर्वप्रथम आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है। 


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शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो।


 इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथमत: तो शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।


निश्चित रूप से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।

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02

द्वितीय चरण-

यह तय हो जाने के पश्चात् कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात्। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’ 


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03

तृतीय चरण- 

सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’

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04

चतुर्थ चरण- 

शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।


उपकल्पना



उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं? 




 



लुण्डबर्ग (1951:9) के अनुसार, ‘‘उपकल्पना एक सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना को भी , अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’


गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के अनुसार,


‘‘एक उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी रूप से अपनायी जाती है।’’


 

गुडे तथा हॉट (1952:56) के शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) एक मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’ 



सरल एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित एक काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है।




 विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के पश्चात् जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे।



 ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है। 



इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।



 वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए। 



उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।


उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट एवं सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक उपकल्पना और एक सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस रूप में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि-

 उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी एक के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 



उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है।


 उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है

 (यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने उल्लेख किया है- 



(i) सामान्य संस्कृति 

(ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त 

(iii) सादृश्य (Anology)

 (iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है। 



उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है।



 उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।


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05

पंचम चरण- 

समग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने  जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे।



 इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी। 



चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है। 



इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है। 



समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकायों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम रूप में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।

 



उल्लेखनीय है कि अक्सर निदर्शन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकायों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है।



 ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है।



 इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है।



 इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं, 


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निदर्शन (सैम्पल) ही है। 


अतः

‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’

 



निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- एक को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं। 



निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन किया जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके।


 कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इका का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन किया जाता है।




 ऐसा ही जनगणना कार्य में भी किया जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकायों का अध्ययन किया जाता है।


 इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।

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06

छठवाँ चरण- 

प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं। 


उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें। 



प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं। 



शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं। 



शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है। 



कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है।



 स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है। 



इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं।

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07

सप्तम चरण-

प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। 


कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।


यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। 



सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये।



 उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है। 



उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है।


 


तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।

 



यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है। 


अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। 


प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो -मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण रूप से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।


यदि शोध कार्य में क क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि सभी अन्वेषक पूर्ण निष्ठा एवं मानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें।



 तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे  मोबाइल, टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की सहमति जरूरी है।


प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ एकत्रित सूचनाओं की जाँच एवं आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। को नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए।


 तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण एवं निर्वचन दूसरे के द्वारा हो चुका होता है।


 अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।


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अष्ठम चरण :- 

आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है। 


कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था।



 आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं। 



सारिणीयों के निर्मित हो जाने के पश्चात् उनका तार्किक विश्लेषण किया जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है। 



सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित एवं तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।


अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न किया जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी आवश्यकता के अनुसार फोटोग्राफ, डाग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।


उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही उल्लेखनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए



 

समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है। 

शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं। 



परिणामों की व्याख्या करें। 

निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का उल्लेख करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो। 




 ‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की आवश्यकता होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं।


 प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान एवं समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुरूप शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है। 


उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’


अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं। 






सामाजिक परिवर्तन


सामाजिक परिवर्तन 




 

सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत हम मुख्य रूप से तीन तथ्यों का अध्ययन करते हैं- 


(क) सामाजिक संरचना में परिवर्तन,

 (ख) संस्कृति में परिवर्तन एवं

 (ग) परिवर्तन के कारक। 



सामाजिक परिवर्तन के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख परिभाषाओं पर विचार करेंगे।


सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा-


मेकावर एवं पेज 

(R.M. MacIver and C.H. Page) ने अपनी पुस्तक Society में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए बताया है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे। 


 

डेविस (K. Davis) के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में परिवर्तन है।  



एच0एम0 जॉनसन (H.M. Johnson) ने सामाजिक परिवर्तन को बहुत ही संक्षिप्त एवं अर्थपूर्ण शब्दों में स्पष्ट करते हुए बताया कि मूल अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ संरचनात्मक परिवर्तन है।



 जॉनसन की तरह गिडेन्स ने बताया है कि सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बुनियादी संरचना


 (Underlying Structure) या बुनियादी संस्था (Basic Institutions) में परिवर्तन से है।

ऊपर की परिभाषाओं के संबंध में यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन एक व्यापक प्रक्रिया है। 


समाज के किसी भी क्षेत्र में विचलन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। 


विचलन का अर्थ यहाँ खराब या असामाजिक नहीं है।



 सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। 



यह विचलन स्वयं प्रकृति के द्वारा या मानव समाज द्वारा योजनाबद्ध रूप में हो सकता है।



 परिवर्तन या तो समाज के समस्त ढाँचे में आ सकता है अथवा समाज के किसी विशेक्ष पक्ष तक ही सीमित हो सकता है। परिवर्तन एक सर्वकालिक घटना है।


 यह किसी-न-किसी रूप में हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है। परिवर्तन क्यों और कैसे होता है, इस प्रश्न पर समाजशास्त्री अभी तक एकमत नहीं हैं।



 इसलिए परिवर्तन जैसी महत्वपूर्ण किन्तु जटिल प्रक्रिया का अर्थ आज भी विवाद का एक विषय है। किसी भी समाज में परिवर्तन की क्या गति होगी, यह उस समाज में विद्यमान परिवर्तन के कारणों तथा उन कारणों का समाज में सापेक्षिक महत्व क्या है, इस पर निर्भर करता है।



 सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए यहाँ इसकी प्रमुख विशेषताओं की चर्चा अपेक्षित है।




सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं

सामाजिक परिवर्तन एक विश्वव्यापी प्रक्रिया (Universal Process) है। 


अर्थात्-


 सामाजिक परिवर्तन दुनिया के हर समाज में घटित होता है।


 दुनिया में ऐसा कोई भी समाज नजर नहीं आता, जो लम्बे समय तक स्थिर रहा हो या स्थिर है।



 यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। 

सामुदायिक परिवर्तन ही वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन है। इस कथन का मतलब यह है कि सामाजिक परिवर्तन का नाता किसी विशेष व्यक्ति या समूह के विशेष भाग तक नहीं होता है। 



वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है।


 

सामाजिक परिवर्तन के विविध स्वरूप होते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग, समायोजन, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न रूपों में प्रकट होता है।




 परिवर्तन कभी एकरेखीय (Unilinear) तो कभी बहुरेखीय (Multilinear) होता है। उसी तरह परिवर्तन कभी समस्यामूलक होता है तो कभी कल्याणकारी।



 परिवर्तन कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रांतिकारी भी हो सकता है। 



परिवर्तन कभी अल्प अवधि के लिए होता है तो कभी दीर्घकालीन।




सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक (Irregular and Relative) होती है। समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति समान नहीं होती है


। 

सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं।



 समाजशास्त्री मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के

 जनसांख्यिकीय (Demographic), 

प्रौद्योगिक (Technological) 

सांस्कृतिक (Cultural) एवं आर्थिक (Economic)

 कारकों की चर्चा करते हैं। 


इसके अलावा सामाजिक परिवर्तन के अन्य कारक भी होते हैं, क्योंकि मानव-समूह की भौतिक (Material) एवं अभौतिक (Non-material) आवश्यकताएँ अनन्त हैं और वे बदलती रहती हैं। 



सामाजिक परिवर्तन की कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अनेक आकस्मिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पैदा करते हैं।



विलबर्ट इ0 मोर (Wilbert E. Moore, 1974) ने आधुनिक समाज को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं की चर्चा अपने ढंग से की है, वे हैं-

सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से घटित होते रहते हैं। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। 

बीते समय की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। आज परिवर्तनों का अवलोकन हम अधिक स्पष्ट रूप में कर सकते हैं। 



परिवर्तन का विस्तार सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं के क्षेत्र में, विचारों एवं संस्थाओं की तुलना में, परिवर्तन अधिक तीव्र गति से होता है। 



हमारे विचारों एवं सामाजिक संरचना पर स्वाभाविक ढंग और सामान्य गति के परिवर्तन का प्रभाव अधिक पड़ता है।

सामाजिक परिवर्तन का अनुमान तो हम लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से हम इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। 



सामाजिक परिवर्तन गुणात्मक (Qualitative) होता है। समाज की एक इकाई दूसरी इकाई को परिवर्तित करती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक पूरा समाज उसके अच्छे या बुरे प्रभावों से परिचित नहीं हो जाता। 



आधुनिक समाज में सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से किया जा सकता है और न ही इसे पूर्णत: स्वतंत्र और असंगठित छोड़ दिया जा सकता है। आज हर समाज में नियोजन (Planning) के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील किया जा सकता है।



सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण स्रोत

खोज-



मनुष्य ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है।



 जैसे शरीर में रक्त संचालन, बहुत सारी बीमारियों के कारणों, खनिजों, खाद्य पदार्थों, पृथ्वी गोल है एवं वह सूर्य की परिक्रमा करती है आदि हजारों किस्म के तथ्यों की मानव ने खोज की, जिनसे उनके भौतिक एवं अभौतिक जीवन में काफी परिवर्तन आया।



आविष्कार

विज्ञान और प्रौद्यागिकी के जगत में मनुष्य के आविष्कार इतने अधिक हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। आविष्कारों ने मानव समाज में एक युगान्तकारी एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है।



प्रसार

सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है।


 पश्चिमीकरण (Westernization), आधुनिकीकरण (Modernization), एवं भूमंडलीकरण (Globalization) जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। 


आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का इतना अधिक विकास हुआ है कि प्रसार की गति बहुत तेज हो गयी है।



आन्तरिक विभेदीकरण

(Internal Differentiation)—जब हम सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हैं, तो ऐसा लगता है कि परिवर्तन का एक चौथा स्रोत भी संभव है- वह है आन्तरिक विभेदीकरण।



 इस तथ्य की पुष्टि उद्विकासीय सिद्धान्त (Evolutionary Theory) के प्रवर्तकों के विचारों से होती है। उन लोगों का मानना है कि समाज में परिवर्तन समाज के स्वाभाविक उद्विकासीय प्रक्रिया से ही होता है। हरेक समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है।



 समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने अपने उद्विकासीय सिद्धान्त में स्वत: चलने वाली आन्तरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया पर काफी बल दिया है।



सामाजिक परिवर्तन की कुछ संबंधित अवधारणाएं

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया कई रूपों में प्रकट होती हैं, 



जैसे- उद्विकास (Evolution), प्रगति (Progress), विकास (Development), सामाजिक आन्दोलन (Social Movement), क्रांति (Revolution) इत्यादि। चूँकि इन सामाजिक प्रक्रियाओं का सामाजिक परिवर्तन से सीधा संबंध है या कभी-कभी इन संबंधों को सामाजिक परिवर्तन का पर्यायवाची माना जाता है, इसलिए इन शब्दों के अर्थ के संबंध में काफी उलझनें हैं। इनका स्पष्टीकरण हैं।




उद्विकास

‘उद्विकास’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले जीव-विज्ञान के क्षेत्र में चाल्र्स डार्विन (Charles Darwin) ने किया था। डार्विन के अनुसार उद्विकास की प्रक्रिया में जीव की संरचना सरलता से जटिलता (Simple to Complex) की ओर बढ़ती है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक चयन (Natural Selection) के सिद्धान्त पर आधारित है। 



आरंभिक समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने जैविक परिवर्तन (Biological Changes) की भाँति ही सामाजिक परिवर्तन को भी कुछ आन्तरिक शक्तियों (Internal Forces) के कारण संभव माना है और कहा है कि उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है। 



उद्विकास की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए मकीवर एवं पेज ने लिखा है कि उद्विकास एक किस्म का विकास है। पर प्रत्येक विकास उद्विकास नहीं है क्योंकि विकास की एक निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। 



किसी भी क्षेत्र में विकास करना उद्विकास कहा जाएगा। मकीवर एवं पेज ने बताया है कि उद्विकास सिर्फ आकार में नहीं बल्कि संरचना में भी विकास है। यदि समाज के आकार में वृद्धि नहीं होती है और वह पहले से ज्यादा आन्तरिक रूप से जटिल हो जाता है तो उसे उद्विकास कहेंगे।



प्रगति

परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है।


 प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने बताया है कि प्रगति का अर्थ अच्छाई के निमित्त परिवर्तन है। इसलिए प्रगति इच्छित परिवर्तन है। इसके माध्यम से हम पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को पाना चाहते हैं।


मकीवर एवं पेज आगाह करते हुए कहा है कि हम लोगों को उद्विकास और प्रगति को एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं करना चाहिए। दोनों बिल्कुल अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।



विकास

जिस प्रकार उद्विकास के अर्थ बहुत स्पष्ट एवं निश्चित नहीं हैं, विकास की अवधारणा भी बहुत स्पष्ट नहीं है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में विकास का अर्थ सामाजिक विकास से है। प्रारंभिक समाजशास्त्रियों विशेषकर कौंत, स्पेन्सर एवं हॉबहाउस ने सामाजिक उद्विकास (Social Evolution), प्रगति (Progress) एवं सामाजिक विकास (Social Development) को एक ही अर्थ में प्रयोग किया था। आधुनिक समाजशास्त्री इन शब्दों को कुछ विशेष अर्थ में ही इस्तेमाल करते हैं।


आज समाजशास्त्र के क्षेत्र में विकास से हमारा तात्पर्य मुख्यत: सामाजिक विकास से है। इसका प्रयोग विशेषकर उद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण के चलते विकसित एवं विकासशील देशों के बीच अन्तर स्पष्ट करने के लिए होता है।



 सामाजिक विकास में आर्थिक विकास का भी भाव छिपा होता है और उसी के तहत हम परम्परागत समाज (Traditional Society), संक्रमणशील समाज (Transitional Society) एवं आधुनिक समाज (Modern Society) की चर्चा करते हैं। 



आधुनिक शिक्षा का विकास भी एक प्रकार का सामाजिक विकास है। उसी तरह से कृषि पर आधारित सामाजिक व्यवस्था से उद्योग पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की ओर अग्रसर होना भी सामाजिक विकास कहा जाएगा।



 दूसरे शब्दों में, सामन्तवाद (Feudalism) से पूँजीवाद (Capitalism) की ओर जाना भी एक प्रकार का विकास है।



सामाजिक आन्दोलन

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का एक बहुत प्रमुख कारक रहा है। विशेषकर दकियानूसी समाज में सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा काफी परिवर्तन आए हैं।


गिडेन्स के अनुसार सामूहिक आन्दोलन व्यक्ेितयों का ऐसा प्रयास है जिसका एक सामान्य उद्देश्य होता है और उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थागत सामाजिक नियमों का सहारा न लेकर लोग अपने ढंग से व्यवस्थित होकर किसी परम्परागत व्यवस्था को बदलने का प्रयास करते हैं।


 



गिडेन्स ने कहा है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि सामाजिक आन्दोलन और औपचारिक संगठन (Formal Organization) एक ही तरह की चीजें हैं, पर दोनों बिल्कुल भिन्न हैं।



 सामाजिक आन्दोलन के अन्तर्गत नौकरशाही व्यवस्था जैसे नियम नहीं होते, जबकि औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत नौकरशाही नियम-कानून की अधिकता होती है। इतना ही नहीं दोनों के बीच उद्देश्यों का भी फर्क होता है।



 उसी तरह से कबीर पंथ, आर्य समाज, बह्मो समाज या हाल का पिछड़ा वर्ग आन्दोलन (Backward Class Movement) को सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है। औपचारिक व्यवस्था नहीं।



क्रांति

सामाजिक आन्दोलन से भी ज्यादा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम क्रांति है, इसलिए यहाँ इसकी भी चर्चा आवश्यक है। क्रांति के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन पिछली दो-तीन शताब्दियों में मानव इतिहास में काफी, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ आई हैं, जिससे कुछ राष्ट्रों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हुए हैं। 



इस संदर्भ में 1775-83 की अमेरिकी क्रांति एवं 1789 की फ्रांसीसी क्रांति विशेष रूप से उललेखनीय हैं। इन क्रांतियों के चलते आज समस्त विश्व में स्वतंत्रता (Liberty), सामाजिक समानता (Social Equality) और प्रजातंत्र (Democracy) की बात की जाती है। 



उसी तरह से रूसी और चीनी क्रांति का विश्व स्तर पर अपना ही महत्व है। अब्राम्स (Abrams, 1982) ने बताया है कि विश्व में अधिकांश क्रांतियाँ मौलिक सामाजिक पुनर्निमाण के लिए हुई हैं। अरेंड (Nannah Arendt, 1963) के अनुसार क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य परम्परागत व्यवस्था से अपने-आपको अलग करना एवं नये समाज का निर्माण करना है। 




इतिहास में कभी-कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। कुछ ऐसी भी क्रांतियाँ हुई हैं, जिनके द्वारा हम समाज को और भी पुरातन समय में ले जाने की कोशिश करते हैं।



सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के संबंध में विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त का उल्लेख किया है। इन सिद्धान्तों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।


उद्वविकासवादी के प्रमुख प्रवर्तक हर्बर्ट स्पेन्सर हैं जिनके अनुसार सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे, सरल से जटिल की और कुछ निश्चित स्तरों से गुजरता हुआ होता है।


 



संरचनात्मक कार्यात्मक सिद्धांत के प्रवर्तकों में दुर्खीम, वेबर, पार्सन्स, मर्टन आदि विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है। इन विद्वानों के मतानुसार सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली प्रत्येक इकाई का अपना एक प्रकार्य होता है और यह प्रकार्य उसके अस्तित्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण होता है। इस प्रकार सामाजिक सरंचना और इसको बनाने वाली इकाइयों (संस्थाओं, समूहों आदि) के बीच एक प्रकार्यात्मक संबंध होता है और इसीलिए इन प्रकार्यों में जब परिवर्तन होता है तो सामाजिक संरचना भी उसी अनुसार बदल जाती है। सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। आगर्बन द्वारा प्रस्तुत ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (Cultural Lag) के सिद्धान्त को भी कुछ विद्वान इसी श्रेणी में सम्मिलित करते हैं।


 



संघर्ष या द्वन्द्व के सिद्धांत के समर्थक कार्ल मार्क्स, कोजर, डेहर डोर्फ़ आदि हैं। इनके सिद्धान्तों का सार-तत्व यह है कि सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तन का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों या शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है।


चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तक स्पेगलट, परेटो आदि हैं जो कि परिवर्तन की दिशा को चक्र की भाँति मानते हैं।




चक्रीय सिद्धान्त

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की मूल मान्यता यह है कि सामाजिक परिवर्तन की गति और दिशा एक चक्र की भाँति है और इसलिए सामाजिक परिवर्तन जहाँ से आरम्भ होता है, अन्त में घूम कर फिर वहीं पहुँच कर समाप्त होता है। यह स्थिति चक्र की तरह पूरी होने के बाद बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराती है। इसका उत्तम उदाहरण भारत, चीन व ग्रीक की सभ्यताएँ हैं। चक्रीय सिद्धान्त के कतिपय प्रवर्तकों ने अपने सिद्धान्त के सार-तत्व को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि इतिहास अपने को दुहराता है’।


चक्रीय सिद्धान्त विचारानुसार परिवर्तन की प्रकृति एक चक्र की भाँति होती है। अर्थात् जिस स्थिति से परिवर्तन शुरू होता है, परिवर्तन की गति गोलाकार में आगे बढ़ते-बढ़ते पुन: उसी स्थान पर लौट आती है जहाँ पर कि वह आरम्भ में थी। विल्फ्रेडो परेटो ने सामाजिक परिवर्तन के अपने चक्रीय सिद्धान्त में यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि किस भाँति राजनीतिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में चक्रीय गति से परिवर्तन होता रहता है।




परेटो का चक्रीय सिद्धान्त

परेटो के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संरचना में जो ऊँच-नीच का संस्तरण होता है, वह मोटे तौर पर दो वर्गों द्वारा होता है- उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग। इनमें से कोई भी वर्ग स्थिर नहीं होता, अपितु इनमें ‘चक्रीय गति’ (Cyclical Movement) पाई जाती है। चक्रीय गति इस अर्थ में कि समाज में इन दो वर्गों में निरन्तर ऊपर से नीचे या अधोगामी और नीचे से ऊपर या ऊध्र्वगामी प्रवाह होता रहता है। जो वर्ग सामाजिक संरचना में ऊपरी भाग में होते हैं वह कालान्तर में भ्रष्ट हो जाने के कारण अपने पद और प्रतिष्ठा से गिर जाते हैं, अर्थात। अभिजात-वर्ग अपने गुणों को खोकर या असफल होकर निम्न वर्ग में आ जाते हैं। दूसरी ओर, उन खाली जगहों को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो बुद्धिमान, कुशल, चरित्रवान तथा योग्य लोग होते हैं, वे नीचे से ऊपर की ओर जाते रहते हैं। इस प्रकार उच्च वर्ग का निम्न वर्ग में आने या उसका विनाश होने और निम्न वर्ग का उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चक्रीय ढंग से चलती रहती है। इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक ढाँचा परिवर्तित हो जाता है या सामाजिक परिवर्तन होता है।


 

परेटो के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के चक्र के तीन मुख्य पक्ष हैं- राजनीतिक, आर्थिक तथा आदर्शात्मक। राजनीतिक क्षेत्र में चक्रीय परिवर्तन तब गतिशील होता है जब शासन-सत्ता उस वर्ग के लोगों के हाथों में आ जाती है जिनमें समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक अधिक शक्तिशाली होते हैं। इन्हें ‘शेर’ (Lions) कहा जाता है। समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक द्वारा अत्यधिक प्रभावित होने के कारण इन ‘शेर’ लोगों का कुछ आदर्शवादी लक्ष्यों पर दृढ़ विश्वास होता है और उन आदर्शों की प्राप्ति के लिए ये शक्ति का भी सहारा लेने में नहीं झिझकते। शक्ति-प्रयोग की प्रतिक्रिया भयंकर हो सकती है, इसलिए यह तरीका असुविधाजनक होता है। इस कारण वे कूटनीति का सहारा लेते हैं, और ‘शेर, से अपने को ‘लोमड़ियों’ (foxes) में बदल लेते हैं और लोमड़ी की भाँति चालाकी से काम लेते हैं। लेकिन निम्न वर्ग में भी लोमड़ियाँ होती हैं और वे भी सत्ता को अपने हाथ में लेने की फिराक में रहती हैं। अन्त में, एक समय ऐसा भी आता है जबकि वास्तव में उच्च वर्ग की लोमड़ियों के हाथ से सत्ता निकालकर निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ में आ जाती है, तभी राजनीतिक क्षेत्र में या राजनीतिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन होता है।


जहाँ तक आर्थिक क्षेत्र या आर्थिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन का प्रश्न है, परेटो हमारा ध्यान समाज के दो आर्थिक वर्गों की ओर आकर्षित करते हैं। वे दो वर्ग हैं- (1) सट्टेबाज (speculators) और (2) निश्चित आय वाला वर्ग (rentiers)। पहले वर्ग के सदस्यों की आय बिल्कुल अनिश्चित होती है, कभी कम तो कभी ज्यादा; पर जो कुछ भी इस वर्ग के लोग कमाते हैं वह अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर ही कमाते हैं। इसके विपरीत, दूसरे वर्ग की आय निश्चित या लगभग निश्चित होती है क्योंकि वह सट्टेबाजों की भाँति अनुमान पर निर्भर नहीं है। सट्टेबाजों में सम्मिलन के विशिष्ट-चालक की प्रधानता तथा निश्चित आय वाले वर्ग के समूह में स्थायित्व के विशिष्ट-चालक की प्रमुखता पाई जाती है। इसी कारण पहले वर्ग के लोग आविष्कारकर्ता, लोगों के नेता या कुशल व्यवसायी आदि होते हैं। यह वर्ग अपने आर्थिक हित या अन्य प्रकार की शक्ति के मोह से चालाकी और भ्रष्टाचार का स्वयं शिकार हो जाता है जिसके कारण उसका पतन होता है और दूसरा वर्ग उसका स्थान ले लेता है। समाज की समृद्धि या विकास इसी बात पर निर्भर है कि सम्मिलन का विशिष्ट-चालक वाला वर्ग नए-नए सम्मिलन और आविष्कार के द्वारा राष्ट्र को नवप्रवर्तन की ओर ले जाए और समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक वाला वर्ग उन नए सम्मिलनों से मिल सकने वाले समस्त लाभों को प्राप्त करने में सहायता दें। आर्थिक प्रगति या परिवर्तन का रहस्य इसी में छिपा हुआ है।


 



उसी प्रकार में अविश्वास और विश्वास का चक्र चलता रहता है। किसी एक समय-विशेष में समाज में विश्वासवादियों का प्रभुत्व रहता है परन्तु वे अपनी दृढ़ता या रूढ़िवादिता के कारण अपने पतन का साधन अपने-आप ही जुटा लेते हैं और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं।

उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त




चक्रीय सिद्धान्त से मिलता-जुलता सोरोकिन का ‘सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त’ (Theory of Socio-cultural Dynamics) या उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त है। कतिपय विद्वानों ने इसे चक्रीय सिद्धान्त की श्रेणी में ही रखा है।


हैस स्पीयर के शब्दों में, सोरोकिन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट पता चलता है कि कोई प्रगति नहीं हुई है, न कोई चक्रीय परिवर्तन हुआ है। सोरोकिन के अनुसार जो कुछ भी है वह केवल मात्र उतार-चढ़ाव (Fluctuation) है। संस्कृति के बुनियादी स्वरूपों का उतार-चढ़ाव, सामाजिक संबंधों का उतार-चढ़ाव, शक्ति के केन्द्रीकरण का उतार-चढ़ाव यहाँ तक कि आर्थिक अवस्थाओं में सर्वत्र ही उतार-चढ़ाव है।’’ इसी उतार-चढ़ाव में समस्त सामाजिक घटनाओं और परिवर्तनों का रहस्य छिपा हुआ है।


 



सोरोकिन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव में व्यक्त होता है। उतार-चढ़ाव की धारणा सोरोकिन के सिद्धान्त का प्रथम आधार है। यह उतार-चढ़ाव दो सांस्कृतिक व्यवस्थाओं-चेतनात्मक संस्कृति तथा भावनात्मक संस्कृति-के बीच होता है। दूसरे शब्दों में, जब समाज चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में या भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में बदलता है, तभी सामाजिक परिवर्तन होता है। अर्थात् तभी विज्ञान, दर्शन, धर्म, कानून, नैतिकता, आर्थिक व्यवस्था, राजनीति, कला, साहित्य, सामाजिक संबंध सब-कुछ बदल जाता है। इस प्रकार सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा आधार चेतनात्मक संस्कृति और भावनात्मक संस्कृति के बीच भेद है।


 



सोरोकिन  के अनुसार जब एक सांस्कृतिक व्यवस्था, उदाहरणार्थ चेतनात्मक संस्कृति व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो उसे अपनी गति को विपरीत दिशा, अर्थात् भावनात्मक संस्कृति व्यवस्था की ओर मोड़ना ही पड़ता है। अर्थात् पहले की व्यवस्था के स्थान पर दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है; क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था की-चाहे वह कितनी ही अच्छी हो या बुरी-पनपने, आगे बढ़ने अथवा विकसित होने की एक सीमा है। यही सोरोकिन का ‘सीमाओं का सिद्धान्त’ है जो कि सामाजिक परिवर्तन का तीसरा आधार है।


इन सीमाओं के सिद्धान्त को बीरस्टीड द्वारा प्रस्तुत एक उदाहरण की सहायता से अति सरलता से समझा जा सकता है। यदि आप प्यानों की एक कुंजी को उँगली मारेंगे तो उससे कुछ ध्वनि उत्पन्न होगी। यदि आप जरा जोर से उँगली मारेंगे तो अवश्य ही ध्वनि भी अधिक जोर की होगी। परन्तु इस प्रकार जोर से उँगली मारने और अधिक जोर से ध्वनि निकालने की एक सीमा है। एक सीमा से अधिक जोर से यदि आप प्यानों पर आघात करेंगे तो अधिक जोर से ध्वनि निकलने की अपेक्षा स्वयं प्यानों ही टूट जाएगा। यही बात सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर भी लागू होती है। एक सांस्कृतिक व्यवस्था एक सीमा तक पहुँच जाने के बाद फिर आगे नहीं बढ़ सकती और तब तक विपरीत प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और टूटे हुए प्यानों की भाँति उस व्यवस्था के स्थान पर एक नवीन सांस्कृतिक व्यवस्था स्वत: उदय होती है।


सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का यह है कि सांस्कृतिक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन होता तो अवश्य है, परन्तु होता है अनियमित रूप में। दूसरे शब्दों में, सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव को किन्हीं निश्चित बन्धनों में बाँधा नहीं जा सकता है। यद्यपि यह सच है कि संस्कृति एक गतिशील व्यवस्था है फिर भी हम यह आशा नहीं कर सकते कि एक सांस्कृतिक व्यवस्था किसी एक निश्चित दिशा की ओर स्थायी रूप में गतिशील रहेगी।


अब प्रश्न यह उठता है कि चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था में या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था में जो परिवर्तन होता है उस परिवर्तन को लाने वाली कौन-सी शक्ति हैं? सोरोकिन ने इस प्रश्न का उत्तर ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ (Principle of Immanent Change) के आधारपर दिया है और यही आपके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का आधार है। ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ है कि परिवर्तन होने का कारण या परिवर्तन लाने वाली शक्ति स्वयं संस्कृति की अपनी प्रकृति में ही अन्तर्निहित है। परिवर्तन लाने वाली कोई बाहरी शक्ति नहीं बल्कि संस्कृति की प्रकृति में ही क्रियाशील आन्तरिक शक्ति या शक्तियाँ हैं। संक्षेप में, सोरोकिन के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जोकि संस्कृति के अन्दर ही क्रियाशील कुछ शक्तियों का परिणाम होती है। सामाजिक परिवर्तन एक कृत्रिम प्रक्रिया है या किसी बाह्य शक्ति द्वारा प्रेरित होती है- ऐसा सोचना गलत है। चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था का या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था का परिवर्तन एक स्वाभाविक तथा आन्तरिक प्रक्रिया है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसा होना ही स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ, गुलाब का एक बीज केवल गुलाब के ही पौधे में, न कि अन्य प्रकार के पौधे में, इसलिए विकसित होता है क्योंकि यही स्वाभाविक है या वह उस बीज के स्वभाव में अन्तर्निहित है।



रेखीय परिवर्तन का सिद्धान्त

यह सामाजिक परिवर्तन का वह स्वरूप है; जिसमें परिवर्तन की दिशा सदैव ऊपर की ओर होती है। परिवर्तन एक सिलसिले या क्रम से विकास की ओर एक ही दिशा में निरन्तर होता जाता है। जो आविष्कार आज हुआ है उससे आगे ही आविष्कार होगा, जैसे रेडियों के बाद टेलीविजन का अविष्कार हुआ उसे और विकसित करके टेलीफोन से बात करते समय दूसरी ओर से बात करने वाले को देखा भी जा सकेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि परिवर्तन के इस प्रतिमान में परिवर्तन रेखीय होता है और उसे हम एक रेखा से प्रदर्शित कर सकते हैं। इस परिवर्तन की गति तीव्र या मंद हो सकती है।


आदिम समाज में परिवर्तन धीमी गति से था जबकि आधुनिक समाजों में गति तीव्र है, परन्तु दोनों समाजों में परिवर्तन एक रेखा में ही अर्थात आगे बढ़ता हुआ है। सामाजिक परिवर्तन के रेखाीय सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से समझने के लिए अगर इसका अन्तर चक्रीय सिद्धान्त से किया जाए तो इसकी प्रकृति को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। दोनों में अन्तर निम्न प्रकार से किया जा सकता है-


रेखीय सिद्धान्त इस विचार पर आधारित है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ने की होती है, इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन सदैव उतार-चढ़ाव से युक्त होते हैं अर्थात प्रत्येक परिवर्तन सदैव नई दिशा उत्पन्न नहीं करता बल्कि इसके कारण समूह द्वारा कभी नई विशेषताओं और कभी पहले छोड़ी जा चुकी विशेषताओं को पुन: ग्रहण किया जा सकता है।

रेखीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की दिशा साधारणतया अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने की होती है। चक्रीय सिद्धान्त में परिवर्तन के किसी ऐसे क्रम को स्पष्ट नहीं किया जा सकता, इसमें परिवर्तन पूर्णता से अपूर्णता अथवा अपूर्णता से पूर्णता किसी भी दिशा की ओर हो सकता है। 



रेखीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन की गति आरम्भ में धीमी होती है लेकिन एक निश्चित बिन्दु तक पहुँचने के बाद परिवर्तन बहुत स्पष्ट रूप से तथा तेजी से होने लगता है। प्रौद्योगिक विचार से उत्पन्न परिवर्तन इस कथन की पुष्टि करते हैं। जबकि इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार एक विशेष परिवर्तन को किसी निश्चित अवधि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता । परिवर्तन कभी जल्दी-जल्दी हो सकते हैं और कभी बहुत सामान्य गति से। 

रेखीय सिद्धान्त की तुलना में चक्रीय सिद्धान्तों पर विकासवाद (Evolutionism) का प्रभाव बहुत कम है। तात्पर्य यह है कि रेखाीय सिद्धान्त के अनुसार परिवर्तन की प्रवृत्ति एक ही दिशा में तथा सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है। इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में भेद करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि विकासवादी प्रक्रिया अधिक से अधिक सामाजिक परिवर्तन में ही देखने को मिलती है जबकि सांस्कृतिक जीवन और विशेष मूल्यों तथा लोकाचारों में होने वाला परिवर्तन उतार-चढ़ाव से युक्त रहता है। 



रेखीय सिद्धान्त सैद्धान्तिकता (indoctrination) पर अधिक बल देते हैं, ऐतिहासिक साक्षियों पर नहीं। जब कि चक्रीय सिद्धान्त के द्वारा उतार-चढ़ाव से युक्त परिवर्तनों को ऐतिहासिक प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है इस प्रकार उनके प्रतिपादकों का दावा है कि उनके सिद्धान्त अनुभवसिद्ध हैं। 



रेखीय परिवर्तन व्यक्ति के जागरूक प्रयत्नों से संबंधित है। इतना अवश्य है कि रेखीय परिवर्तन एक विशेष भौतिक पर्यावरण से प्रभावित होते हैं लेकिन भौतिक पर्यावरण स्वयं मनुष्य के चेतन प्रयत्नों से निर्मित होता है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक परिवर्तन एक बड़ी सीमा तक मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक दशाओं, मानवीय आवश्यकताओं तथा प्रवृत्तियों (Attitudes) में होने वाले परिवर्तन के साथ सामाजिक संरचना स्वयं ही एक विशेष रूप ग्रहण करना आरम्भ कर देती है। 



रेखीय सिद्धान्त परिवर्तन के एक विशेष कारण पर ही बल देता है और यही कारण है कि कुछ भौतिक दशाएँ सदैव अपने और समूह के बीच एक आदर्श सन्तुलन अथवा अभियोजनशीलता (Adjustment) स्थापित करने का प्रयत्न करती है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त परिवर्तन का कोई विशेष कारण स्पष्ट नहीं करते बल्कि इनके अनुसार समाज में अधिकांश परिवर्तन इसलिए उत्पन्न होते हैं कि परिवर्तन का स्वाभाविक नियम है।



रेखीय सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देते हैं कि परिवर्तन का क्रम सभी समाजों पर समान रूप से लागू होता है। इसका कारण यह है कि एक स्थान के भौतिक अथवा प्रौद्योगिक पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले परिवर्तन को शीघ्र ही दूसरे समाज द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। बल्कि चक्रीय सिद्धान्त के अनुसार एक विशेष प्रकृति के परिवर्तन का रूप सर्वव्यापी नहीं होता; अर्थात विभिन्न समाजों और विभिन्न अवधियों में परिवर्तन की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार से मानव समूहों को प्रभावित करती है।



द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त 

द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि समाज में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों व शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है। इस सिद्धान्त के समर्थक यह मानने से इन्कार करते हैं कि समाज बिना किसी बाधा, गतिरोध या संघर्ष के उद्विकासीय ढंग से सरल से उच्च व जटिल स्तर तक पहुँच जाता या परिवर्तित होता है। उनके अनुसार समाज की प्रत्येक क्रिया, उप-व्यवस्था (sub-system) और वर्ग का विरोधी तत्व अवश्य होता है और इसीलिए उनमें विरोधी प्रतिक्रिया या संघर्ष अवश्य होता है। इस संघर्ष के फलस्वरूप ही सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तन घटित होता है। साथ ही, ये परिवर्तन सदा शान्तिपूर्ण ढंग से होता हो, यह बात भी नहीं है क्योंकि समाज विस्फोटक तत्वों या शक्तियों से भरा हुआ होता है। इसलिए क्रान्ति के द्वारा भी परिवर्तन घटित हो सकता है। क्रान्ति के इस कष्ट को सहन किए बिना नए युग का प्रारम्भ उसी प्रकार सम्भव नहीं जैसे प्रसव पीड़ा को सहन किए बिना नव सन्तान का जन्म सम्भव नहीं। इसी सन्दर्भ में संघर्ष के कुछ सिद्धान्तों की विवेचना है।

कार्ल मार्क्स का सिद्धांत

वेबलन का का सिद्धांत

टोयनोबी का सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार या प्रारूप

सभी समाज और सभी कालों में सामाजिक परिवर्तन एक जैसा नहीं होता है। अत: हमें सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप के सन्दर्भ में उसके प्रतिरूप (Patterns), प्रकार (Kinds) या प्रारूप (Models) पर विचार करना चाहिए। अर्थ की दृष्टि से तीनों शब्दों में काफी भेद है, पर विषय-वस्तु की दृष्टि से समानता। वे सभी एक ही किस्म की विषय-वस्तु के द्योतक हैं। निम्न विवरण से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी।


सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिरूप (Patterns) देखने को मिलते हैं। कुछ विचारकों ने सर्वसम्मत, विरोध मत एवं एकीकृत प्रतिमानों की चर्चा की है। मकीवर एवं पेज ने सामाजिक प्रतिरूप के मुख्य तीन स्वरूपों की चर्चा की है, जो इस प्रकार हैं-

सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी क्रमबद्ध तरीके से एक ही दिशा में निरंतर चलता रहता है भले ही परिवर्तन का आरंभ एकाएक ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए हम विभिन्न अविष्कारों के पश्चात् परिवर्तन के क्रमों की चर्चा कर सकते हैं। विज्ञान के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रकृति एक ही दिशा में निरंतर आगे बढ़ने की होती है



इसलिए ऐसे परिवर्तन को हम रेखीय (Linear) परिवर्तन कहते हैं। अधिकांश उद्विकासीय समाजशास्त्री (Evolutionary Sociologists) एक रेखीय सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करते हैं। 



कुछ सामाजिक परिवर्तनों में परिवर्तन की प्रकृति ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने की होती है, इसलिए इसे उतार-चढ़ाव परिवर्तन (Fluctuating Changes) के नाम से भी हम जानते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय सांस्कृतिक परिवर्तन की चर्चा कर सकते हैं। 


पहले भारत के लोग आध्यात्मवाद (Spiritualism) की ओर बढ़ रहे थे, जबकि आज वे उसके विपरीत भौतिकवाद (Materialism) की ओर बढ़ रहे हैं। पहले का सामाजिक मूल्य ‘त्याग’ पर जोर देता था, जबकि आज का सामाजिक मूल्य ‘भोग’ एवं संचय पर जोर देता है।


 इस प्रतिरूप के अन्तर्गत यह निश्चित नहीं होता कि परिवर्तन कब और किस दिशा की ओर उन्मुख होगा। 



परिवर्तन के तृतीय प्रतिरूप को तरंगीय परिवर्तन के भी नाम से जाना जाता है। इस परिवर्तन के अन्तर्गत उतार-चढ़ावदार परिवर्तन में परिवर्तन की दिशा एक सीमा के बाद विपरीत दिशा की ओर उन्मुख हो जाती है। इसमें लहरों (Waves) की भाँति एक के बाद दूसरा परिवर्तन आता है। 



ऐसा कहना मुश्किल होता है कि दूसरी लहर पहली लहर के विपरीत है। हम यह भी कहने की स्थिति में नहीं होते हैं कि दूसरा परिवर्तन पहले की तुलना में उन्नति या अवनति का सूचक है। इस प्रतिरूप का सटीक उदाहरण है फैशन।



 हर समाज में नये-नये फैशन की लहरें आती रहती हैं। हर फैशन में लोगों को कुछ-न-कुछ नया परिवर्तन दिखाई देता है। ऐसे परिवर्तनों में उत्थान, पतन और प्रगति की चर्चा फिजूल है।




सामाजिक परिवर्तन के कारक



सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत कारक हैं। कारकों की प्रमुखता देश और काल से प्रभावित होती है। जिन कारणों से आज सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनमें से बहुत कारक प्राचीन काल में मौजूद नहीं थे। परिवर्तन के जिन कारकों की महत्ता प्राचीन एवं मध्य काल में रही है, आज उसकी महत्ता उतनी नहीं रह गयी है। समय के साथ परिवर्तन का स्वरूप और कारक दोनों बदलते रहते हैं। 



एच0एम0 जॉनसन ने परिवर्तन के स्रोतों को ध्यान में रखकर परिवर्तन के सभी कारकों को मुख्य रूप से तीन भागों में रखा है।




आन्तरिक कारण -

सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी आन्तरिक कारणों से भी होता है। व्यवस्था का विरोध आन्तरिक विरोध (Internal Contradictions) से भी होता है। जब लोग किसी कारणवश अपनी परम्परागत व्यवस्था से खुश नहीं होते हैं तो उसमें फेरबदल करने की कोशिश करते रहते हैं। आमतौर पर एक बन्द समाज में परिवर्तन का मुख्य स्रोत अंतर्जात (Endogenous/Orthogenetic) कारक ही रहा है। धर्म सुधार आन्दोलन से जो हिन्दू समाज में परिवर्तन आया है, वह अंतर्जात कारक का एक उदाहरण है।

बाहरी कारण -

जब दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्था, प्रतिमान एवं मूल्य एक-दूसरे से मिलते हैं तो सामाजिक परिवर्तन की स्थिति का निर्माण होता है। पश्चिमीकरण या पाश्चात्य प्रौद्योगिकी के द्वारा जो भारतीय समाज में परिवर्तन आया है, उसे इसी श्रेणी में रखा जाएगा। साधारणत: युग में परिवर्तन के आन्तरिक स्रोतों की तुलना में बहिर्जात (Exogenous/Heterogenetic) कारकों की प्रधानता होती है।



गैरसामाजिक कारण -

सामाजिक परिवर्तन का स्रोत हमेशा सामाजिक कारण ही नहीं होता। कभी-कभी भौगोलिक या भौतिक स्थितियों में परिवर्तन से भी सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। आदिम एवं पुरातनकाल में जो समाज में परिवर्तन हुए हैं, उन परिवर्तनों से गैरसामाजिक कारकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है।



Saturday, February 27, 2021

संगीत


https://youtu.be/LpYjGdImlao

ॐ ‘ध्वनि मौन का सौंदर्य है, नाद का स्पंदन है। मौन में इसका उत्सव अनाहत है और शब्द में आहत।’ जब यह ध्वनि मौन के रूप में है तो अनाहत है और शब्द रूप में प्रकट होते ही आहत है। इस अनाहत ध्वनि के सौंदर्य की अनुभूति के लिए ही हम सब आहत यानी शब्द अथवा स्वर का आश्रय ढूँढ़ते हैं। 

‘शिवस्वरोदय’ में शिव पार्वती से कहते हैं, ‘सभी वेद, शास्त्र, संगीत एवं तीनों लोक स्वरों में अंतर्निहित हैं और स्वर आत्मा के प्रतिरूप हैं। विनिमेय हैं। स्वरों के ज्ञान से शुभ फल तुरंत प्राप्त होते हैं। इस ब्रह्मांड का अंश और पूर्ण स्वरों से निर्मित है।’ 
नाद स्वर की चेतना है, स्वर का स्पंदन है। इस अनाहत नाद से सर्वप्रथम स्फोट के परिणाम के रूप में जो आहत स्वर निकला वह था ओंकार। 

यह ओम परम नाद या शब्दब्रह्म या स्वरब्रह्म है, सृष्टिरूपी छंद का प्रथम अक्षर है। इसलिए जब हम ओम् का उच्चारण करते हैं तो कहीं-न-कहीं आदितत्त्व से जुड़ते हैं। इसीलिए परमतत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए ऋषियों, मुनियों और साधकों ने स्वर अथवा नाद अथवा स्थूल रूप में संगीत कहें, को उत्कृष्ट माध्यम के रूप में स्वीकार किया था। यही कारण है

तन को सौ सौ बंदिशें,  
मन को लगी ना रोक...  
तन की दो गज़ कोठरी,  
मन के तीनों लोक

याद

बस इतना सा असर होगा हमारी यादों का..
कि कभी कभी आप .. बिना बात  मुस्कुराओगे..
https://youtu.be/q9qbyHMjEbU

साहित्‍य का समाजशास्‍त्र

साहित्‍य का समाजशास्‍त्र


            साहित्‍य और समाजशास्‍त्र का बहुत पुराना और गहरा संबंध है। समाज जब-जब परिवर्तन का रूप धारण कर लेती है तब-तब समकालीन लेखनी में छवि छूट जाती है। वहीं लेखनी साहित्‍य समाजशास्‍त्र का दस्‍तावेज बन जाती है। समाज नित्‍य परिवर्तनशील होने के नाते तत्‍कालीन साहित्‍य का समाजशास्‍त्र भी अलग-अलग रूप लेकर समाज को एक नया मार्ग दिखाने का काम करती है। साहित्‍यकार जिस समाज में अपना जीवन व्‍यापन करता है उसी का विरोध करता या तो गुणगान करने लगता है। साहित्‍य पर समाज की प्रगति निर्भर करती है। पहले तो समाज का निर्माण होता है, बाद में साहित्‍य की प्रस्‍तुति होती है। जिस तरह समाज में बदलाव होते रहते हैं उसी तरह साहित्‍य में भी अलग-अलग पहलू सामने आने लगते हैं। साहित्‍य समाज का जीता जागता इतिहास है। क्‍योंकि साहित्‍य अपनी गयी गुजरी हुई कोई भी छाप देखता है तो समाज को साहित्‍य की ओर अग्र होना पड़ता है। समाज के बिना साहित्‍य की रचना नहीं होती,साहित्‍य के बिना समाज अधूरा लगता है। इसी कारणवश दोनों का संबंध अटूट दिखने लगता है। मानव जब एकत्रित होकर जीवन व्‍यापन करने लगा तब से समाज का उदय हुआ। इसमें भी समाज अनेक शाब्दिक अर्थ समुदाय, दल, समूह, झुंड,गिरोह......आदि अर्थ लेकर सामने आयी, उसी तरह के समाजशास्‍त्र की परिभाषाओं में भी अनेक मतभेद दिखाई देते हैं परंतु आधुनिक युग में समाजशास्‍त्र पर अधिक महत्‍व दिया जाने लगा है।

https://youtu.be/EhLZUqe_aKY

     “समाजशास्‍त्र (sociology) शब्‍द का प्रयोग सबसे पहले एक फ्रांसीसी दार्शनिक आगस्‍त कौत (Augaste Majie Francois Xavier comte) ने 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में किया था। इस शब्‍द का ‘Sociologie’ प्रथम हिज्‍ये या वर्तनी है। चूँकि ‘Sociology’ शब्‍द और उस विषय को सबसे पहले ऑगस्‍त कौंत ने विकसित किया था, इसलिए उन्‍हें समाजशास्‍त्र का जनक (Father of Sociology) कहा जाता है।”[1]

     पहली बार फ्रांस का एक दार्शनिक,समाजचिंतक, सामाजिक मेधावी ने सर्वप्रथम समाजशास्‍त्र का शब्‍द का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय आगस्‍त कौंत को मिलता है। समाजशास्‍त्र शब्‍द 19वीं शताब्‍दी के पूर्व में समाजशास्‍त्र का परिचय कराया था। इसलिए आज आधुनिक युग में एक लोकप्रिय, समाजप्रिय, चर्चित, साहित्‍यप्रिय विषय बनकर सामने आने लगी है।

     “सोशियोलॉजी शब्‍द सोशियो+लॉजी का निर्मित रूप है। सोशियो का अर्थ है समाज और लॉजी का अर्थ ज्ञान या शास्‍त्र अथवा विज्ञान।”[2]

     दूसरे शब्‍दों में कहा जा सकता है कि समाजशास्‍त्र को वैज्ञानिक रूप से अध्‍ययन करने वाला सामाजिक संस्‍थाओं का वैज्ञानिक रूप से सामाजिक विज्ञान माना गया है।

     मैक्‍स वेबर का मानना है कि “समाजशास्‍त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया (Social Action) का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करता है। यहाँ सामाजिक क्रिया से तात्‍पर्य सामाजिक व्‍यवहार से है। जब हम किसी सामाजिक व्‍यवहार की बात करते हैं तब इसका अर्थ वैसे व्‍यवहार से होता है जिसे लोग किसी व्‍यक्ति या समूह के संदर्भ में करते हैं। एकांत में भगवान का ध्‍यान करना सामाजिक व्‍यवहार नहीं,क्‍योंकि ऐसे व्‍यवहार का संबंध न तो किसी व्‍यक्ति से है और न किसी समूह से।”[3]

     समाजशास्‍त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो समाजशास्‍त्र का आलोचना, विमर्श, समीक्षा सामाजिक सारी राज किया, आर्थिक, शैक्षणिक,सांस्‍कृतिक, ऐतिहासिक आदि सामाजिक संस्‍थाओं का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र माना गया है। समाज में अभिव्‍यक्‍त सारी व्‍यवहारों के साथ मानव जुटे रहने का परिचय कराता है।

     बोगार्ड्स के मतानुसार – “समाजशास्‍त्र उन मानसिक प्रक्रियाओं का अध्‍ययन है जो सामाजिक वर्गों द्वारा समूहों में व्‍यक्तित्‍व को विकसित एवं परिपक्‍व करने का कार्य करता है।”[4]

     समाजशास्‍त्र एक मनोविज्ञान है जो समाजशास्‍त्र की मानसिकता का अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र है। सामाजिक विभिन्‍न वर्गों द्वारा मानव का व्‍यक्तित्‍व को परिपक्‍व, विकसित आदि काम करने वाला समाजशास्‍त्र है।

     जॉनसन के विचार में – ‘’समाजशास्‍त्र एक विज्ञान है जो सामाजिक समूहों का अध्‍ययन करता है, विशेषकर उनकी आंतरिक आकृति या व्‍यवस्‍था की विधियों, प्रक्रियाओं जो व्‍यवस्‍था के उन रूपों को बनाए रखती है या उनमें परिवर्तन लाने की चेष्‍टा करती है तथा समूहों की बीच संबंधों का।”[5]

     समाजशास्‍त्र एक सामाजिक विज्ञान है। संपूर्ण सामाजिक संस्‍थाओं का वैज्ञानिक रूप से अध्‍ययन करने वाला समाजशास्‍त्र है। विशेष रूप से सामाजिक आंतरिक एवं बाह्य रूप से सामाजिक क्रिया-कलापों में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं। जैसे समाज परिवर्तन होते रहता है उसी तरह सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होते रहता है।

     

     समाजशास्‍त्र मानवीय चरित्र का अध्‍ययन करता या सामाजिक समूहों का अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र माना गया है। याने मानव एक सामूहिक समूहजीवी होने के कारण मानव जीवन के अनेक पहलुओं के साथ-साथ समाज की वास्‍तविकता सामने आने लगती है।

     गिन्‍जबर्ग (M. Ginshberg) के अनुसार – “समाजशास्‍त्र व्‍यापक अर्थों में मानवीय अंत:क्रियाओं एवं अंत:संबंधों, उनकी अवस्‍थाओं एवं परिणामों का अध्‍ययन है।”[6]

     इनका मानना है कि समाजशास्‍त्र नित्‍य मानव जीवन में होने वाले परिवर्तन प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप में होने वाली बदलाव को लेकर तथा परिणामों का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र को समाजशास्‍त्र कहते हैं।



[1] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 1

[2] अंतिम दशकके हिंदी उपन्‍यासों का समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन – डॉ. गोरखनाथ तिवारी, पृ.सं. 21

[3] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 2

[4] अंतिम दशकके हिंदी उपन्‍यासों का समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन – डॉ. गोरखनाथ तिवारी, पृ.सं. 21

[5] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 3



[6] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं.2

Saturday, December 26, 2020

स्वामी विवेकानंद

1-स्वामी विवेकानंद की चिंतनधारा सनातनी ब्राह्मण-धारा के ठीक उलट है. वह भारतीय चिंतन परम्परा की वैंदातिक धारा से लेकर बौद्ध और अन्य गैर-ब्राह्णवादी धाराओं से भी बहुत कुछ ग्रहण करते हैं।

2-स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी दुनिया को भारतीय दर्शन से परिचय करवाया और वैश्विक मंच पर दृढ़ता के साथ हिन्दूत्व के विचार को प्रस्तुत किया।

3-स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि आध्यात्मिक ज्ञान और भारतीय जीवन दर्शन के द्वारा संपूर्ण विश्व को पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसी जीवन दर्शन के द्वारा भारत को भी क्रियाशील और शक्तिशाली बनाया जा सकता है।

4-
विवेकानंद का सामाजिक दर्शन श्रीमद्भगवद्गीता के 'कर्मयोगी' की अवधारणा से प्रेरित है। उनका मानना था कि राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के आधुनिक पश्चिमी विचारों को 'स्वतंत्रता' की परंपरागत भारतीय धारणा से तालमेल बैठाने की जरूरत है। 

 उनका मत था कि सामाजिक कर्तव्य पालन और सामाजिक सौहार्द के जरिये ही सच्ची स्वतंत्रता पाई जा सकती है।

5-विवेकानंद का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष को आध्यात्मिक आधार दिया और नैतिक व सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज के उत्थान के लिए काम किया।

6-विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना। 


 7-विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।

Sunday, December 20, 2020

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डॉ अंबेडकर और बहुजन भारत के भविष्य का प्रश्न
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-संजय श्रमण 

डॉ. अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर भारत के दलित बहुजनों को अब कुछ गंभीर होकर विचार करना चाहिए। बीते कुछ वर्षों मे भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पतन से जन्मी दुर्दशा की सघन प्रष्ठभूमि मे हमें अंबेडकर की वैचारिक विरासत और उनके दिखलाये मार्ग की सम्मिलित संभावनाओं को ठीक से समझना होगा। जिस गंभीरता से अंबेडकर ने भारत के भविष्य के विषय मे या भारत मे बहुजनों के भविष्य के विषय मे अपनी चिंतन धारा को आकार दिया था - उसे भी हमें एक विशेष ढंग से देखना और समझना होगा। अंबेडकर की दृष्टि मे बहुजनों के भारत मे भविष्य का प्रश्न या फिर स्वयं बहुजन भारत के भविष्य का प्रश्न – ये दो भिन्न आयाम हैं। इन दोनों आयामों की दो भिन्न संभावनाएं हैं और इन संभावनाओं की अपनी सैद्धांतिक और वैचारिक प्रष्ठभूमियाँ भी हैं। 

इस जटिल विषय मे जाने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि भारत मे बहुजनों का भविष्य और बहुजन भारत का भविष्य दो अलग अलग प्रश्न क्यों हैं? इसका उत्तर खोजते हुए हमें भारत के इतिहास मे घटी उन महत्वपूर्ण विचारधाराओ मे झांकना होगा जिनका जन्म प्राचीन और जर्जर हो चुके भारत और यूरोपीय आधुनिकता के बीच के संवाद की प्रष्ठभूमि मे हो रहा है। 

भारत मे यूरोप के प्रभाव के स्थापित होने के पहले मुग़ल भारत मे कबीर और उनके बाद विभिन्न धार्मिक परंपराओं मे समन्वय करती हुई एक विशेष देशज आधुनिकता का जन्म हो रहा था, लेकिन ब्रिटिश आधिपत्य ने इस आधुनिकता का गर्भपात कर दिया (Agrawal 2009)। ब्रिटिश आधिपत्य मे भारतीय समाज की तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियों ने अपने शिखर पर पहुंचकर अपना रंग दिखाना शुरू किया और एक ऐसे असुरक्षित समाज का निर्माण किया जिसमे विभाजन और भय का जहर पहले से अधिक गहरा होकर समाज, राजनीति और लोकजीवन के सभी आयामों मे पसर गया। 

भारत मे यूरोपीय आकाओं ने जिस तरह का कानून का राज बनाया वह ऊपर-ऊपर तो कानून भारत के हित मे प्रतीत होता था लेकिन भीतर ही भीतर बहुत गहराई से ब्रिटिश शासन भारत को कमजोर और विभाजित भी कर रहा था। तमाम नकारात्मक चीजों के बीच कुछ बहुत सकारात्मक चीजें भी ब्रिटिश हुकूमत मे आकार ले रही थीं। एक तरफ कोलोनीयल लूट से भारत की उत्पादन प्रणालियाँ और सामाजिक ताना बाना कमजोर हो रहा था वहीं दूसरी तरफ भारत मे सदा से वंचित और उपेक्षित दलित बहुजन समाज मे यूरोपीय शिक्षा के प्रचार से एक नए जागरण का उदय भी हो रहा था। 

भारत पर यूरोपीय आधिपत्य के बहुत तरह के मूल्यांकन संभव हैं लेकिन जहां तक भारत के ओबीसी और दलितों का प्रश्न है, ब्रिटिश शासन मे भारत के शूद्रअतिशूद्रों को पहली बार शिक्षा और शासकीय सेवा के अवसर मिले। ब्रिटिश शासन के दौरान भी भारत के ओबीसी (शूद्रों) और अस्पृष्यों (दलितों/अतिशूद्रों) पर जिस तरह के अमानवीय अत्याचार होते थे और जिस तरह से ब्राह्मणों की मानसिक सांस्कृतिक गुलामी मे फसाकर भारत के शूद्रअतिशूद्रों का शोषण होता था (Phule 2017), उस विवरण को देखकर समझा जा सकता है कि ब्रिटिश हुकूमत भारत के शूद्रअतिशूद्रों के लिए आजादी और गरिमापूर्ण जीवन की नई संभावना भी लाया था। भारत का मुख्यधारा का सनातनी समाज जब भी शक्तिशाली रहा है और राजनीतिक आर्थिक सत्ता के सूत्र जब तक उसके पास रहे हैं तब-तब भारत के बहुसंख्य जनों और स्त्रियों को अमानवीय जीवन जीने को बाध्य होना पड़ा है। सुदूर अतीत से लेकर मुग़लों के आगमन के पूर्व तक के  इतिहासकारों और अध्येताओं ने इस बात को जोर देकर नोट किया है कि विदेशी आक्रमण या आधिपत्य के काल मे भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों का जीवन कुछ आसान हुआ है (Upadhyaya 2004)

इसके दोहरे कारण रहे हैं, सर्वप्रथम आततायी सत्ता को अपने लिए स्थानीय साथियों और सहयोगियों की आवश्यकता होती थी और दूसरी तरफ सनातनी और वर्णाश्रमवादी सत्ता भी आपद-धर्म का पालन करते हुए छुआछूत और पवित्रता अपवित्रता की अपनी शास्त्रीय आज्ञाओं से जन्मे कानूनों को शिथिल करके शूद्रअतिशूद्रों को गले लगाने का नाटक करती थी। इसी नाटक से ही सारे सामाजिक सुधार आंदोलन और भक्ति आंदोलन सहित तमाम प्रगतिशील परम्पराएं भी जन्म लेती रही हैं। यह नाटक न केवल धर्म से जुड़ी राजनीति का केन्द्रीय संचालक रहा है बल्कि गौर से देखें तो भारत के वर्णाश्रम धर्म का मूल चरित्र भी यही रहा है। भारत मे वर्णाश्रम परंपरा मे जिस तरह के धर्म की धारणा है उसमे धर्म के तीन पक्ष माने गए हैं, एक सैद्धांतिक पक्ष दूसरा व्यवहार पक्ष और तीसरा लोकजीवन की परंपराओं का पक्ष (Choube 2009). इन तीन तरह के धर्मों को की अन्य सुंदर शब्दों मे भी परिभाषित किया गया है। मोहनदास करमचंद गांधी के अनुसार भारत मे धर्म की तीन तरह की प्रतीतियाँ रही हैं जिन्हे सामान्य धर्म विशिष्ठ धर्म और आपद धर्म कहा जाता है (Gandhi 1965). 

सामान्य धर्म मे सत्य बोलना, चोरी और व्यभिचार न करना इत्यादि नैतिक बातें आती हैं वहीं विशिष्ठ धर्म मे वर्ण और जाति के अनुकूल अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना आवश्यक हो जाता है। जब भी ब्राह्मणवादी सतताएं मजबूत होती हैं तब वे विशिष्ठ धर्मों के  पालन के नाम पर समाज मे उंच नीच और जाती व्यवस्था का जहर तेजी से फैलाकर भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों का जीवन नरक बना देते हैं। आपद का पालन करते हुए वे न सिर्फ खुद अपने प्रति थोड़े उदार हो जाते हैं बल्कि दूसरों के प्रति भी प्रगतिशील बन जाते हैं। इस आपद धर्म की सैद्धांतिक और दार्शनिक व्याख्या कुछ भी रही हो लेकिन हकीकत मे यह आपद धर्म ही वर्णाश्रम धर्म को आत्मरक्षा हेतु नए प्रयोग करते हुए प्रगतिशीलता और समावेशी होने का अवसर देता है इसे ही सुंदर शब्दों मे रूढ़िवादी भारत का ‘समावेशी भारत’ होना कहा जाता है। जब भी भारत पर विदेशी सत्ताओं का आक्रमण हुआ है तब तब भारत के शूद्रअतिशूद्रों और स्त्रियों को आजादी की सांस लेने का अवसर मिला है। इस तरह प्रगतिशील होकर समावेशी नजर आना वर्णाश्रम परंपरा का आपद धर्म है वह उसका मूल स्वभाव नहीं है (Dharmaveer 2009). 

भारत की वर्णाश्रम परंपरा मे आपद धर्म को इस तरह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है। यह कोई अनावश्यक चर्चा नहीं है इसका एक विशेष कारण है जिसे समझे बिना भारत के वर्णाश्रम धर्म द्वारा यूरोपीय आधुनिकता को दिए जा रहे उत्तर को समझना असंभव होगा। गुलाम भारत पर जिस तरह से यूरोपीय आधुनिकता को बलात थोपा गया उसका थोड़ा बहुत हानी लाभ सभी वर्गों को हुआ। जाति व्यवस्था जो पूरे भारत मे एकसमान एक रंग-ढंग और एक जैसी अमानवीयता से अनिवार्यतः नहीं भरी हुयी थी उसमे अचानक इकहरे ढंग की जड़ता और सघन बर्बरता का प्रवेश हो जाता है। जाति व्यवस्था की लचीली संरचना मे पत्थर जैसी कठोरता का यह प्रवेश असल मे ब्रिटिश दौर मे ब्रिटिश प्रशासन के काम करने के खास तौर तरीकों से और तेज हो जाता है (Dirks 2001)। 

वहीं दूसरी तरफ इन्ही शूद्रअतिशूद्रों को अपना मित्र बनाने की होड़ वर्णाश्रमवादियों और ब्रिटिश आकाओं मे एकसाथ छिड़ जाती है। इस तरह शूद्रअतिशूद्रों और महिलाओं के हिस्से मे कुछ सामाजिक सुधार और कुछ शिक्षा के अवसर आ जाते हैं, सती प्रथा का उन्मूलन और बाल विवाह निषेध आदि सुधार इसी तरह के आपद धर्म के कुछ उदाहरण हैं। भारत के ब्राह्मणवादियों का मूल चरित्र यही है। ये जब भी प्रगतिशील नजर आते हैं तब असल मे वे आपद धर्म का पालन कर रहे होते हैं। जैसे ही ब्राह्मणवादी धर्मसत्ता का राजनीति, व्यापार और समाज पर कब्जा हो जाता है तब पवित्रता अपवित्रता और वर्ण-अवर्ण के कानून की व्याख्या करती हुई मनु स्मृतियाँ याज्ञवल्क्य स्मृतियाँ और मानव धर्मशास्त्र अपनी गुफाओं से बाहर निकलने लगते हैं। आजकल इन स्मृतियों ने नागरिकता संशोधन और नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजनशिप जैसे नए अवतार भी धर लिए हैं। 

इस भूमिका के बाद हम समझ सकते हैं कि ‘भारत मे बहुजनों के भविष्य’ का सैद्धांतिक और व्यावहारिक अर्थ क्या है। भारत मे दलित बहुजन तभी तक सुरक्षित रह सकते हैं जब तक कि वर्णाश्रम वादियों के लिए आपद धर्म बना हुआ हो। जैसे ही वर्णाश्रमवादियों और ब्राह्मणवादियों की सत्ता सुरक्षित होगी वे अपने विशिष्ठ धर्म और सामान्य धर्म के पालन मे स्वयं भी उतर जाएंगे और पूरे देश के दलितों बहुजनों को भी घसीट लेंगे। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि भारत मे ब्राह्मणवादियों के लिए आपद धर्म को बनाए रखने का अर्थ भारत को कमजोर बनाए रखना है। हकीकत असल मे इसकी उलट है। 

जिस भी दौर मे भारत के दलित-बहुजन और स्त्रियाँ अपने लिए अधिक स्वतंत्रता सम्मान और अवसरों को हासिल कर पाते हैं उसे दौर मे भारत की सभ्यता आसमान छूने लगती है। प्राचीन भारत मे बौद्ध काल भारत का स्वर्ण-काल रहा है जिसमे ज्ञात इतिहास मे हमने विश्वविद्यालय और सार्वजनिक चिकित्सालय सहित जाति-वर्ण विभेद से रहित सामाजिक व्यवस्थाएं और एक निरीश्वरवादी-भौतिकवादी दर्शन की उड़ान देखी है (Singh 2008). यहाँ यह नोट करना आवश्यक होगा कि ऐसे स्वर्णकाल वे रहे हैं जबकि वर्णाश्रम धर्म की पकड़ भारत पर कमजोर हुई है। 

अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं जिसमे हमने कहा था कि अंबेडकर के लिए भारत मे बहुजनों के भविष्य का प्रश्न और बहुजन भारत सहित स्वयं भारत के भविष्य का प्रश्न- ये दो भिन्न आयाम हैं। सरल शब्दों मे कहें तो भारत मे बहुजनों के भविष्य का प्रश्न अनिवार्य रूप से वर्णाश्रम धर्म की छाया मे जी रहे वर्तमान और भविष्य की तरह इशारा करता है जिसमे भारत के दलित बहुजन और स्त्रियाँ समय और परिस्थितियों की दया पर निर्भर रहेंगे । 

यह ऐसी दशा होगी जिसमे ब्राह्मणवादी विचारधारा के कमजोर होने और उसकी पकड़ ढीली होने का इंतजार करना होगा। दूसरी तरफ बहुजन भारत या वास्तविक भारत के भविष्य का प्रश्न है। बहुजन भारत से बहुसंख्य दलित बहुजनों (जिसमे धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) का सुरक्षित और सुपरिभाषित भविष्य अभिप्रेत है जिसमे न केवल सदा से वंचित और तिरस्कृत पुरुषों और स्त्रियों का सम्मानजनक जीवन संभव है बल्कि ब्राह्मणवाद की परंपरा को ढोने और थोपने वाले वर्ग से आने वाले लोगों को भी सम्मानजनक और सुरक्षित स्थान प्राप्त होगा। निश्चित ही जब एसी कोई व्यवस्था होगी जहां सबसे तिरस्कृत लोगों कि सुनवाई होगी तब सदा से सत्ता मे बने रहे वर्ग के लिए भी एक आश्वासन का अनिवार्य रूप से निर्माण होगा। 

भारत मे बहुजनों के भविष्य के प्रश्न के बाद हम बहुजन भारत के प्रश्न पर आते हैं। डॉ अंबेडकर ने अपने कठिन परिश्रम से जिस संविधान और जिस सांविधानिक नैतिकता के निर्माण का प्रयास किया है वह असल मे भारत के प्राचीन श्रुति-स्मृति शास्त्रों की ऐतिहासिक और पीड़ादायक गुलामी से मुक्ति की दिशा मे एक प्रयास रहा है। प्राचीन ब्राह्मणी परम्पराएं जहां जाति और लिंग के विभेद को पवित्रता और अपवित्रता की पाशविक धारणाओं के जहर से मिलाकर एक दुर्निवार दासता मे बदल देती थीं वहीं संविधान और संवैधानिक नैतिकता एक नई किस्म की मानवाधिकार और समानता की दिशा मे इंगित करती हैं (Hande and Ambedkar 2009) । 

प्राचीन बर्बर कानूनों से भविष्य की समता न्याय और बंधुत्व की तरफ देखने वाली इस संवैधानिक नैतिकता से जो भारत निर्मित हो सकता है वही बहुजन भारत है। इस तरह से एक नए भारत की कल्पना करना हमारे लिए आवश्यक हुआ जा रहा है।  इसका सबसे बड़ा कारण और भय यह है कि अगर हम संवैधानिक नैतिकता पर खड़े भारत की बजाय किसी भी पुराने या नए धर्म से जन्मी नैतिकता पर खड़े भारत के भविष्य की कल्पना करेंगे तो वह भारत किसी न किसी धर्म की सीमित और ‘एक्सक्लूसिव’ परिभाषाओं से सीमित हो जाएगा और यह सीमाएं फिर से उसे पुराने दलदल का निर्माण कर डालेंगी (Ambedkar and Moon 2003)। 
 
अब हम बहुजन भारत के भविष्य के प्रश्न को देखने का प्रयास करेंगे कि यह क्या है और बहुजन भारत के सैद्धांतिक और एतिहासिक विरोध की परम्पराएं किन प्रवृत्तियों को संगठित और संचालित करती आईं हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यहाँ यह नोट करना होगा कि किसी भी तरह के प्राचीन स्वर्णयुग की या ईश्वरवादी या नस्लीय या जातीय विभेद के दर्शन पर आधारित प्रत्येक विचारधारा से बहुजन भारत के भविष्य के लिए खतरा ही निर्मित करेगी। असल मे किसी भी धर्म और धार्मिक दर्शन पर आधारित फ्रेमवर्क से भारत ही नहीं दुनिया के किसी भी देश मे लोकतंत्र, नैतिकता और सभ्यता का विकास बाधित ही हुआ है ऐसे मे धार्मिक अर्थ की प्रस्तावनाओं से जन्मी नैतिकता या राष्ट्रवाद का पतन हमेशा किसी न किसी तरह की तानाशाही मे होता आया है (Barbu 2013).

भारत मे स्वतंत्रता पूर्व और औपनिवेशिक दासता मे जन्मी वे विचारधाराएं जो भाववादी दर्शनों और ब्राह्मणी धर्म के आग्रहों को स्थान देते हुए किसी प्राचीन स्वर्णयुग के प्रतिबिंब के रूप मे भविष्य का निर्माण करना चाहती हैं वे बहुजन भारत के भविष्य के लिए विचारणीय हैं। इस अर्थ मे डॉ अंबेडकर की बताई संवैधानिक नैतिकता के विरोधी विचार के रूप मे हमें श्री अरबिंदो के भाववादी दर्शन से आ रही प्रस्तावनाओं को देखना जरूरी हो जाता है। 

आज के भारत मे विचारधाराओं का जो संघर्ष चल रहा है वह असल मे अंबेडकर और अरबिंदो के दर्शन के संघर्ष के रूप मे देखा जाना चाहिए। किसी प्राचीन धर्म के स्वर्णयुग की पुनर्स्थापना का आग्रह जिस तरह के राजनीतिक दर्शन और स्वयं राजनीतिक संगठनों मे प्रतिफलित हो रहा है उसकी वास्तविक जड़ विवेकानंद, राममोहन रॉय, तिलक या सावरकर  मे नहीं है बल्कि अरबिंदो घोष मे है। विवेकानंद अपनी अल्पायु मे जिन विचारों का निर्माण कर रहे थे वे विचार मूल रूप से किसी मौलिक नव निर्माण को लक्ष्यित नहीं थे बल्कि तत्कालीन समय मे भारत की धार्मिक नैतिकता पर विश्व समुदाय द्वारा उठाए जा रहे कठिन प्रश्नों को उत्तर देने का प्रयास भर था। विवेकानंद के समय मे थियोसोफीकल सोसाइटी द्वारा प्रस्ताविक बौद्ध-वेदांतिक संश्लेषण पर खड़ी आधुनिक व्याख्याओं सहित मिशनरी सेवाभाव के नैतिक दबाव से जन्मी नयी परिस्थितियों मे वर्णाश्रम धर्म को हिन्दू धर्म की तरह निर्मित करने की विराट आवश्यकता उठ खड़ी हुई थी (David Gordon White 2014)। 

इसीलिए विवेकानंद की असामयिक विदाई के बाद जन्मी दार्शनिक सैद्धांतीकरण की असुरक्षाओं को उत्तर देते हुए अरबिंदो घोष आजादी की लड़ाई को कम महत्व देते हुए हिन्दू धर्म के नए अवतार के लिए एक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक दर्शन का ठोस आवरण देने के लिए पॉन्डिचेरी मे आश्रय लेकर चुपचाप अपने काम मे लग जाते हैं। इस तरह गहराई से देखें तो विवेकानंद मे जिस तरह के धर्म की उड़ान का प्रक्षेपण बाद के विचारकों ने किया है वह मूल रूप से थियोसोफिकाल सोसाइटी, मेक्स-मूलर, शापेनहावर और अन्य प्राच्य-वेत्ताओं सहित अरबिंदो घोष की तरफ से आ रही है। वहीं दूसरी तरफ तिलक और रॉय जिस आधुनिकता की बात कर रहे हैं वह भी प्राचीन आर्य बंधुओं के ब्रिटेन से आने से उपजे ‘भारत मिलाप’ की आह्लादकारी प्रतीति पर खड़ी है। 

इस नवीन रचना का निर्माण  करते हुए तिलक इतने उत्साहित और प्रेरित हुए हैं कि उन्होंने भारत के ब्राह्मणों को न केवल युरोपियन आर्यों का बिछड़ा हुआ भाई बना दिया बल्कि वे आर्यों के मूल स्थान को खींचकर अंटार्कटिका तक ले गए (Tilak 2011)।  इतना ही नहीं स्वयं अरबिंदो घोष जिस वैज्ञानिकता और दर्शनिकता से प्राचीन वैदिक साहित्य को समृद्ध बनाने का प्रयास कर रहे हैं वह डार्विन के क्रम-विकास के सिद्धांत और फ्रेडरिक नीत्षे के सुपरमेन के सिद्धांत पर आधारित है। घोष जब सुपरामेन्टल और चेतना के विकास की थ्योरी (Aurobindo Ghose 1973) देते हैं तब अरबिंदो घोष के लेखन मे नीत्षे और डार्विन के सिद्धांतों को वैदिक ऋषियों की ऋचाओं मे प्रक्षेपित करने की विवशता को बहुत आसानी से पढ़ा जा सकता है। 

अरबिंदो घोष के धर्म दर्शन या उससे उपजे राजनीतिक दर्शन मे एक धर्म विशेष की महिमा का जो प्रभाव है वह प्रभाव अनिवार्य रूप से बहुजन भारत के भविष्य के लिए घातक है। श्री अरविन्द का दर्शन मूल रूप से एक भाववादी दर्शन है जिसमे अतिमानस और आत्मा परमात्मा के साक्षात्कार (Aurobindo Ghose 2000) की प्रतीति पर खड़ी धार्मिक दार्शनिक व्यवस्थाओं की सघन उपस्थित बनी रहती है जो एक जटिल हीगेलियन भाषा मे एक ऐसे फ्रेमवर्क का निर्माण करती है जिसमे प्राचीन स्वर्णयुग के समर्थन मे किसी भी तरह की अतिवादी प्रवृत्ति का निर्माण किया जा सकता है। ऐसी ही अतिवादी प्रवृत्तियों की जहरीली छाया मे आज की राजनीति और समाज के सम्मिलित पतन को हम अपने सामने देख पा रहे हैं। 

वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर एक अर्थशास्त्री, मानवशास्त्री और कानून-विद दार्शनिक की भांति जब बहुजन भारत के भविष्य को परिभाषित करने निकलते हैं तब वे सर्वथा भिन्न बौद्धिक, दार्शनिक स्त्रोतों से अपनी वैचारिकी का निर्माण कर रहे हैं। अंबेडकर की वैचारिक यात्रा शोषण के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं की खोज से आरंभ होती हुई संवैधानिक नैतिकता की ठोस प्रस्तावना तक आती है जिसमे लोकतंत्र समाजवाद सहित समता बंधुत्व और न्याय की आधुनिक यूरोपीय धारणाओं का वही प्रबल स्वर सुनाई देता है जो हमे बाद मे इतावली राजनीतिक चिंतक एंटोनियो ग्रांमशी मे भी मिलता है (Zene 2013)। 

अंबेडकर अपने  सामाजिक और राजनीतिक दर्शन निर्माण की प्रक्रिया मे जिन मूल्यों का आलंबन ले रहे हैं वे पिछली कुछ शताब्दियों मे यूरोप और अमेरिका के सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक संघर्ष और विकास के परिणाम मे जन्मी ठोस स्थापनाओं पर आधारित हैं। वहीं अरबिंदो घोष और विवेकानंद का कर्तृत्व एवं चिंतन एक अमूर्त और अज्ञात स्वर्णयुग के सम्मोहन की भुरभुरी भित्ति पर खड़ा है। 

इस विवरण के बाद अब हम देखेंगे कि अरबिंदो घोष की स्थापनाओं और अंबडेकर की स्थापनाओं मे क्या अंतर है और बहुजन भारत के भविष्य के लिए उनकी संगत संभावनाओं का स्वरूप क्या है। अरबिंदो घोष राष्ट्र और राष्ट्रवाद की जो परिभाषा करते हैं वह मूल रूप से उनके ‘बंदे मातरम’, ‘इंदु प्रकाश’ और ‘कर्मयोगिन’ मे प्राप्त होती है जिसमे वे औपनिवेशिक भारत मे चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष के बीचोंबीच स्वतंत्र भारत के लिए एक राष्ट्र की कल्पना का सूत्रपात कर रहे हैं (Varma 1990)। हालांकि अरबिंदो घोष अपने राजनीतिक केरियार को तिलांजलि देते हुए जिस आध्यात्मिक केरियर मे प्रवेश कर रहे हैं उसकी ठीक शुरुआत मे दिए गए उत्तरपाड़ा भाषण (Aurobindo Ghose 1943) की भाषा शैली और विचार प्रक्रिया के माध्यम से उनके दार्शनिक सैद्धांतिक कर्तृत्व की मौलिक प्रेरणा और दिशा को कहीं अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। 

इस भाषण मे अरबिंदो घोष अलीपुर जेल मे हुए अपने दिव्य ईश्वरीय साक्षात्कार का वर्णन करते हैं जिसमे उनके शब्दों मे उन्हे श्री-कृष्ण के दर्शन होते हैं जिसके परिणाम मे उनके हृदय मे भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का ईश्वरीय आदेश प्राप्त होता है। इस आदेश का स्वरूप जो कुछ भी रहा हो इतना सुनिश्चित है कि अरबिंदो घोष अपने नए राजनीतिक और धार्मिक दर्शन को जिस तरह से लेजिटीमेसी या वैधता देने का प्रयास कर रहे हैं वह लेजिटीमेसी दार्शनिक विचार की अपनी मेरिट पर कम और ईश्वरीय आदेश की दिव्यता पर अधिक निर्भर है। यह निर्भरता किसी भी दार्शनिक वैचारिक प्रयास के लिए अगर एक विवशता बन चुकी हो तो ऐसा विचार और दर्शन भविष्य मे उसे ईश्वरीय आदेश को नए कलेवर मे रखकर उचित अनुचित कुछ भी करवा सकता है। यह एक भयानक सच्चाई है जिसमे हम सभी आज जी रहे हैं। 

अरबिंदो घोष और उनकी आध्यात्मिक सहयोगिनी ‘श्री-माँ’ बाद मे जिस तरह के दार्शनिक और यौगिक अनुशासन को जन्म देते हैं वह भी प्राचीन भारत की निरीश्वरवादी-श्रमण-योग परंपराओं से अलग दिशा लेते हुए ईश्वरवादी और भाववादी अनुशासन का स्वरूप ले लेता है। यहाँ यह नोट करना जरूरी है कि योग की प्राचीन परंपराओं मे ईश्वर का और ईश्वर की भक्ति का कोई स्थान नहीं है, यहाँ तक कि पतंजलि के योगसूत्रों मे भी ईश्वर को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया है पतंजलि ‘ईश्वर प्रणिधान’ शब्द का उपयोग करते हुए ईश्वर की धारणा को एक उपयोगी उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।

 पतंजलि के योग-प्रबंध मे ईश्वर की भक्ति या महिमा का वैसा आग्रह नहीं है जो औपनिवेशिक काल मे विवेकानंद या अरबिंदो घोष निर्मित कर रहे हैं (David Gordon White 2014)।  बाद के वर्षों मे हम देखते हैं कि विवेकानंद और अरबिंदो घोष द्वारा दी गयी ये प्रस्तावनाएं असल मे पश्चिमी सेमेटिक धर्मों के ईश्वर के सामने भारतीय ईश्वर को खड़ा करने की आवश्यकता से जन्मी थीं। इस आवश्यकता से जन्मे अरबिंदो और विवेकानंद के प्रयासों मे स्वतंत्र भारत के राजनीतिक उत्तरजीवन की आवश्यकताओं को उत्तर देने वाली ईमानदार प्रेरणाएं कम और प्राचीन भारत की भौतिकवादी परंपराओं की महिमा को कुंद करने की प्रेरणाएं अधिक हावी थीं।  

वहीं दूसरी तरफ हम डॉ अंबेडकर की विचार प्रक्रिया और उनकी सैद्धानितक स्थापनाओं के प्रस्थान बिंदुओं को देखते हुए पाते हैं कि उनकी विचारधारा पर जॉन डूवी के प्रेगमेटिज्म और यूरोपीय आधुनिकता की श्रेष्ठताओं का गहरा प्रभाव है (Zene 2013)। ये आधुनिक विचारधाराएं किसी काल्पनिक ईश्वर, ईश्वरीय आदेश और किसी लोप हो चुके स्वर्णयुग के सम्मोहन से सर्वथा अछूती हैं और मनुष्यता के नए भविष्य के निर्माण के लिए तार्किक आलंबनों पर आधारित हैं। 

अपने शिक्षण के दौरान डॉ अंबेडकर जिस तरह की आधुनिकता का साक्षात्कार करते हैं और जिन सामाजिक राजनीतिक दर्शनों से अपनी विचारधारा का निर्माण करते हैं वे शोषण और विभेद के ठोस विश्लेषण पर खड़ी होती है। अंबेडकर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैचारिक स्थापनाएं हम उन प्रबंधों मे पाते हैं जहां वे भारतीय वर्णाश्रम धर्म का कठोर मूल्यांकन करते हुए दलित-बहुजन एवं स्त्रियों की मुक्ति के संभावित मार्ग की खोज करते हैं। प्राचीन भारत के पवित्र ग्रंथों की दार्शनिक धार्मिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियों के विश्लेषण से जब वे शूद्रों की उत्पत्ति का सिद्धांत खोजते हैं (Ambedkar 1970), या फिर जब वे भारत मे स्त्रियों की दुर्दशा के प्रश्न को सुलझाते हैं (Ambedkar 2016) या फिर जब वे वर्णाश्रम धर्म की विसंगतियों और दार्शनिक धार्मिक विचित्रताओं का विश्लेषण करते हैं (Ambedkar 2017), तब वे ईश्वरीय आदेश के अमूर्त आधारों से दूर जाते हुए मानव अधिकार मानव गरिमा और समता, न्याय बंधुत्व जैसे संवैधानिक नैतिकतागत आधारों पर मनुष्य के शोषण और गरिमा से जुड़े प्रश्नों को सुलझाते हैं। ये आधार किसी दिव्ययलोक या वैकुंठ मे बैठे किसी ईश्वर पर नहीं बल्कि मनुष्य की तार्किक और वैचारिक संघर्ष-यात्रा के परिणाम मे इसी धरती पर टिके हुए हैं। 
 
ईश्वरीय आदेश या किसी प्राचीन स्वर्णयुग के सम्मोहन से जन्मी दार्शनिक या सामाजिक राजनीतिक प्रस्तावनाओं का परिणाम हम अरब और यूरोप के कई देशों मे लोकतंत्र के पतन मे देख सकते हैं। ऐसे किसी पतन की संभावना के प्रति सावधानी का आग्रह अंबेडकर की संविधान सभा की बहसों मे सर्वाधिक तीखे रूप मे उभरकर आता है जब वे स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के भविष्य के प्रश्न पर अपना पक्ष रखते हैं (Ambedkar 2008)। स्वतंत्र भारत के सुरक्षित भविष्य के लिए अंबेडकर की विचार प्रक्रिया न सिर्फ यूरोपीय दार्शनिकों के ठोस दार्शनिक प्रबंधों पर आधारित है बल्कि उसमे उनके अपने निजी जीवन के शोषण और संघर्ष से जन्मे प्रश्नों के विश्लेषण और उत्तरों का आश्वासन भी शामिल है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि वर्णाश्रम धर्म और ईश्वर की भित्ति पर खड़े किसी भी भाववादी सम्मोहन से जन्मे राजनीतिक या सामाजिक दर्शन की तुलना मे अंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता पर खड़ी स्थापनाओं मे पूर्व और पश्चिम की श्रेष्ठतम विचार प्रक्रियाओं का युगपत विश्लेषण होता है। 

अंत मे हम अपने मूल प्रश्न पर वापस लौटते हैं। प्रश्न यह है कि हम भारत के दलित-बहुजनों और स्त्रियों सहित सभी भारतीयों के लिए कैसा भारत चाहते हैं? क्या यह भाववादी दर्शनों की हवा-हवाई स्थापनाओं पर किसी काल्पनिक स्वर्णयुग के संधान मे रत भारत होगा या फिर आधुनिक विज्ञान और दर्शन की ठोस भित्ति पर खड़ा लोकतान्त्रिक भारत होगा? इस प्रश्न के उत्तर की दोनों संगत संभावनाओं का विस्तार हम ऊपर देख चुके हैं। ऐसे मे, विशेष रूप से हाल ही मे जिस तरह का सामाजिक राजनीतिक पतन हम देख रहे हैं उसके बीचोंबीच खड़े होकर हमे अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर अंबेडकर के वैचारिक अवदान को उसकी समग्रता मे समझने की तैयारी करनी चाहिए। यही बाबा साहब अंबेडकर को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यही भारत को सभ्य और समर्थ बनाने कि दिशा मे हमारी निष्ठा की सम्यक अभिव्यक्ति होगी। 

BIBLIOGRAPHY:

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- संजय श्रमण

Friday, December 4, 2020

नानकमत्ता


नानकमत्ता-
नानकमत्ता साहिब सिक्खों का पवित्र तीर्थ स्थान है। यह स्थान उत्तराखंड राज्य के ऊधम सिंह नगर जिसे  रूद्रपुर कहते हैं।नानकमत्ता नामक नगर में  सितारगंज — खटीमा मार्ग पर सितारगंज से 13 किमी और खटीमा से 15 किमी की दूरी पर स्थित है। सिक्खों के प्रथम गुरू नानक देव जी ने यहां की यात्रा की थी। मान्यता है कि गुरू नानकदेव जी सन 1508 में अपनी तीसरी कैलाश यात्रा, जिसे तीसरी उदासी भी कहा जाता है, के समय रीठा साहिब से चलकर भाई मरदाना जी के साथ यहाँ रुके थे।यही कारण है कि नानकमत्ता स्थान सिख धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता है। यहां गुरु नानक देव जी को समर्पित एक गुरुद्वारा भी है, जिसे गुरुद्वारा नानकमत्ता साहिब के नाम से जाना जाता है। यहाँ सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द साहिब जी भी यहां आए थे।
   यहाँ के नानकसागर बाँध गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब के पास ही है इसलिये इसे नानक सागर के नाम से भी जाना जाता है। गुरुद्वारा नानकमत्ता साहिब के नाम से ही इस जगह का नाम नानकमत्ता पड़ा। नानक सागर डेम पास में ही स्थित है, जिसे नानक सागर के नाम से जाना जाता है। वैसे तो यहाँ सभी धर्म के लोग आपसी प्रेम भाव के साथ रहते हैं पर यहां सिख धर्म के लोगों की संख्या अन्य ज्यादा है।गुरुद्वारे के अंदर एक सरोवर है, जिसमें अनेक श्रद्धालु स्नान करते है और फिर गुरुद्वारे में मत्था टेकने जाते हैं।सभी धर्म जाति जनजाति के लोग यहाँ आते है।सब की श्रद्धा का केंद्र यह स्थान है कहते हैं गुरुनानक देव का आशीर्वाद सब श्रद्धालुओं को मिलता है और कोई भी यहां से खाली हाथ,भूखे पेट नहीं लौटता। नानकमत्ता के ख्याति के कारण में गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब में श्रद्धालुओं का जनसैलाब हमेशा उमड़ा रहता है। श्रद्धालुओं ने दरबार साहिब में शीश नवाकर परिवार व कारोबार की उन्नति की अरदास करते है। श्रद्धालुओं ने पंजा साहिब, श्री छेवीपातशाही, गुरुद्वारा, दूध वाला कुआं, बाऊली साहिब, चित्र प्रदर्शनी के दर्शन भी करते हैं।