'चित्रलेखा : उपन्यास
लेखक : भगवती चरण वर्मा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 200
मूल्य : 250 रु.
समीक्षा - डॉ सत्यमित्र
चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहा है? इस उपन्यास का अंत इस निष्कर्ष से होता है कि संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। सम्मोहक और तर्कपूर्ण भाषा ने इस उपन्यास को मोहक और पठनीय बना दिया है।'
भगवतीचरण वर्मा का यह उपन्यास समाज की दो समांतर विचारधाराओं वैराग्य और सांसारिकता का वर्णन है। दोनों के बारे में विचित्र बात है कि दोनों एक ही समाज में जन्म लेती है और दोनों का एक दूसरे से विरोध है। हारे , कभी मन के मारे ही वैराग्य लेते। ये दोनों मनुष्य के लिए बने हैं या मनुष्य ने इन दोनों को बनाया है। एक के रहते दूसरे का अस्तित्व असंभव है। दोनों में विरोध है। विरोध होते हुए भी दोनों मनुष्य के बीच ही जीवित हैं। वस्तुत: मनुष्य ने ही उन्हें जीवित रखा है।
बीजगुप्त:-
बीजगुप्त भोगी है, उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसके विशाल भवन में भोग-विलास नाचा करते हैं। वैभव ही उसके बस में है। ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है और उसके हृदय में संसार की समस्त राजसी भोग वासनाओं का निवास।
कहानी में तीन प्रमुख चरित्र चित्रलेखा-बीजगुप्त-कुमारगिरि का चरित्र चित्रण असाधारण है। कुमारगिरि योगी है। खुद उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है।संसार से उसको विरक्ति है ।भोग में अनासक्ति है। और उसने संसार को भी जान लिया है। उसमें तेज है प्रताप है. उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक बल है।
चित्रलेखा उसी समाज का हिस्सा जिसका हिस्सा कुमारगिरी है। जिस सभा में चित्रलेखा अपने नृत्य से सभासदों का मनोरंजन करती है, उसी सभा में कुमारगिरि शास्त्रार्थ करने आते हैं। चित्रलेखा के ये वाक्य उसके विलासी होने की प्रवृत्ति को तर्कपूर्ण ठंग से सही ठहराते हैं - 'जीवन एक अविकल पिपासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है।' और 'जिसे तुम साधना कहते हो वो आत्मा का हनन है।' वह कुमारगिरि के वैराग्य का यह कहकर विरोध करती है कि शांति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है और रहा सुख, तो उसकी परिभाषा एक नहीं है।
कुमारगिरि तर्क देते हैं - 'जिसे सारा विश्व अकर्मण्यता कहता है, वास्तव में वह अकर्मण्यता नहीं है। क्योंकि उस स्थिति में मस्तिष्क कार्य किया करता है। अकर्मण्यता के अर्थ होते हैं जिस शून्य से उत्पन्न हुए हैं उसी में लय हो जाना। और वही शून्य जीवन का निर्धारित लक्ष्य है।'
उपन्यास में घोषित रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही विवेचना है लेकिन उपन्यास इस बात को भी स्पष्ट करता है कि हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फिर छल।
जब कुमारगिरि और चित्रलेखा टकराते हैं तो दो विपरीत विचारधाराएँ टकराती हैं और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। संसार और वैराग्य में द्वंद्व होता है और प्रखर होकर कई रूपों में सामने आता है। कहीं वो प्रेम बनता है, तो कहीं वासना, कहीं घृणा बनता है तो कहीं छलावा। चित्रलेखा के विलासी होने के पीछे उसके अपने तर्क हैं और कुमारगिरि के विरागी होने के पीछे उसके अपने तर्क है। जीत-हार किसी की नहीं होती क्योंकि तर्क का अंत नहीं है।
हालाँकि उपन्यास की शुरूआत पाप और पापी की खोज, निर्धारण और उसे परिभाषित करने से होती है और एक तटस्थ उत्तर और परिणाम पर समाप्त होती है कि पाप और पुण्य कुछ नहीं होता ये परिस्थितिजन्य होता है। हम ना पाप करते हैं ना पुण्य, हम वो करते हैं जो हमें करना पड़ता है।
चित्रलेखा हँस पड़ी - 'आत्मा का संबंध अमर है! बड़ी विचित्र बात कह रहे हो बीज गुप्त! जो जन्म लेता है, वह मरता है, यदि कोई अमर है तो इसलिए अमर है, पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। ...प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं गिरता। आत्मा का संबंध अनादि नहीं है बीज गुप्त।
"मनुष्य स्वतंत्र विचार वाला प्राणी होते हुए भी परिस्तिथियों का दास है ... यह परिस्थि-चक्र पूर्वजन्म के कर्मों का विधान हैं। मनुष्य की विजय वहीं संभव है जहां वह परिस्तिथियों के चक्र में पड़कर उसके साथ चक्कर न खाये..."
उपन्यास में घोषित रूप से प्रेम और घृणा की खोज नहीं की गई है और न ही विवेचना है लेकिन उपन्यास इस बात को भी स्पष्ट करता है कि हम न प्रेम करते हैं न घृणा, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है अर्थात् प्रेम, घृणा या फिर छल।
उपन्यास की भाषा विलक्षण है। तर्कों के जटिल होने के कारण भाषा अत्यंत क्लिष्ट है और देशकाल-वातावरण के अनुरूप है। समग्र रूप से चित्रलेखा संपूर्ण मानव समाज पर एक प्रहार है जिसके दो चेहरे हैं।
लेखक अपनी कहानी के माध्यम से वासना को परिभाषित कर मनुष्य के जीवन में उसका उपयुक्त स्थान खोजने का प्रयत्न करते हैं। तपस्वी दृष्टिकोण से "वासना पाप है, जीवन को कलुषित बनाने का एकमात्र साधन है। वासनाओं से प्रेरित हो कर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उसमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचीयता ब्रह्म को भूल जाता है ... ईश्वर के तीन गुण हैं - सत, चित, आनंद ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं ..." इस दृष्टिकोण से अपरिचित शिष्य अपने गुरु से एक महत्वपूर्ण प्रश्न कर बैठता है - "...वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं है ? मनुष्य उत्पन्न होता है, क्यूँ? कर्म करने के लिए। उस समय कर्म करने के साधनों को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है ? .
"संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन:प्रव्रत्ति लेकर उत्पन्न होता है - प्रत्येक व्यक्ति इस्स संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मन:प्रव्रत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है - यही मनुष्य का जीवन है। जो कुछ मनुष्य करता है, वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है - विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पाप और पुण्य कैसा?"
संसार से भागे फिरते हो (चित्रलेखा - 1964) Sansar se bhage phirte ho (Chitralekha - 1964)
साहिर ने लिखा...
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे .
ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या, रीतों पे धरम की मुहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
हम कहते हैं ये जग अपना है, तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जायेंगे, तुम जन्म गंवा कर जाओगे