Saturday, May 30, 2020
सामाजिक विधान
Saturday, May 23, 2020
माध्य, माध्यिका और बहुलक
प्रश्न 01- माध्य, माध्यिका और बहुलक एवं मानक विचलन को परिभाषित कीजिए तथा इनके गुण एवं दोष लिखिये।
उत्तर–समान्तर माध्य (Mean)— समान्तर माध्य किसी भी समष्टि अथवा प्रतिदर्श की केन्द्रीय प्रवृत्ति के लिए सर्वोत्तम माप माना जाता है। आँकड़ों के न्यूनतम एवं अधिकतम मानों के लगभग मध्य में औसत का मान सुनिश्चित रहता है। इसी को समान्तर माध्य कहते हैं। सामान्यतः समान्तर माध्य ज्ञात करने हेतु समाप्त मदों के मूल्यों के योग में मदों के योग में मदों की संख्या (Number of items) का भाग लगाया जाता है।मदों की संख्या समान्तर माध्य के गुण (Merits of Mean)-
(1) सरल गणना (easy to calculate)
(2) समझने के लिए अति सुगम।
(3) चरों के सभी मानों को बराबर महत्त्व दिया जाता है।
(4) श्रेणी को क्रमबद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, किसी भी रूप में गणना से प्राप्त उत्तर स्थिर होते हैं।
(5) आँकड़ों के समूह की केन्द्रीय प्रवृत्ति सुस्पष्ट करते हैं।
सामान्तर माध्य के दोष (Demerits of Mean)-
(1) अवास्तविक।
(2) निरीक्षण से ज्ञात करना सम्भव नहीं।
(3) सीमान्त मूल्यों का माध्यम पर सीधा प्रभाव।
माध्यिका (Median)–माध्यिका (median) से अभिप्राय है। आँकड़ों की श्रृंखला के मध्य का वह मान जो सम्पूर्ण वितरण को दो बराबर भागों में विभक्त कर दें। डॉ. ए. एल. बाउले के अनुसार, ''यदि एक समूह के मानों को उनके मापों के आधार पर क्रमबद्ध किया जाये तो लगभग बीच का मान माध्यिका होता है।''
कॉनर के अनुसार, 'माध्यिका आँकड़ों की श्रेणी का वह चर मान हैं जो समूह को दो बराबर भागों में विभाजित करता है जिससे एक भाग में सभी मूल्य माध्यिका से अधिक और दूसरे भाग में सभी मान उससे कम होते हैं।"
माध्यिका के गुण (Merits of median)-
(1) स्पष्टता (2) सरलता (3) गुणात्मक तथ्यों के लिए उपयुक्त (4) चरम मूल्यों का परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं (5) बिन्दु रेखीय प्रदर्शन सम्भव।
माध्यिका के दोष (Demerits of median)-
(1) प्रतिनिधित्व का अभाव
(2) प्रतिचयन का अभाव
(3) सीमान्त मूल्यों की उपेक्षा
(4) बीजगणितीय विवेचन संभव नहीं ।
बहुलक (Mode)— किसी श्रेणी में अथवा बारंबारता वितरण सारणी में चर का वह मान जो सबसे अधिक बार उपस्थित हो, उस श्रेणी का बहुलक (Mode) कहलाता है अर्थात् श्रेणी के चर का मान जिसकी आवृत्ति सर्वाधिक हो, बहुलक कहलाता है। दूसरे शब्दों में बहुलक के आस-पास ही उस श्रेणी के लगभग सभी चर मान केन्द्रित होते हैं। वितरण में यदि आवृत्ति एक ही चर मान पर वितरित रहती है। तो इसे एकल बहुलक कहते हैं तथा एक से अधिक चर मान पर सर्वाधिक आवृत्ति वितरित रहे तो इसे बहु-बहुलक कहते हैं।
बहुलक के गुण (Merits of mode)-
(1) बहुलक की सरलता से गणना की जा सकती है।
(2) बिन्दु रेखा द्वारा निर्धारण किया जा सकता है।
(3) बहुलक में गुणात्मक तथ्यों का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) बहुलक श्रेणी का महत्त्वपूर्ण माप है।
(5) बहुलक पर चरम मूल्यों का न्यूनतम प्रभाव होता है।
बहुलक के दोष (Demerits of mode)-
(1) बहुलक में चरम मानों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है।
(2) बहुलक ज्ञात करना अस्पष्ट तथा अनिश्चित रहता है।
(3) बहुलक को बीजगणितीय विवेचन नहीं किया जा सकता है, अतः यह अपूर्ण है।
(4) बहुलक में पदों को क्रमानुसार रखना आवश्यक है, इसके बिना बहुलक ज्ञात नहीं किया जा सकता है।
(5) बहुलक को यदि पदों की संख्या से गुणा किाय जाये तो पदों के कुल मानों का योग प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
मानक विचलन (Standard Deviation)– विचलन को मूल मध्यक वर्ग विचलन के नाम से भी जाना जाता है।
परिभाषा– दिये गये प्राप्तांकों के मध्यमान के लिये गये प्रत्येक प्राप्तांक के विचलन के वर्गों के मध्यमान का वर्गमूल ही प्रमाणिक या मानक विचलन होता है।
इसमें माध्यम विचलन के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। प्रमाप विचलन के परिकलन में समस्त विचलन गणितीय क्रिया से स्वयं ही घनात्मक हो जाते हैं। प्रमाप विचलन को ग्रीक अक्षर (Sigma) σ से प्रदर्शित करते हैं।
मानक विचलन के गुण (Merits of Standard Deviation)-
(1) सभी मूल्यों पर आधारित
(2) उच्च गणितीय अध्ययन में महत्त्वपूर्ण
(3) निश्चित मूल्य
(4) प्रतिचयन के कारण परिवर्तनों का प्रभाव कम।
(5) बीजगणितीय चिह्नों की उपेक्षा नहीं।
मानक विचलन के दोष (Demerits of Standard Deviation)-
(1) कठिन गणना (2) सीमान्त मूल्यों का महत्त्व अधिक।
Friday, May 8, 2020
आश्रम व्यवस्था
आश्रम व्यवस्था (Ashram System)
सर्वप्रथम जाबालि उपनिषद में चारों आश्रम की चर्चा की गयी है|
शाब्दिक रूप से आश्रम शब्द श्रम धातु से बना है जिसका तात्पर्य परिश्रम करना है|
समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो मार्क्स ने भी कहा है मानव ही श्रम है एवं श्रम ही मानव है|
आश्रम व्यवस्था में मानव जीवन साध्य होता है, एवं श्रम इसका साधन| इन्हीं आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति अपने चारों पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का निष्पादन करता है|
महाभारत में कहा गया है कि जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियाँ हैं, जिस पर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है|
हिंदू शास्त्रों में मनुष्य के जीवन को 100 वर्ष मानकर चारों आश्रमों के लिए एक समान अवधि निर्धारित की गयी है|
ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि 25 वर्ष तक है| 26 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम की अवधि है| वानप्रस्थ आश्रम 51 से 75 वर्ष तक तथा सन्यास आश्रम 76 से 100 वर्ष की आयु तक है|
शास्त्रों में इन्हीं आश्रमों के माध्यम से मनुष्य के जीवन को व्यवस्थित एवं वर्गीकृत किया गया है|
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम – ब्रह्मचर्य आश्रम का उद्देश्य विद्यार्थी के रूप में जीवन व्यतीत करने एवं गुरू से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने से है, जिसमें धर्म जैसे पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| इसमें बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास करता है| इस आश्रम का आरम्भ उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण) से शुरु हो जाता है| इस आश्रम में इंद्रियों के नियंत्रण पर अत्यधिक बल दिया जाता है|
महत्त्व –
(1) जीवन में ज्ञान अर्जन के लिए महत्वपूर्ण आश्रम है|
(2) मानसिक एवं शारीरिक विकास होता है|
(3) इस आश्रम में मनुष्य जीवन के मूल्यों एवं प्रतिमानों को सीखता है|
(4) यह आश्रम इंद्रियों के नियंत्रण एवं संयम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है|
(5) इस आश्रम द्वारा मनुष्य के जीवन की दिशा एवं दशा निर्धारित होती है|
(2) गृहस्थ आश्रम – विवाह संस्कार के द्वारा व्यक्ति इस आश्रम में प्रवेश करता है| हिंदू शास्त्र के अनुसार विवाह के तीन उद्देश्य धर्म, प्रजा एवं रति है| इस आश्रम में मनुष्य पाँच यज्ञ यथा – ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ का संचालन करता है, तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होकर मनुष्य की निरंतरता सुनिश्चित करता है| गृहस्थ आश्रम में ही जीवन की सफलता प्राप्त की जा सकती है| इस आश्रम में सांसारिक वस्तु के उपभोग के बाद उत्पन्न हुई मोक्ष की इच्छा में कोई व्यवधान नहीं रहता है| इस आश्रम में धर्म अर्थ एवं काम तीनों पुरूषार्थों का पालन किया जाता है|
महत्व –
(1) यह चारो आश्रमों में समन्वय स्थापित करता है|
(2) इस आश्रम में तीन पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम का पालन किया जाता है|
(3) यह आश्रम सांस्कृतिक परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है|
(4) यह आश्रम व्यक्तिवादिता पर अंकुश तथा पारिवारिक एवं सामूहिक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है|
(5) सामाजिक जीवन में सहयोगी बनने का आदर्श प्रस्तुत करता है|
(6) गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति ऋणों से मुक्त होता है| यज्ञ व हवन द्वारा देव ऋण,वेदों एवं शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा ऋषि ऋण तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से उऋण होता है|
(3) वानप्रस्थ आश्रम – वानप्रस्थ का तात्पर्य वन की ओर प्रस्थान करना है| इस आश्रम में व्यक्ति अपने सांसारिक सुख को त्याग कर वन में कहीं कुटिया बनाकर पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करता है| इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, तथा बिना किसी भेदभाव के लोगों के उपकार के लिए कार्य करता है| अपने अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं शिक्षा का प्रसार करता है|संयमित जीवन व्यतीत करता है यह आश्रम गृहस्थ एवं सन्यास आश्रम के मध्य में स्थिति को व्यक्त करता है| कुछ शास्त्रकार मानते हैं कि व्यक्ति सांसारिक सुख को त्याग कर जनकल्याण का कार्य करता है और संयमित जीवन व्यतीत करते हुए धीरे-धीरे सन्यास आश्रम में जाने की तैयारी करता है|
महत्व –
(1) व्यक्ति जो भी ज्ञान अपने गुरू या अनुभव द्वारा संग्रहित किया रहता है| उसे ब्रह्मचारियों एवं अन्य लोगों में प्रचार प्रसार करता है|
(2) समाज की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मैं हस्तांतरण के लिये यह आश्रम बहुत ही महत्वपूर्ण है|
(3) यह आश्रम समाज के लोगो की उन्नति एवं कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है|
(4) इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर कार्य करता है|
(4)संन्यास आश्रम – यह हिंदू आश्रम व्यवस्था का अंतिम आश्रम है| सांसारिक जीवन त्यागकर ही एक व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है| इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है| इस आश्रम में संन्यासी का किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान से कोई लगाव नहीं रहता है| वह घृणा, मोह, सुख-दुख आदि आकांक्षाओं एवं कामनाओं से मुक्त रहता है तथा भिक्षा माँगकर उतना ही आहार ग्रहण करता है जितना उसको जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है| इस आश्रम में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| व्यक्ति त्याग, चिंतन, मनन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करता है|
महत्त्व –
(1) यह आश्रम समाज में मोह, लोभ, घृणा, द्वेष आदि त्यागने की प्रेरणा देता है|
(2) यह आश्रम समाज में भौतिक सुख की अत्यधिक महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति को अंतिम समय के त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाता है|
(3) यह आश्रम धर्म पालन एवं चिंतन की प्रेरणा देता है|
(4) यह लोगों में भौतिकता के मोह को दूर कर त्यागपूर्ण जीवन जीने का आदर्श प्रस्तुत करता है|
समिति
समाजशास्त्र
बी0 ए0 प्रथम वर्ष।
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समिति
समिति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ एवं अनिवार्य तत्व
समिति व्यक्तियों का एक समूह है जो कि किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हेतु बनाया जाता है। उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु समाज द्वारा मान्यता प्राप्त नियमों की व्यवस्था को संस्था कहते हैं।
बहुत से लोग इन दोनों को समान अर्थों में प्रयोग करते हैं जो कि उचित नहीं है। ऐसा भ्रम इन दोनों शब्दों के सामान्य प्रयोग के कारण पैदा होता है।
उदाहरण के लिए हम किसी भी महाविद्यालय को एक संस्था मान लेते हैं। समाजशास्त्र में जिस अर्थ में संस्था का प्रयोग होता है उस अर्थ की दृष्टि महाविद्यालय संस्था न होकर एक समिति है क्योंकि यह व्यक्तियों का एक मूर्त समूह है।
यदि वही इसे परीक्षा पद्धति (जो कि नियमों की एक व्यवस्था है) की दृष्टि से देखें, तो इसे संस्था भी कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि कोई भी व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं अकेला ही नहीं कर सकता है। यदि एक जैसे उद्देश्यों की पूर्ति वाले मिलकर सामूहिक रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करें, तो एक समिति का निर्माण होता है।
इसीलिए समिति को व्यक्तियों का एक समूह अथवा संगठन माना जाता है।
समिति का अर्थ एवं परिभाषा
समिति व्यक्तियों का समूह है। यह किसी विशेष हित या हितों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। परिवार, विद्यालय, व्यापार संघ, चर्च (धार्मिक संघ), राजनीतिक दल, राज्य इत्यादि समितियाँ हैं।
इनका निर्माण विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ, विद्यालय का उद्देश्य शिक्षण तथा व्यावसायिक तैयारी हैं। इसी प्रकार, श्रमिक संघ का उद्देश्य नौकरी की सुरक्षा, उचित पारिश्रमिक दरें, कार्य की स्थितियाँ इत्यादि को ठीक रखना है। साहित्यकारों या पर्वतारोहियों के संगठन भी समिति के ही उदाहरण हैं।
जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समिति आपस में सम्बन्धित सामाजिक प्राणियों का एक समूह है, जो एक निश्चित लक्ष्य या लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन का निर्माण करते हैं।
मैकाइवर एवं पेज (MacIver and Page) के अनुसार-”सामान्य हित या हितों की पूर्ति के लिए दूसरों के सहयोग के साथ सोच-विचार कर संगठित किए गए समूह को समिति कहते हैं।”
गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार-”समिति व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो किसी विशेष हित या हितों के लिए संगठित होता है तथा मान्यता प्राप्त या स्वीकृत विधियों और व्यवहार द्वारा कार्य करता है।”
बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-”समिति प्राय: किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोगों का मिल-जुलकर कार्य करना है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सहयोग व संगठन पाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य किसी लक्ष्य की पूर्ति है। समिति के सदस्य अपने विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत सामूहिक प्रयास द्वारा करते हैं।
समिति के अनिवार्य तत्त्व
समिति के चार अनिवार्य तत्त्व हैं-
व्यक्तियों का समूह-समिति समुदाय की ही तरह मूर्त है। यह व्यक्तियों का एक संकलन है। दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का होना समिति के निर्माण हेतु अनिवार्य है।
सामान्य उद्देश्य-समिति का दूसरा आवश्यक तत्त्व सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का होना है। व्यक्ति इन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो संगठन बनाते हैं उसे ही समिति कहा जाता है।
पारस्परिक सहयोग-सहयोग समिति का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। इसी के आधार पर समिति का निर्माण होता है। सहयोग के बिना समिति का कोई अस्तित्व नहीं है।
संगठन-समिति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन का होना भी आवश्यक है।
संगठन द्वारा समिति की कार्य-प्रणाली में कुशलता आती है। समिति के निर्माण हेतु उपर्युक्त चारों तत्त्वों का होना अनिवार्य है।
वस्तुत: समितियों का निर्माण अनेक आधारों पर किया जाता है। अवधि के आधार पर समिति स्थायी (जैसे राज्य) एवं अस्थायी (जैसे कोरोना सहायता समिति); सत्ता के आधार पर सम्प्रभु (जैसे राज्य); अर्द्ध-सम्प्रभु (जैसे विश्वविद्यालय) एवं असम्प्रभु (जैसे क्लब); कार्य के आधार पर जैविक (जैसे परिवार); व्यावसायिक (जैसे श्रमिक संघ); मनोरंजनात्मक (जैसे संगीत क्लब) एवं परोपकारी (जैसे सेवा समिति) हो सकती हैं।
समिति की प्रमुख विशेषताएँ
समिति की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। इनमें से प्रमुख विशेषताएँ हैं-
मानव समूह-समिति का निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह से होता है जिसका एक संगठन होता है। संगठन होने का आधार उद्देश्य या उद्देश्यों की समानता है।
निश्चित उद्देश्य-समिति के जन्म के लिए निश्चित उद्देश्यों का होना आवश्यक है। यदि निश्चित उद्देश्य न हों तो व्यक्ति उनकी पूर्ति के लिए तत्पर न होंगे और न ही समिति का जन्म होगा।
पारस्परिक सहयोग-समिति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्था का निर्माण करती है। उद्देश्य की प्राप्ति तथा व्यवस्था के लिए सहयोग होना अति आवश्यक है। चूँकि सदस्यों के समान उद्देश्य होते हैं, इस कारण उनमें सहयोग पाया जाता है।
ऐच्छिक सदस्यता-प्रत्येक मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ हैं। जब वह अनुभव करता है कि अमुक समिति उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है तो वह उसका सदस्य बन जाता है। समिति की सदस्यता के लिए कोई बाध्यता नहीं होती है। इसकी सदस्यता ऐच्छिक होती है। इसे कभी भी बदला जा सकता है।
अस्थायी प्रकृति-समिति का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों को पूर्ति के लिए किया जाता है। जब उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है तो वह समिति समाप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ, गणेशोत्सव के लिए गठित समिति गणेशोत्सव समाप्त होने के बाद भंग हो जाती है।
विचारपूर्वक स्थापना-समिति की स्थापना मानवीय प्रयत्नों के कारण होती है। व्यक्तियों का समूह पहले यह परामर्श करता है कि समिति उनके लिए कितनी लाभप्रद होगी। यह विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही समिति की स्थापना की जाती है।
नियमों पर आधारित-प्रत्येक समिति की प्रकृति अलग होती है। इसी कारण समितियों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। उद्देश्यों को पाने के लिए व सदस्यों के व्यवहार में अनुरूपता (Conformity) लाने के लिए कतिपय निश्चित नियम आवश्यक हैं। नियमों के अभाव में समिति अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर सकती।
मूर्त संगठन-समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो कतिपय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एकत्र होते हैं। इस दशा में समिति को मूर्त संगठन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसको किसी के भी द्वारा देखा जा सकता है।
समिति साधन है, साध्य नहीं-समितियों का निर्माण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। यदि हम पढ़ने के शौकीन हैं, तो वाचनालय की सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं। इससे हमें इच्छानुसार पुस्तकें मिलती रहती हैं। इसमें वाचनालय पुस्तकें प्राप्त करने का साधन है, साध्य नहीं; और यही समिति है। अत: हम कह सकते हैं कि समिति साधन है साध्य नहीं।
सुनिश्चित संरचना-प्रत्येक समिति की एक सुनिश्चित संरचना होती है। समस्त सदस्यों की प्रस्थिति समान नहीं होती, वरन् उनकी अलग-अलग प्रस्थिति या पद होते हैं। पदों के अनुसार ही उन्हें अधिकार प्राप्त होते हैं।
उदाहरण के लिए जैसे आपके राजकीय महाविद्यालय सितारगंज प्राचार्य, अध्यापक, छात्र, लिपिक इत्यादि प्रत्येक की अलग-अलग प्रस्थिति होती है तथा तदनुसार उनके अलग-अलग कार्य होते है।
सत्याग्रह
BA 6 semester 2020
महात्मा गांधी को का सत्याग्रह पढ़ने से पहले गांधी की पृष्ठभूमि को देखना आवश्यक है अतः आप लोग इस लिंक को जरूर देखें ।
https://youtu.be/pPsKQwaZ4dgसत्याग्रह
सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ सत्य के लिये आग्रह करना होता है।
"सत्याग्रह' का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य अ आग्रह) सत्य को पकड़े रहना और इसके साथ अहिंसा को मानना ।
सत्याग्रह में अन्याय का सर्वथा विरोध(अन्याय के प्रति विरोध इसका मुख्या वजह था ) करते हुए अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना, सत्याग्रह का मूल लक्षण है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्याग्रह में एक पद "प्रेम' अध्याहत है। सत्याग्रह यानी सत्य के लिए प्रेम द्वारा आग्रह।(सत्य + प्रेम + आग्रह = सत्याग्रह)।
सत्याग्रह' एक प्रतिकारपद्धति ही नहीं है, एक विशिष्ट जीवनपद्धति भी है जिसके मूल में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, निर्भयता, ब्राहृचर्य, सर्वधर्म समभाव आदि एकादश व्रत हैं।
बुराई के बदले भलाई। यह बुद्ध, ईसा, गांधी आदि संतों का मार्ग है। इसमें हिंसा के बदले अहिंसा का तत्व अंतर्निहित है। जिसको हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब इनकी माता पुतलीबाई को अपना विरोध करना पड़ता था तो वह अपने को हवेली में लेकर चले जाते थे हवेली गुजरात में मंदिर को कहा जाता है और उस सत्य पर बिजी रहती थी और शायद बाल मन पर पड़ा सत्य के प्रति आग्रह सत्याग्रह उनकी लड़ाई का एक हथियार हुआ
गांधीजी ने सर्वप्रथम भारत में सत्याग्रह का प्रयोग
सर्वप्रथम चंपारण में 1917 में किया था जो कि किसानों समस्या को ले कर हुई थे ,बात यह थी अंग्रेज सरकार किसानों को नील खेती करने के लिए बाध्य करते थे। इसप्रकर किसानों को नियम के अनुसार सम्पूर्ण जमीन के एक हिस्से में नील की खेती करनी पड़ती थी जिसे तीन काठियावाड़ी प्रथा कहते थे ।
गांधीजी अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका गये थे। जनवरी 1915 में वे भारत लौटे। गांधी गए थे तो बरिस्टर बन्नी लेकिन दक्षिण अफ्रीका में उनके किए गए कार्य उनको एक जनमाना में बदल दिया काफी लोकप्रिय हो गए और लोकप्रियता दक्षिण अफ्रीका में ही नहीं भारत में भी सुनी जाने लगी अब उनके जीवन का एक ही मकसद था - लोगों की सेवा।
महात्मा गांधी का सत्याग्रह
महात्मा गांधी का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अहम योगदान रहा है। जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। इससे पहले उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शोषण, अन्याय एवं रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन किया था। इसमें उन्हें सफलता मिली थी।
गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में बहुत ही लोकप्रिय थे, जब वे भारत आये तो रवींद्रनाथ टगौर ने इस महात्मा की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण भी दिया।
गांधीजी शांति निकेतन और भारतीय परिस्थिती से ज्यादा परिचित नहीं थे वही गोखले की इच्छा थी कि गांधीजी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें।
अपने राजनीतिक गुरू गोखले को उन्होंने वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान 'केवल उनके कान खुले रहेंगे, मुँह पूरी तरह बंद रहेगा।' एक तरह से यह गांधीजी का एक वर्षीय 'मौन व्रत' था।
वर्ष की समाप्ति के समय गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गये। उन्होंने इस सुंदर जगह पर साबरमती आश्रम बनाया। इस आश्रम की स्थापना उन्होंने मई 1915 में की थी। वे इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित करते थे।
आरंभ में इस आश्रम से कुल 25 महिला-पुरुष स्वयंसेवक जुड़े। जिन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। इन स्वयंसेवकों ने अपना पूरा जीवन 'लोगों की सेवा में' बिताने का निश्चय किया।
गांधीजी का 'मौन व्रत' समाप्त हो चुका था। पहली बार भारत में गांधीजी सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और अंग्रेज अधिकारीयों की उपस्थिति में उन्होंने भाषण दिया।
इस अवसर पर वाइसराय भी स्वयं उपस्थित था।
एक हिन्दू राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में अंग्रेजी भाषा में बोलने की अपनी विवशता पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने भाषण की शुरूआत की।
उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरातों तथा धूमधाम से आयोजनों में होने वाली फिजूल खर्ची की चर्चा की। उन्होंने कहा,"एक ओर तो अधिकांश भारत भूखों मर रहा है और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बर्बादी की जा रही है।" उन्होंने सभा में बैठी राजकुमारीयों के गले में पड़े हीरे-जवाहरातों की ओर देखते हुए कहा कि 'इनका उपयोग तभी है, जब ये भारतवासियों की दरिद्रता देर करने के काम आयें।' कई राजकुमारीयों और अंग्रेज अधिकारीयों ने सभा का बहिष्कार कर दिया। उनका भाषण देश भर में चर्चा का विषय बन गया था।
अपने इस भाषण से जहां भारत में वह खबर में आ गए एक आम जनमानस के नजर में आए वही पहले ही भाषण में उन्होंने जिस तरह रजवाड़ों से अपनी भड़ास निकाली वह आम भारत की सूची जनता को बहुत ही पसंद आई कि एक बड़े मंच पर उन्हीं के मंच पर गांधी ने पहली बार भारत में शोषण करने वाले के विरुद्ध प्रथम आवाज थी गांधी की।यही वो अपने को प्रदर्शित कर रहे थे। गांधी अपने मनोभावों को जता रहे थे।
भारत में गांधीजी का पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारन में शुरू हुआ। वहाँ पर नील की खेती करने वाले किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ बगान मालिक भी जुल्म छा रहे थे। गांधीजी स्थिति का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएँ बताईं। उधर पुलिस भी हरकत में आ गई। पुलिय सुपरिटेंडंट ने गांधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधीजी के समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए मेजिस्ट्रेट ने बिना जमानत के गांधीजी को छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की माँग की।फैसला स्थगित कर दिया गया। इसके बाद गांधीजी फिर अपने कार्य पर निकल पड़े। अब उनका पहला उद्देश लोगों को 'सत्याग्रह' के मूल सिद्धातों से परिचय कराना था।
उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से स्वतंत्र होना। गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहाँ किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया।
सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया।
चंपारन के इस गांधी अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सारे भारत का ध्यान अब चंपारन पर था। सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया।
जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारन ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना।
गांधी जी ने लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार की थी-"यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है और हिंसा के उपायों के एवज में चलाया जा रहा।' अहिंसा सत्याग्रह दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि सत्य तक पहुँचने और उन पर टिके रहने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है।
महात्मा गांधी का सत्याग्रह दक्षिण अफ्रीका में हुआ था इस सत्याग्रह का जन्म-गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन और सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ। सन 1906 में दक्षिण अफ्रीका सरकार ने भारतीयों के पंजीकरण के लिए एक अपमानजनक अध्यादेश जारी किया।
दक्षिण अफ्रीका में हुआ सत्याग्रह का जन्म
सितंबर 1906 में जोहन्सबर्ग में गांधी जी के नेतृत्व में एक विरोध सभा का आयोजन हुआ। गांधी जी ने बिना किसी हिंसा के दक्षिण अफ्रीका में वहां के सुरक्षाकर्मियों के सामने अध्यादेश को आग के हवाले कर दिया।
इस पर गांधी जी को लाठी चार्ज भी झेलना पड़ा लेकिन वह पीछे नहीं हटे।यही यही था उनका सत्य के प्रति आग्रह जिसका प्रयोग गांधी अंग्रेजो के खिलाफ कर रहे थे या अंग्रेजों से नफरत नहीं थी बल्कि उनकी नीतियों के खिलाफ उनके विरोध का एक प्रदर्शन था जिसमें साथी सत्य था और सब की हित की यह नीति थी। जो शोषण विरुद्ध थी।
नरम दल के नेता गांधी जी में देख रहे थे भविष्य
सन् 1915 में जब गांधी जी भारत आए, तो देश वासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। गांधी जी इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में अपने अहिंसात्मक सत्याग्रह का कई बार सफल प्रयोग कर चुके थे।
नरम दल के नेता गांधी जी में देख रहे थे भविष्य
इसके साथ ही भारत के नरम दल के नेताओं को गांधीजी में ही अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। उन्हें विश्वास था कि गांधी जी का सत्याग्रह ही भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा सकता है। भारत लौटने पर गांधी जी नेशनल इण्डियन कांग्रेस की स्थापना की।
देश में ही बजा दिया सत्याग्रह का बिगुल
स्वदेश लौटने पर कुछ दिन उन्होंने देश का भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया। इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी संस्था को पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य देकर संघर्ष में कूद पड़े। प्रथम विश्वयुद्ध में वचन देकर भी अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के प्रति अपने रवैये में कोई परिवर्तन नहीं किया था, इससे वे चिढ़ गए और सत्याग्रह का बिगुल बजा दिया।
भारत में रोलट एक्ट का विरोध होने लगा
भारतवासियों के मानवाधिकारों का हनन करने वाले रोलट एक्ट का विरोध होने लगा। 1919 में जलियां-वाला बाग में हो रही विरोध-सभा पर हुए अत्याचार ने गांधी जी की अंतरात्मा को हिला दिया। इसके बाद वह स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाल खुलकर संघर्ष में कूद पड़े।
भारत में रोलट एक्ट का विरोध होने लगा
गांधी जी का संकेत पाते ही पूरे देश में विरोधी आंदोलनों की आंधी सी छा गई। अंग्रेज सरकार की लाठी-गोलियां बरसने लगीं। जेलें सत्याग्रहियों से भर उठीं। गांधीजी को भी जेल में डाल दिया गया।
नवजीवन और यंग इंडिया का प्रकाशन
बिहार की नील सत्याग्रह, डाण्डी यात्रा या नमक सत्याग्रह, खेड़ा का किसान सत्याग्रह आदि गांधी जी के प्रमुख सत्याग्रह हैं। उन्हें कई बार महीनों उपवास भी करना पड़ा। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गांधी जी ने नवजीवन और यंग इंडिया जैसे पत्र भी प्रकाशित किए।
नवजीवन और यंग इंडिया का प्रकाशन
विदेशी-बहिष्कार और विदेशी माल का दाह, मद्य निषेध के लिए धरने का आयोजन, अछूतोद्धार, स्वदेशी प्रचार के लिए चर्खे और खादी को महत्व देना, सर्वधर्म-समन्वय और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रचार शुरू किया। स्वतंत्रता के लिए गांधी जी को बीच-बीच में जेलयात्रा भी करनी पड़ी।
ब्रिटिश सरकार को पीछे हटना पड़ा
सन् 1931 में इग्लैंड में संपन्न गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए गांधी जी वहां गए, पर जब इनकी इच्छा के विरुद्ध हरिजनों को निर्वाचन का विशेषाधिकार हिंदुओं से अलग करके दे दिया, तो भारत लौटकर गांधी जी ने पुन: आंदोलन शुरू कर दिया।
गोविन्द सदाशिव घुर्ये
गोविन्द सदाशिव घुर्ये (1893-1983)
1919 में मुंबई विश्वविद्यालय में पेट्रिक गिडिंस ने समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की उसके बाद विभागअध्यक्ष बनने वाले जी.एस.घुर्ये प्रथम भारतीय विद्वान थे इसीलिए इनको भारतीय समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है
जी.एस.घुर्ये इंडियन सोशलॉजीकल सोसाइटी,1952 मुंबई संस्था द्वारा प्रकाशित पत्रिका सोशलॉजीकल बुलेटिन के प्रधान संपादक थे
जी.एस.घुर्ये ने शेक्सपियर से लेकर साधुओं पर कला, नृत्य, वेशभूषा तथा वास्तु शास्त्र से लेकर लोक देवी-देवताओं पर, सेक्स तथा विवाह से लेकर प्रजाति जैसे अनेक विषयों पर लिखा है
जी.एस.घुर्ये के अध्ययनों में अधिकांश क्यों और क्या के दो प्रश्नों की विवेचना की गई साथ ही प्रसारवादी परिप्रेक्ष के साथ भारत विद्याशास्त्र (इंडोलॉजी) उपागम का प्रयोग किया हैं
जी.एस.घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति के प्रजातीय सिद्धांत का समर्थन करते हुए हिंदू जनसंख्या को शारीरिक विशेषताओं के आधार पर 6 भागों में बांटा है
इंडोआर्यन
पूर्व द्रविड़
द्रविड़
पश्चिमी द्रविड़
मुंडा
मंगोलियन
जी.एस.घुर्ये ने जाति के उद्भव के बारे में कहा की जाति प्रणाली इंडो आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का शिशु है जिसका पालन पोषण गंगा के मैदान में हुआ और वहां से इसे देश के दूसरे भागों में लाया गया
जी.एस.घुर्ये ने जाती की 6 विशेषताओं का वर्णन किया है
समाज का खण्डनात्मक विभाजन
संस्करण
खान-पान और सामाजिक व्यवहार पर प्रतिबंध
जातियों की धार्मिक निर्योग्यतायें तथा विशेषाधिकार
व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अभाव
अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध
जी.एस.घुर्ये ने अपनी पुस्तक The schedule tribe में जनजातियों को पिछड़े हिंदू कहकर संबोधित किया आपने लिखा कि भारतीय संविधान समाज में जनजातियों को पिछड़ी हुई जातियाँ मानता है न की चिड़ियाघर की चिड़िया जी.एस.घुर्ये ने भारतीय समाज के साथ इनके एकीकरण पर जोर दिया
भारतीय जनजातियों की समस्याओं के समाधान के रूप में वैरियर एल्विन ने नेशनल पार्क की नीति के विपरीत आत्मसात की नीति का प्रस्ताव किया
जी.एस.घुर्ये ने महाराष्ट्र की कोली जनजाति का अध्यन किया जो इनकी पुस्तक महादेव कोलिस 1963 में प्रकाशितहुई
धर्म के समाजशास्त्र के अध्ययन में जी.एस.घुर्ये ने धार्मिक विश्वास, कर्मकांड, संस्कार तथा भारतीय परंपरा में साधु की भूमिका पर प्रकाश डाला इस संबंध में आपकी पुस्तक इंडियन साधुज1964 उल्लेखनीय है इस पुस्तक में आपने सन्यास की दोहरी भूमिका की समीक्षा की और बताया कि सन्यास भूतकाल का एकमात्र अवशेष नहीं है बल्कि हिंदू धर्म का एक प्राणभूत तत्व है
जी.एस.घुर्ये ने राजनीतिक समाजशास्त्र विषय पर भारत में सामाजिक तनाव 1968 नामक पुस्तक लिखी इस पुस्तक में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति तथा संबंधों की मध्यकालीन से लेकर वर्तमान काल तक की समीक्षा की गई है
जी.एस.घुर्ये की प्रमुख पुस्तकें-
कास्ट एंड रेस इन इंडिया,1932
कल्चर एंड सोसाइटी,1945
कास्ट क्लास एंड ऑक्यूपेशन,1961
सिटिज एंड सिविलाइज़ेशन,1962
वाईदर इंडिया,1974
वैदिक इंडिया,1979
दि महादेव कोलिस,1963
दि इंडियन साधुज,1964
दि शिड्यूल ट्राइब,1963
सोशल टेंशन इन इंडिया,1968
Tuesday, May 5, 2020
संस्कृतिकरण
संस्कृति
समिति
निर्धनता
निर्धनता (Poverty)
निर्धनता या गरीबी वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने पर आश्रित सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति धन के अभाव के कारण नहीं कर पाता है| जिसके कारण उसके परिवार को जीवन की न्यूनतम आवश्यकता जैसे रोटी, कपड़ा, मकान भी उपलब्ध नहीं हो पाता| दूसरे शब्दों में कहें तो समाज का वह व्यक्ति जो अपनी बुनियादी आवश्यकताआों जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास को पूरा करने में असमर्थ होता है गरीब कहा जाता है|
गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति अपर्याप्त आय या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता, जिससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक कुशलता बनी रहे और वह तथा उसके आश्रित समाज के स्तर के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें|
गोडार्ड (Goddard) के अनुसार निर्धनता उन वस्तुओं का अभाव या अपर्याप्त पूर्ति है जो एक व्यक्ति तथा उसके आश्रितों के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है|
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम उपभोग को गरीब माना गया है|
रंगराजन समिति, जिसमें उपभोग खर्च (Consumption Expenditure) को गरीबी का आधार बनाया गया, के अनुसार 2011-12 में भारत में कुल 363 मिलियन लोग गरीब हैं, जो भारत की कुल आबादी का 29.6% है| जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार भारत में गरीबी 21.9% है|
रंगराजन समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये एवं शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपभोग (Daily Per Capita Expenditure) को गरीबी रेखा निर्धारित किया था अर्थात् इससे कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीब है, जो औसत मासिक रूप में ग्रामीण क्षेत्र में 972 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 1407 रुपए प्रति व्यक्ति है|
सापेक्ष एवं निरपेक्ष निर्धनता (Relative and absolute poverty)
निरपेक्ष रूप से उन लोगों को गरीब कहा जाता है जिनको निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ जैसे – भोजन, आवास, वस्त्र भी प्राप्त नहीं हो पाता है|
सापेक्ष निर्धनता का तात्पर्य एक व्यक्ति के पास सापेक्षिक रूप से दूसरे व्यक्तियों से कम धन एवं संपदा के होने से है, जैसे निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग से एवं मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग से सापेक्षिक रूप से निर्धन है|
निर्धनता के दुष्प्रभाव या निर्धनता की समस्या
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार निर्धनता कहीं भी सर्वत्र उन्नति के लिए खतरनाक होती है (Poverty anywhere constitutes a danger to prosperity everywhere)
निर्धनता के दुष्प्रभाव को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –
(1) जीवन की समस्या
निर्धनता से ग्रस्त व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक जीवन अवरुद्ध हो जाता है| अभाव एवं चिंता में व्यक्ति उचित-अनुचित, पाप-पुण्य आदि के बीच भेद करने में असमर्थ हो जाता है|
(2) स्वास्थ्य संबंधी समस्या
निर्धनता के कारण व्यक्ति को समुचित भोजन का अभाव, कुपोषण, आवास की दयनीय दशा का सामना करना पड़ता है| जिसके कारण अशक्तता, बीमारी, विकलांगता, अकाल मृत्यु आदि बातें आम हो जाती हैं| महामारी जैसे चिकनगुनिया, डेंगू आदि अधिकांशतः निर्धन व्यक्ति को ही होते हैं|
निर्धनता (Poverty)
निर्धनता या गरीबी वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने पर आश्रित सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति धन के अभाव के कारण नहीं कर पाता है| जिसके कारण उसके परिवार को जीवन की न्यूनतम आवश्यकता जैसे रोटी, कपड़ा, मकान भी उपलब्ध नहीं हो पाता| दूसरे शब्दों में कहें तो समाज का वह व्यक्ति जो अपनी बुनियादी आवश्यकताआों जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास को पूरा करने में असमर्थ होता है गरीब कहा जाता है|
गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति अपर्याप्त आय या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता, जिससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक कुशलता बनी रहे और वह तथा उसके आश्रित समाज के स्तर के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें|
गोडार्ड (Goddard) के अनुसार निर्धनता उन वस्तुओं का अभाव या अपर्याप्त पूर्ति है जो एक व्यक्ति तथा उसके आश्रितों के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है|
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम उपभोग को गरीब माना गया है|
रंगराजन समिति, जिसमें उपभोग खर्च (Consumption Expenditure) को गरीबी का आधार बनाया गया, के अनुसार 2011-12 में भारत में कुल 363 मिलियन लोग गरीब हैं, जो भारत की कुल आबादी का 29.6% है| जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार भारत में गरीबी 21.9% है|
रंगराजन समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये एवं शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपभोग (Daily Per Capita Expenditure) को गरीबी रेखा निर्धारित किया था अर्थात् इससे कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीब है, जो औसत मासिक रूप में ग्रामीण क्षेत्र में 972 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 1407 रुपए प्रति व्यक्ति है|
सापेक्ष एवं निरपेक्ष निर्धनता (Relative and absolute poverty)
निरपेक्ष रूप से उन लोगों को गरीब कहा जाता है जिनको निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ जैसे – भोजन, आवास, वस्त्र भी प्राप्त नहीं हो पाता है|
सापेक्ष निर्धनता का तात्पर्य एक व्यक्ति के पास सापेक्षिक रूप से दूसरे व्यक्तियों से कम धन एवं संपदा के होने से है, जैसे निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग से एवं मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग से सापेक्षिक रूप से निर्धन है|
भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)
(1) अधिक जनसंख्या
उत्पादन एवं रोजगार के अवसर की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है| अतः कुछ लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है| जो गरीबी के रूप में सामने आता है|
(2) जाति प्रथा
जाति प्रथा के कारण व्यवसाय जन्म के आधार पर निर्धारित हो जाता है| जिससे योग्य होने के बावजूद दूसरा कार्य करना सम्भव नहीं हो पाता या अन्य कार्य करना प्रस्थिति के प्रतिकूल माना जाता है|
(3) कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
देश की लगभग 80% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है| जो कृषि पर निर्भर है| कृषि उत्पादन संयुक्त परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता| ऐसे में प्राकृतिक आपदा जैसे – सूखा या बाढ़ स्थिति को और दयनीय कर देता है|
(4) कालाबाजारी
किसानों का उत्पाद विचाैलिये के हाथों में जाने से उन्हें अनाज का उचित दाम नहीं मिल पाता है|
(5) अज्ञानता एवं अंधविश्वास
कुछ व्यक्ति गरीबी को ईश्वर का दण्ड समझते है, एवं वे कोई प्रयास नहीं करते हैं| साथ ही धार्मिक कर्मकाण्डओ में अपना संचित धन भी खर्च कर देते हैं|
(6) बेरोजगारी
व्यक्ति कार्य करने के योग्य है फिर भी उसे काम नहीं मिलता| जिससे वह निर्धन बना रहता है|
(7) कृषि क्षेत्र का तकनीकी पिछड़ापन गरीबी का मुख्य कारण है|
(8) प्रतिकूल जलवायु
कुछ स्थानों पर बर्फ बहुत पड़ती है, कुछ जगह रेगिस्तान या पहाड़ है| ऐसे स्थानों पर उत्पादन बहुत कम होता है एवं रोजगार भी नहीं मिलता|
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निर्धनता के दुष्प्रभाव या निर्धनता की समस्या
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार निर्धनता कहीं भी सर्वत्र उन्नति के लिए खतरनाक होती है (Poverty anywhere constitutes a danger to prosperity everywhere)
निर्धनता के दुष्प्रभाव को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –
(1) जीवन की समस्या
निर्धनता से ग्रस्त व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक जीवन अवरुद्ध हो जाता है| अभाव एवं चिंता में व्यक्ति उचित-अनुचित, पाप-पुण्य आदि के बीच भेद करने में असमर्थ हो जाता है|
(2) स्वास्थ्य संबंधी समस्या
निर्धनता के कारण व्यक्ति को समुचित भोजन का अभाव, कुपोषण, आवास की दयनीय दशा का सामना करना पड़ता है| जिसके कारण अशक्तता, बीमारी, विकलांगता, अकाल मृत्यु आदि बातें आम हो जाती हैं| महामारी जैसे चिकनगुनिया, डेंगू आदि अधिकांशतः निर्धन व्यक्ति को ही होते हैं|
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निर्धनता दूर करने के सुझाव
(1) जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण किया जाय|
(2) लोगों को अकादमी शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा दी जाय|
(3) भ्रष्टाचार पर शून्य सहिष्णुता (Zero tolerance) की नीति अपनायी जाय|
(4) ग्रामीण विकास पर अत्यधिक जोर दिया जाय|
(5) युवाओं को रोजगारपरक शिक्षा मुहैया कराई जाय|
(6) स्वरोजगार के लिए माहौल बनाया जाय|
(7) सामाजिक कुप्रथा जैसे – दहेज पर रोक लगायी जाय|
(8) स्त्री शिक्षा एवं रोजगार को बढ़ावा दिया जाय|
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निर्धनता समाप्त करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास
(1) पंचवर्षीय योजनाएँ
यह 1951 में शुरू किया गया जिसमे समाज के हर क्षेत्र के विकास को समाहित किया गया| छठी पंचवर्षीय योजना में तो “गरीबी हटाओ” का नारा भी दिया गया था|
(2) सामुदायिक विकास कार्यक्रम
यह 1952 में शुरू किया गया| इसके अंतर्गत कृषि, पशु प्रबंधन, ग्रामीण और लघु उद्योगों का विकास, स्वास्थ्य तथा सामाजिक शिक्षा बेहतर करके बहुमुखी विकास पर जोर दिया गया|
परन्तु इस योजना का लाभ धनी एवं शक्तिशाली ग्रामीण वर्गों को ही मिल पाया जिससे इस योजना को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी|
(3) पंचायती राज
बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिश पर पंचायती राज की स्थापना की गई| 1993 में इसे संवैधानिक दर्जा दिया गया, तब से लेकर आज तक यह ग्रामीण क्षेत्र में सफलतापूर्वक क्रियाशील है|
(4) अन्य योजनाएँ
1970 के दशक में सामाजिक न्याय पर आधारित विकास को आदर्श माना गया एवं सीमांत किसान, कृषि मजदूर, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP), जवाहर रोजगार योजना (JRY), स्वरोजगार प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रम शुरु किए गये, इससे गरीबी के प्रतिशत में कमी तो आयी, लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण कुल संख्या में निरंतर वृद्धि होती रही|
(5) हरित क्रांति
1966-67 में शुरू की गयी इस क्रांति से देश खाद्यान्न में आत्म निर्भर हो गया| प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई| गरीबी में सुधार, स्वास्थ्य में सुधार, ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार हुआ| इससे कृषकों की मानसिकता में नवाचार ग्रहण करने की प्रवृत्ति दिखायी देने लगी|
(6) मनरेगा
निर्धनता में कमी लाने के लिए फरवरी 2006 में इस योजना की शुरुआत की गयी| जिसमें सौ दिन के रोजगार की गारंटी दी गयी है|
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भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)
(1) अधिक जनसंख्या
उत्पादन एवं रोजगार के अवसर की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है| अतः कुछ लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है| जो गरीबी के रूप में सामने आता है|
(2) जाति प्रथा
जाति प्रथा के कारण व्यवसाय जन्म के आधार पर निर्धारित हो जाता है| जिससे योग्य होने के बावजूद दूसरा कार्य करना सम्भव नहीं हो पाता या अन्य कार्य करना प्रस्थिति के प्रतिकूल माना जाता है|
(3) कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
देश की लगभग 80% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है| जो कृषि पर निर्भर है| कृषि उत्पादन संयुक्त परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता| ऐसे में प्राकृतिक आपदा जैसे – सूखा या बाढ़ स्थिति को और दयनीय कर देता है|
(4) कालाबाजारी
किसानों का उत्पाद विचाैलिये के हाथों में जाने से उन्हें अनाज का उचित दाम नहीं मिल पाता है|
(5) अज्ञानता एवं अंधविश्वास
कुछ व्यक्ति गरीबी को ईश्वर का दण्ड समझते है, एवं वे कोई प्रयास नहीं करते हैं| साथ ही धार्मिक कर्मकाण्डओ में अपना संचित धन भी खर्च कर देते हैं|
(6) बेरोजगारी
व्यक्ति कार्य करने के योग्य है फिर भी उसे काम नहीं मिलता| जिससे वह निर्धन बना रहता है|
(7) कृषि क्षेत्र का तकनीकी पिछड़ापन गरीबी का मुख्य कारण है|
(8) प्रतिकूल जलवायु
कुछ स्थानों पर बर्फ बहुत पड़ती है, कुछ जगह रेगिस्तान या पहाड़ है| ऐसे स्थानों पर उत्पादन बहुत कम होता है एवं रोजगार भी नहीं मिलता|