Monday, November 6, 2023

गोरखपुर


जय श्री राम....योगी आदित्यनाथ जी

गोरखपुर 


यह नदी के किनारे राप्ती और रोहिणी नामक दो नदियों के तट पर बसा हुआ है। नेपाल से निकलने वाली इन दोनों नदियों में सहायक नदियों का पानी एकत्र हो जाने से कभी-कभी इस क्षेत्र में भयंकर बाढ भी आ जाती है।


 यहाँ एक बहुत बड़ा तालाब भी है जिसे रामगढ़ ताल कहते हैं। 

रामगढ़ ताल जब मैं कह रहा था तो मुझको रामगढ़ में बाबा किनाराम की याद आ रही थी और मैं अपने मन में सोच रहा था क्या कोई साम्यता हो सकती है जो इस नाथ संप्रदाय को बांध रही हो अघोर संप्रदाय और बाबा और बाबा योगी आदित्यनाथ जिस नाथ संप्रदाय से आते हैं ।गोरखपुर में हु पर जब जैसे ही सुना की योगी यूपी के मुख्यमंत्री बने वैसे ही मन के किसी कोने में यह गीत बज गया......

वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्यश्यामलां मातरम्....

(.आनन्द मठ के लेखक बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला भाषा का एक उपन्यास की रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्यायने १८८२ में की थी।..आनंदमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के. सन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है....)

धर्म से बड़ी कोई राजनीति नहीं...राजनीति से बड़ा कोई धर्म नहीं"

धर्म से बड़ी कोई राजनीति नहीं .....और राजनीति से बड़ाकोई धर्म नहीं" की आवाज मन के किसी कोने से आयी....

. क्योंकि जो शख्स देश के सबसे बड़े सूबे यूपी का मुखिया बना है ।

वह गोरक्ष पीठ से निकला है। शिव के अवतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ के नाम पर स्थापित मंदिर से निकला है।

 नाथ संप्रदाय का विश्वप्रसिद्द गोरक्षनाथ मंदिर से निकला है। जो हिंदू धर्म,दर्शन,अध्यात्म और साधना के लिये विभिन्नसंप्रदायों और मत-मतांतरों में नाथ संप्रदाय का प्रमुख स्थान है । और हिन्दुओं के आस्था के इस प्रमुख केन्द्र यानी गोरक्ष पीठ के पीठाधीश्वरमहतं आदित्यनाथ जब देश के सबसेबडे सूबे यूपी के सीएम हैं, ।

जो आज का सच है.....धर्म से बड़ी कोई राजनीति नहीं...राजनीति से बड़ा कोई धर्म नहीं" एक बात और याद आ रही है..

 आज के"संतो में राजनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञो में संत

उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्रीमान योगी जी सनातनधर्म की जिस धारा के पीठाधीश्वर हैं/उसके आदि पुरूष भगवान दत्त हैं ।

जो सप्त ऋषि मंडल के ऋषि अत्रि और माता अनुसूइया के पुत्र होने के कारण दत्त के साथ अत्रि समाविष्ट हुआ और " भगवान दत्तात्रेय " के नाम से संस्थापित हुए ।कालांतर में इस धारा के दो भाग हुए ।हिमाली और गिरनारी ।हिमाली शाखा के आदि पुरूष बाबा गोरख नाथ और केंद्र हुआ उनके नाम पर गोरखपुर ।

इस धारा में अधीश्वर के नाम के साथ अन्त में नाथ शब्द लग जाता है ।बाबा गोरख नाथ के गुरू मछन्दर नाथ और उनके पहले बाबा जालन्धर नाथ ।जैसे अन्तिम दो (वर्तमान योगी जी से पहले)महथं द्विग विजय नाथमहथं अवैद्य नाथ ।***************भगवान दत्तात्रेय की दूसरी धारा गिरनारी का केन्द्र वाराणसी और सर्वत्रपरम आदरणीय बाबा कीनाराम और अघोरेश्वर महाप्रभु अवधूत भगवान राम । से...

बाबा किनाराम जी अपने प्रथम गुरु वैष्णव शिवाराम जी के नाप पर उन्होंने चार मठ स्थापित किए तथा दूसरे गुरु, औघड़ बाबा कालूराम की स्मृति में कींकुड (वाराणसी), रामगढ़ (चंदौली तहसील, वाराणसी), देवल (गाजीपुर) तथा हरिहरपुर (जौनपुर) में चार औघड़ गद्दियाँ कायम कीं। इनप्रमुख स्थानों पर  कर्म छेत्र रहा है पिता जी (डॉ सत्येंद्र सिंह ) का श्री गणेश राय पी जी कालेज में पढ़ाया, गाजीपुर व् अनपरा लालगंज में प्राचार्य व् डीन पूर्वांचल यूनिवर्सिटी  रहे।इन्ही पीठो पर सेवारत जुड़े है। इसके बाद

औघड़ परम्परा के औघड़ अवधूत भगवान राम की सर्वेश्वरी सिद्धि की प्रसिद्धि जितनी काशी में हैं, उससे अधिक  मेरे ननिहाल क्षेत्र में मानी जाती है। अवधूत भगवान राम ने अपने बाल्य व युवावस्था का अधिकांश समय मनिहरा, महड़ौरा व सकलडीहा के आस-पास के क्षेत्र में बिताया, और यही में खेली, बढ़ी हुई  कहते हैं कि औघड़ परम्परा का वरण करते हुए उन्होंने अपनी साधना का अधिकांश समय इन्हीं स्थानों पर बिताया। यही कारण है कि इस क्षेत्र में औघड़ परम्परा का पालन करने वाले भक्तों की संख्या लाखों में है। रामगढ़ स्थित कीनाराम स्थली के अलावा मनिहरा व हरिहरपुर गांव में आदि शक्ति आश्रम अवधूतभगवान राम की साधना स्थल के कारण प्रसिद्ध है। 

अब इस परंपरा से कौन...?

इस परम्परा में नाम के अन्त में " राम " शव्द लग जाता है ।वर्तमान मेंबाबा गौतम राम   और बाबा सम्भव राम ।।***********************एक बात और कि भगवान दत्तात्रेय की परम्परा मे ही साईं बाबा भी हैंऔर उनके नाम के साथ " नाथ तथा राम " दोनों ही प्रयोग कर लिया जाता है।

उसका ताना-बाना क्या होगा... उसमें मैं क्षत्रिय जाती की भूमिका भी देख रहा था मुझे याद आ रहे थे गौतम बुद्ध मुझको याद आ रहे थे जैन धर्म के प्रथम संस्थापक पार्श्वनाथ और इन्हीं के बीच जब मैं दर्शन कर रहा था गोरखनाथ बाबा का मंदिर घंटों बैठा था देख रहा था वहां पर लगी हुई मूर्तियों को और सोच रहा था।की कैसे यह जनपद महान भगवान बुद्ध, जो बौद्ध धर्म के संस्थापक है, जिन्होंने 600 ई.पू. रोहिन नदी के तटपर अपने राजसी वेशभूषाओं को त्याग दिया और सच्चाई की खोज में निकल पड़े थे गोरखपुर उनसे जुड़ा है ।यह जनपद भगवान महावीर, 24 वीं तीर्थंकर, जैन धर्म के संस्थापक के साथ भी जुड़ा हुआ है।

खैर....




मेरा बनारस में आवास प्रेमचंद स्मारक इंटर कॉलेज के बगल में जो लमही के पास है और प्रेमचंद बड़ा नाम हिंदी साहित्य घर के आता है लमही और गोरखपुर को मैं जोड़ रहा था ।गोरखपुर मुंशी प्रेमचंद की कर्मस्थली रही है



मुंशी प्रेमचंद (1880-1936)], भारत के एक महान हिन्दी उपन्यासकार, गोरखपुर में रहते थे। वह घर जहाँ वे रहते थे और उन्होंने अपना साहित्य लिखा उसके समीप अभी भी एक मुंशी प्रेमचंद पार्क उनके नाम पर स्थापित है।

याद आ रहे थे... मेरे राम का मुकुट भीग रहा है...पंडित विद्यानिवास मिश्र से मेरे परिवार का ताना-बाना तीन पीढ़ियों का घर इधर को 14 जनवरी को पिछले सालों से मैं उनके सेमिनार में प्रतिभाग करता रहा।बनारस  कर्म स्थली की जन्म स्थली यही गोरखपुर ही थी अर्थात संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा हिन्दी साहित्यकार और सफल सम्पादक विद्यानिवास मिश्र यहीं के थे।


इलाहाबाद के प्रवास के दौरान फिराक गोरखपुरी रघुपति सहाय फिराक को पढ़ने समझने का मौका मिला गोरखपुर के ही थे आज इनके बहाने में गोरखपुर को याद करना..फिराक गोरखपुरी (1896-1982, पूरा नाम : रघुपति सहाय फिराक), प्रसिद्ध उर्दू कवि, गोरखपुर में उनका बचपन का घर अभी भी है। वह बाद में इलाहाबाद में चले गया जहाँ वे लम्बे समय तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे।






गीता प्रेस जो हमें सबसे सस्ते डायरिया उपलब्ध कराता है धार्मिक पुस्तकें प्रदान करता है जिससे हम अपने हिंदू संस्कृत को गीता प्रेस के बहाने पीढ़ी दर पीढ़ी जन-जन तक पहुंचाने में कामयाब रहे गोरखपुर को हिंदू धार्मिक पुस्तकों के विश्व प्रसिद्ध प्रकाशक गीता प्रेस के साथ भी पहचान लिया गया है। सबसे प्रसिद्ध प्रकाशन ‘कल्याण’ पत्रिका है श्री भागवत गीता के सभी 18 हिस्सों को अपनी संगमरमर की दीवारों पर लिखा गया है। अन्य दीवार के पर्दे और पेंटिंग भगवान राम और कृष्ण के जीवन की घटनाओं को प्रकट करते हैं। पूरे देश में धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना के प्रसार के लिए गीता प्रेस अग्रिम है


इतिहास

इतिहास के चलचित्र के जब नजर आती है चौरी चौरा कांड दिया यदि यह ना होता तो गांधी द्वारा कुछ इबादत और लिखी जाती । गांधी साध्य और साधन ईमानदारी के बड़ा जोड़ देते गांधी नैतिकता के प्रबल समर्थक प्रबल समर्थक थे 4 फरवरी, 1 9 22 की ऐतिहासिक ‘चौरोई चौरो’ घटना के कारण गोरखपुर महान प्रतिष्ठा पर पहुंच गया, जो भारत की स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मोड़ था।

 पुलिस के अमानवीय बर्बर अत्याचारों पर गुस्से में, स्वयंसेवकों ने चौरी-चौरा पुलिस थाने को जला दिया, परिसर में उन्नीस पुलिसकर्मियों की हत्या। इस हिंसा के साथ, महात्मा गांधी ने 1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया।

गांधी की अहिंसा का प्रयोग सर्वविदित बुद्ध की ही धरती से हुआ।वही गांधी के राजनैतिक करीबी डिस्कवरी ऑफ इंडिया के लेखक जवाहरलाल नेहरू से भी जुड़ा है ।आज के भारत के निर्माण में जवाहरलाल की भूमिका को  नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और यहीं पर भी 3 साल जेल में पड़े रहे साधते रहे गोरखपुर इसलिए भी याद आ रहा था आज जवाहरलाल नेहरू के ....बहाने...क्योंकि प्रसिद्ध भारत छोड़ो आंदोलन के बाद शीघ्र ही 9 अगस्त को जवाहर लाल नेहरू को गिरफ्तार किया गया था और इस जिले में उन पर मुकदमा चलाया गया। उन्होंने यहाँ की जेल में अगले तीन साल बिताये। कैसे जगह प्रभावित करती कालखंड कोई भी हो....


गुरु अमरनाथ योगी आदित्यनाथ गौतम बुद्ध पार्श्वनाथ बाबा कीनाराम बाबा अवधूत राम सब क्षत्रिय कुल में ही जन्म लिए थे मान्यता है कि उपनिषद जो लिखे गए उस में क्षत्रियों का ही योगदान है।

खैर

 गोरखपुर सामाजिक समरसता का प्रतीक है बुद्ध जो एक क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे, उन्होंने जब पहली बार दुःख देखा तो सुख की तलाश शुरू कर दी | तथा उनके गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान तथा भारत के प्राचीन वेदों और उपनिषदों के ज्ञान को आधार बनाते हुए उन्होंने सुख का रास्ता अहिंसा , प्रेम और अध्यात्म द्वारा प्राप्त किया तथा वही अपने अनुयायियों और शिष्यों को भी सिखाने का प्रयास किया | 


महात्मा बुद्ध का जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पहले कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के घर में हुआ था । इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। इनकी माता का नाम महामाया था तथा पुत्र-जन्म के सात दिन बाद ही माता की मृत्यु हो गयी थी । इनकी मौसी गौतमी ने बालक का लालन-पालन किया । इस बालक के जन्म से महाराज शुद्धोदन की पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हुई थी, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया । गौतम नाम इनके गोत्र के कारण पड़ा । ( गौतम महान सनातन ऋषि थे, जिनके नाम पर यह गोत्र है मलय पुस्तक “हिकायत सेरी रामा” और जातक कथाओं में यह उल्लेख है की गौतम बुद्ध ने स्वयं यह कहा था के वो श्री राम के ही अवतार हैं | 

(बुद्ध और राम के बहाने गोरखपुर)


गोरखनाथ मंदिर

भारत के धार्मिक इतिहास में गोरखकालीन भारत का समय 600 से 1200 ईस्वी का माना जाता है, अधिकांश लोग नाथपंथ को केवल गोरखपुर स्थित गोरक्षपीठ तक ही सीमित मानते हैं, मगर नाथ योगियों के मठ पूरी दुनिया में हैं. तिब्बत की राजधानी ल्हासा में मत्स्येन्द्रनाथ की मूर्ति है

चीन के चुवान द्वीपसमूह के पुटू द्वीप में भी एक प्रसिद्ध मंदिर है. बाली, जावा, भूटान, पेशावर के अलावा नेपाल के मृग स्थली में भी गोरक्षपीठ है. काठमांडू के इंद्र चौक मुहाली में भी गोरखनाथ का मंदिर है

भारत में भी हरिद्वार, सिक्किम और गुजरात में गोरखनाथ के सिद्ध पीठ स्थित हैं.

सत्ता

सामाजिक समरसता का पाठ दिग्विजय नाथ कर्म के रूप में अपनाया और महंत अवैद्यनाथ में इसको आगे बढ़ाएं और उसका परिणाम आज यह है कि -उत्तर प्रदेश  के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी मंदिर से निकले हुए..पिछले 28 सालों से गोरखपुर के सांसद का पता गोरखनाथ मंदिर ही रहा है.....

(गोरखपुर को मैं इस रूप में भी देख रहा था)


आज हम जिस विशाल और भव्य मंदिर का दर्शन कर हर्ष और शांति का अनुभव करते हैं, वह ब्रह्मलीन महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज जी की ही कृपा से है। वर्तमान पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ जी महाराज के संरक्षण में श्री गोरखनाथ मंदिर विशाल आकार-प्रकार, प्रांगण की भव्यता तथा पवित्र रमणीयता को प्राप्त हो रहा है। पुराना मंदिर नव निर्माण की विशालता और व्यापकता में समाहित हो गया है।

सामाजिक समरसता का प्रतीक जाति बंधन को तोड़ता हुआ या मंदिर अपनी अलग जगा रहा था जिसको मुस्लिम शासक बर्दाश्त नहीं कर पाए इसलिए इसको तोड़ा गया मुस्लिम शासन काल में हिन्दुओं और बौद्धों के अन्य सांस्कृतिक केन्द्रों की भांति इस पीठ को भी कई बार भीषण कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। इसकी व्यापक प्रसिद्धि के कारण शत्रुओं का ध्यान विशेष रूप से इधर आकर्षित हुआ। विक्रमी चौदहवीं सदी में भारत के मुस्लिम सम्राट अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में यह मठ नष्ट किया गया और साधक योगी बलपूर्वक निष्कासित किये गये थे। मठ का पुनर्निर्माण किया गया और पुनः यौगिक संस्कृति का प्रधान केंद्र बना। विक्रमी सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण मुग़ल शासक औरंगजेब ने इसे दो बार नष्ट किया पर

 आज जब मैं मंदिर का दर्शन कर रहा था तो अपनी भव्य रूप में यह था क्योंकि आज योगी आदित्यनाथ इस सुबे  के मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री हैं और राम मंदिर जो अयोध्या में बनने जा रहा है उसमें इन की बहुत बड़ी भूमिका है गोरखनाथ मंदिर....


 52 एकड़ के सुविस्तृत क्षेत्र में स्थित इस मंदिर का रूप व आकार-प्रकार परिस्थितियों के अनुसार समय-समय पर बदलता रहा है। सत्ता राजसत्ता धर्म जाती के गठबंधन खिचड़ी परंपरा शिक्षा को धर्म से धर्म को कर्म से कैसे जोड़ा जाए यह गौ रक्षा गोरखधाम मंदिर आने पर ही पता चलता है कैसे मन्दिर शैक्षणिक संस्थाओं का निगमन करता है...



मंदिर प्रांगण में ही गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ है। इसमें विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क आवास, भोजन व अध्ययन की उत्तम व्यवस्था है। गोरखनाथ मंदिर की ओर से एक आयुर्वेद महाविद्यालय व धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना की गयी है। गोरक्षनाथ मंदिर के ही तत्वावधान में 'महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद्' की स्थापना की गयी है। परिषद् की ओर से बालकों का छात्रावास प्रताप आश्रम, महाराणा प्रताप, मीराबाई महिला छात्रावास, महाराणा प्रताप इण्टर कालेज, महंत दिग्विजयनाथ स्नातकोत्तर महाविद्यालय, महाराणा प्रताप शिशु शिक्षा विहार आदि दो दर्जन से अधिक शिक्षण-प्रशिक्षण और प्राविधिक संस्थाएं गोरखपुर नगर, जनपद और महराजगंज जनपद में स्थापित हैं

गोरक्षपीठ प्रबंधन से जुड़े महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की ओर से संचालित होने वाली दो दर्जन शिक्षण संस्थाएं और गुरु गोरक्षनाथ चिकित्सालय जैसे प्रकल्प भी इस ताने बाने को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते –नेपाल में माओवादियों की तरफ़ से हिन्दू राष्ट्र की मान्यता समाप्त किए जाने से पूर्व तक नेपाल के महाराजा के मुकुट और मुद्रा में भी गुरु गोरक्षनाथ का चित्र अंकित होता था.


एक मान्यता....


और गोरखपुर ही नहीं नेपाल में भी आपको ये कहने वाले बहुतेरे मिल जाएंगे कि माओवादियों का पतन इसीलिए हो गया क्योंकि उन्होंने इन प्रतीकों को हटा दिया था.


महंत अवैद्यनाथ और योगी आदित्यनाथ का नाता उत्तराखंड पिछले 10 वर्षों से मैं उत्तराखंड में रह रहा हूं।इनके जिले की करीबी था ।यहां की आबो हवा  समझने का मौका मिला ।

कैसे 28 साल का बालक गोरखधाम मंदिर आ कर मंदिरा आकर सांसद बनता है और साल दर साल अपनी  में यश की वृद्धि में और श्री वृद्धि करता चला जाता है....

महंत अवेद्यनाथ....

महंत अवेद्यनाथ का जन्म 28 मई 1921 को महंत अवेद्यनाथ जी का जन्म ग्राम काण्डी, जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में श्री राय सिंह बिष्ट के घर हुआ था। आपके बचपन का नाम श्री कृपाल सिंह बिष्ट था और कालांतर में श्री अवैद्यनाथ बनकर भारत के राजनेता तथा गुरु गोरखनाथ मन्दिर के पीठाधीश्वर थे के रूप में प्रसिद्द हुए। श्री अवैद्यनाथ जी ने हिन्दू धर्म की आध्यात्मिक साधना के साथ "सामाजिक हिन्दू" साधना को भी आगे बढाया और सामाजिक जनजागरण को अधिक महत्वपूर्ण मानकर हिन्दू धर्म के सोशल इंजीनियरिग पर बल दिया | हिन्दू धर्म में ऊंच-नीच दूर करने के लिए उन्होंने लगातार सहभोज के आयोजन किए। इसके लिए उन्होंने बनारस में संतों के साथ डोमराजा के घर जाकर भोजन किया और समाज की एकजुटता का संदेश दिया।इस कड़ी में योगी जी अभी हाल में ही वो बाबा कीनाराम की धरती क्री कुंड पर भी गये थे । अघोराचार्य बाबा कीनाराम का जन्म विक्रम संवत 1658 में भाद्र मास की अघोर चतुर्दशी कृष्ण पक्ष में हुआ था। उनकी तपोस्थली रामगढ़ में प्रत्येक वर्ष जन्मोत्सव का आयोजन होता है। 

(जिसका जिक्र मैंने ऊपर ही किया था)


बाबा कीनाराम के जन्मोत्सव में शामिल होने गुरुवार को सूबे के मुखिया और गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ का आगमन हुआ। वहीं दूसरी ओर बाबा कीनाराम अघोर पीठ के पीठाधीश्वर श्री सिद्धार्थ गौतम राम भी बाबा की जन्मस्थली पहुंचे थे। अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।(जैसा देखा) जब दोनों पीठाधीश्वर एक साथ मंच पर जैसे ही आए वैसे ही हर हर महादेव और बाबा कीनाराम और बाबा गोरखनाथ के उद्घोष से पूरा वातावरण गुंजायमान हो गया। वहीं लोगों में यह चर्चा भी शुरू हो गई कि अरसे बाद शैव संप्रदाय के दो पीठाधीश्वरों का मिलन हुआ है। 

हिंदू समाज की एकता ही उनके प्रवचन के केंद्र में होती थी। वह मूलत: इतिहास और रामचरितमानस का सहारा लेते थे। श्रीराम का शबरी, जटायु, निषादराज व गिरीजनों से व्यवहार का उदाहरण देकर दलित-गरीब लोगों को गले लगाने की प्रेरणा देते रहे।धर्म सत्ता और राजसत्ता गोरखपुर की राजनीति का केंद्र गोरखधाम मंदिर आपने 1962, 1967, 1974 व 1977 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में मानीराम सीट का प्रतिनिधित्व किया और 1970, 1989, 1991 और 1996 में गोरखपुर से लोकसभा सदस्य रहे। ३४ वर्षों तक हिन्दू महासभा और भारतीय जनता पार्टी से जेड़े रहकर हिंदुत्व को भारतीय राजनीति में गति देने वाले और सामाजिक हितों की रक्षा करने वाले श्री अवैद्यनाथ जी ने स्वयं को अवसरवाद और पदभार से स्वयं को दूर रखा ।वही योगी जीमुख्यमंत्री का पद भार लिया।

15 फरवरी 1994 को गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्य नाथ जी महाराज द्वारा मांगलिक वैदिक मंत्रोच्चारपूर्वक शिष्य योगी आदित्यनाथ जी का दीक्षाभिषेक संपन्न हुआ।महंत अवैद्यनाथ (मामा) के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ ने 1998 में सबसे कम उम्र का सांसद बनने का गौरव प्राप्त किया। योगी आदित्यनाथ ने 'हिन्दू युवा वाहिनी' का गठन किया जो हिन्दू युवाओं को हिन्दुत्वनिष्ठ बनाने के लिए प्रेरणा देते है।


अभी यहां पर रिफ्रेशर कोर्स की बात एक  इतिहास विभाग एक सेमिनार कराने जा रहा है बुध से लेकर कबीर तक की यात्रा...वाराणसी प्राचीन काल से ही जहां मोक्षदायिनी नगरी के रूप में जानी जाती थी तो मगहर को लोग इसलिए जानते थे कि ये एक अपवित्र जगह है और यहां मरने से व्यक्ति अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है.

सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास वाराणसी में पैदा हुए और लगभग पूरा जीवन उन्होंने वाराणसी यानी काशी में ही बिताया लेकिन जीवन के आख़िरी समय वो मगहर चले आए और अब से पांच सौ साल पहले वर्ष 1518 में यहीं उनकी मृत्यु हुई.कबीर स्वेच्छा से मगहर आए थे और इसी किंवदंती या अंधविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि काशी में मोक्ष मिलता है और मगहर में नरक.उत्तर प्रदेश में गोरखपुर से क़रीब तीस किमी. दूर पश्चिम में स्थित है मगहर.

मगहर नाम को लेकर भी कई किंवदंतियां मौजूद हैं. मसलन, यह भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुंबिनी, कुशीनगर जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों के दर्शन के लिए जाया करते थे.






मगहर में अब कबीर की समाधि भी है और उनकी मज़ार भी. जिस परिसर में ये दोनों इमारतें स्थित हैं उसके बाहर पूजा सामग्री की दुकान चलाने वाले राजेंद्र कुमार कहते हैं, "मगहर को चाहे जिस वजह से जाना जाता रहा हो लेकिन कबीर साहब ने उसे पवित्र बना दिया. आज दुनिया भर में इसे लोग जानते हैं और यहां आते हैं."


बस यूँ ही...







छठ


चार दिवसीय महापर्व #छठ का आज नहाय-खाय से शुभारंभ हो रहा है। व्रतियों को हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएं। आप सभी की मनोकामना भगवान भास्कर पूरी करें।सांस्कृतिक प्रसार के जरिये ही छठ का बिहार के बाहर भी प्रसार होता गया और आज यह पर्व पूर्वी भारत में बिहार समेत यूपी, झारखंड व नेपाल के तराई क्षेत्रों तक में भी बड़े धूम-धाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है|भारत में छठ सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में।


# छठपूजा_2020

॥ #तमसो_मा_ज्योतिर्गमय ॥

ये छठ जरूरी है .....

धर्म के लिए नहीं, अपनों के लिए ।
परम्परा और संस्कृति जीवंत रहे....

हम आप के लिए जो अपनी जड़ों से कट रहे है,उनके लिए

ये छठ जरूरी है -

उस परम्परा को जिन्दा रखने के लिए जो समानता की वकालत करता है।

जो बताता है की #बिनापुरोहित भी पुजा हो सकती है ।
जो सिर्फ उगते सूरज को नही डूबते सूरज को भी सलाम करता है।

ये छठ जरूरी है -

गागर निम्बू और सुथनी जैसे फलों को जिन्दा रखने के लिए ।

# सूप और #दौउरा को बनाने वालों के लिए

ये छठ जरूरी है -

उन दंभी पुरुषों के लिए

जो नारी को कमजोर समझते हैं ।

ये #छठ जरूरी है।
बेहद जरूरी है ।

लोकास्था और सुर्योपासना के 
#महापर्व छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाये

चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।आज से  महापर्व 'छठ' शुरू हो गया .... अगले चार दिन भारत"छठमाय" रहेगा ...

छठ के प्रति इस श्रद्धा को आप सिर्फ एक पर्व या सूर्योपासना नहीं कह सकते .... छठ महापर्व हम बिहारियों की सभ्यता , संस्कृति, भेदभाव विहीन पुरातन परम्परा , प्रकृति के प्रति निष्ठा, आस्था, आराध्य के प्रति समर्पण , पवित्रता एवं स्वच्छता का समागम है … एक ऐसा पर्व जो हमे हमारी मिट्टी से जोड़कर रखता है .... बिलकुल पलायनवाद का दंश झेल रहे बिहारियों को लिए अब एकमात्र छठ ही बचा है जिस बहाने न सिर्फ बिहारी बिहार जाने को लालायित रहते हैं बल्कि गर्व से कहते हैं देखो हमारे बिहार में भेदभाव विहीन एक पर्व होता है जिसमे हम सिर्फ प्रकृति को पूजते हैं और स्वछता के साथ सामाजिक समरसता को प्रगाढ़ करते हैं ,  वह  महापर्व छठ है , , बिहारी अस्मिता का सूचक है .."छठ" पर्व हमारी अलौकिक पहचान है .... एक ऐसा महापर्व जो सर्व बंधनों से तो मुक्त है परंतु विविध सात्विकताओं से युक्त है ....

अाज "नहाय खाय" के साथ चारदिवसीय छठ महापर्व अनुष्ठान की शुरुअात हो गई.... भात, चना का दाल, कद्दू का बजका, सब्जी, घी का सात्विक भोजन .... जिसमें सिर्फ शुद्धता का वास है... द्वेषरहित जिस समाज की हम कल्पना करते हैं ... उसी साकार सात्विक भोजन के साथ और प्रकृति से जुड़े कृषि उत्पादों वाले पदार्थों के साथ छठ की शुरुआत है..... जहां कोई पुजारी नहीं है , सब बस पूजक हैं... अाम और खास सबको एक सूत्र में पिरोते छठ महापर्व की अनंत शुभकामनाएं

राजा, रंक, फकीर सब बसिये एक घाट कहां !
जहां मने है छठ वहीं बसिये सब एक घाट तहाँ।


__________________________________________

Monday, September 18, 2023

समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञान से सम्बंध

 


समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञान से सम्बंध


 




विज्ञानों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -

 (i) प्राकृतिक विज्ञान, और i) सामाजिक विज्ञान। सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि को सम्मिलित किया जाता है ये सभी सामाजिक विज्ञान किसी न किसी बिन्दु पर एक दूसरे से अन्त: सम्बन्धित हैं। यहाँ इन्हीं सामाजिक विज्ञानों की समाजशास्त्र से अन्त: सम्बन्धित की ववेचना की जाएगी।


(1) समाजशास्त्र और मानवशास्त्र (Sociology And Anthropology)


माजशास्त्र और मानवशास्त्र अन्य विज्ञानों की तुलना में एक-दूसरे के अधिक निकट हैं। इन दोनों के बीच स्पष्ट अन्तर नहीं किया जा सकता है। फ्रोयबर ने समाजशास्त्र और मानवशास्त्र को जुड़वाँ बहिनें कहा है। समाजशास्त्र का मानवशास्त्र से निम्न सम्बन्ध है -


(i) भौतिक मानवशास्त्र आदिम मानव के शरीर की उत्पत्ति, विकास और उसके शारीरिक लक्षणों का अध्ययन करता है। इसके साथ ही मानवशास्त्र के अन्तर्गत प्रजातियों का गहन अध्ययन भी किया जाता है। भौतिक मानवशास्त्र के अध्ययनों से समाजशास्त्री लाभ उठाकर मानवीय अन्त:क्रियाओं और समस्याओं को समझने का प्रयास करते हैं।


(2) प्रागैतिहासिक मानवशास्त्र जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है यह मानवशास्त्र की वह शाखा है जिसमें ऐतिहासिक युग की सभ्यता, संस्कृति और प्रविधियों का अध्ययन किया जाता है। इसकी सहायता से समाजशास्त्री सांस्कृतिक विरासत और इसके आधुनिक जीवन से सम्बन्धों की व्याख्या करता है। समाजशास्त्र में आधुनिक सामाजिक ढाँचे का अध्ययन करने के लिए प्राचीन पृष्ठभूमि का सहारा लिया जाता है।


(3) सामाजिक मानवशास्त्र सामाजिक परिस्थितियों में मनुष्य के व्यवहारों का अध्ययन करता है। इसके अन्तर्गत आदिकालीन मानव के रीति-रिवाज, परिवार, विवाह, धर्म और अर्थव्यवस्था, न्याय, कानून का अध्ययन किया जाता है। इन सभी विषयों का समाजशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्र और समाजशास्त्र की विषय-सामग्री परस्पर इतनी घुली-मिली है कि उसे एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है और स्पष्टतया ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि यह विषय समाजशास्त्र का है या सामाजिक मानवशास्त्र का।


मानवशास्त्र आदिम समाजों की सरल व्यवस्था का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र इसी सरल व्यवस्था के आधार पर आधुनिक समाज की जटिल व्यवस्था का अध्ययन करता है, इसलिए क्रोबर (Kroeber) ने इन्हें जुड़वाँ बहिनें (Twin Sister) कहकर सम्बोधित किया है।


 क्रोबर ने तो आगे स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "सिद्धान्ततः समाजशास्त्र और मानवशास्त्र को अलग करना कठिन है।" 


दोनों में अन्तर - समाजशास्त्र और मानवशास्त्र एक-दूसरे से घनिष्ट रूप से सम्बन्धित होते हुए


इन दोनों में निम्न अन्तर है। समाजशास्त्र और मानवशास्त्र में मौलिक अन्तर यह है कि मानवशास्त्र आदिम समुदायों या जनजातियों का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र आधुनिक समाज का अध्ययन करता है


मानवशास्त्र में आदिम मानव के राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक जीवन का समग्र अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र समाज का अध्ययन है।


 समाज अत्यधिक विशाल और जटिल है, अतः एक विज्ञान द्वारा इसका अध्ययन सम्भव नहीं है। इसीलिये इसका अध्ययन अनेक सामाजिक विज्ञानों द्वारा किया जाता है। समाजशास्त्र आधुनिक समाज के ढाँचे, संगठन और मानव की क्रियाओं का अध्ययन करता है।


i) दोनों विज्ञानों की अध्ययन पद्धतियों में भी अन्तर है। मानवशास्त्र एक प्राकृतिक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है, अतः उसकी विधियाँ भी प्राकृतिक विज्ञानों से मिलती-जुलती हैं।


 समाजशास्त्र का विकास सामाजिक विज्ञान के रूप में हुआ है, अतः उसकी पद्धतियाँ भी सामाजिक हैं। समाजशास्त्र के अन्तर्गत सामाजिक सर्वेक्षण-पद्धति, सांख्यिकीय-पद्धति, साक्षात्कार-पद्धति, प्रश्नावली और अनुसूची पद्धति का प्रयोग किया जाता है। 


मानवशास्त्र के अन्तर्गत सहभागिक अवलोकन (Participant Observation) आवश्यक है। इसके अभाव में मानवशास्त्र का अध्ययन पूर्ण नहीं हो सकता है।


मानवशास्त्र में प्रजातियों के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है, जबकि समाजशास्त्र में प्रजातियों का अध्ययन सामाजिक सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभाव के दृष्टिकोण से किया जाता है।


समाजशास्त्र का सम्बन्ध सामाजिक नियोजन (Social Planning) से भी है, अर्थात् समाजशास्त्र इस ओर संकेत करता है कि यह होना चाहिए। सामाजिक मानवशास्त्र इस प्रकार का कोई सुझाव नहीं देता है।


(2) समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र (Sociology and Economics)

माजशास्त्र और अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में अनुमान तो इसी से लगाया जा सकता है कि समाजशास्त्र का शैशवकाल अर्थशास्त्रियों की गोद और संरक्षण में व्यतीत हुआ है। आज भी कुछ विश्वविद्यालय हैं जहाँ दोनों विषय एक ही विभाग के अन्तर्गत पढ़ाये जाते हैं। समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में निम्न सम्बन्ध हैं-


अर्थशास्त्र आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। आर्थिक और सामाजिक दोनों परिस्थितियाँ एक-दूसरे से अन्तःसम्बन्धित हैं। उदाहरण के लिये माँग का नियम सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। मूल्य का निर्धारण भी सामाजिक माँग या सामाजिक परिस्थितियों द्वारा होता है।


(ii) सामाजिक दशाएँ और आर्थिक परिस्थितियाँ एक-दूसरे से अन्तःसम्बन्धित हैं।


(iii) समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों पर आर्थिक कारकों के प्रभाव का अध्ययन करता है। सामाजिक संगठन का रूप क्या होगा? इसका निर्धारण भी आर्थिक परिस्थितियाँ ही करती है। 


समाज में शान्ति, न्याय, नैतिकता, सद्भावना और धर्म का क्या रूप होगा इसका निर्धारण आर्थिक दशाएँ करती हैं।


समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों विज्ञान एक ही प्रकार की समस्याओं अध्ययन करते हैं। जैसे श्रम-समस्याएँ और श्रम-कल्याण, औद्योगीकरण और इसके सामाजिक व आर्थिक प्रभाव, बेकारी, निर्धनता, ग्रामीण समस्याएँ और उनका समाधान आदि। इन विषयों के सम्बन्ध में ऐसा कहना असम्भव है कि इन्हें किस विज्ञान में सम्मिलित किया जाये।


समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों विकसित विज्ञान हैं, फिर भी इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। अर्थशास्त्र जीवन की आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन करता है, जबकि समाजशास्त्र जीवन की सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। 


(4) समाजशास्त्र और इतिहास (Sociology and History)


समाजशास्त्र और इतिहास का भी घनिष्ट सम्बन्ध है इतिहास बीती हुई घटना।


 


इतिहास और समाजशास्त्र में सम्बन्ध

(1) इतिहास अतीत की सामाजिक घटनाओं का क्रमबद्ध और व्यवस्थित अध्ययन है ।


 समाजशास्त्र सामाजिक घटनाओं का क्रमबद्ध अध्ययन करता है, किन्तु यह अतीत की पृष्ठभूमि में वर्तमान समा का अध्ययन करता है, इसीलिए इतिहास को अतीत का समाजशाख ओर समाजशास्तर को समाझ का वर्तमान इतिहास' कहा जाता है।


(ii) इतिहास समाज की अतीतकालीन घटनाओं के कार्य कारण सम्बन्धी की व्याख्या करता है समाजशास्त वर्तमान सामाजिक घटनाओं की व्याख्या अतीतकाल की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में करता है


. (i) इतिहास  राजाओं और शासकों का ही अध्ययन माना जाता है, यह सामाजिक घटनाओं की आलोचनात्मक व्याख्या भी करता है। सामाजिक घटनाएँ समाजशास्त्र से सम्बन्धित है। इतिहासकार अब मात्र 'क्य है' काही वर्णन नहीं करता कैसे हुआ, 'कौन-सी परिस्थितियों थो जिनके कारण यह हुआ' कभी अध्ययन करता है और इन परिस्थितियों और घटनाओं का समाजशास्त्र से चनिष्ठ सम्बन्ध है।


(iv) इतिहासकार प्रत्येक युग के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन का अध्ययन करत है। समाजशास्त्री इतिहास के अध्ययन द्वारा उस युग के सामाजिक जीवन को समझने का प्रयास करता है।


(५) इतिहास के कालक्रम के अनुसार सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र भी सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन करता है। (vi) इतिहास में युद्ध और क्रान्ति का वर्णन किया जाता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत उन प्रक्रियाओं केव वर्णन किया जाता है जिनसे युद्ध और क्रान्ति को प्रोत्साहन मिलता है। युद्ध और क्रान्ति के सामाजि कारणों और परिणामों का भी समाजशास्त्र में पता लगाया जाता है।


(vi) समाजशास्त्र ऐतिहासिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है। इसका उद्देश्य मात्र ऐतिहासिक घटनार्ज की खोज करना है इन ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर समाजशास्त्र वर्तमान सामाजिक बटना का कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करता है और भविष्य की ओर संकेत देता है। यह तब तक सम्भ नहीं जब तक कि उसे इतिहास का ज्ञान न हो।


समाजशास्त्र और इतिहास में अन्तर

(6) समाजशास्त्र और इतिहास में मौलिक अन्तर यह है कि समाजशास्त्र सामान्य विज्ञान है, जय इतिहास विशेष विज्ञान है। सम्बन्ध समाज


(ii) इतिहास का सम्बन्ध मात्र बीती हुई घटनाओं से है, जबकि समाजशास्त्र का वर्तमा घटनाओं से है।


(i) समाजशास्त्र और इतिहास के दृष्टिकोण में भी अन्तर है। इतिहास अतीत की मात्र प्रमुख घटना काही अध्ययन करता, जबकि समाजशास्त्र सामान्य घटनाओं का अध्ययन करता है। इस प्रक इतिहास की अपेक्षा समाजशास्त्र का दृष्टिकोण व्यापक और विशाल है।


(iv) जहाँ तक विज्ञान की निश्चितता और प्रामाणिकता का प्रश्न है, इतिहास की अपेक्षा समाजश अधिक प्रामाणिक है। इसका कारण यह है कि इतिहास की घटनाओं की परीक्षा और पुनर्पगेक्षा की जा सकती है, किन्तु समाजशास्त्र के अन्तर्गत ऐसा सम्भव है। प्राचीनता की दृष्टि से भी इतिहास और समाजशास्त्र में अन्तर है। समाजशास्त्र की तुलना में इतिहास अधिक प्राचीन है।


(i) समाजशास्त्र आधुनिक समाज का इतिहास है, जबकि इतिहास अतीत का समाजशास्त्र है।


(5) समाजशास्त्र और भूगोल


 (Sociology and Geography)

भूगोल और समाजशास्त्र का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। भूगोल भौगोलिक दशाओं से सम्बन्धित है और समाजशास्त्र के अन्तर्गत इन भौगोलिक दशाओं का समाज में क्या स्थान है ? इसका अध्ययन किया जाता है।भूगोल और समाजशास्त्र में सम्बन्ध भूगोल में प्राकृतिक पर्याव का अध्ययन किया जाता है जैसे-जलवायु, वर्षा, तापक्रम, प्राकृतिक दशाएँ आदि। 



समाजशास्त्र के अन्तर्गत इन भौगोलिक दशाओं का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसका अध्ययन किया जाता है। इसके साथ ही भौगोलिक परिस्थितियों के बदलने से सामाजिक जीवन किस प्रकार प्रभावित होता है? भौगोलिक परिस्थितियों का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इसका अध्ययन करने के लिए समाजशास्त्रियों के एक सम्प्रदाय का जन्म हुआ, जिसे भौगोलिक सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।


भूगोल राज्य का भी अध्ययन करता है। इसे राजनीतिक भूगोल कहा जाता है, जिसमें विभिन्न देशों की बनावट और पृथ्वी के धरातल का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र इसका अध्ययन करता है कि पृथ्वी की बनावट के अनुसार व्यक्तियों की कार्यकुशलता का निर्धारण होता है। साथ ही इसका सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?


(i) भूगोल की एक शाखा 'व्यापारिक भूगोल' की है जिसके अन्तर्गत पैदावार का जलवायु के साथ अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र इस पैदावार के अनुसार रहन-सहन और सामाजिक रीतियों, प्रथाओं, परम्पराओं की विवेचना करता है। 


(iv) मानव भूगोल मनुष्य का अध्ययन करता है और मनुष्यों की मिश्रित प्रजातियों का कारण भौगोलिक परिस्थितियों को बताया है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत प्रजाति के सामाजिक पक्ष की विवेचना की जाती है।


(v) भूगोल जलवायु का अध्ययन करता है। समाजशास्त्र इसका अध्ययन करता है कि जलवायु का सामाजिक जीवन से क्या सम्बन्ध है? जलवायु व्यक्ति की र्यकुशलता और प्रकृति का निर्धारण किस प्रकार करती है? ठण्डक में सम्पत्ति से सम्बन्धित अपराध और गर्मी में व्यक्ति से सम्बन्धित अपराध क्यों नहीं होते हैं।


(vi) समाजशास्त्र के अन्तर्गत सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन किया जाता है। सभ्यता और संस्कृति सामाजिक जीवन से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। सभ्यता और संस्कृति के उत्थान और पतन में भौगोलिक दशाओं का योगदान रहा है।समाजशास्त्र और भूगोल में अन्तर समाजशास्त्र सामाजिक विज्ञान है और सामान्य सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है। भूगोल मात्र भौगोलिक दशाओं का अध्ययन करता है, इसलिए यह विशेष सामाजिक विज्ञान है। समाजशास्त्र का अध्ययन-क्षेत्र विस्तृत है, जबकि भूगोल का अध्ययन-क्षेत्र सीमित है।


i) दोनों की अध्ययन-वस्तु में भी अन्तर है। समाजशास्त्र की अध्ययन वस्तु सामाजिक सम्बन्ध हैं, जबकि भूगोल की अध्ययन-वस्तु भौगोलिक दशाएँ हैं। ) जनांकिकी में जनसंख्या की प्रकृति और स्वरूप का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या की इस प्रकृति और स्वरूप का अध्ययन करने के लिये समाज की प्रकृति और स्वरूप का ज्ञान अनिवार्य है; क्योंकि ज्ञान की यह शाखा सामाजिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में ही जनसंख्या का अध्ययन करती है।


समाज विज्ञान की परिभाषा करते हुए मैकाइवर और पेज ने इसे सामाजिक सम्बन्धों का विज्ञान कहा है। समाज सामाजिक सम्बन्धों के जाल को कहा जाता है। सामाजिक सम्बन्धों के निर्माण के लिए व्यक्ति का होना अनिवार्य है। जनांकिकी में इन्ही व्यक्तियों का अध्ययन किया जाता है।


4) जनांकिकी में जन्मदर, मृत्युदर और इनके कारकों का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या के इन कारकों का सीधा सम्बन्ध समाज की परिस्थितियों से है। उदाहरण के लिए, किसी समाज में जन्मदर अधिक है। जन्मदर अधिक होने के अनेक कारणों में बाल-विवाह और संयुक्त परिवार भी कारक हैं। बाल-विवाह और संयुक्त परिवार सार्वदेशिक और सार्वकालिक न होकर समाज की परिस्थितियों के उत्पादन मात्र होते हैं। इस प्रकार जनांकिकी और समाज विज्ञान परस्पर अन्तःसम्बन्धित हैं। 5) जनांकिकी में मृत्यु का भी अध्ययन किया जाता है, मृत्युदर के अनेक कारक हो सकते हैं। इन सभी कारकों का समाज की परिस्थितियों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।जनांकिकी में जनस्वास्थ्य का अध्ययन किया जाता है, जनस्वास्थ्य का यह अध्ययन समाज विज्ञान से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। इसका कारण यह है कि जनस्वास्थ्य की योजना बनाते समय समाज की परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है


(7) जनांकिकी में जनगणना का अध्ययन किया जाता है। जनगणना में जनसंख्या की प्रकृति और उसके विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया जाता है। एक देश की जनसंख्या का विश्लेषण दूसरे देश से भिन्न होता है। इस भिन्नता का कारण यह है कि प्रत्यक्ष देश की सामाजिक परिस्थितियों में अन्तर होता है, जिसके आधार पर जनसंख्या का विश्लेषण किया जाता है।



 सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन समाज विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार समाज विज्ञान और जनांकिकी परस्पर अन्त:सम्बन्धित हैं 


जनांकिकी में जनसंख्या नीति का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत जनसंख्या के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचारों का अध्ययन जाता है। एक देश के विद्वानों के विचार दूसरे देश के विद्वानों के विचारों से पृथक् होते हैं। ये विद्वान जनसंख्या नीति का प्रतिपादन करते हैं इस नीति का प्रतिपादन करते समय देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है। अत: स्पष्ट होता है कि जनांकिकी और समाज विज्ञान अन्तःसम्बन्धित हैं।


(9) जनांकिकी में खाद्य सामग्री का अध्ययन किया जाता है और ऐसा विश्वास किया जाता है कि खाद्य सामग्री और जनांकिकी में सन्तुलन अनिवार्य है खाद्य सामग्री समाज की परिस्थितियों पर आधारित होती है। सामाजिक वातावरण ही खाद्य सामग्री का जनक है। प्रत्येक समाज की परिस्थितियों में भिन्नता पायी जाती है। यह भिन्नता खाद्य सामग्री का निर्धारण करती है। ये सभी तत्व ऐसे हैं जिनका समान रूप से जनांकिकी और समाज विज्ञान में अध्ययन किया जाता है।


(10) इसी प्रकार परिवार नियोजन (Family Planning), आदि ऐसे विषय है जिनका जनांकिकी और समाज विज्ञान दोनों अध्ययन करते हैं।दोनों में अन्तर समाज विज्ञान और जनांकिकी में अनेक समानताएं हैं। इन समानताओं का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। इन समानताओं के अतिरिक्त इन दोनों विज्ञानों में अनेक भिन्नताएँ भी है। इन भिन्नताओं को मुख्य रूप से निम्न भागों में बाँटा जा सकता है 


(6) समाजशास्त्र और जीवशास्त्र (Sociology and Biology)



जीवशास्त्र वह विज्ञान है जो जीवों की उत्पत्ति, विकास और संगठन का अध्ययन करता है। मनुष्य भी पाणी है, जिसका अध्ययन जीवशास्त्र करता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इसी की व्याख्या जीवशास्त्र और समाजशास्त्र के अन्तर्गत की जायेगी। समाजशास्त्र और जीवशास्त्र में सम्बन्ध


(6) जीवशास्त्र प्राणियों का अध्ययन है। प्राणियों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ और महत्वपूर्ण प्राणी है। जीवशास्त्र मनुष्य के उद्भव, विकास और परिवर्तन का अध्ययन करता है। मनुष्य मात्र प्राणी ही नहीं, वह सामाजिक भी है। 'वह सामाजिक क्यों है ?' इसका अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार समाजशास्त्र 'समाज' का अध्ययन है और जीवशास्त्र 'व्यक्ति' का अध्ययन है। व्यक्ति और समाज परस्पर अन्तःसम्बन्धित हैं, अत: दोनों विज्ञान भी परस्पर अन्तःसम्बन्धित हैं।


(ii) डार्विन ने 'सावयवी उद्विकास के सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया था। उसने इस सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध किया था कि जीवों का उद्भव और विकास किस प्रकार हुआ? इसी सिद्धान्त के आधार पर समाजशास्त्रियों ने 'सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त' का प्रतिमान किया था ।


(iii) इसी प्रकार 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' और 'योग्यतम की जीत' के सिद्धान्त सामाजिक जीवन | पर भी लागू होते हैं। जिस प्रकार उपर्युक्त सिद्धान्त जीवों पर प्रभावी होते हैं, उसी प्रकार समाज पर भी प्रभावी होते है।


(iv) वंशानुक्रमण का अध्ययन जीवशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। समाजशास्त्र के अन्तर्गत भी वंशानुक्रमण का अध्ययन किया जाता है।


(v) समाजशास्त्र के नियम जीवशास्त्र को प्रभावित करते हैं और जीवशास्त्र के नियम समाजशास्त्र के प्रभावित करते है। उदाहरण के लिये, विवाह की आयु और अन्तर्विवाह शारीरिक विकास को प्रभावित करते है। सामाजिक जीवन के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए दोनों विज्ञानों का ज्ञान आवश्यक है।


(vi) प्रजाति का अध्ययन जीवशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है। समाजशास्त्र भी प्रजाति का अध्ययन करता है।जीवशास्त्र और समाजशास्त्र में अन्तर


(i) जीवशास्त्र विशेष विज्ञान है, जबकि समाजशास्त्र सामान्य सामाजिक विज्ञान है।


(i) समाजशास्त्र का क्षेत्र व्यापक है, जबकि जीवशास्त्र का क्षेत्र सीमित है।


(ii) समाजशास्त्र समाज का अध्ययन सामाजिक सम्बन्ध, संगठन और सामाजिक क्रियाओं के रूप में करता है। जीवशास्त्र मनुष्य का अध्ययन प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से करता है। (iv) जीवशास्त्रीय सिद्धान्त समाजशास्त्र के सम्बन्ध में प्रभावी नहीं होते हैं। मनुष्य बुद्धिजीवी और क्रियाशीलप्राणी है। वह परिस्थितियों का दास नहीं है। अतः प्राकृतिक प्रवरण का नियम (Law of Natur3 Selection) समाज पर प्रभावी नहीं होता।


(7) समाजशास्त्र और जनांकिकी (Sociology and Demography)

समाज विज्ञान और जनांकिकी में सम्बन्ध


(1) जनांकिकी जनसंख्या का अध्ययन है और समाज विज्ञान समाज का अध्ययन है। समाज और जनसंख्या एक दूसरे से अन्त सम्बन्धित हैं। जनसंख्या का वास्तविक अध्ययन तब तक पूरा नहीं हो सकता है। जब तक कि समाज का पूर्ण ज्ञान न ही। इस प्रकार जनांकिकी और समाज विज्ञान परस्पर सम्बन्धित है


इन दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि समाज विज्ञान समाज का अध्ययन है, जबकि जनांकिकी में जनसंख्या का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या और समाज दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। (2) समाज एक विशाल धारणा है, जबकि जनसंख्या एक संकुचित धारणा है। जनसंख्या समाज का छोटा सा भाग है।


(3) समाज विज्ञान सामान्य सामाजिक विज्ञान (General Social Science) है, जिसके अन्तर्गत समाज की सामान्य विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। जनांकिकी विशिष्ट सामाजिक विज्ञान (Special Social Science) है, जिसमें समाज के एक विशेष पहलू का ही अध्ययन किया जाता है। (4) समाज विज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है, जबकि जनांकिकी का क्षेत्र अत्यन्त सीमित है।


(5) समाज विज्ञान के अन्तर्गत सभी प्रकार के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है, जबकि जनांकिकी के अन्तर्गत मात्र जनसंख्या सम्बन्धी सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।


(6) समाज विज्ञान क्या है' का अध्ययन है, जबकि जनांकिकी में क्या होना चाहिए' का अध्ययन होता है। इसका तात्पर्य यह है कि समाज विज्ञान एक आदर्श विज्ञान नहीं है, जबकि जनांकिकी आदर्श विज्ञान है। आदर्श विज्ञान होने के नाते जनांकिकी के अन्तर्गत समाज के भविष्य की योजनाओं को सम्मिलित किया जाता है। समाज विज्ञान में इस प्रकार की किसी भी योजना को सम्मिलित नहीं किया जाता है।


समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान (Sociology and Social Psychology)

सामाजिक मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन है, समाजशास्त्र सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन है। इस कारण दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है।


समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान में सम्बन्ध


(6 मनोविज्ञान मानव-मस्तिष्क की अन्त:क्रिया का विज्ञान है। थाउलस (Thouless) ने लिखा है कि मनोविज्ञान मानव अनुभव और व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है। 



समाजशास्त्र सामाजिक व्यवहार का अध्ययन है। समाजशास्त्र और मनोविज्ञान एक ही वस्तु का अध्ययन करते हैं। दोनों के बीच मात्र दृष्टिकोण का अन्तर है।


(ii) सामाजिक मनोविज्ञान केवल उन व्यवहारों का अध्ययन करता है जिनकी उत्पत्ति किन्हीं विशेष परिस्थितियों में हुई हैं। समाजशास्त्र सामाजिक व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करता है।


(HI) गिन्सबर्ग (Ginsberg) का विचार है कि समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान की सीमाएँ एक दूसरे से इतनी मिली हुई हैं कि इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है। मूल प्रवृत्तियों, इच्छाओं और प्रेरणाओं का अध्ययन मनोविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। जब तक इन्हें भली- भाँति नहीं समझ लिया जाता, सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है, जो कि समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र है।सामाजिक मनोविज्ञान समाज में मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन है। समाजशास्त्र मानव व्यवहार | के बाह्य रुप का अध्ययन करता है जबकि सामाजिक मनोविज्ञान मानव-व्यवहार का मानसिक आधार पर अध्ययन करता है। इस प्रकार समाजशास्त्र मानव-व्यवहार का अध्ययन है और सामाजिक मनोविज्ञान व्यवहारों के मानसिक तत्वों का अध्ययन है।समाज मनोविज्ञान का समाजशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसका समर्थन करते हुए डॉ.मोटवाना ने लिखा है कि, "सामाजिक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच की एक कड़ी है।"



समाजशास्त्र का क्षेत्र

 समाजशास्त्र का क्षेत्र 

(scope of sociology) 


समाजशास्त्र परिवर्तनशील समाज का अध्ययन करता है, इसलिए समाजशास्त्र के अध्ययन की न तो कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है और न ही इसके अध्ययन क्षेत्र को बिल्कुल स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जा सकता है |


क्षेत्र का तात्पर्य यह है कि वह विज्ञान कहां तक फैला हुआ है अन्य शब्दों में क्षेत्र का अर्थ उन संभावित सीमाओं से है जिनके अंतर्गत किसी विषय या विज्ञान का अध्ययन किया जा सकता है समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के संबंध में विद्वानों के मतों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है :


1- स्वरूपआत्मक संप्रदाय (Formal School)


2- समन्वयआत्मक संप्रदाय(Synthetic School)



स्वरूपआत्मक संप्रदाय


( Formal School)

इस संप्रदाय के अनुसार समाजशास्त्र एक विशेष विज्ञान है इस संप्रदाय के प्रवर्तक जर्मन समाजशास्त्री जॉर्ज सिमेल हैं इस संप्रदाय से संबंधित अन्य विद्वानों में वीर कांत ,वानवीज, मैक्स वेबर तथा टानीज आदि प्रमुख हैं इस विचारधारा से संबंधित समाजशास्त्रियों की मानता है कि अन्य विज्ञानों जैसी राजनीतिशास्त्र, भूगोल, अर्थशास्त्र, इतिहास ,भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि के समान समाजशास्त्र भी एक स्वतंत्र एवं विशेष विज्ञान है जैसे प्रत्येक विज्ञान की अपनी कोई प्रमुख समस्या या सामग्री होती है जिसका अध्ययन उसी शास्त्र के अंतर्गत किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र के अंतर्गत अध्ययन की जाने वाली भी कोई मुख्य सामग्री या समस्या होना होनी चाहिए ऐसा होने पर ही समाजशास्त्र एक विशिष्ट एवं स्वतंत्र विज्ञान बन सकेगा और इसका क्षेत्र निश्चित हो सकेगा इस संप्रदाय के मानने वालों का कहना है कि यदि समाजशास्त्र की संपूर्ण समाज का एक सामान्य अध्ययन बनाने का प्रयास किया गया तो वैज्ञानिक आधार पर ऐसाकरना संभव नहीं होगा ऐसी दशा में समाजशास्त्र एक खिचड़ी शास्त्र बन जाएगा अतः समाजशास्त्र को एक विशिष्ट विज्ञान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसके अंतर्गत सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों का अध्ययन नहीं करके इन संबंधों के विशिष्ट स्वरूपों का अध्ययन किया जाए सामाजिक संबंधों के सस्वरूआत्मक पक्ष पर जोर देने के कारण ही इस संप्रदाय को स्वरूप आत्मक संप्रदाय कहा जाता है।


स्वरूप आत्मक संप्रदाय की आलोचना


1- स्वरूप आत्मक संप्रदाय से संबंधित विद्वानों का यह कहना गलत है कि सामाजिक संबंधों के स्वरूप का अध्ययन किसी अन्य विज्ञान के द्वारा नहीं किया जा जाता, अतः समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान के रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए |


2-इस संप्रदाय के समर्थकों ने स्वरूप तथा अंतर्वस्तु में भेद किया है और इन्हें एक दूसरे से पृथक माना है, लेकिन सामाजिक संबंधों के स्वरूप तथा  अंतर्वस्तु को एक दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है|


3-इस संप्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से पृथक एवं स्वतंत्र और परिशुद्ध विज्ञान बनाना चाहते हैं, परंतु ऐसा होना संभव नहीं है| 4-इस संप्रदाय के समर्थक समाजशास्त्र को एक नवीन विज्ञान मानते हुए इसके अध्ययन क्षेत्र को सीमित रखने पर जोर देते हैं |उनके अनुसार समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र सामाजिक संबंधों के कुछ विशिष्ट स्वरूपों तक  ही सीमित है, परंतु उनकी इस प्रकार की मानता ठीक नहीं है |

5-इस संप्रदाय के समर्थकों ने सामाजिकरण के स्वरूपों और सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में कोई अंतर नहीं किया है तथा दोनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया है ,जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है | सामाजिक संबंधों के स्वरूपों में केवल सामाजिकरण के ही नहीं बल्कि असामाजिकरण के स्वरूप भी मौजूद हैं |

स्पष्ट है कि इस संप्रदाय की  मान्यताएं सही नहीं है इसके समर्थक समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को ठीक से स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं|


Saturday, August 26, 2023

research paper


वैश्वीकरण युग में 

डॉ अंबेडकर की प्रासंगिकता



सत्यमित्र सिंह

राजकीय महाविद्यालय सितारगंज

उद्धम सिंह नगर

उत्तराखंड                                    

शोध सार
डॉ भीमराव अंबेडकर को आधुनिक भारत का निर्माता व  दलित  के मसीहा के रुप में जाना जाता है ।इनके दलित की श्रेणी में महिला कामगार व सामाजिक आर्थिक रुप से पिछड़े लोग आते हैं । डॉक्टर अंबेडकर ने अपने जीवन में हिंदू सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विचार प्रस्तुत किए । इन्होंने आजीवन समाज के शोषित श्रमिक व महिला वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य किया तथा दलित वर्ग पर होने वाले अन्याय का ही विरोध नहीं किया अपितु उनमें आत्म-गौरव,स्वावलम्बन,आत्मविश्वास, आत्म सुधार तथा आत्म विश्लेषण करने की शक्ति प्रदान की । दलित उद्धार के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास किसी भी दृष्टिकोण से आधुनिक भारत में बहुत अहम हैं। इनका मिशन स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के आधार पर  आधुनिक भारत का निर्माण करना था ।   


मुख्य शब्द- 

श्रम, सामाजिक व्यवस्था, धर्म दलित,शिक्षा


विश्लेषण

  

आर्थिक, वित्तीय और प्रशासनिक योगदान
1.भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित शोध ग्रंथ रूपये की समस्या-उसका उदभव तथा उपाय और भारतीय चलन व बैकिंग का इतिहास, ग्रन्थों और हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष उनकी साक्ष्य के आधार पर 1935 से हुई।
इनके शोध ग्रंथ 'ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास' के आधार पर देश में वित्त आयोग की स्थापना हुई।कृषि में सहकारी खेती के द्वारा पैदावार बढाना, सतत विद्युत और जल आपूर्ति करने का उपाय बताया।औद्योगिक विकास, जलसंचय, सिंचाई, श्रमिक और कृषक की उत्पादकता और आय बढाना, सामूहिक तथा सहकारिता से प्रगत खेती करना, जमीन के राज्य स्वामित्व तथा राष्ट्रीयकरण से सर्वप्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी गणराज्य की स्थापना करना।सन 1945 में उन्होंने महानदी का प्रबंधन की बहुउददे्शीय उपयुक्तता को परख कर देश के लिये जलनीति तथा औद्योगिकरण की बहुउद्देशीय आर्थिक नीतियां जैसे नदी एवं नालों को जोड़ना, हीराकुण्ड बांध, दामोदर घाटी बांध, सोन नदी घाटी परियोजना, राष्ट्रीय जलमार्ग, केन्द्रीय जल एवं विद्युत प्राधिकरण बनाने के मार्ग प्रशस्त किये। सन 1944 में प्रस्तावित केन्द्रिय जल मार्ग तथा सिंचाई आयोग के प्रस्ताव को 4 अप्रैल 1945 को वाइसराय द्वारा अनुमोदित किया गया तथा बड़े बांधोंवाली तकनीकों को भारत में लागू करने हेतु प्रस्तावित किया।उन्होंने भारत के विकास हेतु मजबूत तकनीकी संगठन का नेटवर्क ढांचा प्रस्तुत किया।उन्होंने जल प्रबंधन तथा विकास और नैसर्गिक संसाधनों को देश की सेवा में सार्थक रुप से प्रयुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया।


आर्थिक समाजिक व राजनीतिक में एक वोट एकमत…..
25 नवंबर 1949 को कहा, " 26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे। परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे कि एक आदमी एक वोट होता है और एक वोट का एक ही मूल्य होता है । अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का ये जीवन बिताते रहेंगे। कह तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनो तक हम उसे नकारते रहे तो हम ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में डाल कर ही रहेंगे । जिसनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये ।वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे। "
उधोग व भूमि राष्ट्रीकरण
" समाजवादी के रुप में इनकी जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके । उस नजरिए से मै आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । इसके लिये उघोग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा । जबतक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मै नहीं समझता , कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी । "

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को अम्बेडकर द्वारा हिल्टन यंग कमीशन (भारतीय मुद्रा और वित्त पर रॉयल कमीशन के रूप में भी जाना जाता है) में दी गई दिशानिर्देशों के अनुसार संकल्पित किया गया था, द प्रॉब्लम ऑफ द रुपया - इट ऑरिजन एंड इट सॉल्यूशन।अम्बेडकर यह भी जानते थे कि रुपया की समस्या अंततः घरेलू मुद्रास्फीति की समस्या से जुड़ी हुई है। 

राज्यो का बटवारा
अंबेडकर अपनी किताब , ' स्टेट्स एंड माइनरटिज " में राज्यो के विकास का खाक भी खिचते नजर आते है । जिस यूपी को लेकर ाज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये । वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये अंबेडकर यूपी को तीन हिस्से में करने की वकालत आजादी से पहले ही करते है ।
किसानों की समस्या- अपनी किताब ' स्माल होल्डिग्स इन इंडिया " में किसानो के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है । अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानो की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है । जबकि आज जब यूपी में किसानो के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है । और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है लेकिन ये होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं पाती ।1927 का महाद सत्याग्रह अम्बेडकर के राजनीतिक विचार और कार्रवाई में परिभाषित क्षणों में से एक था।  महाराष्ट्र में महाद के छोटे शहर में आयोजित, यह सत्याग्रह गांधी के दांडी मार्च से तीन साल पहले आयोजित किया गया था। जबकि नमक गांधी के अभियान के केंद्र में था, पेयजल अम्बेडकर के क्रूसेड के केंद्र में था।
महाद में चावदार झील से पानी पीने के लिए दलितों के एक समूह की अगुआई करके, अम्बेडकर ने दलितों के अधिकार को सार्वजनिक जल स्रोतों से पानी लेने का अधिकार नहीं दिया, उन्होंने दलित मुक्ति के बीज बोए। अपने प्रसिद्ध उद्धरण में, उन्होंने कहा,"हम चावदार टैंक नहीं जा रहे हैं ताकि वह केवल पानी पी सके।  हम टैंक पर जा रहे हैं ताकि हम यह भी कह सकें कि हम भी दूसरों की तरह इंसान हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि समानता के मानदंड को स्थापित करने के लिए इस बैठक को बुलाया गया है। "
हिन्दु कोड विल -27 सितंबर 1951 को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा , " बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया थ। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये । पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है । आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है । "
पँचायत स्तर पर चुनाव विरोध

 आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे । क्योकि उनका साफ मानना था कि चुनाव जाति में सिमटेंगे । जाति राजनीति को चलायेगी । और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी ।अकबर इलाहाबादी के शब्दों में….
"खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो"
हर व्यक्ति जो मिल के सिद्धांत कि 'एक देश दूसरे देश पर शासन नहीं कर सकता' को दोहराता  है उसे ये भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन नहीं कर सकता। इतिहास बताता है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है, वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है, जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो।
धर्म मनुष्य के लिए हैं-‘तुम्हारी मुक्ति का मार्ग न तो धर्मशास्त्र हैं, न ही मंदिर. तुम्हारा वास्तविक उद्धार उच्च शिक्षा, ऐसे रोजगार जो तुम्हें उद्यमशील बनाएं, श्रेष्ठ आचरण एवं नैतिकता में निहित है. इसलिए तीर्थयात्रा, व्रत–पूजा, ध्यान–आराधन, आडंबरों और कर्मकांडों में अपना बहुमूल्य समय व्यर्थ मत जाने दो. धर्मग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञाहुति देने तथा मंदिरों में माथा टेकने से तुम्हारी दासता दूर नही होगी. न गले में पड़ी तुलसी–माल तुम्हारे लिए विपन्नता से मुक्ति का सुख–संदेश लेकर आएगी. और काल्पनिक देवी–देवताओं की मूर्तियों के आगे नाक रगड़ने से भुखमरी, दुख–दैन्य एवं दासता से भी तुम्हारा पीछा छूटने वाला नहीं है. इसलिए अपने पुरखों की देखा–देखी चिथड़े मत लपेटो. दड़बे जैसे घरों में मत रहो. मत इलाज के अभाव में तड़फ–तड़फ कर जान गंवाओ. भाग्य और दैव–भरोसे रहने की आदत से बाज आओ. तुम्हारे अलावा कोई तुम्हारा उद्धारक नहीं है. खुद तुम्हें अपना उद्धारक बनना है. धर्म मनुष्य के लिए है. मनुष्य धर्म के लिए नही है. जो धर्म तुम्हें मनुष्य मानने से इन्कार करता है, वह अधर्म है. धर्म के नाम पर कलंक है. जो ऊंच–नीच की व्यवस्था का समर्थन करे, आदमी–आदमी के बीच भेदभाव को बढ़ावा दे, वह धर्म हो ही नहीं सकता. असल में वह तुम्हें गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है।

1942 से 1946 तक वाइसराय की परिषद में श्रम के सदस्य के रूप में, डॉ अम्बेडकर कई श्रम सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। नवंबर 1 9 42 में नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7 वें सत्र में उन्होंने कामकाजी घंटों को 12 घंटे से 8 घंटे तक बदल दिया।
उन्होंने महंगाई भत्ता, छुट्टी लाभ, कर्मचारी बीमा, चिकित्सा छुट्टी, बराबर काम के लिए समान वेतन, न्यूनतम मजदूरी और वेतनमान के आवधिक संशोधन जैसे श्रमिकों के लिए कई उपाय भी पेश किए। उन्होंने ट्रेड यूनियनों को भी मजबूत किया और पूरे भारत में रोजगार आदान-प्रदान की स्थापना की।महिला संघर्ष के इतिहास की 20वीं सदी में सबसे बडी विजय थी। हिंदू विवाह अधिनियम के माध्‍यम से डा. आंबेडकर भारत में महिलाओं के सबसे बडे हितैषी कहे जा सकते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद (14), 15(3), 16(1) और 16(2) में महिलाओं के साथ भेदभाव के खिलाफ उचित प्रबंध किये गए हैं और उन्‍हें समानता का दर्जा देने के लिए प्रावधान किये गए हैं।

   अर्थशास्त्री, शिक्षाविद और भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार, अम्बेडकर ने समाज से भेदभाव, गिरावट और वंचितता को दूर करने के लिए अपनी सारी ज़िंदगी लड़ी व शिक्षा को मुख्य आधार बनाया। डॉ भीमराव अंबेडकर  ने  शिक्षा संबंधी आयाम भारतीय सामाजिक संरचनाओं का प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए सार्थक कदम है। वे शिक्षा को देश तथा समाज के  उत्थान एवं विकास का साधन तो मानते ही थे साथ ही साथ सामाजिक , स्वतंत्रता , समता और भातृत्व की भावना   के विकास का मार्ग की मानते है। आज डॉ अंबेडकर के ख्याति सामाजिक दार्शनिक के उदरूप में प्रसिद्ध है वह समाज दर्शन के आधुनिक उदगाता ऋषि के रूप में भविष्य में सदस्य भी पहचाने जाएंगे ।अम्बेडकर शिक्षा के बदौलत आए लेकिन वह भारत के महानतम नेताओं  व आज विश्व में  भी एक पहचान  बन गए है।



सन्दर्भ

1. बाबासाहेब और उनके संस्मरणः मोहनदास नैमिशराय। संगीता प्रका. दिल्ली; संस्करण- 1992

2. बाबासाहेब का जीवन संघर्षः चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु। बहुजन कल्याण प्रका. लखनऊ;संस्करण- 1961-82

3. आधुनिक भारत के निर्माताः भीमराव अम्बेडकरः डब्लू. एन. कुबेर। प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार नई दिल्ली; संस्करण- 1981

4. डॉ. अम्बेडकरः लॉइफ एॅण्ड मिशनः धनंजय कीर। पॉपुलर प्रका. बाम्बे, संस्करण- 1954- 87

5. डॉ. अम्बेडकर; कुछ अनछुए प्रसंगः नानकचन्द रत्तू। सम्यक प्रका. दिल्ली, संस्करण- 2003-16.

6. बाबासाहेब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के सम्पर्क में 25 वर्षः सोहनलाल शास्त्री बी. ए.। सिद्धार्थ साहित्य सदन दिल्ली, संस्करण 1975।

7. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरः वसन्त मून। अनुवा.- आशा दामले। नेशनल बुक टस्ट इण्डिया। संस्करण- 2002

8. डॉ.  बी. आर. आंबेडकर: व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ.  15  ; डॉ. डी.  आर. जाटव। समता साहित्य सदन , जयपुर (राज. ) संस्करण 1984

9. भारतरत्न डॉ. अम्बेडकर , व्यक्तित्व एवं कृतित्व।  सम्पादक डॉ रामबच्चन राव, सागर प्रकाशन मैनपुरी , संस्करण-1993  

10.आलेख व व्यक्ति चित्र ,पृ74;विधा प्रकाशन बाजपुर(उत्तराखंड)2023











Saturday, August 12, 2023

निकुंभ इतिहास

#निकुम्भोंकाइतिहास
-हिन्दु राजवंश इतिहास के पटल पर अनादिकाल से  यथार्थ व मिथक से निकल कर इतिहास निर्माण लेखन/वाचन अध्ययन-अध्यापन होता रहा है। इसी क्रम में निकुंभ का इतिहास जो क्षत्रिय राजवंश राम के कुल से अपने को जोड़ते हैं उसका लेखा-जोखा है। जब हम इतिहास लेखन परम्परा को देखते हैं तो 20वीं शताब्दी तक इतिहास राजा-महाराजाओं, उनके परिवारों तथा राजदरबारियों तक ही सीमित रहा । तत्पश्चात विश्व सभ्यताओं के विकास एवं विस्तार के साथ यह बात भी जोर पकड़ने लगी  लेकिन यह निकुम्भों इतिहास  में सिर्फ राजाओं एवं उनके साम्राज्यों के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित नहीं है इसमें उस गांव भूमि का भी जिक्र है जिसमें आज  निकुम्भ समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े  हर निकुम्भ का इतिहास है।जिसे सहज ही सहेजा गया है। निकुम्भों का इतिहास का अध्ययन स्वयं में एक रोचक औरआप का आवश्यक विषय हो सकता है, इसके लेखन में उन तत्वों की जिसकी स्मृतियाँ है, यह निकुम्भों सफलता व,उनके कुल के निर्माण में सहायक सिद्ध  होगी हैं ।निकुम्भ रोजी रोटी व उच्च जीवन शैली के लिए विश्व भर में फ़ैल रहा है।उसकी कालांतर से भौगोलिक सीमाएँ परिवर्तनीय रही है लेकिन निकुम्भों के जीन बदलते वक्त में भी राम के मर्यादा के साथ ही रहे।वाचिक परम्परा से अतीत की स्मृतियाँ मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ती है और शताब्दियों तक कुल  धर्म को प्रभावित करती रहती हैं। वर्तमान से अतीत का इतना घनिष्ठ संबंध होता है कि उसकी उपेक्षा ये ही कर सकते हैं जिनका कोई अतीत नहीं होता। मानव जीवन के विकास के अध्ययन का नाम इतिहास है और इसी कारण उसकी उपयोगिता भी  है ।निकुम्भों का इतिहास में घटनाओं के वर्णन से संबंधित तथ्यों का संकलन और विवेचन में इतिहासकार अपने समक्ष वस्तुनिष्ठता का आदर्श रखता है, लेकिन देश, काल और परिस्थितियाँ किसी रचना को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती । नये स्रोतों की प्राप्ति से और समसामयिक माँगों के परिप्रेक्ष्य में इतिहास नये तथ्यों के अतिरिक्त नयी व्याख्याएँ भी प्रस्तुत करता है। उसी का यह मिला जुला प्रयास है।

Tuesday, March 7, 2023

होली.....2023

...देख बहारे होली की...
‘#ख़ुश_रंग__तबीयत’ के आगे
सब रंग ज़माने के फीके

#ख़ुशरंग_मन _के संग... रंग 

 आपको  रंगोत्सव
     होली की #शुभकामनाये...

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख #बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में #छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी #तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, #गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन #मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश #महकते हों, तब देख बहारें होली की।।
(नजीर इलाहाबादी)

Saturday, March 4, 2023

देख कर भी मुझे देखा ही नहीं उसने बिन देखे भी जिसे देखता रहता हूं मैं

देख कर भी मुझे देखा ही नहीं उस ने
बिन देखे भी जिसे देखता रहता हूं मैं

Wednesday, March 1, 2023

दुर्खीम

 फ्रांसीसी समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम 



 दि एलिमेंटरी फार्म ऑफ दि रिलिजियस लाइफ पहली बार 1915 में अंग्रेजी में छपी; दि डिविजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी 1933 में और दि रूल्स ऑफ सोशियोलोजिकल मैथड 1938 में। 

लि सुइसाइड को पहली बार छपे पचास वर्ष से अधिक हो गए हैं लेकिन समाजशास्त्रीय, सांख्यिकीय और मनोवैज्ञानिक क्षेत्रों में इसके प्रति दिलचस्पी किसी पुराने काम के प्रति दिलचस्पी से कहीं अधिक है।

 सामाजिक विचारधारा की दृष्टि से इसका ऐतिहासिक महत्व ही अंग्रेजी पाठक संसार में इसे ले जाने का पर्याप्त कारण बन जाता है। समाजशास्त्र में यह पुस्तक मील का पत्थर है और फ्रांस में शैक्षिक समाजशास्त्र की आधारशिला रखने वाले और उसे सुदृढ़ करने वाले और फ्रांस के बाहर दुनिया को प्रभावित करने वाले व्यक्ति को समझने के लिए अपरिहार्य है।

 

आज हमारी सांख्यिकीय सामग्री अधिक परिष्कृत और व्यापक है और दुर्खीम के मुकाबले हमारा सामाजिक मनोवैज्ञानिक तंत्र बेहतर स्थापित है, लेकिन आत्महत्या पर उनका काम विषय को आंकड़ों, तकनीकों और संचित ज्ञान के साथ पकड़ने की दृष्टि से आज भी एक आदर्श है।

 उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में जब दुर्खीम अपने काम में शामिल अन्वेषण कर रहे थे उस समय इस या अन्य किसी विषय के बारे में सांख्यिकीय सूचना के भंडार (सरकारी या निजी) बहुत कम, अपर्याप्त या खस्ता हालत में थे। अपनी स्वाभाविक ऊर्जा और कुछ छात्रों की, विशेषकर मार्सेल मॉस की मदद से दुर्खीम ने सामान्य समस्या और इसकी आंतरिक तफसील से जुड़े सवालों का उत्तर खोजने के लिए उपलब्ध आंकड़ों को फिर से संजोया।

 उस समय सांख्यिकीय तकनीक बहुत कम विकसित थी। अपनी लेखन-यात्रा में दुर्खीम को नए तकनीकों का अन्वेषण करना पड़ा। सांख्यिकीय तकनीकों के गाल्टन और पियरसन जैसे अन्वेषकों को छोड़कर सामान्य सह-संबंधों के तत्वों की किसी को जानकारी नहीं थी। बहु और आंशिक सह-संबंध की भी यही स्थिति थी। इसके बावजूद दुर्खीम ने प्रणाली विज्ञानिक अध्यवसाय और अनुमिति द्वारा आंकड़ों की शृंखलाओं में संबंध स्थापित किया।

दुर्खीम द्वारा बनाई गई तालिकाओं को अनुवाद में यथावत रख दिया गया है। सांख्यिकीय प्रस्तुतीकरण के मौजूदा मानकों के अनुसार उन्हें तब्दील करने का कोईप्रयास नहीं किया गया है। इस तरह से उनका अपना ऐतिहासिक मूल्य और अपनी विशेषता है। उनको अलंकृत करने से उस वातावरण का पता नहीं चलता जिसमें उन्हें आवश्यकतानुसार तैयार करना पड़ा। हालांकि हाल के आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन अपने आंकड़ों के जरिए दुर्खीम जो सूचना देना चाहते थे वह आज भी समाजशास्त्रियों और सांख्यिकीविद के लिए दिलचस्पी का विषय है। वास्तव में (आत्महत्या पर सैनिक जीवन के प्रभाव के बारे में) एक तालिका को एक सर्वोत्तम पत्रिका में आत्महत्या पर हाल ही के एक निबंध में यथावत ले लिया गया।1

अपने ऐतिहासिक और प्रणाली वैज्ञानिक अभिप्राय के अलावा लि सुइसाइड का महत्व अपनी विषयवस्तु और उसे पकड़ने के समाजशास्त्रीय ढंग में भी निहित है। दुर्खीम यह स्थापित करना चाहते हैं कि जो बात हमें अत्यधिक वैयक्तिक और व्यक्तिगत तत्व लगती है वास्तव में उसके बीज सामाजिक ढांचे और समाज पर उसके प्रभाव में निहित होते हैं। मनोविकृति विज्ञान पर क्रांतिकारी निष्कर्ष और समकालीन सांख्यिकीविदों के श्रेष्ठ आंकड़े भी इस समस्या को पूरी तरह से पकड़ नहीं पाए हैं। हम परिचय में इस बारे में अधिक विस्तार से बात करेंगे।

ऐसे भी लोग हैं जो सामाजिक कारण-कार्य संबंध के क्षेत्र में अब भी लि सुइसाइड को सर्वोत्कृष्ट नहीं तो उत्कृष्ट रचना मानते हैं। साथ ही ज्ञान के समाजशास्त्र के रूप में जाने जाने वाले क्षेत्र में दुर्खीम ने अहंभाव परार्थता और एनोमी में अनुस्यूत सामूहिक चेतना अवस्थाओं के साथ विचार-व्यवस्थाओं को संबध्द करने का जो प्रयास इस पुस्तक में किया है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।

अंत में लि सुइसाइड सामाजिक व्याख्या के दुर्खीम के बुनियादी सिध्दांतों को मूर्त रूप में दरशाती है। उनके सामाजिक यथार्थवाद, जो समाज को उसके हिस्सों के योग से कहीं अधिक बड़ा मानता है, और उससे जुड़ी सामूहिक प्रतिरूप और सामूहिक चेतना की अवधारणा को यहां एक विशेष समस्या क्षेत्र पर लागू किया गया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम निकले हैं। क्योंकि दुर्खीम ने न केवल प्रणालीवैज्ञानिक और स्वत: शोध प्रणाली सिध्दांत तैयार किए (विशेष रूप से दि रूल्स ऑफ सोशियोलोजिकल मेथड) बल्कि काफी बड़े क्षेत्र में अनुसंधान द्वारा उनकी परख भी की। वह कभी इस बात से इनकार नहीं करते कि उनके काम में कुछ जोड़ना, संशोधन करना और हमारे ज्ञान में इजाफा करना जरूरी होगा क्योंकि वह वैज्ञानिक प्रयास को एक सामूहिक काम मानते थे जिसके निष्कर्ष एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को सौंपे जाते हैं और इस प्रक्रिया द्वारा उनमें सुधार लाया जाता है।

यह अनुवाद दुर्खीम की मृत्यु के तरह वर्ष बाद और 1897 में पहले संस्करण के तैंतीस वर्ष बाद 1930 में प्रकाशित संस्करण से किया गया है। इस संस्करण का पर्यवेक्षण मार्सेल मॉस ने किया। 



विचारधारा


विचारधारा - एक समाजशास्त्री अध्ययन

विचारधारा वह लेंस है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति दुनिया को देखता है। समाजशास्त्र के क्षेत्र के भीतर, विचारधारा को मोटे तौर पर किसी व्यक्ति के मूल्यों, विश्वासों, मान्यताओं और अपेक्षाओं के कुल योग के रूप में जाना जाता है।

 विचारधारा समाज के भीतर, समूहों के भीतर और लोगों के बीच मौजूद है। यह हमारे विचारों, कार्यों और अंतःक्रियाओं को आकार देता है, साथ ही समाज में बड़े पैमाने पर क्या होता है।

विचारधारा समाजशास्त्र में एक मौलिक अवधारणा है। समाजशास्त्री इसका अध्ययन करते हैं क्योंकि यह समाज को कैसे व्यवस्थित किया जाता है और यह कैसे कार्य करता है, इसे आकार देने में इतनी शक्तिशाली भूमिका निभाता है।


 विचारधारा का सीधा संबंध सामाजिक संरचना, उत्पादन की आर्थिक प्रणाली और राजनीतिक संरचना से है। यह दोनों इन चीजों से निकलता है और उन्हें आकार देता है।



 
विचारधारा बनाम विशेष विचारधारा
अक्सर, जब लोग "विचारधारा" शब्द का उपयोग करते हैं, तो वे अवधारणा के बजाय एक विशेष विचारधारा का उल्लेख करते हैं। उदाहरण के लिए, कई लोग, विशेष रूप से मीडिया में, चरमपंथी विचारों या कार्यों को एक विशेष विचारधारा से प्रेरित होने के रूप में संदर्भित करते हैं (उदाहरण के लिए, "कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा" या " श्वेत शक्ति विचारधारा ") या "वैचारिक।" 




समाजशास्त्री एक व्यक्ति की विश्वदृष्टि के रूप में विचारधारा को परिभाषित करते हैं और मानते हैं कि किसी भी समय समाज में विभिन्न और प्रतिस्पर्धी विचारधाराएं चल रही हैं, जो दूसरों की तुलना में कुछ अधिक प्रभावी हैं।


 
अंतत: विचारधारा यह निर्धारित करती है कि हम चीजों को कैसे समझें। 

यह दुनिया का आदेश दिया दृश्य, उसमें हमारा स्थान और दूसरों के लिए हमारा संबंध प्रदान करता है। जैसे, यह मानव अनुभव के लिए गहराई से महत्वपूर्ण है, और आम तौर पर ऐसा कुछ है जिससे  लोग चिपके रहते हैं और बचाव करते हैं , चाहे वे ऐसा करने के लिए सचेत हों या नहीं। 


विचारधारा सामाजिक संरचना  और  सामाजिक व्यवस्था से बाहर निकलती है  , यह आमतौर पर उन सामाजिक हितों के प्रति अभिव्यक्त होती है जो दोनों द्वारा समर्थित हैं।

विचारधारा अवधारणाओं और विचारों की एक प्रणाली है जो दुनिया के उन सामाजिक हितों  को ध्यान में रखते हुए काम  करती है जो व्यक्त किए जाते हैं, और इसकी पूर्णता और सापेक्ष आंतरिक स्थिरता से एक  बंद  प्रणाली का निर्माण होता है और विरोधाभासी या असंगत होने की स्थिति में खुद को बनाए रखता है। अनुभव।


मार्क्स की विचारधारा का सिद्धांत
जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स  को समाजशास्त्र के संदर्भ में विचारधारा का सैद्धांतिक निर्धारण प्रदान करने वाला पहला माना जाता है।

मार्क्स के अनुसार, विचारधारा समाज के उत्पादन के तरीके से निकलती है। उनके मामले में और आधुनिक संयुक्त राज्य अमेरिका में, उत्पादन का आर्थिक तरीका पूंजीवाद है ।

मार्क्स का विचारधारा के प्रति दृष्टिकोण आधार और अधिरचना के उनके सिद्धांत में आगे था  ।

 मार्क्स के अनुसार, समाज की अधिरचना, विचारधारा के दायरे, आधार से बाहर निकलकर, शासक वर्ग के हितों को प्रतिबिंबित करने और उन्हें सत्ता में बनाए रखने वाली यथास्थिति को सही ठहराने के लिए उत्पादन के दायरे से बाहर निकलती है। तब, मार्क्स ने एक प्रमुख विचारधारा की अवधारणा पर अपने सिद्धांत को केंद्रित किया।



हालांकि, उन्होंने आधार और अधिरचना के बीच संबंध को प्रकृति में द्वंद्वात्मक के रूप में देखा, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक दूसरे को समान रूप से प्रभावित करता है और एक में परिवर्तन दूसरे में परिवर्तन की आवश्यकता है। इस विश्वास ने क्रांति के मार्क्स के सिद्धांत को आधार बनाया।


 उनका मानना ​​था कि एक बार श्रमिकों  ने एक वर्ग चेतना विकसित की  और फैक्ट्री मालिकों और फाइनेंसरों के शक्तिशाली वर्ग के सापेक्ष उनकी शोषित स्थिति से अवगत हो गए - दूसरे शब्दों में, जब उन्हें विचारधारा में एक मौलिक बदलाव का अनुभव हुआ - कि वे तब उस विचारधारा पर कार्य करेंगे। और समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में बदलाव की मांग कर रहा है।





मार्क्स ने जिस श्रमिक-वर्ग की क्रांति की भविष्यवाणी की थी, वह कभी नहीं हुई।

 द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के प्रकाशन के लगभग 200 साल बाद , पूंजीवाद वैश्विक समाज पर मजबूत पकड़ बनाए रखता है और  असमानताएं जो इसे बढ़ाती हैं ।





ग्राम्स्की ने सांस्कृतिक आधिपत्य के अपने सिद्धांत की पेशकश करते हुए  , तर्क दिया कि प्रमुख विचारधारा की चेतना पर मजबूत पकड़ थी और मार्क्स की तुलना में समाज ने कल्पना की थी।



फ्रैंकफर्ट स्कूल और लुइस अलथुसर आइडियोलॉजी पर
कुछ साल बाद, फ्रैंकफर्ट स्कूल के  महत्वपूर्ण सिद्धांतकारों  ने  कला, लोकप्रिय संस्कृति , और व्यापक मीडिया की भूमिका को ध्यान में रखते  हुए विचारधारा का प्रसार किया।

 उनका तर्क था कि जिस तरह शिक्षा इस प्रक्रिया में एक भूमिका निभाती है, उसी तरह मीडिया और लोकप्रिय संस्कृति के सामाजिक संस्थान। विचारधारा के उनके सिद्धांतों ने कला, लोकप्रिय संस्कृति और जन मीडिया पर प्रतिनिधित्व करने वाले कार्य पर ध्यान केंद्रित किया, जो समाज, उसके सदस्यों और हमारे जीवन के तरीकों के बारे में बता रहा है। यह काम या तो प्रमुख विचारधारा और यथास्थिति का समर्थन कर सकता है, या इसे चुनौती दे सकता है, जैसा कि संस्कृति के जाम के मामले में  है ।




उसी समय के आसपास, फ्रांसीसी दार्शनिक लुइस अलथुसेर ने "वैचारिक राज्य तंत्र" या आईएसए की अपनी अवधारणा विकसित की। 

अल्थुसर के अनुसार, किसी भी समाज की प्रमुख विचारधारा को कई आईएसए के माध्यम से बनाए रखा जाता है और विशेष रूप से मीडिया, धर्म और शिक्षा के माध्यम से पुन: पेश किया जाता है। अल्थुसर ने तर्क दिया कि प्रत्येक आईएसए समाज के काम करने के तरीके के बारे में भ्रम को बढ़ावा देने का काम करता है और चीजें किस तरह से होती हैं।

विचारधारा के उदाहरण


आधुनिक संयुक्त राज्य अमेरिका में, प्रमुख विचारधारा वह है जो मार्क्स के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए पूंजीवाद और उसके आसपास के समाज का समर्थन करती है।

 इस विचारधारा का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि अमेरिकी समाज वह है जिसमें सभी लोग स्वतंत्र और समान हैं, और इस प्रकार, वे जीवन में जो कुछ भी चाहते हैं, कर सकते हैं और प्राप्त कर सकते हैं। सिद्धांत का समर्थन करने वाला एक प्रमुख विचार यह है कि काम नैतिक रूप से मूल्यवान है, कोई फर्क नहीं पड़ता।

साथ में, ये विश्वास हमें पूंजीवाद की एक विचारधारा के समर्थक के रूप में बनाते हैं, जिससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि कुछ लोग सफलता और धन के मामले में इतना अधिक क्यों हासिल करते हैं जबकि अन्य इतना कम हासिल करते हैं। इस विचारधारा के तर्क के भीतर, कड़ी मेहनत करने वालों को सफलता देखने की गारंटी दी जाती है। 

मार्क्स का तर्क होगा कि ये विचार, मूल्य, और धारणाएँ एक वास्तविकता को सही ठहराने के लिए काम करती हैं, जिसमें लोगों का एक बहुत छोटा वर्ग निगमों, फर्मों और वित्तीय संस्थानों के भीतर अधिकांश अधिकार रखता है। ये विश्वास एक वास्तविकता को भी सही ठहराते हैं जिसमें अधिकांश लोग सिस्टम के भीतर कामगार हैं।


 
हालांकि ये विचार आधुनिक अमेरिका में प्रमुख विचारधारा को प्रतिबिंबित कर सकते हैं, वास्तव में अन्य विचारधाराएं हैं जो उन्हें चुनौती देती हैं और वे जिस यथास्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। कट्टरपंथी श्रमिक आंदोलन, उदाहरण के लिए, एक वैकल्पिक विचारधारा प्रदान करता है - एक जो यह मानती है कि पूंजीवादी व्यवस्था बुनियादी रूप से असमान है और जिन लोगों ने सबसे बड़ी संपत्ति अर्जित की है, वे इसके योग्य नहीं हैं। यह प्रतिस्पर्धी विचारधारा यह दावा करती है कि सत्ता संरचना शासक वर्ग द्वारा नियंत्रित की जाती है और एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक के लाभ के लिए बहुमत को लागू करने के लिए डिज़ाइन की गई है। पूरे इतिहास में श्रम कट्टरपंथी नए कानूनों और सार्वजनिक नीतियों के लिए लड़े हैं जो धन का पुनर्वितरण करेंगे और समानता और न्याय को बढ़ावा देंगे।

स्वामी विवेकानन्द और उत्तराखंड

स्वामी विवेकानन्द  और उत्तराखंड

ने अपने जीवनकाल में उत्तराखण्ड (Uttarakhand) की चार बार यात्रा की. स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने मित्रों को लिखे पत्रों, उनके साथ भारत आये उनके शिष्यों आदि के संस्मरणों से पता चलता है कि स्वामी विवेकानन्द को उत्तराखण्ड से विशेष लगाव था।


स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पहली उत्तराखण्ड यात्रा जुलाई 1890 में की थी. विवेकानन्द ने यह यात्रा अपने गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द के साथ की थी।

जुलाई 1890 में स्वामी विवेकानन्द रेल से काठगोदाम पहुंचे जहां से पहले वह सरोवर नगरी नैनीताल पैदल गये.


 नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द रामप्रसन्न भट्टाचार्य के घर पर छः दिन तक रहे. इसके बाद वह अल्मोड़ा की राह पर चल पड़े.

अल्मोड़ा के रास्ते में तीसरे दिन वे काकड़ीघाट पहुंचे. काकड़ीघाट अल्मोड़ा से 28 किमी की दूरी पर स्थित है. यह कोसी और सील नदियों के संगम पर स्थित छोटी सी घाटी में बसा हुआ है.

स्वामी विवेकान्द को भी यहीं आत्मज्ञान की अनुभूति

 इसे संत सोमवरी गिरी महाराज और हैड़ाखान बाबा की साधना स्थली भी माना जाता है. माना जाता है कि स्वामी विवेकान्द को भी यहीं आत्मज्ञान की अनुभूति हुई थी.

अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानन्द रघुनाथ मंदिर के सामने खजान्ची मुहल्ले में एक मकान में रहे. यह मकान लाला बद्री साह ठुलघरिया का था. लाला बद्री साह ठुलघरिया ने स्वामी विवेकानंद का बड़े मन से स्वागत किया. 

अल्मोड़ा की अपनी इस प्रथम यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने कसारदेवी की एक गुफा में तप भी किया. वर्तमान में यहां शारदा मठ स्थित है.

स्वामी विवेकानन्द सोमेश्वर की घाटी से पैदल पहले कर्णप्रयाग पहुंचे. 



 काठगोदाम से रुद्रप्रयाग तक की 280 मील की यह यात्रा स्वामी विवेकानन्द ने एक माह में तय की थी.

अक्टूबर 1890 में स्वामी विवेकानन्द देहरादून आये. यहां उन्होंने सिविल सर्जन मैकलारेन से अखण्डानन्द का इलाज करवाया. इसके बाद अखण्डानन्द के साथ स्वामी विवेकानन्द ऋषिकेश गये.


 ऋषिकेश में वे चंद्रेश्वर नामक शिवमंदिर के पास पर्णकुटीर में रहे. स्वामी विवेकानन्द की पहली उत्तराखण्ड यात्रा का यह अंतिम पड़ाव था.

विश्व भर में ख्याति पाने के बाद 6 मई 1897 को स्वामी विवेकानन्द कलकत्ता से अल्मोड़ा के लिये निकले.


 9 मई को स्वामी विवेकानन्द काठगोदाम पहुंचे जहां गुडविन और अन्य शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द का स्वागत किया.


 11 मई को स्वामी विवेकानन्द का अल्मोड़ा में भव्य स्वागत हुआ.

दूसरी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने अपना अधिकांश समय दउलधार में बिताया.


 अल्मोड़ा-ताकुला-बागेश्वर मार्ग पर 75 किमी की दूरी पर स्थित दउलधार में अल्मोड़ा के चिरंजीलाल साह का उद्यान था.

 दउलधार

स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता के विषय में अनेक लोगों को पत्र लिखकर बताया है. स्वामी शुद्धानन्द, मेरी हेल्बायस्टर, भगिनी निवेदिता आदि को लिखे अपने पत्रों में स्वामी विवेकानन्द ने दउलधार की सुन्दरता का वर्णन किया है.

इस दौरान अल्मोड़ा नगर में स्वामी विवेकानन्द के तीन व्याख्यान हुये. पहला हिन्दी में जिला स्कूल (आज कल का जी-आई.सी) में, दूसरा इंग्लिश क्लब में और तीसरा चार सौ प्रबुद्ध लोगों की सभा में.

नवंबर 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने आठ दिवसी देहरादून की यात्रा भी की. उत्तराखण्ड की दूसरी यात्रा का अंतिम स्थल देहरादून ही था. स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर उनकी पश्चिमी देशों में रहने वाली उनकी शिष्याएं भारत आईं. मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द की बहुउदेशीय उत्तराखण्ड यात्रा प्रारंभ हुई.


स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी देशों से आई शिष्याओं में ओली बुल, मैकलाउड, मूलर, भगिनी निवेदिता और पैटरसन शामिल थीं. 13 मई 1898 को स्वामी विवेकानन्द अपनी टोली के साथ काठगोदाम पहुंचे.

डोली और घोड़े में बैठकर स्वामी विवेकानन्द और उनके साथी नैनीताल पहुंचे. नैनीताल में उनका स्वागत राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने किया. नैनीताल में वे तीन दिनों तक रहे.

नैनीताल में स्वामी विवेकानन्द की भेंट खेतड़ी की दो नर्तकियों से हुई. नर्तकियों से मिलने पर बहुत से लोगों ने स्वामी विवेकानन्द की आलोचना भी की गई.


अपनी तीसरी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के थामसन हाऊस में रुके. कहा जाता है कि इस यात्रा से पहले तक भगिनी निवेदिता अपना पूरा जीवन सेवा में देने की बात को लेकर निश्चित नहीं थी. अल्मोड़ा में ही भगिनी निवेदिता ने तय किया की अब वे अपना पूरा जीवन सेवा में व्यतीत करेंगी.

25 मई से 28 मई तक तीन दिन स्वामी विवेकानन्द ने सैयादेवी के शिखर पर तपस्या में व्यतीत किये और 30 मई को एक सप्ताह के लिये किसी और जगह चले गये. इस दौरान टायफाइड के कारण गुडविन की मृत्यु हो गयी. 


गुडविन स्वामी विवेकानन्द के आशुलिपि लेखक और समर्पित भक्त थे.

गुडविन की मृत्यु का सामाचार सुनकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा – “अब मेरे जनता में भाषण के दिन समाप्त हो गये हैं. मेरा दाहिना हाथ चला गया है.”

स्वामी विवेकानन्द ने सेवियर को बंगाल से छपने वाले ‘प्रबुद्ध भारत’ का संपादन सौंपा. अब इसे अल्मोड़ा से छापने का आग्रह भी किया. इस तरह यह स्वामी विवेकानन्द का अंतिम अल्मोड़ा प्रवास था. इस प्रवास में स्वामी विवेकानन्द 23 दिन तक अल्मोड़ा रहे थे.

1896 के लन्दन प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानन्द के मन हिमालय में एक मठ स्थापना के संबंध में हेल बहनों को एक पत्र लिखा. 

इसी वर्ष इस संबंध में एक पत्र स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा के लाला बद्री साह को भी लिखते हैं. जब स्वामी विवेकानन्द ने इस संबंध में सेवियर दंपत्ति बात की तो वे उत्साहित होकर इसका हिस्सा बनने को तैयार हो गये.

सार्वजनिक मंच पर मठ की स्थापना की बात स्वामी विवेकानन्द ने 1897 की यात्रा के दौरान भी कह दी थी. 1898 में जब स्वामी विवेकानन्द अल्मोड़ा से कश्मीर की यात्रा पर चले तो सेवियर ने मठ के लिये भूमि खोजना शुरू करा दिया.

अंत में उन्हें अल्मोड़ा से 70 किमी दूर लोहाघाट से 10 किमी दूर माईपट नाम का स्थान मिला. यह अवकाश प्राप्त जनरल मि. मैकग्रेगर का चाय बागान था. उसने मठ बनाने के लिये जमीन बेचने पर हामी भर दी. इसका नाम बाद में मायावती हुआ.

स्वामी विवेकानन्द का हिमालय मठ का स्वप्न 19 मार्च 1899 को पूरा हुआ. 26 दिसम्बर 1900 को स्वामी विवेकानन्द मायावती के लिए निकले. 29 दिसम्बर को वे काठगोदाम पहुंच गए. 3 जनवरी 1901 को अनेक बाधाओं के बाद स्वामी विवेकानन्द सीधा मायावती पहुंच गए.

स्वामी विवेकानन्द के मायावती पहुँचने से पहले कर्मठ सेवियर की मृत्यु हो चुकी थी. उनकी पत्नी श्रीमती सेवियर ने अपना अधिकांश समय मायावती में ही बिताया. स्वामी विवेकानन्द 3 जनवरी से 18 जनवरी 1901 तक मायावती में रहे. स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से ‘पत्रिका प्रबुद्ध’ के लिये तीन लेख लिखे. पन्द्रह दिन के अपने मायावती प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद प्रत्येक दिन सुबह और शाम आध्यात्मिक चर्चा करते.

18 जनवरी 1901 को स्वामी विवेकानन्द ने मायावती से विदाई ली.