Saturday, May 30, 2020

सामाजिक विधान

सामाजिक विधान
सामाजिक विधान राज्य द्वारा पारित उन कानूनों को कहते है जिनका उद्देश्य सामाजिक बुराइयों को दूर करना, सामाजिक विघटन को रोकना, समाज में समाज सुधारक परिवर्तन लाना होता है |

सामाजिक विधानों का निर्माणों में आदर्श एवं व्यवहार दोनों का सम्मिश्रण होना चाहिए | कोरे आदर्शवादी सामाजिक विधान भी सफल नहीं हो सकते और यही कारण है कि भारत में समाज कल्याण हेतु अनेक विधान बनाये गए है l किन्तु व्यावहारिकता के अभाव के कारण वे कागजी कार्यवाही बनकर रह गए l विघटन को रोकने एवं समस्याओं को हल करने के लिए सामाजिक विधानों का निर्माण अति आवश्यक है|

डॉ. सक्सेना के अनुसार – “वह विधान जिसका उद्देश्य समाज को परिवर्तित करने अथवा पूर्णसंघटित करना होता है वह सामाजिक विधान की श्रेणी में आता है|इस प्रकार सामाजिक विधान में समाज सुधार सामाजिक समस्याओं का निराकरण और सामाजिक आदर्शों नियमों का प्रतिपादन एक साथ सन्निहित है”|

अतः सामाजिक संबंधों, सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक संघठन से सम्बंधित कानून की व्यवस्था को सामाजिक विधान कहा जा सकता है|

सामाजिक विधान मुख्यतः दो भागों में विभाजित है –

प्राचीन विधान या पुराना विधान
प्राचीन विधान मुख्यतः अलिखित विधान होता है यह विधान किसी क्षेत्र की संस्कृति के आधार पर निर्मित होता है और समाज इनके अनुरूप संचालित होता है इन्हें सामाजिक प्रतिमान या आदर्श या मानदण्ड भी कहते है अतः ये प्रतिमान निम्न है –

जनरीतियाँ
रुढियाँ
प्रथा
अलिखित कानून
शिष्टाचार
फैशन
नैतिकता
आधुनिक विधान
भारत वर्ष में सुधारवादी आन्दोलन के साथ ही साथ सामाजिक विधान का भी विकास हुआ lबंगाल में ब्रह्म समाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय के फलस्वरूप अंग्रेजी सरकार ने हिन्दू समाज में प्रचलित सती प्रथा के विरुद्ध कानून बनाकर भारत सामाजिक विधान का सूत्रपात किया l

इसके उपरांत भारत में समय – समय पर अनेक कानून बने जो निम्नलिखित है –

सती प्रथा निरोध अधिनियम 1829
हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधि. 1850
बाल विवाह निरोध अधिनियम 1929 (1978 संसोधन)
विशेष विवाह अधिनियम 1872और 1954
आर्य विवाह वैधानिकरण अधि. 1937
हिन्दू विवाह और विवाह विच्छेद अधि. (1955)
अपृश्यता (अपराध) अधिनियम (1955)
दहेज़ निरोध संशोधन अधिनियम (1961, 1985)
स्त्रियों तथा कन्याओं का अनैतिक व्यापर अधिनियम (1956)
घरेलु हिंसा अधिनियम (2005)
उपरोक्त सामाजिक विधानों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए समय – समय पर अन्य कानून बनाये गए जैसे 1870 में कन्या शिशु हत्या निरोध अधि. बनाया गया l क्योंकि जन्म के समय कन्या को मार डाला जाता है जिसे रोकने के लिए यह कानून पास किया गया l

अतः भारत में सामाजिक विधानों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और समाज को इसका लाभ प्राप्त हुआ वैधानिक आधार पर सामाजिक सुधार की गति में तीव्रता आई जो सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों, सुधारवादी आन्दोलन के द्वारा दूर नहीं हुई थी उनका बहुत कुछ निराकरण कानून के द्वारा हो रहा है l

सामाजिक क्षेत्र से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के अधिनियमों के लागू होने से भारतीय सामाजिक जीवन में अनेक परिवर्तन हो गए फिर भी हमारे समाज में अनेक कुरीतियाँ आज भी प्रचलित है l ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक विधान तो पारित हुए परन्तु उनमें से अधिकतर प्रभावहीन है उन सामाजिक विधानों को केवल कागज़ पर ही पारित करके छोड़ दिया है जिसमें प्रमुख दहेज़ निरोध अधिनियम (1961)

इस प्रकार अधिकांश सामाजिक विधान अव्यवहारिक है और उनका समाज के लगभग सभी सदस्यों द्वारा खुले रूप से उल्लंघन किया जाता है इस प्रकार का क्रम निरंतर चलता रहेगा l

अतः आज हमारे देश में सामाजिक संस्कृति आवश्यकता अनुरूप एक गतिशील सामाजिक विधान की आवश्यकता है ऐसे सामाजिक विधान जो समस्त वर्गों की आशाओं और आवश्यकता की पूर्ति करने में और सामाजिक विषमता का दूर करने में समर्थ हो l

सतीप्रथा निषेध अधिनियम 1829

1829 के पूर्व भारत में सती प्रथा का प्रचलन था l विधवा स्त्री को मरने के लिए प्रेरित किया जाता था l धार्मिक दृष्टि से सती होने वाली स्त्री को सीधे स्वर्ग में पहुँच जाने का लालच दिया जाता है l

मुस्लिमों के भारत आने के बाद रक्त की शुद्धता बनाये रखने और हिन्दू लड़कियों तथा स्त्रियों के साथ मुस्लिम विवाहों को रोकने की दृष्टि से बाल विवाह और सती प्रथा का प्रचलन तेजी से बढ़ा l मुस्लिम, हिन्दू विधवाओं से विवाह करने को तत्पर थे ऐसी दशा में रक्त की शुद्धता को बनाये रखने के लिए सती प्रथा का सहारा लिया गया l

इस अधिनियम कृत्य के विरुद्ध राजा राममोहन राय ने आन्दोलन प्रारंभ किया जिनके प्रयासों से 1829 में विलियम वेंटिक द्वारा इस अमानवीय प्रथा को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया l इस अधिनियम के फलस्वरूप स्त्रियों को सम्मान के साथ जीने का पुनः अवसर मिला l

हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856

     बाल विवाह और कुलीन विवाह के प्रचलन के कारण विधवाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई l विधवाओं पर अनेक निर्योग्यतायें लाद दी गई l उन्हें पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी उन्हें समाज व परिवार में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था l

     शुभ व सांस्कृतिक कार्यों में इनकी उपस्थित वर्जित थी कुछ प्रगतिशील समाज सुधारकों जैसे ईश्वरचंद्र विद्यासागर बहराम जी मालाबारी आदि के प्रयासों से हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया गया l इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान वैध होगी l पुनर्विवाह के लिए किसी की स्वीकृति आवश्यक नहीं था विवाह के पश्चात् मृत पति की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होगा आदि l इस अधिनियम का प्रभाव यह रहा की स्थिति में सुधार हुआ l विधवा पुनर्विवाह का प्रचालन तेजी से बढ़ा l

बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929

बाल विधवाओं की संख्या में वृद्धि होने का मुख्य कारण छोटी – छोटी लडकियों का चार – पाँच वर्ष की आयु में विवाह कर दिया था l यहाँ तक कि गर्भ विवाह भी प्रचालन में था l ब्रह्म समाज व आर्य समाज के प्रयासों के फलस्वरूप इस दिशा में जागरूकता बढ़ी l 1929 में हरविलास शारदा के प्रयत्नों से यह अधिनियम पारित हुआ l जिसके अनुसार लड़के व लड़कियों की आयु 18 व 14 वर्ष कर दी गई l

मुस्लिम शरीयतअधिनियम 1937 के पारित होने के पूर्व पत्नी पति के नपुंसक होने या पति द्वारा पत्नी पर व्याभिचार का आरोप लागाये जाने पर और उसका झूठ सिद्ध होने पर तलाक ले सकती थी l सन् 1937 में इला व जिहर के आधार पर स्त्रियों के तलाक देने का अधिकार को विस्तृत किया गया फलस्वरूप पुरुषों की निरंकुशता में कमी आई और मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ l

भारतीय इसाई विवाह अधिनियम 1872
भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम 1869
1872 के अधिनियम के अनुसार पादरी या वे व्यक्ति जिन्हें लाइसेंस प्राप्त है या दो ईसाईयों के मध्य विवाह संपन्न करा सकते है l इस कार्य के लिए सरकार मैरिज रजिस्ट्रार की नियुक्ति कर सकती है और मैरिज रजिस्ट्रार के न होने पर भी जिला मजिस्ट्रेट इस कार्य को संपन्न करा सकता है l

विवाह करने वाले दोनों पक्षों के गवाहों की उपस्थिति में पादरी या मैरिज रजिस्ट्रार के समक्ष विवाह करते है इस अधिनियम के अनुसार विवाह करने वाले लड़के या लड़की की न्यूनतम आयु क्रमशः 16 : 13 वर्ष होनी चाहिए l साथ ही एक विवाह प्रथा को मान्यता दी गई l

    विशेष विवाह विवाह अधिनियम 1872, 1933, 1954

1872 में पारित अधिनियम द्वारा उन सभी व्यक्तियों को आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने की स्वीकृति दी गई जो किसी भी धर्म को नहीं मानते l 1923 के अधिनियम द्वारा विभिन्न जातियों के व्यक्तियों को आपस में विवाह करने की अनुमति और तलाक का अधिकार प्रदान किया गया l

सन् 1954 में पारित विशेष विवाह अधिनियम के द्वारा 1872 के प्रावधानों को निरस्त कर नवीन अधिनियम के अंतर्गत दो भारतीयों को चाहे वो  किसी भी धर्म या जाति के हो न्यायलय की सहायता से विवाह करने का अधिकार प्रदान किया गया l इस अधिनियम का प्रभाव यह हुआ कि अंतर्धार्मिक व अंतर्जातीय विवाहों को मान्यता मिल गई और राष्ट्रवाद की भावना को बल मिला |

हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 :-

यह अधिनियम जम्मू कश्मीर को छोड़कर पूरे भारत में लागू हुआ |इस अधिनियम द्वारा हिन्दू विवाह से सम्बंधित 1954 के विशेष विवाह अधिनियम को छोड़कर सभी को निरस्त कर दिया गया ता , हिन्दू शब्द के अंतर्गत जैन, बौध, सिक्ख, ब्रह्म समाजी, आर्य समाजी तथा हरिजनों को सम्मलित किया गया | इस अधिनियम में 1976 में संशोधन किया जैसे :-

विवाह करने वाले दोनों पक्षों में से किसी का भी पहला जीवनसाथी जीवित न हो |
वर और वधु की कम से कम आयु क्रमश: 18 वर्ष और 15 वर्ष हो |
दोनों पक्ष निकर रक्त संबंधी न हो | वर-वधू एक दुसरे के सपिण्ड न हो |
दोनों में से कोई एक मानसिक असंतुलित या पागल न हो संक्षिप्त रूप से इस अधिनियम का प्रभाव यह रहा कि हिन्दू विवाह की प्राचीन व्यवस्थाओ को एक प्रकार से पूरी तरह से नया स्वरूप प्रदान किया गया|
दहेज़ निरोधक अधिनियम 1961 /1972

सन् 1961 में सरकार द्वारा दहेज़ निरोधक अधिनियम पारित किया गया | जिसके अनुसार दहेज़ लेने और देने वालो के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई | 1972 में इसे संशोधित किया गया लेकिन यह कानून अनेक कारणों से दहेज़ के लेनदेन को रोकने में असमर्थ रहा क्योंकि लेने और देने वाले व्यक्ति पुलिस को सूचना नहीं देते l

हिन्दू उत्तरधिकार अधिनियम 1956

यह अधिनियम समस्त हिन्दूओ पर लागू है | इस अधिनियम के लागू होने के बाद मिताक्षरा व दायाभाग नियमो को समाप्त कर दिया गया | हिन्दू स्त्रियों को प्रथम बार अपनी संपत्ति पर पूर्ण अधिकार दिया गया | इस अधिनियम के आधार पर किसी संयुक्त परिवार में पुरुष हिस्सेदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति पर माँ विधवा पत्नी तथा पुत्रियों में समान रूप से बांटने की व्यवस्था की गई | इस अधिनियम में स्त्री को माता पत्नी व पुत्री के रूप में सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्रदान किया गया स्त्रियों की स्थिति में सुधार तथा आत्म निर्भरता के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुआ |

हिन्दू दत्तक ग्रहण व मरण पोषण अधिनियम 1956

इस अधिनियम द्वारा केवल लड़के को ही नहीं बल्कि लड़की को भी गोद लेने की व्यवस्था की गई | विधवा को भी अपनी सम्पत्ति के उपयोग के लिए गोद लेने का अधिकार प्रदान किया गया | पति की सम्पत्ति में से स्त्री को भरण पोषण का अधिकार दिया गया साथ ही पुरुष भी आय का साधन न होने पर पत्नी की सम्पत्ति में से भरण-पोषण का अधिकार है |

उपरोक्त अधिनियम के अतिरिक्त अनेक अधिनियम व कानून प्रचलित है साथ ही भारत सरकार बाल कल्याण नारी कल्याण, श्रम कल्याण, पिछडे वर्ग के उत्थान और विवाह एवं परिवार से सम्बंधित अनेक समस्याओ के प्रति जागरूक रही है और इस दिशा में काफी प्रयास भी किये गए थे |

सामजिक विधानों का प्रभाव  :-

(1) परिवार में स्त्री तथा पुरुषों को सम्पत्ति में समान अधिकार प्राप्त हुए | पुत्री, पत्नी और माँ के रूप में स्त्रियों को पारिवारिक सम्पत्ति में पुरुषों के बराबर अधिकार मिले |

(2) बाल विवाह और बहुपत्नी विवाह की समाप्ति |

(3) दहेज़ की सम्पत्ति पर स्त्रियों का अधिकार माना गया |

(4) स्त्रियों को पुरुषों के समान तलाक के अधिकार मिले |

(5) नाबालिक बच्चो का उचित संरक्षण प्राप्त होने के साथ-साथ माँ को संरक्षकबनने का अधिकार मिला |

(6) नए अधिकारों की प्राप्ति होने के कारण स्त्रियों में व्यक्तिवाद की भावना का उदय हुआ | इसका प्रमुख प्रभाव संयुक्त परिवार पर पड़ा है क्योंकि अब संयुक्त परिवार का विघटन तेजी से होने लगा है |

(7) विशेष परिस्थितयों में पृथक रहने पर पत्नी को मरण-पोषण का अधिकार मिला है |

(8) विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह करने का क़ानूनी अधिकार मिलने से विवाह करने की अनुमति मिली |

(9) विधवाओ को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा |

(10)प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होने से स्त्रियों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई |

(11)पुरुषों को एकाधिकार समाप्त हुआ |

(12)लडकियाँ भी गोद ली जा सकती है और स्त्रियों को भी गोद लेने का अधिकार है |

(13)स्त्रियों की शिक्षा एवं जागृति में वृद्धि होने से वे धार्मिक कर्मकाण्डो, कुरीतियों, रूढ़ियों आदि का    विरोध करने लगी है |

(14)स्त्रियों का मानसिक विकास होने से परिवार एवं पीढ़ीयों की विचारधारा में परिवर्तन हो रहा है |

इस प्रकार हम देखते है कि इन सामाजिक विधानों में भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है | घरेलु हिंसा अपराध निरोधक अधिनियम 2005 के प्रभाव के फलस्वरूप स्त्रियाँपुरुषों की दासी नहीं रही है | इस अधिनियम के फलस्वरूप स्त्रियों का शोषण कम हुआ | लेकिन कुछ अधिनियम के फलस्वरूप समाज में नकारात्मक परिवर्तन देखने को मिले है | संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ | विवाह जिसको पहले जन्म जन्मांतर का अटूट बंधन माना जाता था उसने अब सामाजिक संविदा का रूप धारण कर लिया है | बावजूद इसके इन अधिनियमों या विधानों ने मानव को मानवता का अधिकार प्रदान करने का सकारात्मक प्रयत्न अवश्य किया है |

मुख्य तथ्य


भारतीय संविधान की प्रस्तावना

“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी ,पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य[1] बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता[2] सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।


आरक्षण का अर्थ 


आरक्षण (Reservation) का अर्थ है अपना जगह सुरक्षित करना| प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित करने या रखने की होती है, चाहे वह रेल के डिब्बे में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए, विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात हो तो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की।


भारत में आरक्षण की शुरूआत एवं इसके विभिन्न चरण

• भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी| उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी।

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• 1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।


• 1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई| यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है। 



• 1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया|


• 1909 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया|

• 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी|


• 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, (जो पूना समझौता कहलाता है) जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी|


• 1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया था|


• 1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की| उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की|
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• 1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था|
क्यों समान नागरिक संहिता भारत के लिए जरुरी है।



• 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ| भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं। इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे| (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है)|


• 1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था| इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (OBC) के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया|


• 1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई थी| इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के बारे में कोई सटीक आंकड़ा था और इस आयोग ने ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया था|


• 1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22% से बढ़ाकर 49.5% करने की सिफारिश की| 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।


• 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी|
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• 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की|


• 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया| 
• 1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया| बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।


• 12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। लेकिन इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया|


• 2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ। 


• 10 अप्रैल 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया| इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "क्रीमी लेयर" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए|


आरक्षण क्यों दिया जाता है?
भारत में सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने के लिए कोटा प्रणाली लागू की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।



आरक्षण की वर्तमान स्थिति
वर्तमान में भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 49.5% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, लेकिन राजस्थान और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने क्रमशः 68% और 87% तक आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।



भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण संशोधन
आरक्षण के प्रकार
जाति आधारित आरक्षण
केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से 22.5% अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%)| ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है| अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में 14% सीटें अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक लाना अनिवार्य है।


प्रबंधन कोटा
जाति-समर्थक आरक्षण के पैरोकारों के अनुसार प्रबंधन कोटा सबसे विवादास्पद कोटा है। प्रमुख शिक्षाविदों द्वारा भी इसकी गंभीर आलोचना की गयी है क्योंकि जाति, नस्ल और धर्म पर ध्यान दिए बिना आर्थिक स्थिति के आधार पर यह कोटा है, जिससे जिसके पास भी पैसे हों वह अपने लिए सीट खरीद सकता है। इसमें निजी महाविद्यालय प्रबंधन की अपनी कसौटी के आधार पर तय किये गये विद्यार्थियों के लिए 15% सीट आरक्षित कर सकते हैं। इस कसौटी में महाविद्यालयों की अपनी प्रवेश परीक्षा या कानूनी तौर पर 10+2 के न्यूनतम प्रतिशत शामिल होते हैं।



लिंग आधारित आरक्षण
महिलाओं को ग्राम पंचायत (जिसका अर्थ है गांव की विधानसभा, जो कि स्थानीय ग्राम सरकार का एक रूप है) और नगर निगम चुनावों में 33% आरक्षण प्राप्त है। बिहार जैसे राज्य में ग्राम पंचायत में महिलओं को 50% आरक्षण प्राप्त है|



संसद एवं विधानमंडल में महिलाओं को 33% आरक्षण देने के उद्देश्य से 9 मार्च 2010 को 186 सदस्यों के बहुमत से “महिला आरक्षण विधेयक” को राज्य सभा में पारित किया गया था, लेकिन यह विधेयक लोकसभा में अटका पड़ा है|



धर्म आधारित आरक्षण
कुछ राज्यों में धर्म आधारित आरक्षण भी लागू है| जैसे- तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों के लिए 3.5-3.5% सीटें आवंटित की हैं, जिससे ओबीसी आरक्षण 30% से 23% कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया।


केंद्र सरकार ने अनेक मुसलमान समुदायों को पिछड़े मुसलमानों में सूचीबद्ध कर रखा है, इससे वे आरक्षण के हकदार होते हैं।
राज्य के स्थायी निवासियों के लिए आरक्षण
कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उस राज्य में रहने वाले सभी निवासियों के लिए आरक्षित होती हैं। पीईसी (PEC) चंडीगढ़ में, पहले 80% सीट चंडीगढ़ के निवासियों के लिए आरक्षित थीं और अब यह 50% है।


पूर्वस्नातक के लिए आरक्षण
जेआईपीएमईआर (JIPMER) जैसे संस्थानों में स्नातकोत्तर सीट के लिए आरक्षण की नीति उनके लिए है, जिन्होंने जेआईपीएमईआर (JIPMER) से एमबीबीएस (MBBS) पूरा किया है| (एम्स) में इसके 120 स्नातकोत्तर सीटों में से 33% सीट 40 पूर्वस्नातक छात्रों के लिए आरक्षित हुआ करती हैं (इसका अर्थ है जिन्होंने एम्स से एमबीबीएस पूरा किया उन प्रत्येक छात्रों को स्नातकोत्तर में सीट मिलना तय है।)
आरक्षण के लिए अन्य मानदंड
• स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे/बेटियों/पोते/पोतियों के लिए आरक्षण
• शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति के लिए आरक्षण 
• खेल हस्तियों के लिए आरक्षण
• शैक्षिक संस्थानों में अनिवासी भारतीयों (एनआरआई (NRI)) के लिए छोटे पैमाने पर सीटें आरक्षित होती हैं। उन्हें अधिक शुल्क और विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है (नोट: 2003 में एनआरआई आरक्षण आईआईटी से हटा लिया गया था)|


• सेवानिवृत सैनिकों के लिए आरक्षण
• शहीदों के परिवारों के लिए आरक्षण 
• अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों के लिए आरक्षण
• सरकारी उपक्रमों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के विशेष स्कूलों (जैसे सेना स्कूलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के स्कूलों आदि) में उनके कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण|
• वरिष्ठ नागरिकों/पीएच (PH) के लिए सार्वजSनिक बस परिवहन में सीट आरक्षण|
आरक्षण के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:-
• संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।



• अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है।


• अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
अंत में हम यह कह सकते हैं कि भारत में आरक्षण की शुरूआत सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को समृद्ध बनाने के लिए हुई थी| लेकिन समय के साथ आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का शिकार बनती चली गई| वर्तमान समय में हर राजनितिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए आरक्षण शब्द का उपयोग कर रहे हैं, जिसके कारण आरक्षण का मूल उद्देश्य समाप्त होता जा रहा है|




सरकारी सेवाओं व संस्थानों में पर्याप्त भागीदारी नहीं रखने वाले पिछड़े जाति, समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने हेतु सरकार अपने कानून के तहत सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में आरक्षण देती है ! ... आज़ादी के बाद, भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था !

भारत की जनगणना २०११ के अनुसार भारत की जनसंख्‍या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है।


राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन 1993 में किया गया था।

सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है[1] और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय[2] के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता,

जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अंतर्विवाही समूहों, या जातियों और उपजातियों में विभाजित है।

1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की।

1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।

1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।

1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।

1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।

1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।

1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।

1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

1942 - बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।

1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।

1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। डॉ॰ अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।[4] बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं।[4] 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं। (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है).

1947-1950 - संविधान सभा में बहस.

26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ।

1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।

1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

1979 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया।[5] आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी (OBC)) कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए[6] पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया।[6]

1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की[5].2006 के अनुसार  पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।

1990 मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की। कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया।

1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया।

1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया. आरक्षण और न्यायपालिका अनुभाग भी देखें

1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला। बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था।

1998- केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32% है [3]. जनगणना के आंकड़ों के साथ समझौ्तावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है। आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मंडल आयोग द्वारा या और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़े से कम है।[4]. मंडल आयोग ने आंकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है। राष्ट्रीय सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि बहुत सारे क्षेत्रों में ओबीसी (OBC) की स्थिति की तुलना अगड़ी जाति से की जा सकती है।[5]

12 अगस्त 2005- उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं।

2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।

2006- सर्वोच्च न्यायालय के सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया।

2006- से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ। कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया। हाल के विकास भी देखें.

2007- केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी (OBC) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया।

2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है। समर्थन करने वालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया।





Saturday, May 23, 2020

माध्य, माध्यिका और बहुलक

प्रश्न 01- माध्य, माध्यिका और बहुलक एवं मानक विचलन को परिभाषित कीजिए तथा इनके गुण एवं दोष लिखिये।

उत्तर–समान्तर माध्य (Mean)— समान्तर माध्य किसी भी समष्टि अथवा प्रतिदर्श की केन्द्रीय प्रवृत्ति के लिए सर्वोत्तम माप माना जाता है। आँकड़ों के न्यूनतम एवं अधिकतम मानों के लगभग मध्य में औसत का मान सुनिश्चित रहता है। इसी को समान्तर माध्य कहते हैं। सामान्यतः समान्तर माध्य ज्ञात करने हेतु समाप्त मदों के मूल्यों के योग में मदों के योग में मदों की संख्या (Number of items) का भाग लगाया जाता है।

मदों की संख्या समान्तर माध्य के गुण (Merits of Mean)-

(1) सरल गणना (easy to calculate)

(2) समझने के लिए अति सुगम।

(3) चरों के सभी मानों को बराबर महत्त्व दिया जाता है।

(4) श्रेणी को क्रमबद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, किसी भी रूप में गणना से प्राप्त उत्तर स्थिर होते हैं।

(5) आँकड़ों के समूह की केन्द्रीय प्रवृत्ति सुस्पष्ट करते हैं।

सामान्तर माध्य के दोष (Demerits of Mean)-

(1) अवास्तविक।

(2) निरीक्षण से ज्ञात करना सम्भव नहीं।

(3) सीमान्त मूल्यों का माध्यम पर सीधा प्रभाव।

माध्यिका (Median)–माध्यिका (median) से अभिप्राय है। आँकड़ों की श्रृंखला के मध्य का वह मान जो सम्पूर्ण वितरण को दो बराबर भागों में विभक्त कर दें। डॉ. ए. एल. बाउले के अनुसार, ''यदि एक समूह के मानों को उनके मापों के आधार पर क्रमबद्ध किया जाये तो लगभग बीच का मान माध्यिका होता है।''

कॉनर के अनुसार, 'माध्यिका आँकड़ों की श्रेणी का वह चर मान हैं जो समूह को दो बराबर भागों में विभाजित करता है जिससे एक भाग में सभी मूल्य माध्यिका से अधिक और दूसरे भाग में सभी मान उससे कम होते हैं।"

माध्यिका के गुण (Merits of median)-

(1) स्पष्टता (2) सरलता (3) गुणात्मक तथ्यों के लिए उपयुक्त (4) चरम मूल्यों का परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं (5) बिन्दु रेखीय प्रदर्शन सम्भव।

माध्यिका के दोष (Demerits of median)-

(1) प्रतिनिधित्व का अभाव

(2) प्रतिचयन का अभाव

(3) सीमान्त मूल्यों की उपेक्षा

(4) बीजगणितीय विवेचन संभव नहीं ।

बहुलक (Mode)— किसी श्रेणी में अथवा बारंबारता वितरण सारणी में चर का वह मान जो सबसे अधिक बार उपस्थित हो, उस श्रेणी का बहुलक (Mode) कहलाता है अर्थात् श्रेणी के चर का मान जिसकी आवृत्ति सर्वाधिक हो, बहुलक कहलाता है। दूसरे शब्दों में बहुलक के आस-पास ही उस श्रेणी के लगभग सभी चर मान केन्द्रित होते हैं। वितरण में यदि आवृत्ति एक ही चर मान पर वितरित रहती है। तो इसे एकल बहुलक कहते हैं तथा एक से अधिक चर मान पर सर्वाधिक आवृत्ति वितरित रहे तो इसे बहु-बहुलक कहते हैं।

बहुलक के गुण (Merits of mode)-

(1) बहुलक की सरलता से गणना की जा सकती है।

(2) बिन्दु रेखा द्वारा निर्धारण किया जा सकता है।

(3) बहुलक में गुणात्मक तथ्यों का प्रयोग किया जा सकता है।

(4) बहुलक श्रेणी का महत्त्वपूर्ण माप है।

(5) बहुलक पर चरम मूल्यों का न्यूनतम प्रभाव होता है।

बहुलक के दोष (Demerits of mode)-

(1) बहुलक में चरम मानों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है।

(2) बहुलक ज्ञात करना अस्पष्ट तथा अनिश्चित रहता है।

(3) बहुलक को बीजगणितीय विवेचन नहीं किया जा सकता है, अतः यह अपूर्ण है।

(4) बहुलक में पदों को क्रमानुसार रखना आवश्यक है, इसके बिना बहुलक ज्ञात नहीं किया जा सकता है।

(5) बहुलक को यदि पदों की संख्या से गुणा किाय जाये तो पदों के कुल मानों का योग प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

मानक विचलन (Standard Deviation)– विचलन को मूल मध्यक वर्ग विचलन के नाम से भी जाना जाता है।

परिभाषा– दिये गये प्राप्तांकों के मध्यमान के लिये गये प्रत्येक प्राप्तांक के विचलन के वर्गों के मध्यमान का वर्गमूल ही प्रमाणिक या मानक विचलन होता है।

इसमें माध्यम विचलन के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। प्रमाप विचलन के परिकलन में समस्त विचलन गणितीय क्रिया से स्वयं ही घनात्मक हो जाते हैं। प्रमाप विचलन को ग्रीक अक्षर (Sigma) σ से प्रदर्शित करते हैं।

मानक विचलन के गुण (Merits of Standard Deviation)-

(1) सभी मूल्यों पर आधारित

(2) उच्च गणितीय अध्ययन में महत्त्वपूर्ण

(3) निश्चित मूल्य

(4) प्रतिचयन के कारण परिवर्तनों का प्रभाव कम।

(5) बीजगणितीय चिह्नों की उपेक्षा नहीं।

मानक विचलन के दोष (Demerits of Standard Deviation)-

(1) कठिन गणना (2) सीमान्त मूल्यों का महत्त्व अधिक।

Friday, May 8, 2020

आश्रम व्यवस्था

आश्रम व्यवस्था (Ashram System)


सर्वप्रथम जाबालि उपनिषद में चारों आश्रम की चर्चा की गयी है|


शाब्दिक रूप से आश्रम शब्द श्रम धातु से बना है जिसका तात्पर्य परिश्रम करना है|


 समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो मार्क्स ने भी कहा है मानव ही श्रम है एवं श्रम ही मानव है| 


आश्रम व्यवस्था में मानव जीवन साध्य होता है, एवं श्रम इसका साधन| इन्हीं आश्रमों के माध्यम से व्यक्ति अपने चारों पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का निष्पादन करता है|


महाभारत में कहा गया है कि जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियाँ हैं, जिस पर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है|


हिंदू शास्त्रों में मनुष्य के जीवन को 100 वर्ष मानकर चारों आश्रमों के लिए एक समान अवधि निर्धारित की गयी है| 


ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि 25 वर्ष तक है| 26 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम की अवधि है| वानप्रस्थ आश्रम 51 से 75 वर्ष तक तथा सन्यास आश्रम 76 से 100 वर्ष की आयु तक है| 


शास्त्रों में इन्हीं आश्रमों के माध्यम से मनुष्य के जीवन को व्यवस्थित एवं वर्गीकृत किया गया है|


(1) ब्रह्मचर्य आश्रम – ब्रह्मचर्य आश्रम का उद्देश्य विद्यार्थी के रूप में जीवन व्यतीत करने एवं गुरू से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने से है, जिसमें धर्म जैसे पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| इसमें बच्चा शारीरिक और मानसिक विकास करता है| इस आश्रम का आरम्भ उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण)  से शुरु हो जाता है| इस आश्रम में इंद्रियों के नियंत्रण पर अत्यधिक बल दिया जाता है|


महत्त्व –


(1) जीवन में ज्ञान अर्जन के लिए महत्वपूर्ण आश्रम है|


(2) मानसिक एवं शारीरिक विकास होता है|


(3) इस आश्रम में मनुष्य जीवन के मूल्यों एवं प्रतिमानों को सीखता है|


(4) यह आश्रम इंद्रियों के नियंत्रण एवं संयम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है|


(5) इस आश्रम द्वारा मनुष्य के जीवन की दिशा एवं दशा निर्धारित होती है|

(2) गृहस्थ आश्रम – विवाह संस्कार के द्वारा व्यक्ति इस आश्रम में प्रवेश करता है| हिंदू शास्त्र के अनुसार विवाह के तीन उद्देश्य धर्म, प्रजा एवं रति है| इस आश्रम में मनुष्य पाँच यज्ञ यथा – ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ का संचालन करता है, तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होकर मनुष्य की निरंतरता सुनिश्चित करता है| गृहस्थ आश्रम में ही जीवन की सफलता प्राप्त की जा सकती है| इस आश्रम में सांसारिक वस्तु के उपभोग के बाद उत्पन्न हुई मोक्ष की इच्छा में कोई व्यवधान नहीं रहता है| इस आश्रम में धर्म अर्थ एवं काम तीनों पुरूषार्थों का पालन किया जाता है|


महत्व –


(1) यह चारो आश्रमों में समन्वय स्थापित करता है|


(2) इस आश्रम में तीन पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम का पालन किया जाता है|


(3) यह आश्रम सांस्कृतिक परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है|


(4) यह आश्रम व्यक्तिवादिता पर अंकुश तथा पारिवारिक एवं सामूहिक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है|


(5) सामाजिक जीवन में सहयोगी बनने का आदर्श प्रस्तुत करता है|


(6) गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति ऋणों से मुक्त होता है| यज्ञ व हवन द्वारा देव ऋण,वेदों एवं शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा ऋषि ऋण तथा संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से उऋण होता है|


(3) वानप्रस्थ आश्रम – वानप्रस्थ का तात्पर्य वन की ओर प्रस्थान करना है| इस आश्रम में व्यक्ति अपने सांसारिक सुख को त्याग कर वन में कहीं कुटिया बनाकर पवित्र एवं सादा जीवन व्यतीत करता है| इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, तथा बिना किसी भेदभाव के लोगों के उपकार के लिए कार्य करता है| अपने अनुभव द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं शिक्षा का प्रसार करता है|संयमित जीवन व्यतीत करता है यह आश्रम गृहस्थ एवं सन्यास आश्रम के मध्य में स्थिति को व्यक्त करता है| कुछ शास्त्रकार मानते हैं कि व्यक्ति सांसारिक सुख को त्याग कर जनकल्याण का कार्य करता है और संयमित जीवन व्यतीत करते हुए धीरे-धीरे सन्यास आश्रम में जाने की तैयारी करता है|

महत्व –


(1) व्यक्ति जो भी ज्ञान अपने गुरू या अनुभव द्वारा संग्रहित किया रहता है| उसे ब्रह्मचारियों एवं अन्य लोगों में प्रचार प्रसार करता है|


(2) समाज की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मैं हस्तांतरण के लिये यह आश्रम बहुत ही महत्वपूर्ण है|


(3) यह आश्रम समाज के लोगो की उन्नति एवं कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है|


(4) इस आश्रम में व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर कार्य करता है|


(4)संन्यास आश्रम – यह हिंदू आश्रम व्यवस्था का अंतिम आश्रम है| सांसारिक जीवन त्यागकर ही एक व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है| इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है| इस आश्रम में संन्यासी का किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान से कोई लगाव नहीं रहता है| वह घृणा, मोह, सुख-दुख आदि आकांक्षाओं एवं कामनाओं से मुक्त रहता है तथा भिक्षा माँगकर उतना ही आहार ग्रहण करता है जितना उसको जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है| इस आश्रम में धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ का पालन किया जाता है| व्यक्ति त्याग, चिंतन, मनन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करता है|


महत्त्व –


(1) यह आश्रम समाज में मोह, लोभ, घृणा, द्वेष आदि त्यागने की प्रेरणा देता है|


(2) यह आश्रम समाज में भौतिक सुख की अत्यधिक महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति को अंतिम समय के त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाता है|


(3) यह आश्रम धर्म पालन एवं चिंतन की प्रेरणा देता है|


(4) यह लोगों में भौतिकता के मोह को दूर कर त्यागपूर्ण जीवन जीने का आदर्श प्रस्तुत करता है|


https://docs.google.com/document/d/1Zs0DvYUgSPaiuQtGq7gZGVsygqVTEDCKJ2VnWt500iU/edit?usp=drivesdk

समिति

समाजशास्त्र

बी0 ए0 प्रथम वर्ष।

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समिति 

समिति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ एवं अनिवार्य तत्व


समिति व्यक्तियों का एक समूह है जो कि किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हेतु बनाया जाता है। उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु समाज द्वारा मान्यता प्राप्त नियमों की व्यवस्था को संस्था कहते हैं। 

बहुत से लोग इन दोनों को समान अर्थों में प्रयोग करते हैं जो कि उचित नहीं है। ऐसा भ्रम इन दोनों शब्दों के सामान्य प्रयोग के कारण पैदा होता है। 


उदाहरण के लिए हम किसी भी महाविद्यालय को एक संस्था मान लेते हैं। समाजशास्त्र में जिस अर्थ में संस्था का प्रयोग होता है उस अर्थ की दृष्टि महाविद्यालय संस्था न होकर एक समिति है क्योंकि यह व्यक्तियों का एक मूर्त समूह है। 

यदि वही इसे परीक्षा पद्धति (जो कि नियमों की एक व्यवस्था है) की दृष्टि से देखें, तो इसे संस्था भी कहा जा सकता है।

 यह सर्वमान्य तथ्य है कि कोई भी व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं अकेला ही नहीं कर सकता है। यदि एक जैसे उद्देश्यों की पूर्ति वाले मिलकर सामूहिक रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करें, तो एक समिति का निर्माण होता है। 

इसीलिए समिति को व्यक्तियों का एक समूह अथवा संगठन माना जाता है।

समिति का अर्थ एवं परिभाषा

समिति व्यक्तियों का समूह है। यह किसी विशेष हित या हितों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। परिवार, विद्यालय, व्यापार संघ, चर्च (धार्मिक संघ), राजनीतिक दल, राज्य इत्यादि समितियाँ हैं।


 इनका निर्माण विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ, विद्यालय का उद्देश्य शिक्षण तथा व्यावसायिक तैयारी हैं। इसी प्रकार, श्रमिक संघ का उद्देश्य नौकरी की सुरक्षा, उचित पारिश्रमिक दरें, कार्य की स्थितियाँ इत्यादि को ठीक रखना है। साहित्यकारों या पर्वतारोहियों के संगठन भी समिति के ही उदाहरण हैं।

जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समिति आपस में सम्बन्धित सामाजिक प्राणियों का एक समूह है, जो एक निश्चित लक्ष्य या लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन का निर्माण करते हैं।


 मैकाइवर एवं पेज (MacIver and Page) के अनुसार-”सामान्य हित या हितों की पूर्ति के लिए दूसरों के सहयोग के साथ सोच-विचार कर संगठित किए गए समूह को समिति कहते हैं।”


 गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार-”समिति व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो किसी विशेष हित या हितों के लिए संगठित होता है तथा मान्यता प्राप्त या स्वीकृत विधियों और व्यवहार द्वारा कार्य करता है।”


 बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-”समिति प्राय: किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोगों का मिल-जुलकर कार्य करना है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सहयोग व संगठन पाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य किसी लक्ष्य की पूर्ति है। समिति के सदस्य अपने विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत सामूहिक प्रयास द्वारा करते हैं।

समिति के अनिवार्य तत्त्व

समिति के चार अनिवार्य तत्त्व हैं-

  1. व्यक्तियों का समूह-समिति समुदाय की ही तरह मूर्त है। यह व्यक्तियों का एक संकलन है। दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का होना समिति के निर्माण हेतु अनिवार्य है।

  2. सामान्य उद्देश्य-समिति का दूसरा आवश्यक तत्त्व सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का होना है। व्यक्ति इन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो संगठन बनाते हैं उसे ही समिति कहा जाता है।

  3. पारस्परिक सहयोग-सहयोग समिति का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। इसी के आधार पर समिति का निर्माण होता है। सहयोग के बिना समिति का कोई अस्तित्व नहीं है।

  4. संगठन-समिति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन का होना भी आवश्यक है।

संगठन द्वारा समिति की कार्य-प्रणाली में कुशलता आती है। समिति के निर्माण हेतु उपर्युक्त चारों तत्त्वों का होना अनिवार्य है।

 वस्तुत: समितियों का निर्माण अनेक आधारों पर किया जाता है। अवधि के आधार पर समिति स्थायी (जैसे राज्य) एवं अस्थायी (जैसे कोरोना सहायता समिति); सत्ता के आधार पर सम्प्रभु (जैसे राज्य); अर्द्ध-सम्प्रभु (जैसे विश्वविद्यालय) एवं असम्प्रभु (जैसे क्लब); कार्य के आधार पर जैविक (जैसे परिवार); व्यावसायिक (जैसे श्रमिक संघ); मनोरंजनात्मक (जैसे संगीत क्लब) एवं परोपकारी (जैसे सेवा समिति) हो सकती हैं।

समिति की प्रमुख विशेषताएँ

समिति की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। इनमें से प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  1. मानव समूह-समिति का निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह से होता है जिसका एक संगठन होता है। संगठन होने का आधार उद्देश्य या उद्देश्यों की समानता है। 

  2. निश्चित उद्देश्य-समिति के जन्म के लिए निश्चित उद्देश्यों का होना आवश्यक है। यदि निश्चित उद्देश्य न हों तो व्यक्ति उनकी पूर्ति के लिए तत्पर न होंगे और न ही समिति का जन्म होगा।

  3. पारस्परिक सहयोग-समिति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्था का निर्माण करती है। उद्देश्य की प्राप्ति तथा व्यवस्था के लिए सहयोग होना अति आवश्यक है। चूँकि सदस्यों के समान उद्देश्य होते हैं, इस कारण उनमें सहयोग पाया जाता है।

  4. ऐच्छिक सदस्यता-प्रत्येक मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ हैं। जब वह अनुभव करता है कि अमुक समिति उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है तो वह उसका सदस्य बन जाता है। समिति की सदस्यता के लिए कोई बाध्यता नहीं होती है। इसकी सदस्यता ऐच्छिक होती है। इसे कभी भी बदला जा सकता है।

  5. अस्थायी प्रकृति-समिति का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों को पूर्ति के लिए किया जाता है। जब उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है तो वह समिति समाप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ, गणेशोत्सव के लिए गठित समिति गणेशोत्सव समाप्त होने के बाद भंग हो जाती है। 

  6. विचारपूर्वक स्थापना-समिति की स्थापना मानवीय प्रयत्नों के कारण होती है।  व्यक्तियों का समूह पहले यह परामर्श करता है कि समिति उनके लिए कितनी लाभप्रद होगी। यह विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही समिति की स्थापना की जाती है।

  7. नियमों पर आधारित-प्रत्येक समिति की प्रकृति अलग होती है। इसी कारण समितियों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। उद्देश्यों को पाने के लिए व सदस्यों के व्यवहार में अनुरूपता (Conformity) लाने के लिए कतिपय निश्चित नियम आवश्यक हैं। नियमों के अभाव में समिति अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर सकती।

  8. मूर्त संगठन-समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो कतिपय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एकत्र होते हैं। इस दशा में समिति को मूर्त संगठन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसको किसी के भी द्वारा देखा जा सकता है।

  9. समिति साधन है, साध्य नहीं-समितियों का निर्माण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। यदि हम पढ़ने के शौकीन हैं, तो वाचनालय की सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं। इससे हमें इच्छानुसार पुस्तकें मिलती रहती हैं। इसमें वाचनालय पुस्तकें प्राप्त करने का साधन है, साध्य नहीं; और यही समिति है। अत: हम कह सकते हैं कि समिति साधन है साध्य नहीं।

  10. सुनिश्चित संरचना-प्रत्येक समिति की एक सुनिश्चित संरचना होती है। समस्त सदस्यों की प्रस्थिति समान नहीं होती, वरन् उनकी अलग-अलग प्रस्थिति या पद होते हैं। पदों के अनुसार ही उन्हें अधिकार प्राप्त होते हैं। 


उदाहरण के लिए जैसे आपके राजकीय महाविद्यालय सितारगंज   प्राचार्य, अध्यापक, छात्र, लिपिक इत्यादि प्रत्येक की अलग-अलग प्रस्थिति होती है तथा तदनुसार उनके अलग-अलग कार्य होते है।

सत्याग्रह

BA 6 semester 2020

महात्मा गांधी को का सत्याग्रह पढ़ने से पहले गांधी की पृष्ठभूमि को देखना आवश्यक है अतः आप लोग इस लिंक को जरूर देखें ।

https://youtu.be/pPsKQwaZ4dg

सत्याग्रह



सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ सत्य के लिये आग्रह करना होता है। 


"सत्याग्रह' का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य अ आग्रह) सत्य को पकड़े रहना और इसके साथ अहिंसा को मानना । 


सत्याग्रह में अन्याय का सर्वथा विरोध(अन्याय के प्रति विरोध इसका मुख्या वजह था ) करते हुए अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना, सत्याग्रह का मूल लक्षण है।


महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्याग्रह में एक पद "प्रेम' अध्याहत है। सत्याग्रह यानी सत्य के लिए प्रेम द्वारा आग्रह।(सत्य + प्रेम + आग्रह = सत्याग्रह)।


सत्याग्रह' एक प्रतिकारपद्धति ही नहीं है, एक विशिष्ट जीवनपद्धति भी है जिसके मूल में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, निर्भयता, ब्राहृचर्य, सर्वधर्म समभाव आदि एकादश व्रत हैं।


बुराई के बदले भलाई। यह बुद्ध, ईसा, गांधी आदि संतों का मार्ग है। इसमें हिंसा के बदले अहिंसा का तत्व अंतर्निहित है। जिसको हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब इनकी माता पुतलीबाई को अपना विरोध करना पड़ता था तो वह अपने को हवेली में लेकर चले जाते थे हवेली गुजरात में मंदिर को कहा जाता है और उस सत्य पर बिजी रहती थी और शायद बाल मन पर पड़ा सत्य के प्रति आग्रह सत्याग्रह उनकी लड़ाई का एक हथियार हुआ


गांधीजी ने सर्वप्रथम भारत में सत्याग्रह का प्रयोग

सर्वप्रथम चंपारण में 1917 में किया था जो कि किसानों समस्या को ले कर हुई थे ,बात यह थी अंग्रेज सरकार किसानों को नील खेती करने के लिए बाध्य करते थे। इसप्रकर किसानों को नियम के अनुसार सम्पूर्ण जमीन के एक हिस्से में नील की खेती करनी पड़ती थी जिसे तीन काठियावाड़ी प्रथा कहते थे ।


गांधीजी अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका गये थे। जनवरी 1915 में वे भारत लौटे। गांधी गए थे तो बरिस्टर बन्नी लेकिन दक्षिण अफ्रीका में उनके किए गए कार्य उनको एक जनमाना में बदल दिया काफी लोकप्रिय हो गए और लोकप्रियता दक्षिण अफ्रीका में ही नहीं भारत में भी सुनी जाने लगी अब उनके जीवन का एक ही मकसद था - लोगों की सेवा। 


महात्मा गांधी का सत्याग्रह

महात्मा गांधी का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अहम योगदान रहा है। जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। इससे पहले उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शोषण, अन्याय एवं रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन किया था। इसमें उन्हें सफलता मिली थी।



गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में बहुत ही लोकप्रिय थे, जब वे भारत आये तो रवींद्रनाथ टगौर ने इस महात्मा की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण भी दिया।


 गांधीजी शांति निकेतन और भारतीय परिस्थिती से ज्यादा परिचित नहीं थे वही गोखले की इच्छा थी कि गांधीजी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। 


अपने राजनीतिक गुरू गोखले को उन्होंने वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान 'केवल उनके कान खुले रहेंगे, मुँह पूरी तरह बंद रहेगा।' एक तरह से यह गांधीजी का एक वर्षीय 'मौन व्रत' था।



वर्ष की समाप्ति के समय गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गये। उन्होंने इस सुंदर जगह पर साबरमती आश्रम बनाया। इस आश्रम की स्थापना उन्होंने मई 1915 में की थी। वे इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित करते थे। 


आरंभ में इस आश्रम से कुल 25 महिला-पुरुष स्वयंसेवक जुड़े। जिन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। इन स्वयंसेवकों ने अपना पूरा जीवन 'लोगों की सेवा में' बिताने का निश्चय किया।



गांधीजी का 'मौन व्रत' समाप्त हो चुका था। पहली बार भारत में गांधीजी सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और अंग्रेज अधिकारीयों की उपस्थिति में उन्होंने भाषण दिया।

 इस अवसर पर वाइसराय भी स्वयं उपस्थित था।


 एक हिन्दू राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में अंग्रेजी भाषा में बोलने की अपनी विवशता पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने भाषण की शुरूआत की।


 उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरातों तथा धूमधाम से आयोजनों में होने वाली फिजूल खर्ची की चर्चा की। उन्होंने कहा,"एक ओर तो अधिकांश भारत भूखों मर रहा है और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बर्बादी की जा रही है।" उन्होंने सभा में बैठी राजकुमारीयों के गले में पड़े हीरे-जवाहरातों की ओर देखते हुए कहा कि 'इनका उपयोग तभी है, जब ये भारतवासियों की दरिद्रता देर करने के काम आयें।' कई राजकुमारीयों और अंग्रेज अधिकारीयों ने सभा का बहिष्कार कर दिया। उनका भाषण देश भर में चर्चा का विषय बन गया था।


अपने इस भाषण से जहां भारत में वह खबर में आ गए एक आम जनमानस के नजर में आए वही पहले ही भाषण में उन्होंने जिस तरह रजवाड़ों से अपनी भड़ास निकाली वह आम भारत की सूची जनता को बहुत ही पसंद आई कि एक बड़े मंच पर उन्हीं के मंच पर गांधी ने पहली बार भारत में शोषण करने  वाले के विरुद्ध प्रथम आवाज थी गांधी की।यही वो अपने को प्रदर्शित कर रहे थे। गांधी अपने मनोभावों को जता रहे थे।



भारत में गांधीजी का पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारन में शुरू हुआ। वहाँ पर नील की खेती करने वाले किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ बगान मालिक भी जुल्म छा रहे थे। गांधीजी स्थिति का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएँ बताईं। उधर पुलिस भी हरकत में आ गई। पुलिय सुपरिटेंडंट ने गांधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधीजी के समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए मेजिस्ट्रेट ने बिना जमानत के गांधीजी को छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की माँग की।फैसला स्थगित कर दिया गया। इसके बाद गांधीजी फिर अपने कार्य पर निकल पड़े। अब उनका पहला उद्देश लोगों को 'सत्याग्रह' के मूल सिद्धातों से परिचय कराना था।


 उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से स्वतंत्र होना। गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहाँ किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया।


 सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया।


चंपारन के इस गांधी अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सारे भारत का ध्यान अब चंपारन पर था। सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया।


 जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारन ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना।



गांधी जी ने लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार की थी-"यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है और हिंसा के उपायों के एवज में चलाया जा रहा।' अहिंसा सत्याग्रह दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि सत्य तक पहुँचने और उन पर टिके रहने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है।




महात्मा गांधी का सत्याग्रह दक्षिण अफ्रीका में हुआ था इस सत्याग्रह का जन्म-गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन और सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ। सन 1906 में दक्षिण अफ्रीका सरकार ने भारतीयों के पंजीकरण के लिए एक अपमानजनक अध्यादेश जारी किया।


  


दक्षिण अफ्रीका में हुआ सत्याग्रह का जन्म

सितंबर 1906 में जोहन्सबर्ग में गांधी जी के नेतृत्व में एक विरोध सभा का आयोजन हुआ। गांधी जी ने बिना किसी हिंसा के दक्षिण अफ्रीका में वहां के सुरक्षाकर्मियों के सामने अध्यादेश को आग के हवाले कर दिया।

 इस पर गांधी जी को लाठी चार्ज भी झेलना पड़ा लेकिन वह पीछे नहीं हटे।यही यही था उनका सत्य के प्रति आग्रह जिसका प्रयोग गांधी अंग्रेजो के खिलाफ कर रहे थे या अंग्रेजों से नफरत नहीं थी बल्कि उनकी नीतियों के खिलाफ उनके विरोध का एक प्रदर्शन था जिसमें साथी सत्य था और सब की हित की यह नीति थी। जो शोषण विरुद्ध थी।


 


नरम दल के नेता गांधी जी में देख रहे थे भविष्य

सन् 1915 में जब गांधी जी भारत आए, तो देश वासियों ने उनका भव्य स्वागत किया। गांधी जी इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में अपने अहिंसात्मक सत्याग्रह का कई बार सफल प्रयोग कर चुके थे।


 


नरम दल के नेता गांधी जी में देख रहे थे भविष्य

इसके साथ ही भारत के नरम दल के नेताओं को गांधीजी में ही अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। उन्हें विश्वास था कि गांधी जी का सत्याग्रह ही भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा सकता है। भारत लौटने पर गांधी जी नेशनल इण्डियन कांग्रेस की स्थापना की।


 


देश में ही बजा दिया सत्याग्रह का बिगुल

स्वदेश लौटने पर कुछ दिन उन्होंने देश का भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया। इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी संस्था को पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य देकर संघर्ष में कूद पड़े। प्रथम विश्वयुद्ध में वचन देकर भी अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के प्रति अपने रवैये में कोई परिवर्तन नहीं किया था, इससे वे चिढ़ गए और सत्याग्रह का बिगुल बजा दिया।


 


भारत में रोलट एक्ट का विरोध होने लगा

भारतवासियों के मानवाधिकारों का हनन करने वाले रोलट एक्ट का विरोध होने लगा। 1919 में जलियां-वाला बाग में हो रही विरोध-सभा पर हुए अत्याचार ने गांधी जी की अंतरात्मा को हिला दिया। इसके बाद वह स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाल खुलकर संघर्ष में कूद पड़े।


 


भारत में रोलट एक्ट का विरोध होने लगा

गांधी जी का संकेत पाते ही पूरे देश में विरोधी आंदोलनों की आंधी सी छा गई। अंग्रेज सरकार की लाठी-गोलियां बरसने लगीं। जेलें सत्याग्रहियों से भर उठीं। गांधीजी को भी जेल में डाल दिया गया।


 


नवजीवन और यंग इंडिया का प्रकाशन

बिहार की नील सत्याग्रह, डाण्डी यात्रा या नमक सत्याग्रह, खेड़ा का किसान सत्याग्रह आदि गांधी जी के प्रमुख सत्याग्रह हैं। उन्हें कई बार महीनों उपवास भी करना पड़ा। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गांधी जी ने नवजीवन और यंग इंडिया जैसे पत्र भी प्रकाशित किए।


 


नवजीवन और यंग इंडिया का प्रकाशन

विदेशी-बहिष्कार और विदेशी माल का दाह, मद्य निषेध के लिए धरने का आयोजन, अछूतोद्धार, स्वदेशी प्रचार के लिए चर्खे और खादी को महत्व देना, सर्वधर्म-समन्वय और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रचार शुरू किया। स्वतंत्रता के लिए गांधी जी को बीच-बीच में जेलयात्रा भी करनी पड़ी।


 


ब्रिटिश सरकार को पीछे हटना पड़ा

सन् 1931 में इग्लैंड में संपन्न गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए गांधी जी वहां गए, पर जब इनकी इच्छा के विरुद्ध हरिजनों को निर्वाचन का विशेषाधिकार हिंदुओं से अलग करके दे दिया, तो भारत लौटकर गांधी जी ने पुन: आंदोलन शुरू कर दिया।


गोविन्द सदाशिव घुर्ये



गोविन्द सदाशिव घुर्ये (1893-1983)



  • 1919 में मुंबई विश्वविद्यालय में पेट्रिक गिडिंस ने समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की उसके बाद विभागअध्यक्ष बनने वाले जी.एस.घुर्ये प्रथम भारतीय विद्वान थे इसीलिए इनको भारतीय समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है

  • जी.एस.घुर्ये इंडियन सोशलॉजीकल सोसाइटी,1952 मुंबई संस्था द्वारा प्रकाशित पत्रिका सोशलॉजीकल बुलेटिन के प्रधान संपादक थे

  • जी.एस.घुर्ये ने शेक्सपियर से लेकर साधुओं पर कला, नृत्य, वेशभूषा तथा वास्तु शास्त्र से लेकर लोक देवी-देवताओं पर, सेक्स तथा विवाह से लेकर प्रजाति जैसे अनेक विषयों पर लिखा है

  • जी.एस.घुर्ये के अध्ययनों में अधिकांश क्यों और क्या के दो प्रश्नों की विवेचना की गई साथ ही प्रसारवादी परिप्रेक्ष के साथ भारत विद्याशास्त्र (इंडोलॉजी) उपागम का प्रयोग किया हैं

  • जी.एस.घुर्ये ने जाति की उत्पत्ति के प्रजातीय सिद्धांत का समर्थन करते हुए हिंदू जनसंख्या को शारीरिक विशेषताओं के आधार पर 6 भागों में बांटा है

  1. इंडोआर्यन 

  2. पूर्व द्रविड़

  3. द्रविड़

  4. पश्चिमी द्रविड़

  5. मुंडा

  6. मंगोलियन

  • जी.एस.घुर्ये ने जाति के उद्भव के बारे में कहा की जाति प्रणाली इंडो आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का शिशु है जिसका पालन पोषण गंगा के मैदान में हुआ और वहां से इसे देश के दूसरे भागों में लाया गया

  • जी.एस.घुर्ये ने जाती की 6 विशेषताओं का वर्णन किया है

  1. समाज का खण्डनात्मक विभाजन

  2. संस्करण

  3. खान-पान और सामाजिक व्यवहार पर प्रतिबंध

  4.  जातियों की धार्मिक निर्योग्यतायें तथा विशेषाधिकार

  5. व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अभाव

  6. अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध

  •  जी.एस.घुर्ये ने अपनी पुस्तक The schedule tribe में जनजातियों को पिछड़े हिंदू कहकर संबोधित किया आपने लिखा कि भारतीय संविधान समाज में जनजातियों को पिछड़ी हुई जातियाँ मानता है न की चिड़ियाघर की चिड़िया जी.एस.घुर्ये ने भारतीय समाज के साथ इनके एकीकरण पर जोर दिया

  • भारतीय जनजातियों की समस्याओं के समाधान के रूप में वैरियर एल्विन ने नेशनल पार्क की नीति के विपरीत आत्मसात की नीति का प्रस्ताव किया

  • जी.एस.घुर्ये ने महाराष्ट्र की  कोली जनजाति का अध्यन किया जो इनकी  पुस्तक महादेव कोलिस 1963 में प्रकाशितहुई  

  • धर्म के समाजशास्त्र के अध्ययन में जी.एस.घुर्ये ने धार्मिक विश्वास, कर्मकांड, संस्कार तथा भारतीय परंपरा में साधु की भूमिका पर प्रकाश डाला इस संबंध में आपकी पुस्तक इंडियन साधुज1964 उल्लेखनीय है इस पुस्तक में आपने सन्यास की दोहरी भूमिका की समीक्षा की और बताया कि सन्यास भूतकाल का एकमात्र अवशेष नहीं है बल्कि हिंदू धर्म का एक प्राणभूत तत्व है

  • जी.एस.घुर्ये ने राजनीतिक समाजशास्त्र विषय पर भारत में सामाजिक तनाव 1968 नामक पुस्तक लिखी इस पुस्तक में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति तथा संबंधों की  मध्यकालीन से लेकर वर्तमान काल तक की समीक्षा की गई है

  • जी.एस.घुर्ये की प्रमुख पुस्तकें-

  1. कास्ट एंड रेस इन इंडिया,1932 

  2. कल्चर एंड सोसाइटी,1945 

  3. कास्ट क्लास एंड ऑक्यूपेशन,1961 

  4. सिटिज एंड सिविलाइज़ेशन,1962 

  5. वाईदर इंडिया,1974 

  6. वैदिक इंडिया,1979

  7. दि महादेव कोलिस,1963

  8. दि इंडियन साधुज,1964

  9. दि शिड्यूल ट्राइब,1963

  10. सोशल टेंशन इन इंडिया,1968


Tuesday, May 5, 2020

संस्कृतिकरण

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया-


जाति व्यवस्था को भारतीय सामाजिक व्यवस्था की एक अद्वितीय विशेषता माना गया है।


यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्तरीकरण को प्रदर्शित करने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व है।


भारत में जातियों को समान नहीं मानते हुए एक जाति को अन्य जाति से उच्च माना गया है।


इस क्षेत्र में देश के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास द्वारा एक अध्ययन किया गया तथा संस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की गई।


उन्होंने समाज के वंचित वर्ग के लिए निम्न जाति समूह का प्रयोग किया।


इन्होंने 1952 में संस्कृतिकरण की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किया।


इनसे पूर्व जाति व्यवस्था का अध्ययन वंशानुक्रम शुद्धता या अशुद्धता की अवधारणा पर किया जाता था।


जबकि इन्होंने जाति व्यवस्था को उर्ध्वाधर गतिशीलता की अवधारणा से विवेचित करने का प्रयास किया।


इन की अवधारणा से पूर्व जाति व्यवस्था को जन्म आधारित एक कठोर व्यवस्था माना जाता था जिसका समर्थन एस वी केतकर(हिस्ट्री ऑफ कास्ट इन इंडिया), मदान तथा मजूमदार जैसे समाज शास्त्रियों द्वारा किया गया है।


श्रीनिवास ने इनके विपरीत जाति व्यवस्था को गतिशील मानते हुए इसमें परिवर्तन की संभाव्यता को प्रकट किया है।


संस्कृतिकरण की परिभाषा-


श्रीनिवास के अनुसार-


     "एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों विशेषकर ब्राह्मणों के रीति रिवाजों, संस्कारों विश्वासों जीवन निधि एवं अन्य सांस्कृतिक लक्षणों एवं प्रणालियों को ग्रहण करती है।"


इन के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया अपनाने वाली जाति एक दो पीढ़ी बाद ही उच्च जाति में प्रवेश के लिए दावा करने में समर्थ हो जाती है।


संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी समूह को स्थानीय जाति संस्तरण में उच्च स्तर की ओर ले जाने में सहायक होती है।


निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई जाति अथवा समूह सांस्कृतिक रूप से प्रतिष्ठित समूह के रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का अनुसरण कर अपनी सामाजिक प्रस्थिति को उच्च बनाते हैं।


संस्कृतिकरण की विशेषताएं-


स्थानीय प्रबल जाति के अनुकरण की प्रधानता।


संस्कृतिकरण एक दो तरफा प्रक्रिया है। उदाहरण स्थानीय देवी देवताओं की पूजा।


संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में केवल पदमूलक परिवर्तन ही होते हैं। संरचनात्मक परिवर्तनों का अभाव।


यह एक लंबी अवधि की प्रक्रिया है।


यह कोई व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं होकर सामूहिक प्रक्रिया है।


इस प्रक्रिया में लौकिक एवं कर्मकांडी स्थिति के मध्य असमानता को दूर करने का प्रयास होता है।


संस्कृतिकरण के प्रोत्साहन के कारक-


संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के प्रोत्साहन को निम्नलिखित तीन कारणों से बल मिला-


संचार एवं यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरुप दुर्गम क्षेत्रों तक भी पहुंच आसान बनी जिसने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया।


ब्राह्मणों की विभिन्न कर्मकांडी क्रियाओं से मंत्र उच्चारण की पृथकता के फलस्वरूप यह अन्य हिंदू जातियों के लिए भी सुलभ तथा आसान हो गए। इसने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को सहयोग प्रदान किया।


संविधान में प्रत्येक प्रकार के वर्ग विभेद की समाप्ति के लिए प्रावधान किए हैं। इस प्रकार राजनीतिक प्रोत्साहन भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कारण है।


संस्कृतिकरण का आलोचनात्मक विश्लेषण-


कई विद्वानों द्वारा श्रीनिवास जी की दी गई संस्कृति की अवधारणा के विरोध में भी मत प्रकट किया गया है।


स्वयं श्रीनिवास जी ने इसे एक विषम तथा जटिल अवधारणा बताया है तथा वे इसे एक अवधारणा की बजाय अनेक अवधारणाओं का योग बताते हैं।


एस जी बैली ने अपनी पुस्तक "कास्ट एंड द इकोनॉमिक फ्रंटियर" में लिखा है की संस्कृतिकरण की प्रक्रिया द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन की स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती है।


संस्कृतिकरण एक और पहलू जिसकी समाजशास्त्रीय आलोचना की है वह है कि "यह अवधारणा अपवर्जन तथा असमानता पर आधारित समाज का समर्थन करती है।" यह धारणा उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के लिए किए गए भेदभाव को उनका विशेषाधिकार मानती है। इस अवधारणा द्वारा उच्च जाति के जीवन शैली को उत्तम मानना भी आलोचनात्मक दृष्टिगत होता है।


इसके बावजूद संस्कृतिकरण की अवधारणा ने विभिन्न जातियों के मध्य सांस्कृतिक सामाजिक गतिशीलता को समझने में हमारी सहायता की है।

संस्कृति

संस्कृति का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार


संस्कृति का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार
  


संस्कृति शब्द का प्रयोग हम दिन-प्रतिदिन के जीवन में (अक्सर) निरन्तर करते रहते हैं। साथ ही संस्कृति शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में भी करते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारी संस्कृति में यह नहीं होता तथा पश्चिमी संस्कृति में इसकी स्वीकृति है। समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में किसी भी अवधारणा का स्पष्ट अर्थ होता है जो कि वैज्ञानिक बोध को दर्शाता है। अत: “संस्कृति” का अर्थ समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में “सीखा हुआ व्यवहार” होता है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति बचपन से अब तक जो कुछ भी सीखता है, उदाहरण के तौरे पर खाने का तरीका, बात करने का तरीका, भाषा का ज्ञान, लिखना-पढना तथा अन्य योग्यताएँ, यह संस्कृति है।
मनुष्य का कौन सा व्यवहार संस्कृति है?

मनुष्य के व्यवहार के कई पक्ष हैं-

जैविक व्यवहार (Biological behaviour) जैसे- भूख, नींद, चलना, दौड़ना।
मनोवैज्ञानिक व्यवहार (Psychological behaviour) जैसे- सोचना, डरना, हँसना आदि।
सामाजिक व्यवहार (Social behaviour) जैसे- नमस्कार करना, पढ़ना-लिखना, बातें करना आदि।
क्या आप जानते हैं कि मानव संस्कृति का निर्माण कैसे कर पाया ?

लेस्ली ए व्हाईट (Leslie A White) ने मानव में पाँच विशिष्ट क्षमताओं का उल्लेख किया हैं, जिसे मनुष्य ने प्रकृति से पाया है और जिसके फलस्वरुप वह संस्कृति का निर्माण कर सका है :-

पहली विशेषता है- मानव के खड़े रहने की क्षमता, इससे व्यक्ति दोनों हाथों द्वारा उपयोगी कार्य करता है।
दूसरा-मनुष्य के हाथों की बनावट है, जिसके फलस्वरुप वह अपने हाथों का स्वतन्त्रतापूर्वक किसी भी दिशा में घुमा पाता है और उसके द्वारा तरह-तरह की वस्तुओं का निर्माण करता है।
तीसरा-मानव की तीक्ष्ण दृष्टि, जिसके कारण वह प्रकृति तथा घटनाओं का निरीक्षण एवं अवलोकन कर पाता है और तरह-तरह की खोज एवं अविष्कार करता है।
चौथा-विकसित मस्तिष्क, जिसकी सहायता से मनुष्य अन्य प्राणियों से अधिक अच्छी तरह सोच सकता है। इस मस्तिष्क के कारण ही वह तर्क प्रस्तुत करता है तथा कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर पाता है।
पाँचवाँ-प्रतीकों के निर्माण की क्षमता। इन प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति अपने ज्ञान व अनुभवों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित कर पाता है। प्रतीकों के द्वारा ही भाषा का विकास सम्भव हुआ और लोग अपने ज्ञान तथा विचारों के आदान-प्रदान में समर्थ हो पाये हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि प्रतीकों का संस्कृति के निर्माण, विकास, परिवर्तन तथा विस्तार में बहुत बड़ा योगदान है।
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
प्रसिद्ध मानवशास्त्री एडवर्ड बनार्ट टायलर (1832-1917) के द्वारा सन् 1871 में प्रकाशित पुस्तक Primitive Culture में संस्कृति के संबंध में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। टायलर मुख्य रूप से संस्कृति की अपनी परिभाषा के लिए जाने जाते हैं, इनके अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला आचार, कानून, प्रथा और अन्य सभी क्षमताओं तथा आदतो का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज के नाते प्राप्त कराता है।” टायलर ने संस्कृति का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है। इनके अनुसार सामाजिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति अपने पास जो कुछ भी रखता है तथा सीखता है वह सब संस्कृति है। इस परिभाषा में सिर्फ अभौतिक तत्वों को ही सम्मिलित किया गया है।

राबर्ट बीरस्टीड (The Social Order) द्वारा संस्कृति की दी गयी परिभाषा है कि “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है, जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं, जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”

इस परिभाषा में संस्कृति दोनों पक्षों भौतिक एवं अभौतिक को सम्मिलित किया गया है। हर्शकोविट्स(Man and His Work) के शब्दों में “संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है”

इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण के दो भाग होते हैं- पहला-प्राकृतिक और दूसरा-सामाजिक। सामाजिक पर्यावरण में सारी भौतिक और अभौतिक चीजें आती हैं, जिनका निर्माण मानव के द्वारा हुआ है। उदाहरण के जिए कुर्सी, टेबल, कलम, रजिस्टर, धर्म, शिक्षा, ज्ञान, नैतिकता आदि। हर्शकोविट्स ने इसी सामाजिक पर्यावरण, जो मानव द्वारा निर्मित है, को संस्कृति कहा है।

बोगार्डस के अनुसार, “किसी समूह के कार्य करने और विचार करने के सभी तरीकों का नाम संस्कृति है।”

इस पर आप ध्यान दें कि, बोगार्डस ने भी बीयरस्टीड की तरह ही अपनी भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों पर बल दिया है।

मैलिनोस्की-”संस्कृति मनुष्य की कृति है तथा एक साधन है, जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है।” आपका कहना है कि “संस्कृति जीवन व्यतीत करने की एक संपूर्ण विधि है जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।”

संस्कृति के प्रकार
ऑगर्बन एवं निमकॉफ ने संस्कृति के दो प्रकारों की चर्चा की है- भौतिक संस्कृति एवं अभौतिक संस्कृति।

भौतिक संस्कृति - 
भौतिक संस्कृति के अन्र्तगत उन सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं का समावेश होता है जिनका निर्माण मनुष्य के लिए किया है, तथा जिन्हें हम देख एवं छू सकते हैं। भौतिक संस्कृति की संख्या आदिम समाज की तुलना में आधुनिक समाज में अधिक होती है, प्रो.बीयरस्टीड ने भौतिक संस्कृति के समस्त तत्वों को मुख्य 13 वर्गों में विभाजित करके इसे और स्पष्ट करने का प्रयास किया है- i.मशीनें ii.उपकरण iii.बर्तन iv.इमारतें v.सड़कें vi. पुल vii.शिल्प वस्तुऐं viii.कलात्मक वस्तुऐं ix.वस्त्र x.वाहन xi.फर्नीचर xii.खाद्य पदार्थ xiii.औशधियां आदि।

भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ
भौतिक संस्कृति मूर्त होती है।
इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है।
भौतिक संस्कृति मापी जा सकती है।
भौतिक संस्कृति में परिवर्तन शीघ्र होता है।
इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन किया जा सकता है।
भौतिक संस्कृति में बिना परिवर्तन किये इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है। 
अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने तथा उसे अपनाने में उसके स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए मोटर गाड़ी, पोशाक तथा कपड़ा इत्यादि।

अभौतिक संस्कृति - 
अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी अभौतिक एवं अमूर्त वस्तुओं का समावेश होता है, जिनके कोई माप-तौल, आकार एवं रंग आदि नहीं होते। अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभौतिक संस्कृति का तात्पर्य संस्कृति के उस पक्ष में होता है, जिसका कोई मूर्त रूप नहीं होता, बल्कि विचारों एवं विश्वासों कि माध्यम से मानव व्यवहार को नियन्त्रित, नियमित एवं प्रभावी करता है। प्रोñ बीयरस्टीड ने अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत विचारों और आदर्श नियमों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया और कहा कि विचार अभौतिक संस्कृति के प्रमुख अंग है। विचारों की कोई निश्चित संख्या हो सकती है, फिर भी प्रोñ बीयरस्टीड ने विचारों के कुछ समूह प्रस्तुत किये हैं-
i.वैज्ञानिक सत्य ii-धार्मिक विश्वास iii.पौराणिक कथाएँ iv.उपाख्यान v.साहित्य vi.अन्ध-विश्वास vii.सूत्र viii.लोकोक्तियाँ आदि।

ये सभी विचार अभौतिक संस्कृति के अंग होते हैं। आदर्श नियमों का सम्बन्ध विचार करने से नहीं, बल्कि व्यवहार करने के तौर-तरीकों से होता है। अर्थात् व्यवहार के उन नियमों या तरीकों को जिन्हें संस्कृति अपना आदर्श मानती है, आदर्श नियम कहा जाता है। प्रो. बीयरस्टीड ने सभी आदर्श नियमों को 14 भागों में बाँटा है-
1.कानून 2.अधिनियम 3.नियम 4.नियमन 5.प्रथाएँ 6.जनरीतियाँ 7. लोकाचार 8.निशेध 9.फैशन 10. संस्कार 11.कर्म-काण्ड 12.अनुश्ठान 13.परिपाटी 14.सदाचार।

अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ
अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है।
इसकी माप करना कठिन है।
अभौतिक संस्कृति जटिल होती है।
इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है।
अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन बहुत ही धीमी गति से होता है।
अभौतिक संस्कृति को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है, तब उसके रूप में थोड़ा-न-थोड़ा परिवर्तन अवश्य होता है।
अभौतिक संस्कृति मनुष्य के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है।
संस्कृति की प्रकृति या विशेषताएँ 
संस्कृति के सम्बन्ध में विभिन्न समाजशास्त्रियों के विचारों को जानने के बाद उसकी कुछ विशेषताएँ स्पष्ट होती है, जो उसकी प्रकृति को जानने और समझने में भी सहायक होती है। यहाँ कुछ प्रमुख विशेषताओं का विवेचन किया जा रहा है-

संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है - संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है। इसे व्यक्ति अपने पूर्वजों के वंशानुक्रम के माध्यम से नहीं प्राप्त करता, बल्कि समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। यह सीखना जीवन पर्यन्त अर्थात् जन्म से मृत्यु तक अनवरत चलता रहता है। आपको जानना आवश्यक है कि संस्कृति सीख हुआ व्यवहार है, किन्तु सभी सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। पशुओं द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पशु जो कुछ भी सीखते हैं उसे किसी अन्य पशु को नहीं सीखा सकते। संस्कृति के अंतर्गत वे आदतें और व्यवहार के तरीके आते है, जिन्हें सामान्य रूप से समाज के सभी सदस्यों द्वारा सीखा जाता है। इस सन्दर्भ में लुन्डबर्ग (Lundbarg) ने कहा है कि,”संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा प्राणीशास्त्रीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, वरन् यह सामाजिक सीख एवं अनुभवों पर आधरित रहती है।”
संस्कृति सामाजिक होती है -  संस्कृति में सामाजिकता का गुण पाया जाता है। संस्कृति के अन्तर्गत पूरे समाज एवं सामाजिक सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि किसी एक या दो-चार व्यक्तियों द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता। कोई भी व्यवहार जब तक समाज के अधिकतर व्यक्तियों द्वारा नहीं सीखा जाता है तब तक वह संस्कृति नहीं कहलाया जा सकता। संस्कृति एक समाज की संपूर्ण जीवन विधि (Way of Life) का प्रतिनिधित्व करती है। यही कारण है कि समाज का प्रत्येक सदस्य संस्कृति को अपनाता है। संस्कृति सामाजिक इस अर्थ में भी है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या दो या चार व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं है। यह समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए होता है। अत: इसका विस्तार व्यापक और सामाजिक होता है।
संस्कृति हस्तान्तरित होती है - संस्कृति के इसी गुण के कारण ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती है तो उसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी के अनुभव एवं सूझ जुड़ते जाते हैं। इससे संस्कृति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन एवं परिमार्जन होता रहता है। संस्कृति के इसी गुण के कारण मानव अपने पिछले ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर आगे नई-नई चीजों का अविष्कार करता है। आपको यह समझना होगा कि- पशुओं में भी कुछ-कुछ सीखने की क्षमता होती है। लेकिन वे अपने सीखे हुए को अपने बच्चों और दूसरे पशुओं को नहीं सिखा पाते। यही कारण है कि बहुत-कुछ सीखने की क्षमता रहने के बाद भी उनमें संस्कृति का विकास नहीं हुआ है। मानव भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपनी संस्कृति का विकास एवं विस्तार करता है तथा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में हस्तान्तरित भी करता है। इससे संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है।
संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है - संस्कृति का तात्पर्य उन सभी तत्वों से होता है, जिनका निर्माण स्वंय मनुष्य ने किया है। उदाहरण के तौर पर हमारा धर्म, विश्वास, ज्ञान, आचार, व्यवहार के तरीके एवं तरह-तरह के आवश्यकताओं के साधन अर्थात् कुर्सी, टेबल आदि का निर्माण मनुष्य द्वारा किया गया है। इस तरह यह सभी संस्कृति हर्शकाविट्स का कहना है कि “संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग है।”
संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है - संस्कृति में मानव आवश्यकता-पूर्ति करने का गुण होता है। संस्कृति की छोटी-से-छोटी इकाई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति करती है या पूर्ति करने में मदद करती है। कभी-कभी संस्कृति की कोई इकाई बाहरी तौर पर निरर्थक या अप्रकार्य प्रतीत होती है, लेकिन सम्पूर्ण ढाँचे से उसका महत्वपूर्ण स्थान होता है। मैलिनोस्की के विचार - प्रसिद्ध मानवशास्त्री मैलिनोस्की का कथन है कि संस्कृति के छोटे-से-छोटे तत्व का अस्तित्व उसके आवश्यकता पूर्ति करने के गुण पर निर्भर करता है। जब संस्कृति के किसी भी तत्व में आवश्यकतापूर्ति करने का गुण नहीं रह जाता तो उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्राचीनकाल में जो संस्कृति के तत्व थे वे समाप्त हो गए क्योंकि वे आवश्यकता पूति में असमर्थं रहे, इसमें सतीप्रथा को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। इसी प्रकार, व्यवस्था में कोई इकाई कभी-कभी बहुत छोटी प्रतीत होती है मगर व्यवस्था के लिए वह इकाई भी काफी महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार, संस्कृति का कोई भी तत्व अप्रकार्यात्मक नहीं होता है बल्कि किसी भी रूप में मानव की आवश्यकता की पूर्ति करती है।
प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है - प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है। हम जानते हैं कि कोई भी समाज एक विशिष्ट भौगोलिक एवं प्राकृतिक वातावरण लिये होता है। इसी के अनुरूप सामाजिक वातावरण एवं संस्कृति का निर्माण होता है। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का भौगोलिक पर्यावरण, मैदानी लोगों के भौगोलिक पर्यावरण से अलग होता है। इसी प्रकार, इन दोनों स्थानों में रहने वाले लोगों की आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। जैसे-खाना, रहने-सहने का तरीका, नृत्य, गायन, धर्म आदि। अत: दोनों की संस्कृति भौगोलिक पर्यावरण के सापेक्ष में आवश्यकता के अनुरूप विकसित होती है।
संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है - संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समय के साथ-साथ आवश्यकताओं के अनुरूप् अनुकूलित हो जाती है। संस्कृति समाज के वातावरण एवं परिस्थिति के अनुसार होती है। जब वातावरण एवं परिस्थिति में परिवर्तन होता है तो संस्कृति भी उसके अनुसार अपने का ढ़ालती है। यदि यह विशेषता एवं गुण न रहे तो संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं रह जायेगा। संस्कृति में समय एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होने से उसकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो पाती।
संस्कृति अधि-सावयवी है - मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के प्रयोग द्वारा संस्कृति का निर्माण किया, जो सावयव से ऊपर है। संस्कृति में रहकर व्यक्ति का विकास होता है और फिर मानव संस्कृति का निर्माण करता है जो मानव से ऊपर हो जाता है। मानव की समस्त क्षमताओं का आधार सावयवी होता है, किन्तु इस संस्कृति को अधि-सावयवी से ऊपर हो जाती है। इसी अर्थ में संस्कृति को अधि-सावयवी कहा गया है।
संस्कृति अधि-वैयक्तिक है - संस्कृति की रचना और निरन्तरता दोनों ही किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इसलिए यह अधि-वैयक्तिक(Super-individual) है। संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा नहीं किया गया है बल्कि संस्कृति का निर्माण सम्पूर्ण समूह द्वारा होता है। प्रत्येक सांस्कृतिक इकाई का अपना एक इतिहास होता है, जो किसी एक व्यक्ति से परे होता है। संस्कृति सामाजिक अविष्कार का फल है, किन्तु यह अविष्कार किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है।
संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है - संस्कृति के अन्तर्गत अनेक तत्व एवं खण्ड होते हैं किन्तु ये आपस में पृथक नहीं होते, बल्कि इनमें अन्त: सम्बन्ध तथा अन्त: निर्भरता पायी जाती है। संस्कृति की प्रत्येक इकाई एक-दूसरे से अनग हटकर कार्य नहीं करती, बल्कि सब सम्मिलित रूप से कार्य करती है। इस प्रकार के संतुलन एवं संगठन से सांस्कृतिक ढ़ाँचे का निर्माण होता है।
संस्कृति समूह का आदर्श होती है - प्रत्येक समूह की संस्कृति उस समूह के लिए आदर्श होती है। इस तरह की धारण सभी समाज में पायी जाती है। सभी लोग अपनी ही संस्कृति को आदर्श समझते हैं तथा अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को उच्च मानते हैं। संस्कृति इसलिए भी आदर्श होती है कि इसका व्यवहार-प्रतिमान किसी व्यक्ति-विशेष का न होकर सारे समूह का व्यवहार होता है।
संस्कृति के प्रकार्य
व्यक्ति के लिए
समूह के लिए
व्यक्ति के लिए-
संस्कृति मनुष्य को मानव बनाती है।
जटिल स्थितियों का समाधान।
मानव आवश्यकताओं की पूर्ति
व्यक्तित्व निर्माण
मानव को मूल्य एवं आदर्श प्रदान करती है।
मानव की आदतों का निर्धारण करती है।
नैतिकता का निर्धारण करती है।
व्यवहारों में एकरूपता लाती है।
अनुभव एवं कार्यकुशलता बढ़ाती है।
व्यक्ति की सुरक्षा प्रदान करती है।
समस्याओं का समाधान करती है।
समाजीकरण में योग देती है।
प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्धारण करती है।
सामाजिक नियन्त्रण में सहायक।
समूह के लिए-
सामाजिक सम्बन्धों को स्थिर रखती है।
व्यक्ति के दृश्टिकोण को विस्तृत करती है।
नई आवश्यकताओं को उत्पन्न करती है।
सभ्यता और संस्कृति में अन्तर
सभ्यता और संस्कृति शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में प्राय: लोग करते हैं, किन्तु सभ्यता और संस्कृति में अन्तर है। सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य। सभ्यता और संस्कृति में कुछ सामान्य बातें भी पाई जाती हैं। सभ्यता और संस्कृति में सम्बन्ध पाया जाता है। मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता और संस्कृति में अन्तर किया है। इनके द्वारा दिये गये अन्तर इस प्रकार हैं-

सभ्यता की माप सम्भव है, लेकिन संस्कृति की नहीं- सभ्यता को मापा जा सकता है। चूँकि इसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से होता है। इसलिए उपयोगिता के आधार पर इसे अच्छा-बुरा, ऊँचा-नीचा, उपयोगी-अनुपयोगी बताया जा सकता है। संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। संस्कृति की माप सम्भव नहीं है। इसे तुलनात्मक रूप से अच्छा-बुरा, ऊँचा-नीचा, उपयोगी-अनुपयोगी नहीं बताया जा सकता है। हर समूह के लोग अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं। हर संस्कृति समाज के काल एवं परिस्थितियों की उपज होती है। इसलिए इसके मूल्यांकन का प्रश्न नहीं उठता। उदाहरण स्वरूप हम नई प्रविधियों को देखें। आज जो वर्तमान है और वह पुरानी चीजों से उत्तम है तथा आने वाले समय में उससे भी उन्नत प्रविधि हमारे सामने मौजूद होगी। इस प्रकार की तुलना हम संस्कृति के साथ नहीं कर सकते। दो स्थानों और दो युगों की संस्कृति को एक-दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता।
सभ्यता सदैव आगे बढ़ती है, लेकिन संस्कृति नहीं- सभ्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है। यह कभी भी पीछे की ओर नहीं जाती। मैकाइवर ने बताया कि सभ्यता सिर्फ आगे की ओर नहीं बढ़ती बल्कि इसकी प्रगति एक ही दिशा में होती है। आज हर समय नयी-नयी खोज एवं आविष्कार होते रहते हैं जिसके कारण हमें पुरानी चीजों की तुलना में उन्नत चीजें उपलब्ध होती रहती हैं। फलस्वरूप सभ्यता में प्रगति होती रहती है।
सभ्यता बिना प्रयास के आगे बढ़ती है, संस्कृति नहीं- सभ्यता के विकास एवं प्रगति के लिए विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, यह बहुत ही सरलता एवं सजगता से आगे बढ़ती जाती है। जब किसी भी नई वस्तु का आविष्कार होता है तब उस वस्तु का प्रयोग सभी लोग करते हैं। यह जरूरी नहीं है कि हम उसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी रखें या उसके आविष्कार में पूरा योगदान दें। अर्थात् इसके बिना भी इनका उपभोग किया जा सकता है। भौतिक वस्तुओं का उपयोग बिना मनोवृत्ति, रूचियों और विचारों में परिवर्तन के किया जाता है, किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। संस्कृति के प्रसार के लिए मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करना चाहता है, तो उसके लिए उसे मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है, लेकिन किसी वस्तु के उपयोग के लिए विशेष सोचने की आवश्यकता नहीं होती।
सभ्यता बिना किसी परिवर्तन या हानि के ग्रहण की जा सकती है, किन्तु संस्कृति को नहीं- सभ्यता के तत्वों या वस्तुओं को ज्यों-का-त्यों अपनाया जा सकता है। उसमें किसी तरह की परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस एक वस्तु का जब आविष्कार होता है, तो उसे विभिन्न स्थानों के लोग ग्रहण करते हैं। भौतिक वस्तु में बिना किसी परिवर्तन लाये ही एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, तब ट्रैक्टर का आविष्कार हुआ तो हर गाँव में उसे ले जाया गया। इसके लिए उसमें किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी। किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। संस्कृति के तत्वों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है। उसके कुछ गुण गौण हो जाते हैं, तो कुछ गुण जुड़ जाते हैं। यही कारण है कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी लोग उपने पुराने विश्वासों, विचारों एवं मनोवृत्तियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं ला पाते। पहले वाले धर्म का कुछ-न-कुछ प्रभाव रह जाता है।
सभ्यता बाध्य है, जबकि संस्कृति आन्तरिक- सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुऐं आती हैं। भौतिक वस्तुओं का सम्बन्ध बाºय जीवन से, बाहरी सुख-सुविधाओं से होता है। उदाहरण के लिए, बिजली-पंखा, टेलीविजन, मोटरगाड़ी, इत्यादि। इन सारी चीजों से लोगों को बाहरी सुख-सुविधा प्राप्त होती है। किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के आन्तरिक जीवन से होता है। जैसे -ज्ञान, विश्वास, धर्म, कला इत्यादि। इन सारी चीजों से व्यकित को मानसिक रूप से सन्तुष्टि प्राप्त होती है, इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाºय है, लेकिन संस्कृति आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है।
सभ्यता मूर्त होती है, जबकि संस्कृति अमूर्त- सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक चीजों से होता है। भौतिक वस्तुऐं मूर्त होती हैं। इन्हें देखा व स्पर्श किया जा सकता है। इससे प्राय: सभी व्यक्ति समान रूप से लाभ उठा सकते हैं, किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से न होकर अभौतिक चीजों से होता है। इन्हें अनुभव किया जा सकता है, किन्तु इन्हें देखा एवं स्पर्श नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में संस्कृति अमूर्त होती है।
सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य-सभ्यता एक साधन है जिसके द्वारा हम अपने लक्ष्यों व उद्देश्यों तक पहुँचते हैं। संस्कृति अपने आप में एक साध्य है। धर्म, कला, साहित्य, नैतिकता इत्यादि संस्कृति के तत्व हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए भौतिक वस्तुऐं जैसे-धार्मिक पुस्तकें, चित्रकला, संगीत, नृत्य-बाद्य इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार सभ्यता साधन है और संस्कृति साध्य.

समिति

समिति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ 

समिति व्यक्तियों का एक समूह है जो कि किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हेतु बनाया जाता है। उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु समाज द्वारा मान्यता प्राप्त नियमों की व्यवस्था को संस्था कहते हैं। बहुत से लोग इन दोनों को समान अर्थों में प्रयोग करते हैं जो कि उचित नहीं है। ऐसा भ्रम इन दोनों शब्दों के सामान्य प्रयोग के कारण पैदा होता है। उदाहरण के लिए हम किसी भी महाविद्यालय को एक संस्था मान लेते हैं। समाजशास्त्र में जिस अर्थ में संस्था का प्रयोग होता है उस अर्थ की दृष्टि महाविद्यालय संस्था न होकर एक समिति है क्योंकि यह व्यक्तियों का एक मूर्त समूह है। यदि इसे परीक्षा पद्धति (जो कि नियमों की एक व्यवस्था है) की दृष्टि से देखें, तो इसे संस्था भी कहा जा सकता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि कोई भी व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं अकेला ही नहीं कर सकता है। यदि एक जैसे उद्देश्यों की पूर्ति वाले मिलकर सामूहिक रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करें, तो एक समिति का निर्माण होता है। इसीलिए समिति को व्यक्तियों का एक समूह अथवा संगठन माना जाता है।

समिति का अर्थ एवं परिभाषा

समिति व्यक्तियों का समूह है। यह किसी विशेष हित या हितों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। परिवार, विद्यालय, व्यापार संघ, चर्च (धार्मिक संघ), राजनीतिक दल, राज्य इत्यादि समितियाँ हैं। इनका निर्माण विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ, विद्यालय का उद्देश्य शिक्षण तथा व्यावसायिक तैयारी हैं। इसी प्रकार, श्रमिक संघ का उद्देश्य नौकरी की सुरक्षा, उचित पारिश्रमिक दरें, कार्य की स्थितियाँ इत्यादि को ठीक रखना है। साहित्यकारों या पर्वतारोहियों के संगठन भी समिति के ही उदाहरण हैं।

जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समिति आपस में सम्बन्धित सामाजिक प्राणियों का एक समूह है, जो एक निश्चित लक्ष्य या लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन का निर्माण करते हैं।” मैकाइवर एवं पेज (MacIver and Page) के अनुसार-”सामान्य हित या हितों की पूर्ति के लिए दूसरों के सहयोग के साथ सोच-विचार कर संगठित किए गए समूह को समिति कहते हैं।” गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार-”समिति व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो किसी विशेष हित या हितों के लिए संगठित होता है तथा मान्यता प्राप्त या स्वीकृत विधियों और व्यवहार द्वारा कार्य करता है।” बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार-”समिति प्राय: किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोगों का मिल-जुलकर कार्य करना है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सहयोग व संगठन पाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य किसी लक्ष्य की पूर्ति है। समिति के सदस्य अपने विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत सामूहिक प्रयास द्वारा करते हैं।

समिति के अनिवार्य तत्त्व

समिति के चार अनिवार्य तत्त्व हैं-

व्यक्तियों का समूह-समिति समुदाय की ही तरह मूर्त है। यह व्यक्तियों का एक संकलन है। दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का होना समिति के निर्माण हेतु अनिवार्य है।
सामान्य उद्देश्य-समिति का दूसरा आवश्यक तत्त्व सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का होना है। व्यक्ति इन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो संगठन बनाते हैं उसे ही समिति कहा जाता है।
पारस्परिक सहयोग-सहयोग समिति का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। इसी के आधार पर समिति का निर्माण होता है। सहयोग के बिना समिति का कोई अस्तित्व नहीं है।
संगठन-समिति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन का होना भी आवश्यक है।
संगठन द्वारा समिति की कार्य-प्रणाली में कुशलता आती है। समिति के निर्माण हेतु उपर्युक्त चारों तत्त्वों का होना अनिवार्य है। वस्तुत: समितियों का निर्माण अनेक आधारों पर किया जाता है। अवधि के आधार पर समिति स्थायी (जैसे राज्य) एवं अस्थायी (जैसे बाढ़ सहायता समिति); सत्ता के आधार पर सम्प्रभु (जैसे राज्य); अर्द्ध-सम्प्रभु (जैसे विश्वविद्यालय) एवं असम्प्रभु (जैसे क्लब); कार्य के आधार पर जैविक (जैसे परिवार); व्यावसायिक (जैसे श्रमिक संघ); मनोरंजनात्मक (जैसे संगीत क्लब) एवं परोपकारी (जैसे सेवा समिति) हो सकती हैं।

समिति की प्रमुख विशेषताएँ
समिति की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। इनमें से प्रमुख विशेषताएँ हैं-

मानव समूह-समिति का निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह से होता है जिसका एक संगठन होता है। संगठन होने का आधार उद्देश्य या उद्देश्यों की समानता है। 
निश्चित उद्देश्य-समिति के जन्म के लिए निश्चित उद्देश्यों का होना आवश्यक है। यदि निश्चित उद्देश्य न हों तो व्यक्ति उनकी पूर्ति के लिए तत्पर न होंगे और न ही समिति का जन्म होगा।
पारस्परिक सहयोग-समिति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्था का निर्माण करती है। उद्देश्य की प्राप्ति तथा व्यवस्था के लिए सहयोग होना अति आवश्यक है। चूँकि सदस्यों के समान उद्देश्य होते हैं, इस कारण उनमें सहयोग पाया जाता है।
ऐच्छिक सदस्यता-प्रत्येक मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ हैं। जब वह अनुभव करता है कि अमुक समिति उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है तो वह उसका सदस्य बन जाता है। समिति की सदस्यता के लिए कोई बाध्यता नहीं होती है। इसकी सदस्यता ऐच्छिक होती है। इसे कभी भी बदला जा सकता है।
अस्थायी प्रकृति-समिति का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों को पूर्ति के लिए किया जाता है। जब उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है तो वह समिति समाप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ, गणेशोत्सव के लिए गठित समिति गणेशोत्सव समाप्त होने के बाद भंग हो जाती है। 
विचारपूर्वक स्थापना-समिति की स्थापना मानवीय प्रयत्नों के कारण होती है।  व्यक्तियों का समूह पहले यह परामर्श करता है कि समिति उनके लिए कितनी लाभप्रद होगी। यह विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही समिति की स्थापना की जाती है।
नियमों पर आधारित-प्रत्येक समिति की प्रकृति अलग होती है। इसी कारण समितियों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। उद्देश्यों को पाने के लिए व सदस्यों के व्यवहार में अनुरूपता (Conformity) लाने के लिए कतिपय निश्चित नियम आवश्यक हैं। नियमों के अभाव में समिति अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर सकती।
मूर्त संगठन-समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो कतिपय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एकत्र होते हैं। इस दशा में समिति को मूर्त संगठन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसको किसी के भी द्वारा देखा जा सकता है।
समिति साधन है, साध्य नहीं-समितियों का निर्माण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। यदि हम पढ़ने के शौकीन हैं, तो वाचनालय की सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं। इससे हमें इच्छानुसार पुस्तकें मिलती रहती हैं। इसमें वाचनालय पुस्तकें प्राप्त करने का साधन है, साध्य नहीं; और यही समिति है। अत: हम कह सकते हैं कि समिति साधन है साध्य नहीं।
सुनिश्चित संरचना-प्रत्येक समिति की एक सुनिश्चित संरचना होती है। समस्त सदस्यों की प्रस्थिति समान नहीं होती, वरन् उनकी अलग-अलग प्रस्थिति या पद होते हैं। पदों के अनुसार ही उन्हें अधिकार प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए, महाविद्यालय में प्राचार्य, अध्यापक, छात्र, लिपिक इत्यादि प्रत्येक की अलग-अलग प्रस्थिति होती है तथा तदनुसार उनके अलग-अलग कार्य होते

निर्धनता

निर्धनता (Poverty)


निर्धनता या गरीबी वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने पर आश्रित सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति धन के अभाव के कारण नहीं कर पाता है| जिसके कारण उसके परिवार को जीवन की न्यूनतम आवश्यकता जैसे रोटी, कपड़ा, मकान भी उपलब्ध नहीं हो पाता| दूसरे शब्दों में कहें तो समाज का वह व्यक्ति जो अपनी बुनियादी आवश्यकताआों जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास को पूरा करने में असमर्थ होता है गरीब कहा जाता है|


गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति अपर्याप्त आय या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता, जिससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक कुशलता बनी रहे और वह तथा उसके आश्रित समाज के स्तर के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें|

गोडार्ड (Goddard) के अनुसार निर्धनता उन वस्तुओं का अभाव या अपर्याप्त पूर्ति है जो एक व्यक्ति तथा उसके आश्रितों के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है|

भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम उपभोग को गरीब माना गया है|

रंगराजन समिति, जिसमें उपभोग खर्च (Consumption Expenditure) को गरीबी का आधार बनाया गया, के अनुसार 2011-12 में भारत में कुल 363 मिलियन लोग गरीब हैं, जो भारत की कुल आबादी का 29.6% है| जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार भारत में गरीबी 21.9% है|

रंगराजन समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये एवं शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपभोग (Daily Per Capita Expenditure) को गरीबी रेखा निर्धारित किया था अर्थात् इससे कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीब है, जो औसत मासिक रूप में ग्रामीण क्षेत्र में 972 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 1407 रुपए प्रति व्यक्ति है|

निर्धनता के नवीनतम ऑंकडे :
देश में निर्धनता रेखा से नीचे की जनसंख्‍या के सम्बन्ध में ताजा ऑंकडे योजना आयोग द्वारा जुलाई 2013 में जारी किये गये। राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 68 वें दौर के सर्वेक्षण पर आधारित यह ऑंकडे 2011-2012 के लिए है तथा सुरेश तेन्‍दुलकर समिति द्वारा सुझाए गए फॉर्मूले पर आधारित है । इस ऑंकडो के अनुसार ----
a.   2011-12 में देश मं 21.9प्रतिशत जनसंख्‍या निर्धनता रेखा के नीचे है जबकि 2004-05 मं यह 37.2प्रतिशत थी।
b.   ग्रामीण क्षेत्रों मं 25.7 प्रतिशत व शहरी क्षेत्रों मं 13.7प्रतिशत जनसंख्‍या निर्धनता रेखा से नीचे है।
c.   देश में निर्धनों की कुल संख्‍या 26.93 करोड आकलित की गयी।
d.   राज्यों में सर्वाधिक निर्धनता अनुपात छत्तीसगढ़ में पाया गा । जहॉ 39.93 प्रतिशत  जनसंख्‍या निर्धनता रेखा के नीचे है । इसके पश्‍चात झारखण्‍डमणिपूरअरुणाचल प्रदेश व बिहार है।
e.   केन्‍द्रशासित प्रदेशों में निर्धनता रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले (घटते क्रम में) दादरा नगर हवेलीचण्‍डीगढ।
f.    सबसे कम निर्धनता अनुपात गोवा मं 5.09प्रतिशत है इसके बाद केरलहिमाचल प्रदेशसिक्‍कम व पंजाब।

सापेक्ष एवं निरपेक्ष निर्धनता (Relative and absolute poverty)

निरपेक्ष रूप से उन लोगों को गरीब कहा जाता है जिनको निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ जैसे – भोजन, आवास, वस्त्र भी प्राप्त नहीं हो पाता है|
सापेक्ष निर्धनता का तात्पर्य एक व्यक्ति के पास सापेक्षिक रूप से दूसरे व्यक्तियों से कम धन एवं संपदा के होने से है, जैसे निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग से एवं मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग से सापेक्षिक रूप से निर्धन है|

निर्धनता के दुष्प्रभाव या निर्धनता की समस्या

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार निर्धनता कहीं भी सर्वत्र उन्नति के लिए खतरनाक होती है (Poverty anywhere constitutes a danger to prosperity everywhere)
निर्धनता के दुष्प्रभाव को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(1) जीवन की समस्या

निर्धनता से ग्रस्त व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक जीवन अवरुद्ध हो जाता है| अभाव एवं चिंता में व्यक्ति उचित-अनुचित, पाप-पुण्य आदि के बीच भेद करने में असमर्थ हो जाता है|

(2) स्वास्थ्य संबंधी समस्या

निर्धनता के कारण व्यक्ति को समुचित भोजन का अभाव, कुपोषण, आवास की दयनीय दशा का सामना करना पड़ता है| जिसके कारण अशक्तता, बीमारी, विकलांगता, अकाल मृत्यु आदि बातें आम हो जाती हैं| महामारी जैसे चिकनगुनिया, डेंगू आदि अधिकांशतः निर्धन व्यक्ति को ही होते हैं|


निर्धनता (Poverty)


निर्धनता या गरीबी वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी तथा अपने पर आश्रित सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति धन के अभाव के कारण नहीं कर पाता है| जिसके कारण उसके परिवार को जीवन की न्यूनतम आवश्यकता जैसे रोटी, कपड़ा, मकान भी उपलब्ध नहीं हो पाता| दूसरे शब्दों में कहें तो समाज का वह व्यक्ति जो अपनी बुनियादी आवश्यकताआों जैसे – भोजन, वस्त्र, आवास को पूरा करने में असमर्थ होता है गरीब कहा जाता है|

गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार निर्धनता वह दशा है जिसमें एक व्यक्ति अपर्याप्त आय या विचारहीन व्यय के कारण अपने जीवन स्तर को इतना ऊँचा नहीं रख पाता, जिससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक कुशलता बनी रहे और वह तथा उसके आश्रित समाज के स्तर के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकें|

गोडार्ड (Goddard) के अनुसार निर्धनता उन वस्तुओं का अभाव या अपर्याप्त पूर्ति है जो एक व्यक्ति तथा उसके आश्रितों के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है|

भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम उपभोग को गरीब माना गया है|

रंगराजन समिति, जिसमें उपभोग खर्च (Consumption Expenditure) को गरीबी का आधार बनाया गया, के अनुसार 2011-12 में भारत में कुल 363 मिलियन लोग गरीब हैं, जो भारत की कुल आबादी का 29.6% है| जबकि सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार भारत में गरीबी 21.9% है|

रंगराजन समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये एवं शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपभोग (Daily Per Capita Expenditure) को गरीबी रेखा निर्धारित किया था अर्थात् इससे कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीब है, जो औसत मासिक रूप में ग्रामीण क्षेत्र में 972 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 1407 रुपए प्रति व्यक्ति है|


सापेक्ष एवं निरपेक्ष निर्धनता (Relative and absolute poverty)

निरपेक्ष रूप से उन लोगों को गरीब कहा जाता है जिनको निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ जैसे – भोजन, आवास, वस्त्र भी प्राप्त नहीं हो पाता है|
सापेक्ष निर्धनता का तात्पर्य एक व्यक्ति के पास सापेक्षिक रूप से दूसरे व्यक्तियों से कम धन एवं संपदा के होने से है, जैसे निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग से एवं मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग से सापेक्षिक रूप से निर्धन है|

भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)

(1) अधिक जनसंख्या

उत्पादन एवं रोजगार के अवसर की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है| अतः कुछ लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है| जो गरीबी के रूप में सामने आता है|

(2) जाति प्रथा

जाति प्रथा के कारण व्यवसाय जन्म के आधार पर निर्धारित हो जाता है| जिससे योग्य होने के बावजूद दूसरा कार्य करना सम्भव नहीं हो पाता या अन्य कार्य करना प्रस्थिति के प्रतिकूल माना जाता है|

(3) कृषि पर अत्यधिक निर्भरता

देश की लगभग 80% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है| जो कृषि पर निर्भर है| कृषि उत्पादन संयुक्त परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता| ऐसे में प्राकृतिक आपदा जैसे – सूखा या बाढ़ स्थिति को और दयनीय कर देता है|

(4) कालाबाजारी

किसानों का उत्पाद विचाैलिये के हाथों में जाने से उन्हें अनाज का उचित दाम नहीं मिल पाता है|

(5) अज्ञानता एवं अंधविश्वास

कुछ व्यक्ति गरीबी को ईश्वर का दण्ड समझते है, एवं वे कोई प्रयास नहीं करते हैं| साथ ही धार्मिक कर्मकाण्डओ में अपना संचित धन भी खर्च कर देते हैं|

(6) बेरोजगारी

व्यक्ति कार्य करने के योग्य है फिर भी उसे काम नहीं मिलता| जिससे वह निर्धन बना रहता है|

(7) कृषि क्षेत्र का तकनीकी पिछड़ापन गरीबी का मुख्य कारण है|

(8) प्रतिकूल जलवायु

कुछ स्थानों पर बर्फ बहुत पड़ती है, कुछ जगह रेगिस्तान या पहाड़ है| ऐसे स्थानों पर उत्पादन बहुत कम होता है एवं रोजगार भी नहीं मिलता|

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निर्धनता के दुष्प्रभाव या निर्धनता की समस्या

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार निर्धनता कहीं भी सर्वत्र उन्नति के लिए खतरनाक होती है (Poverty anywhere constitutes a danger to prosperity everywhere)
निर्धनता के दुष्प्रभाव को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(1) जीवन की समस्या

निर्धनता से ग्रस्त व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक जीवन अवरुद्ध हो जाता है| अभाव एवं चिंता में व्यक्ति उचित-अनुचित, पाप-पुण्य आदि के बीच भेद करने में असमर्थ हो जाता है|

(2) स्वास्थ्य संबंधी समस्या

निर्धनता के कारण व्यक्ति को समुचित भोजन का अभाव, कुपोषण, आवास की दयनीय दशा का सामना करना पड़ता है| जिसके कारण अशक्तता, बीमारी, विकलांगता, अकाल मृत्यु आदि बातें आम हो जाती हैं| महामारी जैसे चिकनगुनिया, डेंगू आदि अधिकांशतः निर्धन व्यक्ति को ही होते हैं|
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निर्धनता दूर करने के सुझाव

(1) जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण किया जाय|

(2) लोगों को अकादमी शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा दी जाय|

(3) भ्रष्टाचार पर शून्य सहिष्णुता (Zero tolerance)  की नीति अपनायी जाय|

(4) ग्रामीण विकास पर अत्यधिक जोर दिया जाय|

(5) युवाओं को रोजगारपरक शिक्षा मुहैया कराई जाय|

(6) स्वरोजगार के लिए माहौल बनाया जाय|

(7) सामाजिक कुप्रथा जैसे – दहेज पर रोक लगायी जाय|

(8) स्त्री शिक्षा एवं रोजगार को बढ़ावा दिया जाय|
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निर्धनता समाप्त करने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास

(1) पंचवर्षीय योजनाएँ

यह 1951 में शुरू किया गया जिसमे समाज के हर क्षेत्र के विकास को समाहित किया गया| छठी पंचवर्षीय योजना में तो “गरीबी हटाओ” का नारा भी दिया गया था|

(2) सामुदायिक विकास कार्यक्रम

यह 1952 में शुरू किया गया| इसके अंतर्गत कृषि, पशु प्रबंधन, ग्रामीण और लघु उद्योगों का विकास, स्वास्थ्य तथा सामाजिक शिक्षा बेहतर करके बहुमुखी विकास पर जोर दिया गया|

परन्तु इस योजना का लाभ धनी एवं शक्तिशाली ग्रामीण वर्गों को ही मिल पाया जिससे इस योजना को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी|

(3) पंचायती राज

बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिश पर पंचायती राज की स्थापना की गई| 1993 में इसे संवैधानिक दर्जा दिया गया, तब से लेकर आज तक यह ग्रामीण क्षेत्र में सफलतापूर्वक क्रियाशील है|

(4) अन्य योजनाएँ

1970 के दशक में सामाजिक न्याय पर आधारित विकास को आदर्श माना गया एवं सीमांत किसान, कृषि मजदूर, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP), जवाहर रोजगार योजना (JRY), स्वरोजगार प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रम शुरु किए गये, इससे गरीबी के प्रतिशत में कमी तो आयी, लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण कुल संख्या में निरंतर वृद्धि होती रही|

(5) हरित क्रांति

1966-67 में शुरू की गयी इस क्रांति से देश खाद्यान्न में आत्म निर्भर हो गया| प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई| गरीबी में सुधार, स्वास्थ्य में सुधार, ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार हुआ| इससे कृषकों की मानसिकता में नवाचार ग्रहण करने की प्रवृत्ति दिखायी देने लगी|

(6) मनरेगा

निर्धनता में कमी लाने के लिए फरवरी 2006 में इस योजना की शुरुआत की गयी| जिसमें सौ दिन के रोजगार की गारंटी दी गयी है|
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भारत में निर्धनता के कारण (Causes of Poverty in India)

(1) अधिक जनसंख्या

उत्पादन एवं रोजगार के अवसर की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है| अतः कुछ लोगों को बेरोजगार रहना पड़ता है| जो गरीबी के रूप में सामने आता है|

(2) जाति प्रथा

जाति प्रथा के कारण व्यवसाय जन्म के आधार पर निर्धारित हो जाता है| जिससे योग्य होने के बावजूद दूसरा कार्य करना सम्भव नहीं हो पाता या अन्य कार्य करना प्रस्थिति के प्रतिकूल माना जाता है|

(3) कृषि पर अत्यधिक निर्भरता

देश की लगभग 80% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है| जो कृषि पर निर्भर है| कृषि उत्पादन संयुक्त परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता| ऐसे में प्राकृतिक आपदा जैसे – सूखा या बाढ़ स्थिति को और दयनीय कर देता है|

(4) कालाबाजारी

किसानों का उत्पाद विचाैलिये के हाथों में जाने से उन्हें अनाज का उचित दाम नहीं मिल पाता है|

(5) अज्ञानता एवं अंधविश्वास

कुछ व्यक्ति गरीबी को ईश्वर का दण्ड समझते है, एवं वे कोई प्रयास नहीं करते हैं| साथ ही धार्मिक कर्मकाण्डओ में अपना संचित धन भी खर्च कर देते हैं|

(6) बेरोजगारी

व्यक्ति कार्य करने के योग्य है फिर भी उसे काम नहीं मिलता| जिससे वह निर्धन बना रहता है|

(7) कृषि क्षेत्र का तकनीकी पिछड़ापन गरीबी का मुख्य कारण है|

(8) प्रतिकूल जलवायु

कुछ स्थानों पर बर्फ बहुत पड़ती है, कुछ जगह रेगिस्तान या पहाड़ है| ऐसे स्थानों पर उत्पादन बहुत कम होता है एवं रोजगार भी नहीं मिलता|