Sunday, November 24, 2024
भारत में अपराध
Saturday, October 26, 2024
सामाजिक शोध का ---अध्ययन क्षेत्र एवं सार्थकता
सामाजिक शोध
सामाजिक शोध का अर्थ, उद्देश्य एवं चरण
सामाजिक शोध के अर्थ को समझने के पूर्व हमें शोध के अर्थ को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है।
यह स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ यह प्रारम्भ होती है।
सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है।
स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है।
यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है।
प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है।
वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है।
शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें।
शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’
सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।
पी.वी. यंग (1960:44) के अनुसार,
‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’
सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’
’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है।
सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये।
सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है-
(1) क्या हो रहा है? और
(2) क्यों हो रहा है?
अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है।
‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है।
यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।
सामाजिक शोध का उद्देश्य
सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है।
( इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है।)
बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में
पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है।
वह प्रशासकीय परिवर्तनों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है।
सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है।
सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-अर्थात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है।
सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।
गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है।
उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है।
व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है।
सामाजिक शोध के चरण
सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन एक व्यवस्थित पद्धति के अनुसार किया जाता है।
अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है।
शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत्य नही है।
इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है।
हम यहाँ पहले कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, तत्पश्चात् सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।
स्लूटर (1926 :5) ने सामाजिक शोध के पन्द्रह चरणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं-
शोध विषय का चुनाव।
शोध समस्या को समझने के लिए क्षेत्र सर्वेक्षण।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची का निर्माण।
समस्या को परिभाषित या निर्मित करना।
समस्या के तत्वों का विभेदीकरण और रूपरेखा निर्माण।
आँकड़ों या प्रमाणों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के आधार पर समस्या के तत्वों का वर्गीकरण।
समस्या के तत्वों के आधार पर आँकड़ों या प्रमाणों का निर्धारण।
वांछित आँकड़ों या प्रमाणों की उपलब्धता का अनुमान लगाना।
समस्या के समाधान की जाँच करना।
आँकड़ों तथा सूचनाओं का संकलन।
आँकड़ों को विश्लेषण के लिए व्यवस्थित एवं नियमित करना।
आँकड़ों एवं प्रमाणों का विश्लेषण एवं विवेचन।
प्रस्तुतीकरण के लिए आँकडों को व्यवस्थित करना।
उद्धरणों, सन्दर्भों एवं पाद् टिप्पणीयों का चयन एवं प्रयोग।
शोध प्रस्तुतीकरण के स्वरूप और शैली को विकसित करना।
चरण
शोध समस्या को परिभाषित करना।
↓
शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना।
↓
अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना।
↓
प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना।
↓
शोध विधियों और तकनीकों का चयन।
↓
शोध का मानकीकरण
↓
मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग
↓
शोध सामग्री इकठ्ठा करना।
↓
सामग्री का विश्लेषण करना
↓
व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना
राम आहूजा -ने मात्र छ: चरणों का उल्लेख किया है, जो कि निम्नवत् हैं-
1-अध्ययन समस्या का निर्धारण।
2-शोध प्रारुप तय करना।
3-निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)
4-आँकड़ा संकलन
5-आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण एवं सारणीयन)।
6-प्रतिवेदन तैयार करना।
शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।
________________________
01प्रथम चरण-
शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सर्वप्रथम आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है।
_________________________
शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो।
इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथमत: तो शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।
निश्चित रूप से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।
__________________________
02
द्वितीय चरण-
यह तय हो जाने के पश्चात् कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात्। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’
___________________________
03
तृतीय चरण-
सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’
________________________
04
चतुर्थ चरण-
शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।
उपकल्पना
उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं?
लुण्डबर्ग (1951:9) के अनुसार, ‘‘उपकल्पना एक सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना को भी , अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’
गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के अनुसार,
‘‘एक उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी रूप से अपनायी जाती है।’’
गुडे तथा हॉट (1952:56) के शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) एक मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’
सरल एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित एक काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है।
विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के पश्चात् जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे।
ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है।
इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए।
उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।
उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट एवं सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक उपकल्पना और एक सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस रूप में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि-
उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी एक के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है।
उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है
(यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने उल्लेख किया है-
(i) सामान्य संस्कृति
(ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त
(iii) सादृश्य (Anology)
(iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है।
उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है।
उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।
_________________________
05
पंचम चरण-
समग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे।
इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी।
चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है।
इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है।
समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकायों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम रूप में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।
उल्लेखनीय है कि अक्सर निदर्शन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकायों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है।
ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है।
इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं,
----------------------------------------
निदर्शन (सैम्पल) ही है।
अतः
‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’
निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- एक को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं।
निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन किया जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके।
कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इका का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन किया जाता है।
ऐसा ही जनगणना कार्य में भी किया जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकायों का अध्ययन किया जाता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।
___________________________
06
छठवाँ चरण-
प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं।
उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें।
प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं।
शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं।
शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है।
कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है।
स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है।
इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं।
________________________
07
सप्तम चरण-
प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है।
कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।
यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है।
सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये।
उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है।
उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है।
तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।
यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है।
अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है।
प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो -मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण रूप से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।
यदि शोध कार्य में क क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि सभी अन्वेषक पूर्ण निष्ठा एवं मानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें।
तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे मोबाइल, टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की सहमति जरूरी है।
प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ एकत्रित सूचनाओं की जाँच एवं आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। को नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए।
तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण एवं निर्वचन दूसरे के द्वारा हो चुका होता है।
अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।
_______________________🎊
अष्ठम चरण :-
आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है।
कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था।
आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं।
सारिणीयों के निर्मित हो जाने के पश्चात् उनका तार्किक विश्लेषण किया जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है।
सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित एवं तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।
अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न किया जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी आवश्यकता के अनुसार फोटोग्राफ, डाग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।
उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही उल्लेखनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए
समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है।
शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं।
परिणामों की व्याख्या करें।
निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का उल्लेख करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो।
‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की आवश्यकता होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं।
प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान एवं समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुरूप शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है।
उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’
अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं।
Development of Sociological Thoughts
Development of Sociological thoughts
सामाजिक विचार (Social Thought) सामाजिक विज्ञान की एक शाखा है जो सामाजिक मुद्दों और समस्याओं का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों और दृष्टिकोणों का उपयोग करती है। यह सामाजिक संरचना, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक संबंध, और सामाजिक न्याय जैसे विषयों पर केंद्रित होती है।
सामाजिक विचार के मुख्य उद्देश्य हैं:
1. सामाजिक मुद्दों का विश्लेषण करना।
2. सामाजिक समस्याओं के कारणों की पहचान करना।
3. सामाजिक परिवर्तन के लिए नए विचारों को प्रस्तुत करना।
4. सामाजिक न्याय और समानता के लिए काम करना।
5. सामाजिक संबंधों को समझने के लिए नए दृष्टिकोण विकसित करना।
सामाजिक विचार के प्रमुख क्षेत्र :
1. सामाजिक संरचना सिद्धांत
2. सामाजिक परिवर्तन सिद्धांत
3. सामाजिक संबंध सिद्धांत
4. सामाजिक न्याय सिद्धांत
5. सामाजिक पहचान सिद्धांत
सामाजिक विचार के प्रमुख विचारक हैं:
1. कार्ल मार्क्स
2. एमिल डुर्खाइम
3. मैक्स वेबर
4. जॉर्ज हेर्बर्ट मीड
5. मिशेल फूको
6. जूडिथ बटलर
7. मैनुअल कास्टेल्स
सामाजिक विचार का महत्व:
1. सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में मदद करता है।
2. सामाजिक परिवर्तन के लिए नए विचारों को प्रस्तुत करता है।
3. सामाजिक न्याय और समानता के लिए काम करता है।
4. सामाजिक संबंधों को समझने में मदद करता है।
5. सामाजिक विज्ञान के विकास में योगदान करता है।
यहाँ प्रारंभिक सामाजिक विचार से लेकर आज तक प्रमुख सामाजिक विचारकों का एक रूपरेखा है:
*प्रारंभिक सामाजिक विचार (16वीं-18वीं शताब्दी)*
1. निकोलो मैकियावेल्ली (1469-1527)
- मत: राजनीतिक शक्ति और नैतिकता
- उपयोगिता: राजनीतिक विज्ञान में शक्ति के सिद्धांत का विकास
1. थॉमस हॉब्स (1588-1679)
- मत: सामाजिक अनुबंध और राज्य की शक्ति
- उपयोगिता: राजनीतिक विज्ञान में सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत
1. जॉन लॉक (1632-1704)
- मत: सामाजिक अनुबंध और व्यक्तिगत अधिकार
- उपयोगिता: राजनीतिक विज्ञान में व्यक्तिगत अधिकारों का सिद्धांत
*आधुनिक सामाजिक विचार (19वीं-20वीं शताब्दी)*
1. ऑगस्टे कॉम्टे (1798-1857)
- मत: सामाजिक विज्ञान और पॉजिटिविज्म
- उपयोगिता: सामाजिक विज्ञान की स्थापना
1. कार्ल मार्क्स (1818-1883)
- मत: सामाजिक संघर्ष और कम्युनिज्म
- उपयोगिता: आर्थिक और राजनीतिक विज्ञान में सामाजिक संघर्ष का सिद्धांत
1. एमिल डुर्खाइम (1858-1917)
- मत: सामाजिक एकता और सामाजिक नियम
- उपयोगिता: सामाजिक विज्ञान में सामाजिक एकता का सिद्धांत
*समकालीन सामाजिक विचार (20वीं-21वीं शताब्दी)*
1. मिशेल फूको (1926-1984)
- मत: शक्ति और ज्ञान
- उपयोगिता: सामाजिक विज्ञान में शक्ति और ज्ञान के संबंध का विश्लेषण
1. जूडिथ बटलर (1956-)
- मत: प्रदर्शनकारी लिंग
- उपयोगिता: सामाजिक विज्ञान में लिंग और प्रदर्शन के संबंध का विश्लेषण
1. मैनुअल कास्टेल्स (1942-)
- मत: ग्लोबलाइजेशन और सामाजिक परिवर्तन
- उपयोगिता: सामाजिक विज्ञान में ग्लोबलाइजेशन के प्रभावों का विश्लेषण
यह रूपरेखा प्रमुख सामाजिक विचारकों के मतों और उनके समय में समाज में उपयोगिता को दर्शाती है।
……
"डेवलपमेंट ऑफ सोशियोलॉजिकल थॉट" (सामाजिक विचार का विकास) का एक रूपरेखा है:
*भाग 1: प्रारंभिक सामाजिक विचार*
1. प्राचीन यूनानी विचारक (प्लेटो, अरस्तू)
2. मध्ययुगीन विचारक (सेंट थॉमस एक्विनास)
3. पुनर्जागरण और 18वीं सदी के विचारक (रूसो, मोंटेस्क्यू)
*भाग 2: सामाजिक विचार का उदय*
1. ऑगस्टे कॉम्टे और सामाजिक विज्ञान की स्थापना
2. हर्बर्ट स्पेंसर और सामाजिक डार्विनवाद
3. कार्ल मार्क्स और सामाजिक संघर्ष सिद्धांत
*भाग 3: क्लासिकल सामाजिक विचार*
1. एमिल डुर्खाइम और सामाजिक एकता सिद्धांत
2. मैक्स वेबर और सामाजिक क्रिया सिद्धांत
3. जॉर्ज सिमेल और सामाजिक अंतर्क्रिया सिद्धांत
*भाग 4: आधुनिक सामाजिक विचार*
1. फंक्शनलिज्म और टैलकॉट पार्सन्स
2. संरचनात्मकता और क्लॉड लेवी-स्ट्रॉस
3. सामाजिक निर्माणवाद और पीटर बर्गर
*भाग 5: समकालीन सामाजिक विचार*
1. पोस्टमॉडर्निज्म और जीन बौड्रिलार्ड
2. ग्लोबलाइजेशन और मैनुअल कास्टेल्स
3. सामाजिक सिद्धांत और भविष्य की दिशाएं
यह रूपरेखा सामाजिक विचार के विकास के मुख्य चरणों और विचारकों को दर्शाती है।
यहाँ समकालीन सामाजिक विचारकों के सिद्धांतों का एक रूपरेखा है, उदाहरण सहित:
*I. जीन बौड्रिलार्ड - पोस्टमॉडर्निज्म*
- परिभाषा: पोस्टमॉडर्निज्म आधुनिकता के अंत की घोषणा करता है।
- मुख्य बिंदु:
- सत्य और वास्तविकता की धारणा बदल गई है।
- वास्तविकता एक निर्मित और सापेक्ष अवधारणा है।
- उदाहरण: विज्ञापन और मीडिया में वास्तविकता का निर्माण।
*II. मैनुअल कास्टेल्स - ग्लोबलाइजेशन*
- परिभाषा: ग्लोबलाइजेशन वैश्विक अर्थव्यवस्था और संचार के प्रभावों पर केंद्रित है।
- मुख्य बिंदु:
- ग्लोबलाइजेशन ने नए प्रकार के सामाजिक संबंधों और शक्ति संरचनाओं को जन्म दिया है।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था और संचार ने स्थानीय संस्कृतियों को प्रभावित किया है।
- उदाहरण: बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वैश्विक विस्तार।
*III. एंटोनियो ग्राम्शी - हेगेमोनी सिद्धांत*
- परिभाषा: हेगेमोनी सिद्धांत शक्ति और प्रभाव के संबंधों पर केंद्रित है।
- मुख्य बिंदु:
- शक्तिशाली समूह अपने हितों को बनाए रखने के लिए हेगेमोनी का उपयोग करते हैं।
- हेगेमोनी सामाजिक संबंधों को आकार देती है।
- उदाहरण: राजनीतिक दलों का मतदाताओं पर प्रभाव।
*IV. मिशेल फूको - शक्ति और ज्ञान*
- परिभाषा: शक्ति और ज्ञान सिद्धांत यह दर्शाता है कि शक्ति और ज्ञान आपस में जुड़े हुए हैं।
- मुख्य बिंदु:
- ज्ञान शक्ति का एक साधन है।
- शक्ति ज्ञान को नियंत्रित करती है।
- उदाहरण: शिक्षा प्रणाली में शक्ति और ज्ञान का संबंध।
*V. जूडिथ बटलर - प्रदर्शनकारी लिंग*
- परिभाषा: प्रदर्शनकारी लिंग सिद्धांत यह दर्शाता है कि लिंग एक सामाजिक निर्माण है।
- मुख्य बिंदु:
- लिंग को प्रदर्शन के माध्यम से निर्मित किया जाता है।
- लिंग एक स्थिर और निश्चित अवधारणा नहीं है।
- उदाहरण: समाज में लिंग भूमिकाओं का प्रदर्शन।
MA 3 Semester ...Criminology
Women Criminals
आपराधिक न्याय प्रणाली उन महिलाओं के अनुभवों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो इसके संपर्क में आती हैं, चाहे वे अपराध की शिकार हों या प्रतिवादी। हाल के दशकों में प्रगति के बावजूद, महिलाओं को आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर महत्वपूर्ण बाधाओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें लैंगिक पूर्वाग्रह, भेदभाव और प्रतिनिधित्व की कमी आदि शामिल हैं।
स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर, महिलाओं के खिलाफ अपराध हमेशा बढ़ रहे हैं। महिला अपराध एक विश्वव्यापी समस्या है। सभी प्रगति के बावजूद, महिलाएं दुनिया भर में भयानक अत्याचारों का शिकार बनी हुई हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के बहिष्कार पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा (1993) में कहा गया है कि "महिलाओं के खिलाफ अपराध पुरुषों और महिलाओं के बीच पारंपरिक रूप से असंतुलित शक्ति संबंधों की अभिव्यक्ति है, जिसके कारण पुरुषों द्वारा महिलाओं पर नियंत्रण और भेदभाव हुआ है और महिलाओं के पूर्ण विकास की प्रत्याशा हुई है।"1 अपराध की शिकार महिलाओं को कलंक या प्रतिशोध के डर के कारण अपराधों की रिपोर्ट करने में कठिनाई और कानून प्रवर्तन और आपराधिक न्याय के अन्य अभिनेताओं की संवेदनशीलता और समझ की कमी सहित अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, इन महिला पीड़ितों में यह डर हमेशा बना रहता है कि सिस्टम उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले अपराधों के विशिष्ट प्रकारों को पहचानने और संबोधित करने में विफल हो सकता है, जैसे कि घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न, और उन्हें पीड़ित के रूप में दोषी ठहराया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप, अक्सर उनके खिलाफ अपराध दर्ज नहीं किए जाते हैं। महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का गंभीर उल्लंघन है, जो महिलाओं के मानवाधिकारों और मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं। महिला प्रतिवादियों को भी न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें गैर-हिंसक अपराधों के लिए कैद होने की अधिक संभावना और पर्याप्त कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुँच की कमी शामिल है। इसके अतिरिक्त, आपराधिक न्याय प्रणाली में महिलाओं को उनके लिंग से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें भेदभाव, यौन उत्पीड़न और उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सेवाओं की कमी शामिल है, जैसे कि प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल, मानसिक स्वास्थ्य आदि तक पहुँच। भारतीय संदर्भ: भारत जैसे देश में, महिलाएँ अपराध से असमान रूप से प्रभावित होती हैं और उन्हें आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारत में महिलाओं द्वारा अनुभव किए जाने वाले सबसे आम अपराधों में घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और तस्करी आदि शामिल हैं। इन अपराधों की व्यापकता के बावजूद, भारत में महिलाओं को न्याय पाने और पर्याप्त सुरक्षा प्राप्त करने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

न्याय व्यवस्था में पहले से मौजूद चुनौतियों के अलावा, पीड़ित को दोषी ठहराने की प्रचलित संस्कृति और कलंक या प्रतिशोध का डर इन महिलाओं को अपराधों की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करता है। भारत सभी महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में लागू करने के लिए कार्रवाई कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर, इसकी महिलाओं को अमानवीय व्यवहार और हिंसा के डर का सामना करना पड़ रहा है, जिससे महिलाओं और देश दोनों की प्रगति खतरे में पड़ रही है। यह एक सर्वविदित सत्य है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या वृद्धि का एक नकारात्मक संकेत है, और भारत वर्तमान में इस संबंध में एक गंभीर चुनौती से निपट रहा है।2 यह एक सर्वविदित तथ्य है कि भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली अक्सर धीमी, अप्रभावी और भ्रष्टाचार से ग्रस्त होती है, जिससे महिलाओं के लिए न्याय मांगना और सुरक्षा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रतिवादी महिलाएं अक्सर भेदभाव का सामना करती हैं हालाँकि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा कई वर्षों से महत्वपूर्ण चिंता का विषय रहे हैं, हाल के वर्षों में प्रगति के बावजूद, भारत में महिलाओं को न्याय तक पहुँचने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें लिंग आधारित हिंसा, भेदभाव और कानून के तहत असमान व्यवहार शामिल है। एक प्रमुख मुद्दा महिलाओं के खिलाफ अपराधों की व्यापक रूप से कम रिपोर्टिंग है, जिसमें घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और उत्पीड़न शामिल हैं। भारत में अपराध की शिकार कई महिलाओं के लिए मामलों की रिपोर्ट करने का डर एक बड़ी बाधा है। यह डर कई कारकों से प्रेरित हो सकता है, जिनमें शामिल हैं:

सामाजिक कलंक:
जो महिलाएं अपने खिलाफ़ अपराधों, खास तौर पर यौन अपराधों की रिपोर्ट करती हैं, उन्हें सामाजिक कलंक और पीड़ित को शर्मिंदा करने/दोषी ठहराने का सामना करना पड़ सकता है। यह उन समुदायों में विशेष रूप से हानिकारक हो सकता है जहाँ ऐसे मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने के खिलाफ़ एक मजबूत सांस्कृतिक निषेध है। ऐसी घटनाओं से नौकरी छूट जाती है, भविष्य में रोज़गार छिन जाता है, आदि, और इसलिए आजीविका खोने का डर उन्हें ऐसे अपराधों की रिपोर्ट करने से रोकता है।
प्रतिशोध का भय:
महिलाएं अपराधियों या उनके सहयोगियों से प्रतिशोध के डर से अपराध की रिपोर्ट करने से डर सकती हैं। यह घरेलू हिंसा के मामलों में विशेष रूप से सच है, जहां महिलाओं को अपनी और अपने बच्चों और परिवारों की सुरक्षा के लिए डर हो सकता है।
आपराधिक न्याय प्रणाली में विश्वास की कमी:
कई महिलाएं पुलिस और अदालतों सहित आपराधिक न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं करती हैं कि वे अपने मामलों को प्रभावी और संवेदनशील तरीके से संभालें। यह भ्रष्टाचार, पक्षपात या कानून की समझ की कमी के पिछले अनुभवों के कारण हो सकता है। इस प्रणाली में अभी भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है, इसलिए एक पूर्व-निर्धारित धारणा है कि समाज की प्रचलित पितृसत्तात्मक प्रकृति कभी भी इन महिलाओं को न्याय नहीं दे पाएगी, खासकर पुरुषों के खिलाफ मामलों में।
संसाधनों तक पहुंच का अभाव:
जो महिलाएँ हाशिए के समुदायों से आती हैं, जैसे कि कम आय वाले परिवार या ग्रामीण क्षेत्र, उन्हें कानूनी सहायता या सहायता सेवाओं जैसे संसाधनों तक पहुँचने में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है, जो उन्हें अपराधों की रिपोर्ट करने और आपराधिक न्याय प्रणाली को समझने में मदद करेंगे। वे अपने स्वयं के अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं, और अक्सर धोखेबाजों द्वारा धोखाधड़ी और घोटालों का शिकार हो जाती हैं जो उन्हें न्याय दिलाने का वादा करते हैं।
इसके अलावा, आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा महिलाओं के साथ किए जाने वाले व्यवहार के बारे में चिंताएँ हैं, जिसमें कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा भेदभाव, अदालतों में असमान व्यवहार और आपराधिक कार्यवाही में पीड़ित या गवाह महिलाओं के लिए अपर्याप्त समर्थन और सुरक्षा शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर महिला गवाह समाज के क्रोध का सामना करने के डर से मुकर जाती हैं। इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए, भारत सरकार ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई कानून और नीतियाँ बनाई हैं। कुछ प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं:

महिला पीड़ितों के संबंध में:
भारतीय दंड संहिता:
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विभिन्न रूपों को अपराध घोषित करने के प्रावधान शामिल हैं, जिनमें बलात्कार, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और तस्करी शामिल हैं। आईपीसी दहेज हत्या और पतियों और ससुराल वालों द्वारा क्रूरता जैसे अपराधों को भी मान्यता देता है और उन्हें दंडित करता है।
दंड प्रक्रिया संहिता:
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करती है, जिसमें सुरक्षा आदेश और महिलाओं के खिलाफ अपराधों की जांच के लिए महिला पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति शामिल है। सीआरपीसी महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में त्वरित सुनवाई का भी प्रावधान करती है और इसमें बंद कमरे में कार्यवाही और गवाहों की सुरक्षा के प्रावधान शामिल हैं।
घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम:
यह अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है, जिसमें शारीरिक, भावनात्मक, यौन और आर्थिक शोषण शामिल है। यह अधिनियम सुरक्षा आदेश, पीड़ित के लिए मुआवज़ा और घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए आश्रय गृहों की स्थापना का प्रावधान करता है।
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम:
यह अधिनियम कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न की रोकथाम, निषेध और निवारण का प्रावधान करता है। अधिनियम में नियोक्ताओं को शिकायत तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता होती है और गैर-अनुपालन के लिए दंड का प्रावधान है।
अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम:
यह अधिनियम वेश्यावृत्ति और महिलाओं और बच्चों की तस्करी की रोकथाम के लिए प्रावधान करता है। इस अधिनियम में तस्करी के पीड़ितों की सुरक्षा और पुनर्वास तथा अपराधियों को सज़ा देने के प्रावधान शामिल हैं।
आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013:
निर्भया मामले में, जिसमें दिसंबर 2012 में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था, ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 को अधिनियमित करने के लिए प्रेरित किया। अधिनियम द्वारा भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और दंड प्रक्रिया संहिता के कई प्रावधानों को बदल दिया गया।
इस संशोधन के परिणामस्वरूप कई नए अपराधों को मान्यता दी गई और भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया, जिसमें एसिड अटैक (धारा 326 ए और बी), वॉयरिज्म (धारा 354 सी), पीछा करना (धारा 354 डी), एक महिला को निर्वस्त्र करने का प्रयास (धारा 354 बी), यौन उत्पीड़न (धारा 354 ए), और यौन हमला जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु या चोट होती है जिसके परिणामस्वरूप लगातार वनस्पति अवस्था होती है (धारा 354 (धारा 376 ए)।
संविधान के उद्देश्य का पालन करने के लिए, राज्य ने समान अधिकार सुनिश्चित करने, सामाजिक भेदभाव और हिंसा और अत्याचार के अन्य रूपों को रोकने और विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं को सहायता सेवाएँ प्रदान करने के उद्देश्य से कई कानून पारित किए हैं। हालाँकि महिलाएँ किसी भी अपराध, जैसे 'हत्या', 'डकैती' या 'धोखाधड़ी' का शिकार हो सकती हैं, लेकिन ये विशेष रूप से निर्देशित कार्य हैं।3
भारतीय कानून में इन प्रावधानों का उद्देश्य महिलाओं को उनके खिलाफ किए गए अपराधों से न्याय और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करना है। हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन कानूनों का कार्यान्वयन और अपराध का सामना करने वाली महिलाओं को प्रदान की जाने वाली सहायता पूरे देश में अलग-अलग हो सकती है, और यह सुनिश्चित करने के लिए और अधिक करने की आवश्यकता है कि महिलाएँ कानून के तहत अपने अधिकारों और सुरक्षा तक पहुँच पाने में सक्षम हों।
आपराधिक अपराधों में आरोपी या दोषी ठहराई गई महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रावधान:
भारतीय दंड संहिता:
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में प्रावधान है कि महिलाओं को दुर्लभ परिस्थितियों को छोड़कर मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा नहीं दी जा सकती। यह इस तथ्य को मान्यता देता है कि महिलाओं को अक्सर हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है और वे आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर दुर्व्यवहार की चपेट में आ सकती हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता:
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) महिलाओं के खिलाफ किए गए अपराधों की जांच करने और अपराध की आरोपी महिलाओं से निपटने के लिए महिला पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान करती है। सीआरपीसी यह भी कहती है कि महिलाओं को जेल में पुरुषों से अलग रखा जाना चाहिए और उनकी तलाशी केवल महिला अधिकारियों द्वारा ही ली जानी चाहिए।
किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम:
यह अधिनियम अपराध के आरोपी बच्चों, जिनमें बालिकाएँ भी शामिल हैं, के संरक्षण और पुनर्वास का प्रावधान करता है। इस अधिनियम में किशोर अपराधियों के लिए विशेष सुविधाओं की स्थापना का प्रावधान है, जिसमें लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग सुविधाएँ शामिल हैं।
जेल अधिनियम, 1894:
जेल अधिनियम में महिला कैदियों के साथ उनके अधिकारों और ज़रूरतों के अनुसार व्यवहार करने का प्रावधान है। इस अधिनियम के अनुसार महिलाओं को पुरुषों से अलग सुविधाओं में रखा जाना चाहिए, और गर्भवती महिलाओं, बच्चों वाली महिलाओं और विकलांग महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपराध के आरोपी या दोषी ठहराए गए महिलाओं के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर निष्पक्ष और मानवीय व्यवहार किया जाए। हालाँकि, व्यवहार में, इन प्रावधानों का कार्यान्वयन प्रभावी नहीं है, और आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और दुर्व्यवहार की रिपोर्टें मिली हैं।
महिलाओं में जागरूकता की स्पष्ट कमी है और जमीनी स्तर पर मौजूदा सुरक्षात्मक कानूनों के कार्यान्वयन में भी विफलता है, और इसलिए इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता है, जिसमें लिंग-संवेदनशील नीतियों और प्रथाओं का कार्यान्वयन और विशेष रूप से अपराध की शिकार महिलाओं का समर्थन करने के लिए डिज़ाइन किए गए कार्यक्रमों और सेवाओं का विकास शामिल है। इसके अतिरिक्त, पीड़ित को दोषी ठहराने की संस्कृति को चुनौती देने और महिलाओं को अपराधों की रिपोर्ट करने और न्याय मांगने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षा और जागरूकता बढ़ाने के प्रयासों की आवश्यकता है। साथ ही, आरोपी महिलाओं को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है और उनके लिए भी यही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि भारत में महिला प्रतिवादियों को भारतीय संविधान और विभिन्न कानूनी प्रावधानों के तहत कानूनी सहायता का अधिकार है। कानूनी सहायता उन व्यक्तियों को सहायता प्रदान करने का प्रावधान है जो वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी को न्याय तक पहुँच प्राप्त हो। कुछ प्रावधान इस प्रकार हैं:

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम:
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम उन व्यक्तियों के लिए कानूनी सहायता और सलाह सेवाओं की स्थापना का प्रावधान करता है जो वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं। अधिनियम के अनुसार, अपराधों के आरोपी महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए, तथा उन महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान किए जाने चाहिए जो कमज़ोर या हाशिए पर हैं, जैसे कि वे जो गरीब, अशिक्षित या हिंसा की शिकार हैं।
जेल अधिनियम, 1894:
जेल अधिनियम में उन कैदियों को कानूनी सहायता देने का प्रावधान है जो वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं। इसमें वे महिला प्रतिवादी भी शामिल हैं जो जेल में हैं और जिन्हें कानूनी सहायता की आवश्यकता है।
कानूनी सहायता क्लीनिक:
कानूनी सहायता क्लीनिक भारत सरकार की एक पहल है और यह उन व्यक्तियों को कानूनी सहायता और सलाह सेवाएँ प्रदान करती है जो वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं। ये क्लीनिक देश भर के कई राज्यों में स्थापित किए गए हैं और अपराधों के आरोपी महिलाओं को निःशुल्क कानूनी सेवाएँ प्रदान करते हैं।
उपर्युक्त सभी प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपराध के आरोपी महिलाओं को कानूनी सहायता और प्रतिनिधित्व तक पहुँच प्राप्त हो, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें निष्पक्ष सुनवाई मिले और वे आपराधिक आरोपों के विरुद्ध अपना बचाव करने में सक्षम हों। हालाँकि, व्यवहार में, कानूनी सहायता प्रावधानों का कार्यान्वयन पूरे देश में असंगत हो सकता है, और महिलाओं को अभी भी कानूनी प्रतिनिधित्व तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
भारत में महिला अधिकारों के संरक्षण के लिए कुछ अन्य प्रासंगिक कानून हैं:
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005
गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994
सती प्रथा (रोकथाम) अधिनियम, 1987
महिलाओं का अशिष्ट चित्रण (निषेध) अधिनियम, 1986
गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 (2021 में संशोधित)
दहेज निषेध अधिनियम, 1961
मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 (2017 में संशोधित)
अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956
हिंदू विवाह उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (2005 में संशोधित)
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
विशेष विवाह अधिनियम, 1954
परिवार न्यायालय अधिनियम, 1954
भारत में महिलाओं और आपराधिक न्याय से संबंधित मुद्दों से संबंधित कुछ ऐतिहासिक मामले:
तुकाराम बनाम महाराष्ट्र राज्य (1979):
यह मामला महिलाओं के लिए अलग हिरासत सुविधाओं के मुद्दे से संबंधित था और अदालत ने माना कि महिला कैदियों को अलग, सुरक्षित और सभ्य सुविधाओं में रखा जाना चाहिए।
महाराष्ट्र राज्य बनाम माधवराव पुत्र एम.एल. धावले (1991):
यह मामला हिरासत में बलात्कार के मुद्दे से संबंधित था, जिसका तात्पर्य पुलिस हिरासत में किसी सरकारी अधिकारी द्वारा महिला के साथ बलात्कार से है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि हिरासत में बलात्कार एक जघन्य अपराध है और सरकार का दायित्व है कि वह महिलाओं को ऐसे दुर्व्यवहार से बचाए। न्यायालय ने पुलिस हिरासत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए।
विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य (1997):
यह मामला कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मुद्दे से संबंधित था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यौन उत्पीड़न महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन है और नियोक्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करें। न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए।
साक्षी बनाम भारत संघ (2004):
यह मामला बलात्कार पीड़ितों की चिकित्सा जांच के मुद्दे से संबंधित था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बलात्कार पीड़ितों की चिकित्सा जांच इस तरह से की जानी चाहिए जो पीड़ित के अधिकारों और सम्मान के प्रति संवेदनशील हो, और चिकित्सा जांच का उपयोग पीड़ित को और अधिक आघात पहुंचाने के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
शर्मिला कांथा बनाम महाराष्ट्र राज्य (2005):
यह मामला महिला कैदियों के एकांत कारावास के मुद्दे से संबंधित था और अदालत ने माना कि एकांत कारावास क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक उपचार का एक रूप है, और महिला कैदियों को ऐसी परिस्थितियों के अधीन नहीं किया जा सकता है।
सुनीता कुमारी बनाम झारखंड राज्य (2010):
यह मामला झारखंड में महिला कैदियों की चिकित्सा देखभाल के मुद्दे से संबंधित था, और अदालत ने माना कि महिला कैदियों को उचित चिकित्सा उपचार और सुविधाएं प्राप्त करने का अधिकार है, विशेष रूप से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान।
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010):
यह मामला महिला कैदियों पर पॉलीग्राफ और नार्कोएनालिसिस परीक्षणों के उपयोग के मुद्दे से संबंधित था और अदालत ने माना कि ये परीक्षण महिलाओं की गोपनीयता और गरिमा का उल्लंघन करते हैं और उनकी सहमति के बिना इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है।
बबीता पुनिया बनाम हरियाणा राज्य (2017):
यह मामला पुलिस बल में महिलाओं के यौन शोषण के मुद्दे से संबंधित था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यौन शोषण की शिकार महिला पुलिस अधिकारियों को सहायता और सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए और उनके अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। न्यायालय ने महिला पुलिस अधिकारियों को यौन शोषण से बचाने के लिए दिशा-निर्देश भी निर्धारित किए।
इन मामलों ने भारत में महिलाओं के लिए कानूनी सुरक्षा को मजबूत करने में मदद की है, और महिलाओं को आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर सामना करने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार के विभिन्न रूपों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद की है। हालाँकि, यह सुनिश्चित करने के लिए अभी भी बहुत काम किया जाना बाकी है कि महिलाओं के अधिकार पूरी तरह से सुरक्षित हों और महिलाओं को निष्पक्ष और प्रभावी तरीके से न्याय मिल सके।
यह सुनिश्चित करने के लिए काम करना जारी रखना महत्वपूर्ण है कि महिला प्रतिवादियों को कानूनी सहायता और प्रतिनिधित्व तक पहुँच हो, ताकि उनके अधिकारों की रक्षा हो और यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें निष्पक्ष सुनवाई मिले, और महिला पीड़ित को न्याय सुनिश्चित करने के लिए एक सुरक्षित और सहायक वातावरण मिले।
निष्कर्ष:
महिलाओं और विशेष रूप से प्रभावित महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कागज पर विभिन्न प्रावधानों के बावजूद, जो किसी दिए गए मामले में पीड़ित या प्रतिवादी हैं, एक अंतर है जिसे इन महिलाओं को जमीनी स्तर पर आसानी से न्याय सुलभ बनाने के लिए पाटने की आवश्यकता है, न कि केवल कागज के एक टुकड़े पर
। आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रति इन प्रभावित महिलाओं में विश्वास और आस्था की भावना पैदा करने के लिए मौजूदा कानूनों के कार्यान्वयन और नीतियों और प्रक्रियाओं को संशोधित करने के प्रयास किए जाने चाहिए।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत में महिलाओं को न्याय मिल सके और आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर उनके साथ निष्पक्ष और समान व्यवहार किया जाए, अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के लिए सरकार, कानूनी समुदाय और पूरे समाज की ओर से निरंतर प्रतिबद्धता की आवश्यकता होगी।
निष्कर्ष निकालने के लिए, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि एक सहायक वातावरण बनाना महत्वपूर्ण है जहाँ महिलाएँ अपराधों की रिपोर्ट करने में सहज महसूस करें और उन्हें ऐसा करने के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुँच प्राप्त हो। इसमें जन जागरूकता अभियान बढ़ाना, आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करना शामिल हो सकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह महिलाओं की ज़रूरतों के प्रति अधिक संवेदनशील है और अपराधों का सामना करने वाली महिलाओं को सहायता सेवाएँ प्रदान करना।
महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों की रिपोर्टिंग से जुड़े कलंक में योगदान देने वाले सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोणों को संबोधित करना भी महत्वपूर्ण है। साथ ही, कानूनी सहायता प्रावधानों के कार्यान्वयन में सुधार करने, कानूनी सहायता के अधिकार के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने और कानूनी सहायता प्रदाताओं को प्रशिक्षण और सहायता प्रदान करने के प्रयास हर ज़रूरतमंद व्यक्ति को न्याय सुलभ बनाने के लिए आवश्यक हैं।
संदर्भ:
http://memoires.scd.univtours.fr/EPU_DA/LOCAL/2015_M2RI_SHAKTHE_SHARAVANA%20KUMAAR.pdf
प्रो. (डॉ.) पवन कुमार मिश्रा और आलोक कुमार, भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली और महिलाओं के खिलाफ अपराध: एक महत्वपूर्ण विश्लेषण, 5 (2) आईजेएलएमएच पृष्ठ 1291 - 1305 (2022), DOI: https://doij.org/10.10000/IJLMH.112941
https://www.hindustantimes.com/india-news/more-than-370-000-cases-of-crimesagainst-women-reported-in-2020-says-govt-101639625323320.html
यौन अपराधों की महिला पीड़ितों पर भारतीय न्यायालय: हालिया घटनाक्रम- जी.एस.बाजपेयी और प्रीतिका शर्मा।
राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति (2016)। यहाँ से प्राप्त: http://wcd.nic.in/acts/draft-national-policy-women-2016
Monday, September 30, 2024
मिथुन चक्रवर्ती को दादा साहब फाल्के पुरस्कार
Thursday, September 26, 2024
सामाजिक शोध
सामाजिक शोध का अर्थ, उद्देश्य एवं चरण
सामाजिक शोध के अर्थ को समझने के पूर्व हमें शोध के अर्थ को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है।
यह स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ यह प्रारम्भ होती है।
सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है।
स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है।
यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है।
प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है।
वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है।
शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें।
शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’
सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं।
पी.वी. यंग (1960:44) के अनुसार,
‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’
सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’
’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है।
सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये।
सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है-
(1) क्या हो रहा है? और
(2) क्यों हो रहा है?
अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि को उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है।
‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है।
यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।
सामाजिक शोध का उद्देश्य
सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है।
( इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री को समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है।)
बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में
पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है।
वह प्रशासकीय परिवर्तनों और प्रशासकीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है।
सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं एवं असमानताओं में होती है।
सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-अर्थात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है।
सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।
गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट किया है।
उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को एकीकृत करना है।
व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीति निर्धारण हेतु आवश्यक सुधार प्रदान करना होता है।
सामाजिक शोध के चरण
सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन एक व्यवस्थित पद्धति के अनुसार किया जाता है।
अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है।
शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में एकमत्य नही है।
इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से किया है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर को दुष्प्रभाव नही पड़ता है।
हम यहाँ पहले कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का उल्लेख करेंगे, तत्पश्चात् सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।
स्लूटर (1926 :5) ने सामाजिक शोध के पन्द्रह चरणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं-
शोध विषय का चुनाव।
शोध समस्या को समझने के लिए क्षेत्र सर्वेक्षण।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची का निर्माण।
समस्या को परिभाषित या निर्मित करना।
समस्या के तत्वों का विभेदीकरण और रूपरेखा निर्माण।
आँकड़ों या प्रमाणों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के आधार पर समस्या के तत्वों का वर्गीकरण।
समस्या के तत्वों के आधार पर आँकड़ों या प्रमाणों का निर्धारण।
वांछित आँकड़ों या प्रमाणों की उपलब्धता का अनुमान लगाना।
समस्या के समाधान की जाँच करना।
आँकड़ों तथा सूचनाओं का संकलन।
आँकड़ों को विश्लेषण के लिए व्यवस्थित एवं नियमित करना।
आँकड़ों एवं प्रमाणों का विश्लेषण एवं विवेचन।
प्रस्तुतीकरण के लिए आँकडों को व्यवस्थित करना।
उद्धरणों, सन्दर्भों एवं पाद् टिप्पणीयों का चयन एवं प्रयोग।
शोध प्रस्तुतीकरण के स्वरूप और शैली को विकसित करना।
चरण
शोध समस्या को परिभाषित करना।
↓
शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना।
↓
अध्ययन के व्यापक दायरे और इकाई को तय करना।
↓
प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना।
↓
शोध विधियों और तकनीकों का चयन।
↓
शोध का मानकीकरण
↓
मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग
↓
शोध सामग्री इकठ्ठा करना।
↓
सामग्री का विश्लेषण करना
↓
व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना
राम आहूजा -ने मात्र छ: चरणों का उल्लेख किया है, जो कि निम्नवत् हैं-
1-अध्ययन समस्या का निर्धारण।
2-शोध प्रारुप तय करना।
3-निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)
4-आँकड़ा संकलन
5-आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण एवं सारणीयन)।
6-प्रतिवेदन तैयार करना।
शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित रूप से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।
________________________
01प्रथम चरण-
शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि सर्वप्रथम आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य किया जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का प्रथम चरण होता है।
_________________________
शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो।
इस तरह आपके द्वारा चयनित एक सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के रूप में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- प्रथमत: तो शोध समस्या को गहन एवं व्यापक रूप से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में अर्थपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत करना।
निश्चित रूप से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।
__________________________
02
द्वितीय चरण-
यह तय हो जाने के पश्चात् कि किस विषय पर शोध कार्य किया जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) किया जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन किया जाता है, ताकि चयनित विषय के सभी पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक एवं तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि पश्चात्। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’
___________________________
03
तृतीय चरण-
सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता एवं गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुरूप तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और एकत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति एवं नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’
________________________
04
चतुर्थ चरण-
शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के पश्चात् अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने की जरुरत है। यह उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का एक चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।
उपकल्पना
उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं?
लुण्डबर्ग (1951:9) के अनुसार, ‘‘उपकल्पना एक सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना को भी , अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’
गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के अनुसार,
‘‘एक उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी रूप से अपनायी जाती है।’’
गुडे तथा हॉट (1952:56) के शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) एक मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’
सरल एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित एक काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है।
विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के पश्चात् जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे।
ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है।
इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए अर्थात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता प्रथम शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए।
उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह एक उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।
उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट एवं सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक उपकल्पना और एक सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस रूप में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि-
उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी एक के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वरूप को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है।
उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है
(यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने उल्लेख किया है-
(i) सामान्य संस्कृति
(ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त
(iii) सादृश्य (Anology)
(iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है।
उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), एक दैव आनुभविक भटकाव होता है।
उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।
_________________________
05
पंचम चरण-
समग्र एवं निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध किया जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे।
इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी।
चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी नष्ट होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है।
इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी सभी इकायों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकायों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हु इकायों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकायों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है।
समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकायों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम रूप में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।
उल्लेखनीय है कि अक्सर निदर्शन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकायों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है।
ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है।
इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं,
----------------------------------------
निदर्शन (सैम्पल) ही है।
अतः
‘‘एक निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’
निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- एक को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं।
निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन किया जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके।
कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इका का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन किया जाता है।
ऐसा ही जनगणना कार्य में भी किया जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकायों का अध्ययन किया जाता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकायों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।
___________________________
06
छठवाँ चरण-
प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं।
उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की आवश्यकता, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक एवं प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें।
प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ एवं तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं।
शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती हैं।
शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक रूप से सोच-समझकर इनमें से किसी एक तकनीक (तथ्य एकत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है।
कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गाड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है।
स्पष्टता के लिए यहाँ उल्लेखनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम एकत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है।
इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ उल्लेखनीय हैं।
________________________
07
सप्तम चरण-
प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों एवं तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुरूप निर्माण हो जाता है, तो उसके पश्चात् क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है।
कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के पहले पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण किया जाता है।
यदि को प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या को प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की आवश्यकता पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है।
सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल एवं सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह एक अत्यन्त दुरुह एवं महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये।
उल्लेखनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की आवश्यकता पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है।
उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के अनुसार ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है।
तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।
यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है।
अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है।
प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो -मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण रूप से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।
यदि शोध कार्य में क क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की आवश्यकता पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि सभी अन्वेषक पूर्ण निष्ठा एवं मानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें।
तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे मोबाइल, टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की सहमति जरूरी है।
प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ एकत्रित सूचनाओं की जाँच एवं आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। को नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए।
तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण एवं निर्वचन दूसरे के द्वारा हो चुका होता है।
अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।
_______________________🎊
अष्ठम चरण :-
आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन एवं विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों एवं प्रविधियों के माध्यम से एकत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक रूप देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, आवश्यकतानुसार सम्पादित किया जाता है, तत्पश्चात् सारिणी में गणनात्मक स्वरूप (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित किया जाता है।
कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण एकत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता एक-एक केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था।
आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक रूप से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से सभी प्रकार की सारणियाँ (सरल एवं जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं।
सारिणीयों के निर्मित हो जाने के पश्चात् उनका तार्किक विश्लेषण किया जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है।
सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित एवं तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।
अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न किया जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी आवश्यकता के अनुसार फोटोग्राफ, डाग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।
उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही उल्लेखनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए
समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है।
शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं।
परिणामों की व्याख्या करें।
निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का उल्लेख करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो।
‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की आवश्यकता होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं।
प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान एवं समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुरूप शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है।
उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’
अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि सभी शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि क चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं।