Tuesday, April 29, 2025

MA4 semester Structuration -Anthony Giddens

MA4 semester Structuration -Anthony Giddens

संरचनाकरण सिद्धांत की अवधारणा एवं एंथनी गिडेन्स के समाजशास्त्रीय योगदान का मूल्यांकन

1. परिचय (Introduction)

एंथनी गिडेन्स (Anthony Giddens) समकालीन समाजशास्त्र के एक प्रभावशाली ब्रिटिश चिंतक हैं, जिन्होंने संरचना और एजेंसी के मध्य संबंध को नए रूप में परिभाषित किया। उनकी संरचनाकरण का सिद्धांत (Theory of Structuration) आधुनिक समाजशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जाता है, जिसमें पारंपरिक द्वैतवाद (dualisms) — जैसे कि संरचना बनाम व्यक्ति — को चुनौती दी गई है।


2. शैक्षणिक पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कृतियाँ

  • जन्म: 1938, लंदन, इंग्लैंड
  • शिक्षा: London School of Economics, University of Cambridge
  • प्रमुख कृतियाँ:
    • The Constitution of Society (1984)
    • Central Problems in Social Theory (1979)
    • Modernity and Self-Identity (1991)
    • The Consequences of Modernity (1990)

3. संरचनाकरण सिद्धांत की अवधारणा (Concept of Structuration Theory)

गिडेन्स का यह सिद्धांत सामाजिक संरचना और व्यक्तिगत एजेंसी के बीच परस्पर क्रिया को समझाता है। वे कहते हैं कि समाज न तो केवल व्यक्तियों द्वारा निर्मित होता है, और न ही केवल संस्थागत संरचनाओं द्वारा निर्धारित। उन्होंने इसे "संरचना की द्वैतता" (duality of structure) के रूप में व्यक्त किया — अर्थात संरचना एक ही समय में माध्यम (medium) भी है और परिणाम (outcome) भी।

मुख्य तत्व:

  • संरचना: नियम और संसाधन जो सामाजिक क्रिया को संभव बनाते हैं।
  • एजेंसी: व्यक्ति की क्रियात्मक क्षमता, जिससे वह समाज को पुनः निर्मित करता है।
  • दैनंदिन क्रियाएं (Routine Practices): ये ही समाज को स्थायित्व प्रदान करती हैं, किंतु इन्हीं में परिवर्तन की संभावना भी निहित है।

4. गिडेन्स के विचारों का समाजशास्त्रीय महत्त्व (Sociological Significance)

  • उन्होंने संरचना और एजेंसी के कृत्रिम विभाजन को समाप्त किया।
  • उनका दृष्टिकोण समाज को गतिशील, प्रक्रियात्मक और निर्मित मानता है, न कि स्थिर और दी गई वास्तविकता के रूप में।
  • यह सिद्धांत सामाजिक परिवर्तन, संस्थाओं की उत्पत्ति, और शक्ति-संबंधों के विश्लेषण में उपयोगी है।
  • उन्होंने Late Modernity और Globalization पर भी विश्लेषण प्रस्तुत किया, जहाँ व्यक्तिगत पहचान और जोखिम समाज के नए मुद्दे बने हैं।

5. आलोचना (Criticism)

  • कुछ समाजशास्त्री मानते हैं कि गिडेन्स की थ्योरी अत्यधिक अमूर्त (abstract) है और इसे व्यावहारिक रूप से लागू करना कठिन है।
  • संरचना और एजेंसी के द्वैत को हल करने का उनका प्रयास कुछ मामलों में अस्पष्ट प्रतीत होता है।
  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण से यह आलोचना भी मिलती है कि गिडेन्स वर्ग संघर्ष और आर्थिक संरचनाओं को गौण कर देते हैं।

6. समकालीन प्रासंगिकता (Contemporary Relevance)

  • डिजिटल समाज, वैश्वीकरण और पहचान की राजनीति के युग में गिडेन्स की अवधारणाएँ अत्यधिक प्रासंगिक हैं।
  • 'एजेंसी' की अवधारणा ने हाशिए के समुदायों के आत्मनिर्माण के विश्लेषण के लिए एक नया फ्रेमवर्क दिया है।
  • उनके विचार भारत जैसे समाजों में जाति, लिंग और धार्मिक संरचनाओं के बीच व्यक्ति की भूमिका को समझने में सहायक हैं।

7. निष्कर्ष

एंथनी गिडेन्स का संरचनाकरण सिद्धांत समाजशास्त्रीय सोच में एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप है, जो सामाजिक संरचना और मानव क्रिया को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करता है। यह न केवल समाज के विश्लेषण की पद्धति में बदलाव लाता है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और विकास के नए द्वार भी खोलता है।



Thinkers in Ethnomethodology

 Thinkers in Ethnomethodology


1. Harvey Sacks

  • परिचय: अमेरिकी समाजशास्त्री; बातचीत विश्लेषण (Conversation Analysis) के संस्थापक माने जाते हैं।
  • मुख्य योगदान:
    • बातचीत के क्रम (sequential organization) का विश्लेषण किया।
    • सामान्य लोगों की दैनिक बातचीत में निहित सामाजिक ढाँचों को उजागर किया।
  • प्रमुख कार्य:
    • Lectures on Conversation (1992, दो खंडों में प्रकाशित) – उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित, यह कृति बातचीत विश्लेषण का आधार है।

2. Emmanuel Schegloff

  • परिचय: Harvey Sacks के सहयोगी; UCLA में प्रोफेसर।
  • मुख्य योगदान:
    • बातचीत विश्लेषण के तकनीकी पक्ष को विस्तार से विकसित किया।
    • बातचीत में “Turn-Taking System” की गहराई से व्याख्या की।
  • प्रमुख कार्य:
    • “A Simplest Systematics for the Organization of Turn-Taking for Conversation” (Sacks, Schegloff & Jefferson, 1974) – बातचीत में बोलने के क्रम को समझाने वाला प्रसिद्ध लेख।

3. Gail Jefferson

  • परिचय: बातचीत विश्लेषण की अग्रणी विदुषी और ट्रांसक्रिप्शन तकनीकों की विशेषज्ञ।
  • मुख्य योगदान:
    • बातचीत को लिपिबद्ध करने के मानक नियम बनाए (Jefferson Transcription System)।
    • सूक्ष्म स्तर पर बातचीत की गतिशीलता को उजागर किया।
  • प्रमुख कार्य:
    • Sacks व Schegloff के साथ कई महत्वपूर्ण सह-लेखन।
    • On the Poetics of Ordinary Talk (2000) – बातचीत की संरचना को साहित्यिक दृष्टि से देखने का प्रयास।

4. Aaron Cicourel

  • परिचय: व्याख्यात्मक समाजशास्त्र (Interpretive Sociology) और एथ्नोमेथडोलॉजी के बीच की कड़ी।
  • मुख्य योगदान:
    • सामाजिक अर्थ निर्माण की प्रक्रियाओं में संदर्भ (context) की भूमिका पर ज़ोर दिया।
    • भाषा, ज्ञान और सामाजिक समझ के संबंधों को विश्लेषित किया।
  • प्रमुख कार्य:
    • Method and Measurement in Sociology (1964) – एथ्नोमेथडोलॉजी की विधियों पर प्रभावशाली कार्य।
    • The Social Organization of Juvenile Justice – निर्णय लेने की सामाजिक प्रक्रिया का अध्ययन।

5. Alfred Schutz

  • परिचय: ऑस्ट्रियन मूल के समाजशास्त्री और दार्शनिक; फेनोमेनोलॉजिकल समाजशास्त्र के जनक।
  • मुख्य योगदान:
    • “जीवन-जगत” (Life-world) की धारणा प्रस्तुत की।
    • गर्फिंकल के एथ्नोमेथडोलॉजी के दार्शनिक आधार की स्थापना की।
  • प्रमुख कार्य:
    • Phenomenology of the Social World (1932)
    • Collected Papers (विविध खंडों में प्रकाशित) – सामाजिक यथार्थ और अर्थ की समझ पर केंद्रित।


MA 4 semester -Ethnomethodology

यह उत्तर “जातीय कार्यप्रणाली” और एच. गर्फिंकल के योगदान को सरल व सहज भाषा में इस प्रकार स्पष्ट करता है:


जातीय कार्यप्रणाली की अवधारणा (Ethnomethodology)

जातीय कार्यप्रणाली समाजशास्त्र की एक खास विधा है, जिसे एच. गर्फिंकल (Harold Garfinkel) ने विकसित किया। इसका मकसद यह समझना है कि आम लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में सामाजिक दुनिया को कैसे समझते हैं और उसका निर्माण कैसे करते हैं।

इसका मानना है कि समाज के नियम और व्यवहार कोई ऊपर से थोपे गए या स्थायी चीज़ें नहीं हैं, बल्कि लोग उन्हें बातचीत, समझदारी और आपसी व्यवहार से हर दिन बनाते और दोहराते हैं।

उदाहरण:
एक अदालत की जूरी में शामिल लोग यह नहीं जानते कि उन्हें क्या करना है जब तक वे एक-दूसरे से संवाद कर के, व्यवहार को देखकर, और परिस्थिति को समझकर निर्णय न लें। केवल लिखित नियम उन्हें यह सब नहीं सिखा सकते।


एच. गर्फिंकल का योगदान और उसकी आलोचना

मुख्य योगदान:

  • नया नजरिया: उन्होंने समाजशास्त्र की उस पुरानी सोच को चुनौती दी जो मानती थी कि समाज के नियम पहले से तय और स्थिर होते हैं।
  • रोजमर्रा की दुनिया का विश्लेषण: उन्होंने बताया कि लोग छोटी-छोटी स्थितियों में खुद ही अर्थ (meaning) बनाते हैं – जैसे, बातचीत में रुकावट आने पर लोग कैसे उसे ठीक करने की कोशिश करते हैं।
  • प्रयोग: उन्होंने “नियम तोड़ने वाले प्रयोग” किए – जैसे किसी सामान्य बातचीत में अजीब व्यवहार करके यह देखना कि लोग कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। इससे पता चला कि लोग समाज के नियमों को कितना गंभीरता से लेते हैं।

आलोचना:

  • बहुत सूक्ष्म (micro) स्तर पर ध्यान: गर्फिंकल केवल रोजमर्रा की बातचीत और व्यवहार पर ध्यान देते हैं, लेकिन सत्ता, जाति, वर्ग और लिंग जैसे बड़े सामाजिक मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हैं।
  • सामाजिक ढांचे की उपेक्षा: उनकी विधा में समाज की बड़ी संरचनाएं (जैसे स्कूल, धर्म, सरकार आदि) और उनके प्रभावों का विश्लेषण कम है।
  • वर्णनात्मक अधिक, विश्लेषणात्मक कम: उनके विचार समाज को केवल वर्णित करते हैं, जिससे किसी सामाजिक समस्या को सुलझाने या सुधारने में मदद कम मिलती है।

निष्कर्ष:

एच. गर्फिंकल ने समाजशास्त्र को एक नया रास्ता दिखाया, जिससे यह समझ आया कि हम अपने व्यवहार और भाषा से हर दिन समाज का निर्माण करते हैं। लेकिन उनके सिद्धांतों में बड़ी सामाजिक समस्याओं और बदलाव की जरूरतों को लेकर सीमाएँ भी हैं।


यह रहा "एथनोमैथोडोलॉजी" पर आधारित एक संपूर्ण वर्गीय नोट्स प्रारूप, जिसमें एच. गर्फिंकल का परिचय, शैक्षिक पृष्ठभूमि, प्रमुख कृतियाँ, अवधारणाएँ, योगदान, अन्य प्रमुख विचारक, आलोचना, प्रासंगिकता और संबंधित सिद्धांतें (जनरेट थ्योरी) शामिल हैं।


एथनोमैथोडोलॉजी (Ethnomethodology)

1. एच. गर्फिंकल का परिचय (Introduction of Harold Garfinkel)

  • जन्म: 29 अक्टूबर 1917, अमेरिका
  • मृत्यु: 21 अप्रैल 2011
  • पेशा: समाजशास्त्री
  • गर्फिंकल को एथनोमैथोडोलॉजी का संस्थापक माना जाता है।

2. शैक्षिक पृष्ठभूमि (Educational Background)

  • पीएचडी: हार्वर्ड विश्वविद्यालय से, ताल्कॉट पारसन्स के अधीन
  • प्रारंभिक प्रभाव: फेनोमेनोलॉजी (Alfred Schutz), साइबरनेटिक्स, और भाषाई विश्लेषण

3. गर्फिंकल की प्रमुख कृति (Major Work)

  • Studies in Ethnomethodology (1967) – यह उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें उन्होंने एथनोमैथोडोलॉजी की नींव रखी।

4. एथनोमैथोडोलॉजी की प्रमुख अवधारणाओं 


1. Indexicality (सूचकांकता)

अर्थ:
Indexicality का मतलब है कि कोई भी बयान या व्यवहार अपने आप में स्पष्ट नहीं होता, बल्कि उसका अर्थ हमेशा उस विशेष संदर्भ (context) पर निर्भर करता है जिसमें वह किया या कहा गया है।

उदाहरण:
मान लीजिए कोई कहे, "वो वहीं है।"
इस वाक्य का मतलब तभी समझ आएगा जब वक्ता और श्रोता को पता हो कि "वो" कौन है और "वहीं" कहां है। इस वाक्य का कोई स्थायी अर्थ नहीं है — यह पूरी तरह संदर्भ पर निर्भर है।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
हर सामाजिक व्यवहार और बातचीत को समझने के लिए उसके सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ को जानना जरूरी है।


2. Reflexivity (पुनर्परावृत्ति)

अर्थ:
Reflexivity यह दर्शाता है कि सामाजिक कृत्य (actions) और बयान (statements) अपने ही अर्थों को रचते हैं। यानी, हम जो करते और कहते हैं, वह न केवल सामाजिक वास्तविकता को प्रकट करता है, बल्कि उसे निर्मित भी करता है।

उदाहरण:
जब कोई कहता है "मैं एक ज़िम्मेदार नागरिक हूँ," तो वह केवल दावा नहीं कर रहा, बल्कि उस वक्तव्य से वह अपनी सामाजिक छवि को भी बना रहा है।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
हम अपने बयानों और व्यवहारों के ज़रिये सामाजिक वास्तविकता को बार-बार गढ़ते हैं। यह एक सतत प्रक्रिया है।


3. Accounts (वर्णन)

अर्थ:
Accounts से तात्पर्य है कि लोग अपनी सामाजिक क्रियाओं को औचित्य देने के लिए कारण या कथाएँ गढ़ते हैं। ये कथाएँ इस बात को “सामान्य” और “समझने योग्य” बनाती हैं।

उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति ऑफिस देर से पहुंचता है और कहता है, "ट्रैफिक बहुत था," तो यह एक account है — एक औचित्य या सफाई।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
Accounts हमें सामाजिक व्यवहार को "स्वाभाविक" और "संगत" तरीके से प्रस्तुत करने में मदद करती हैं, ताकि सामाजिक व्यवस्था बनी रहे।


4. Breaching Experiments (नियम-भंग प्रयोग)

अर्थ:
यह प्रयोग सामाजिक नियमों को जानबूझकर तोड़कर यह देखने के लिए किया जाता है कि लोग कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। इससे छिपे हुए सामाजिक मानदंड और अपेक्षाएँ सामने आती हैं।

उदाहरण (गर्फिंकल का प्रयोग):
एक छात्र अपने घर आकर माँ से कहता है, "आप कौन हैं? आप यहाँ क्या कर रही हैं?"
माँ चौंक जाएंगी क्योंकि यह व्यवहार ‘सामान्य’ नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि परिवार में कुछ व्यवहार स्वाभाविक माने जाते हैं।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
ये प्रयोग यह दिखाते हैं कि हमारी सामाजिक दुनिया कितनी नाजुक और नियमों पर आधारित है, जिन्हें हम आमतौर पर अनजाने में मानते हैं।


5. Sequential Organization (अनुक्रमिक संगठन)

अर्थ:
हमारी बातचीत एक विशेष क्रम (sequence) में चलती है, और यही क्रम उस बातचीत के अर्थ को बनाता है।

उदाहरण:
फोन पर बात करते समय:
A: “हैलो।”
B: “हैलो, कैसे हैं आप?”
A: “मैं ठीक हूँ, आप सुनाइए।”
यह एक अनुक्रमिक (क्रमबद्ध) बातचीत है। यदि इस क्रम को तोड़ दिया जाए तो संप्रेषण बाधित हो सकता है।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
सामाजिक बातचीतें यादृच्छिक (random) नहीं होतीं; उनमें एक क्रम होता है जिससे सामाजिक अर्थ पैदा होता है।




1. 



2



3. Accounts (वर्णन)

अर्थ:
Accounts से तात्पर्य है कि लोग अपनी सामाजिक क्रियाओं को औचित्य देने के लिए कारण या कथाएँ गढ़ते हैं। ये कथाएँ इस बात को “सामान्य” और “समझने योग्य” बनाती हैं।

उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति ऑफिस देर से पहुंचता है और कहता है, "ट्रैफिक बहुत था," तो यह एक account है — एक औचित्य या सफाई।

समाजशास्त्रीय अर्थ:
Accounts हमें सामाजिक व्यवहार को "स्वाभाविक" और "संगत" तरीके से प्रस्तुत करने में मदद करती हैं, ताकि सामाजिक व्यवस्था बनी रहे






5. गर्फिंकल का दृष्टिकोण (Approach)

  • रोजमर्रा की बातचीत और व्यवहार में छिपे सामाजिक निर्माण की प्रक्रियाओं को समझना।
  • समाजशास्त्र को नीचे से ऊपर (bottom-up) देखने की कोशिश।
  • यह मानता है कि लोग सक्रिय सामाजिक एजेंट होते हैं, जो समाज को बनाते हैं।

6. प्रमुख योगदान (Key Contributions)

  • समाज को 'स्थिर संरचना' के बजाय लगातार बनने वाली प्रक्रिया के रूप में देखने का नजरिया दिया।
  • समाजशास्त्रीय अनुसंधान में रोज़मर्रा की जीवन-प्रथाओं का महत्व बताया।
  • पारंपरिक संरचनात्मक कार्यात्मकता को चुनौती दी।
  • रूल ब्रेकिंग एक्सपेरिमेंट्स” द्वारा दिखाया कि सामाजिक नियम कितने गहरे हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में निहित होते हैं।

7. अन्य प्रमुख विचारक (Other Key Thinkers in Ethnomethodology)

  • Harvey Sacks: बातचीत विश्लेषण (Conversation Analysis) के संस्थापक
  • Emmanuel Schegloff और Gail Jefferson: बातचीत विश्लेषण के विकास में योगदान
  • Aaron Cicourel: समाजशास्त्रीय विधियों की व्याख्या में योगदान
  • Alfred Schutz: फेनोमेनोलॉजिकल समाजशास्त्र का आधार जिससे गर्फिंकल ने प्रेरणा ली।
  • यहाँ पर "अन्य प्रमुख विचारक (Other Key Thinkers in Ethnomethodology)" विषय से संबंधित चार समाजशास्त्रियों की पृष्ठभूमि, प्रमुख योगदान और कृतियाँ बिंदुवार (point-wise) दी गई हैं:


    1. Harvey Sacks

    • परिचय: अमेरिकी समाजशास्त्री; बातचीत विश्लेषण (Conversation Analysis) के संस्थापक माने जाते हैं।
    • मुख्य योगदान:
      • बातचीत के क्रम (sequential organization) का विश्लेषण किया।
      • सामान्य लोगों की दैनिक बातचीत में निहित सामाजिक ढाँचों को उजागर किया।
    • प्रमुख कार्य:
      • Lectures on Conversation (1992, दो खंडों में प्रकाशित) – उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित, यह कृति बातचीत विश्लेषण का आधार है।

    2. Emmanuel Schegloff

    • परिचय: Harvey Sacks के सहयोगी; UCLA में प्रोफेसर।
    • मुख्य योगदान:
      • बातचीत विश्लेषण के तकनीकी पक्ष को विस्तार से विकसित किया।
      • बातचीत में “Turn-Taking System” की गहराई से व्याख्या की।
    • प्रमुख कार्य:
      • “A Simplest Systematics for the Organization of Turn-Taking for Conversation” (Sacks, Schegloff & Jefferson, 1974) – बातचीत में बोलने के क्रम को समझाने वाला प्रसिद्ध लेख।

    3. Gail Jefferson

    • परिचय: बातचीत विश्लेषण की अग्रणी विदुषी और ट्रांसक्रिप्शन तकनीकों की विशेषज्ञ।
    • मुख्य योगदान:
      • बातचीत को लिपिबद्ध करने के मानक नियम बनाए (Jefferson Transcription System)।
      • सूक्ष्म स्तर पर बातचीत की गतिशीलता को उजागर किया।
    • प्रमुख कार्य:
      • Sacks व Schegloff के साथ कई महत्वपूर्ण सह-लेखन।
      • On the Poetics of Ordinary Talk (2000) – बातचीत की संरचना को साहित्यिक दृष्टि से देखने का प्रयास।

    4. Aaron Cicourel

    • परिचय: व्याख्यात्मक समाजशास्त्र (Interpretive Sociology) और एथ्नोमेथडोलॉजी के बीच की कड़ी।
    • मुख्य योगदान:
      • सामाजिक अर्थ निर्माण की प्रक्रियाओं में संदर्भ (context) की भूमिका पर ज़ोर दिया।
      • भाषा, ज्ञान और सामाजिक समझ के संबंधों को विश्लेषित किया।
    • प्रमुख कार्य:
      • Method and Measurement in Sociology (1964) – एथ्नोमेथडोलॉजी की विधियों पर प्रभावशाली कार्य।
      • The Social Organization of Juvenile Justice – निर्णय लेने की सामाजिक प्रक्रिया का अध्ययन।

    5. Alfred Schutz

    • परिचय: ऑस्ट्रियन मूल के समाजशास्त्री और दार्शनिक; फेनोमेनोलॉजिकल समाजशास्त्र के जनक।
    • मुख्य योगदान:
      • “जीवन-जगत” (Life-world) की धारणा प्रस्तुत की।
      • गर्फिंकल के एथ्नोमेथडोलॉजी के दार्शनिक आधार की स्थापना की।
    • प्रमुख कार्य:
      • Phenomenology of the Social World (1932)
      • Collected Papers (विविध खंडों में प्रकाशित) – सामाजिक यथार्थ और अर्थ की समझ पर केंद्रित।



8. आलोचना (Criticism)

  • सूक्ष्म स्तर की सीमाएँ: यह दृष्टिकोण केवल माइक्रो (व्यक्तिगत) व्यवहार पर केंद्रित है, और वर्ग, लिंग, जाति जैसी संरचनात्मक असमानताओं को अनदेखा करता है।
  • बहुत अधिक वर्णनात्मक: इसमें नीति निर्माण या सामाजिक बदलाव का मार्गदर्शन नहीं है।
  • सामाजिक संरचना की उपेक्षा: यह स्कूल, धर्म, राजनीति जैसे संस्थानों का विश्लेषण नहीं करता।
  • सैद्धांतिक अस्पष्टता: इसकी कुछ अवधारणाएँ दार्शनिक और जटिल हैं, जिससे व्यवहारिक उपयोग कठिन हो जाता है।

9. प्रासंगिकता (Contemporary Relevance)

  • डिजिटल युग में ऑनलाइन इंटरैक्शन को समझने में यह दृष्टिकोण उपयोगी है।
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता और भाषा मॉडल्स के व्यवहारिक अध्ययन में इसकी विधियाँ कारगर हैं।
  • प्राकृतिक भाषा विश्लेषण, अस्पतालों, न्यायालयों और सेवाक्षेत्रों में संवाद के अध्ययन में उपयोगी।

10. संबंधित सिद्धांत – जनरेट थ्योरी (Garfinkel’s Generative Theory Approach)

  • गर्फिंकल मानते थे कि लोग नए सामाजिक अर्थ और नियम खुद गढ़ते हैं (generate करते हैं)।
  • यह विचार “जनरेटिव थ्योरी” कहलाता है – जिसका तात्पर्य है कि सामाजिक दुनिया कोई दी हुई चीज़ नहीं, बल्कि लोग उसे हर दिन उत्पन्न (generate) करते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)

एच. गर्फिंकल ने समाजशास्त्र को एक नया रास्ता दिखाया – जिसमें आम आदमी की रोजमर्रा की बातचीत, समझ और अनुभवों को सामाजिक विश्लेषण का केंद्र बनाया गया। यह दृष्टिकोण भले ही व्यापक संरचनाओं की आलोचना में सीमित हो, फिर भी इसका प्रयोगात्मक और अनुभव आधारित स्वरूप आज भी बेहद प्रासंगिक है।



प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद (Symbolic Interactionism) समाजशास्त्र का एक ऐसा दृष्टिकोण है जो यह समझाता है कि लोग समाज में कैसे आपस में संवाद करते हैं और उन संवादों से सामाजिक अर्थ कैसे बनते हैं। यह सिद्धांत कहता है कि हम जिन चीज़ों को देखते हैं, उनके अर्थ हम दूसरों के साथ बातचीत करके बनाते हैं और वो अर्थ समय व परिस्थिति के अनुसार बदल सकते हैं।


प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का उदाहरण

  • जब हम किसी से बात करते हैं, मुस्कराते हैं, हाथ मिलाते हैं या इशारा करते हैं, तो हम प्रतीकों (Symbols) का उपयोग करते हैं। ये प्रतीक हमें दूसरों के साथ जुड़ने और समाज को समझने में मदद करते हैं।
  • यह सिद्धांत मानता है कि समाज पहले से तय या बना हुआ नहीं होता, बल्कि हम रोज़ की बातचीत (Interaction) से उसे बनाते और बदलते हैं।

उदाहरण:
अगर कोई व्यक्ति सफेद कोट पहनता है, तो हम उसे डॉक्टर मान लेते हैं। लेकिन यह कोट सिर्फ कपड़ा नहीं, एक प्रतीक है जिसका सामाजिक अर्थ है – डॉक्टर। यह अर्थ हमने समाज से सीखा है।


जी. एच. मीड का योगदान

  • जी. एच. मीड प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के जनक माने जाते हैं।
  • उन्होंने कहा कि इंसान मन (Mind), स्वः (Self) और समाज (Society) के ज़रिए समाज को समझता है और बनाता है।

मीड की तीन मुख्य बातें:

  1. मन (Mind): हम सोचकर निर्णय लेते हैं, जानवरों की तरह तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते।
  2. स्वः (Self): व्यक्ति खुद को दूसरों की नजर से देखता है। जैसे – "अगर मैं ऐसा करूँगा तो लोग क्या सोचेंगे?"
  3. स्वः के विकास की तीन अवस्थाएँ:
    • नकल (Imitation): बच्चा बड़ों की नकल करता है।
    • नाटक (Play): बच्चा एक रोल निभाता है – जैसे डॉक्टर, पुलिस।
    • खेल (Game): बच्चा कई भूमिकाएँ एक साथ समझता है – जैसे क्रिकेट खेलते समय बल्लेबाज़, बॉलर, अंपायर सभी की भूमिका जानना।

हरबर्ट ब्लूमर का योगदान

  • हरबर्ट ब्लूमर ने “Symbolic Interactionism” शब्द को गढ़ा और मीड के विचारों को आगे बढ़ाया।

ब्लूमर के अनुसार इस सिद्धांत के तीन मूल आधार हैं:

  1. लोग वस्तुओं के प्रति उनके अर्थ के अनुसार व्यवहार करते हैं।
    • जैसे: लाल बत्ती का मतलब है “रुकना” – इसलिए हम रुकते हैं।
  2. यह अर्थ सामाजिक अन्तःक्रिया से आता है।
    • हम दूसरों से सीखते हैं कि किसी चीज़ का क्या मतलब होता है।
  3. व्यक्ति इन अर्थों की व्याख्या करता है और उन्हें बदल भी सकता है।
    • जैसे: किसी देश में सफेद रंग का मतलब शादी होता है, लेकिन कहीं और इसका मतलब शोक भी हो सकता है।



प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद यह कहता है कि समाज हमारे द्वारा बनाए गए अर्थों और प्रतीकों पर आधारित होता है। मीड ने बताया कि व्यक्ति समाज को "स्वः" और "समूह" के ज़रिए समझता है, जबकि ब्लूमर ने इसे व्यवहार और अध्ययन के सिद्धांत के रूप में विकसित किया।


Symbolic Interactionism explains that society is constructed through shared meanings and daily interactions. G.H. Mead emphasized how the "self" and "mind" are shaped by social roles, while Herbert Blumer organized these ideas into a structured sociological theory.


©सत्यमित्र


 G.H. Mead और Herbert Blumer

1. जॉर्ज हर्बर्ट मीड (George Herbert Mead) (1863–1931)

व्यक्तिगत जीवन और शिक्षा:
G.H. Mead का जन्म 27 फरवरी 1863 को अमेरिका के Massachusetts में हुआ था। उन्होंने Oberlin College से स्नातक शिक्षा प्राप्त की और आगे की पढ़ाई हार्वर्ड विश्वविद्यालय से की। वे मूलतः दर्शनशास्त्री थे लेकिन मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में भी उनकी गहरी रुचि थी। वे शिकागो विश्वविद्यालय में लंबे समय तक प्रोफेसर रहे।

बौद्धिक पृष्ठभूमि और कार्य:
Mead की सोच पर प्रगमेटिज़्म (Pragmatism) और सामाजिक मनोविज्ञान का गहरा प्रभाव था। वे यह मानते थे कि व्यक्ति अपनी सामाजिक अन्तःक्रियाओं के माध्यम से “स्वः” (Self) का निर्माण करता है। उन्होंने यह बताया कि बच्चे किस प्रकार नकल (Imitation), नाटक (Play) और खेल (Game) की प्रक्रियाओं से आत्म-बोध और सामाजिक भूमिकाएँ सीखते हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति “Mind, Self and Society” है, जो उनके व्याख्यानों का संग्रह है और उनकी मृत्यु के बाद 1934 में प्रकाशित हुई।

योगदान का महत्व:
Mead को प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का जनक माना जाता है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि व्यक्ति समाज के निष्क्रिय उत्पाद नहीं होते, बल्कि अर्थों और प्रतीकों की समझ के माध्यम से सामाजिक संरचना को सक्रिय रूप से गढ़ते हैं।


2. हरबर्ट ब्लूमर (Herbert Blumer) (1900–1987)

व्यक्तिगत जीवन और शिक्षा:
Herbert Blumer का जन्म 7 मार्च 1900 को अमेरिका के Missouri राज्य में हुआ था। उन्होंने University of Missouri से शिक्षा प्राप्त की और आगे की पढ़ाई University of Chicago से की। प्रारंभ में वे पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी थे, लेकिन बाद में उन्होंने समाजशास्त्र में अपनी रुचि को आगे बढ़ाया। वे शिकागो विश्वविद्यालय तथा बाद में University of California, Berkeley में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे।

बौद्धिक पृष्ठभूमि और कार्य:
Blumer, G.H. Mead के शिष्य थे और उन्होंने ही “Symbolic Interactionism” शब्द को प्रतिपादित किया। उन्होंने Mead के विचारों को एक व्यवस्थित समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के रूप में विकसित किया। ब्लूमर का मानना था कि समाज एक स्थिर संरचना नहीं है, बल्कि यह लोगों की प्रतिदिन की अन्तःक्रियाओं और अर्थों के सतत निर्माण की प्रक्रिया है।

योगदान का महत्व:
Blumer ने प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद को समाजशास्त्र की एक सशक्त व्याख्यात्मक पद्धति के रूप में स्थापित किया। उन्होंने समाजशास्त्रीय अनुसंधान में गुणात्मक विधियों जैसे अवलोकन और केस स्टडी पर बल दिया। उनकी दृष्टि ने शहरी अध्ययन, संचार और सामाजिक मनोविज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी प्रभाव डाला।


इस तरह Mead और Blumer दोनों ने प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की नींव रखने और उसे विस्तार देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। Mead ने इसके सैद्धांतिक बीज बोए और Blumer ने उसे समाजशास्त्रीय पद्धति का रूप दिया।



विषय: प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण

(Symbolic Interactionism – Sociological Perspective)


परिभाषा:

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद समाजशास्त्र का एक सूक्ष्म-स्तरीय (micro-level) दृष्टिकोण है, जो यह समझाने का प्रयास करता है कि व्यक्ति अपने रोज़मर्रा के संवाद और अन्तःक्रियाओं के माध्यम से समाज और सामाजिक अर्थों का निर्माण करते हैं।


मुख्य विशेषताएँ:

  1. व्यक्ति वस्तुओं और घटनाओं के प्रति उस अर्थ के आधार पर प्रतिक्रिया करते हैं जो उन्होंने सीखा है।
  2. ये अर्थ सामाजिक अन्तःक्रिया के माध्यम से बनते हैं।
  3. अर्थ स्थिर नहीं होते, वे नई परिस्थितियों के अनुसार बदल सकते हैं।
  4. प्रतीक (जैसे भाषा, इशारे, पोशाक) सामाजिक जीवन के मूल उपकरण हैं।
  5. व्यक्ति समाज के निष्क्रिय सदस्य नहीं, बल्कि सक्रिय रचनाकार हैं।

उदाहरण:

  • सफेद कोट = डॉक्टर
  • नमस्ते करना = सम्मान
  • लाल बत्ती = रुकना
    (ये सब प्रतीक हैं जिनके सामाजिक अर्थ होते हैं।)

G. H. Mead का योगदान:

मुख्य कृति: Mind, Self and Society (1934)

प्रमुख अवधारणाएँ:

  1. Mind (मन): सोचने और प्रतीकों के माध्यम से अर्थ समझने की क्षमता।
  2. Self (स्वः): व्यक्ति स्वयं को दूसरों की नजर से देखता है।
  3. Society (समाज): अन्तःक्रिया से बनता है, न कि पहले से बना होता है।

स्वः के विकास की तीन अवस्थाएँ:


Herbert Blumer का योगदान:

मुख्य कार्य: मीड के विचारों को व्यवस्थित रूप देना

शब्द ‘Symbolic Interactionism’ का प्रतिपादन

ब्लूमर के सिद्धांत के 3 आधार बिंदु:

  1. व्यक्ति अर्थों के आधार पर व्यवहार करता है।
  2. अर्थ सामाजिक अन्तःक्रिया से उत्पन्न होते हैं।
  3. व्यक्ति अर्थों की व्याख्या करता है और बदलता भी है।

अन्य योगदान:

  • समाजशास्त्रीय शोध के लिए गुणात्मक विधियों पर बल (जैसे प्रतिभागी अवलोकन)।
  • समाज को एक गतिशील प्रक्रिया माना, न कि स्थायी संरचन

  • प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद यह दर्शाता है कि समाज ‘प्रतीकों’ और ‘अर्थों’ के निरंतर निर्माण से बनता है।
  • G.H. Mead ने इस सिद्धांत की बुनियाद रखी और ‘स्वः’ व ‘समाज’ की अवधारणा दी।
  • Herbert Blumer ने इसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया और समाजशास्त्र में एक प्रभावशाली दृष्टिकोण बनाया।

©सत्यमित्र


G.H. Mead बनाम Herbert Blumer:  तुलनात्मक अध्ययन

1. शैक्षणिक पृष्ठभूमि

  • Mead: दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक मनोविज्ञान में रुचि; हार्वर्ड और शिकागो विश्वविद्यालय से जुड़े।
  • Blumer: Mead के शिष्य; शिकागो स्कूल ऑफ थॉट के प्रमुख समाजशास्त्री; बाद में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से संबद्ध।

2. मुख्य कृति

  • Mead: Mind, Self and Society (मृत्यु के बाद 1934 में प्रकाशित)।
  • Blumer: Symbolic Interactionism: Perspective and Method (1969)।

3. मुख्य अवधारणाएँ

  • Mead: “Mind”, “Self” और “Society” के पारस्परिक विकास पर बल; “I” और “Me” की अवधारणा।
  • Blumer: प्रतीकात्मक अन्तःक्रिया के तीन आधार सूत्र – अर्थ, अन्तःक्रिया, और व्याख्या।

4. दृष्टिकोण की प्रकृति

  • Mead: अधिक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि; प्रक्रिया-आधारित दृष्टिकोण।
  • Blumer: स्पष्ट समाजशास्त्रीय पद्धति पर बल; व्यावहारिक और गुणात्मक शोध विधियों को प्राथमिकता।

5. प्रमुख योगदान

  • Mead: प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की बुनियादी सिद्धांतात्मक नींव रखी।
  • Blumer: “Symbolic Interactionism” को एक नाम और समाजशास्त्रीय पहचान दी।

6. स्वः (Self) की व्याख्या

  • Mead: स्वः सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो दूसरों की भूमिका ग्रहण करने से विकसित होता है।
  • Blumer: Mead की स्वः की अवधारणा को व्यवहारिक अनुसंधान और सामाजिक विश्लेषण में प्रयुक्त किया।

7. अनुसंधान पद्धति

  • Mead: सिद्धांतात्मक चिंतन और व्याख्यान आधारित।
  • Blumer: प्रत्यक्ष अवलोकन, गहराई से साक्षात्कार, और व्याख्यात्मक समाजशास्त्र पर बल।

©सत्यमित्र


प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद: एक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
(Symbolic Interactionism: A Sociological Perspective)

  1. परिचय (Introduction)
    प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद समाजशास्त्र का एक लघु-पक्षीय (micro-level) सिद्धांत है, जो सामाजिक जीवन को प्रतीकों, अर्थों और दैनिक अंतःक्रियाओं के माध्यम से समझने का प्रयास करता है। यह दृष्टिकोण इस धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति समाज में सक्रिय एजेंट होता है जो अर्थों का निर्माण, परिवर्तन और पुनरुत्पादन करता है।

  2. सिद्धांत का उद्भव (Origin of the Theory)
    यह सिद्धांत मुख्यतः अमेरिकी सामाजिक विचारधारा से विकसित हुआ और इसे George Herbert Mead तथा Herbert Blumer के कार्यों से औपचारिक रूप प्राप्त हुआ। Mead ने इस विचारधारा को मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्र की दिशा में अग्रसर किया, जबकि Blumer ने इस प्रवृत्ति को "प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद" नाम दिया।

  3. मुख्य मान्यताएँ (Core Assumptions)
    प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद तीन मुख्य मान्यताओं पर आधारित है:

    • अर्थ (Meaning): मनुष्य वस्तुओं, घटनाओं और लोगों के साथ उस अर्थ के आधार पर व्यवहार करता है जो वह उन्हें देता है।
    • प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic Process): अर्थ सामाजिक अंतःक्रिया के माध्यम से निर्मित होता है, विशेष रूप से भाषा और प्रतीकों के माध्यम से।
    • स्वतः-व्याख्या (Self-interpretation): व्यक्ति सक्रिय रूप से अर्थों की व्याख्या करता है और अपनी प्रतिक्रिया को उसी अनुसार समायोजित करता है।
  4. प्रमुख विचारक (Key Thinkers)

    • George Herbert Mead: 'Self' की अवधारणा, ‘I’ और ‘Me’ के भेद द्वारा सामाजिक आत्म का विकास।
    • Herbert Blumer: तीन स्तंभों का प्रतिपादन - अर्थ, सामाजिक अंतःक्रिया और व्याख्या।
    • Erving Goffman: 'Dramaturgical Approach' द्वारा दैनिक जीवन की भूमिका-आधारित व्याख्या।
    • Charles Horton Cooley: "Looking Glass Self" की संकल्पना, जो आत्म-छवि के सामाजिक निर्माण पर बल देती है.
  5. प्रमुख अवधारणाएँ (Major Concepts)

    • Self (स्व): आत्म की संरचना सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम है।
    • Role-taking (भूमिका ग्रहण करना): व्यक्ति दूसरों की भूमिका को समझकर व्यवहार करता है।
    • Significant Others and Generalized Others: सामाजिकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • Definition of the Situation: प्रत्येक सामाजिक स्थिति की अर्थपूर्ण व्याख्या से व्यवहार का निर्धारण होता है।
  6. प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद का समाज के अध्ययन में योगदान (Contributions to Sociological Understanding)

    • यह दृष्टिकोण सूक्ष्म स्तर पर सामाजिक प्रक्रियाओं की जटिलता को उजागर करता है।
    • यह सामाजिक संरचना के बजाय व्यक्ति की भूमिका और सक्रियता पर बल देता है।
    • शिक्षा, परिवार, मीडिया, अपराध और चिकित्सा समाजशास्त्र जैसे क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध हुआ है।
  7. आलोचनाएँ (Criticisms)

    • संरचनात्मक शक्तियों (जैसे वर्ग, जाति, लिंग) की अनदेखी करता है।
    • यह व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को अत्यधिक महत्त्व देता है, जिससे सामाजिक संरचनाओं की भूमिका गौण हो जाती है।
    • इसके सिद्धांतों का परीक्षण और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कठिन है क्योंकि यह प्रतीकों की व्याख्या पर आधारित है।
  8. भारत में प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद की प्रासंगिकता (Relevance in Indian Context)

    • भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से विविध देश में प्रतीकों की भूमिका सामाजिक व्यवहार की समझ में महत्वपूर्ण है।
    • जातिगत व्यवहार, धार्मिक प्रतीक, और भाषाई विविधता – इन सभी के विश्लेषण में यह दृष्टिकोण सहायक हो सकता है।
    • उदाहरण: विवाह, जातीय पहचान, या ग्रामीण-शहरी जीवनशैली में प्रतीकों की सामाजिक भूमिका।
  9. निष्कर्ष (Conclusion)
    प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद व्यक्ति और समाज के बीच की अंतःक्रिया की सूक्ष्म प्रक्रियाओं को उजागर करता है। हालाँकि इसमें कुछ सैद्धांतिक सीमाएँ हैं, परंतु यह सामाजिक यथार्थ की गहन समझ प्रदान करता है। यह दृष्टिकोण सामाजिक विज्ञानों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जब शोध का उद्देश्य सामाजिक अनुभवों की अर्थ-निर्माण प्रक्रिया को समझना हो।







Population and Sampling / जनसंख्या और प्रतिचयन

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Population and Sampling / जनसंख्या और प्रतिचयन

1. Population / जनसंख्या

  • Definition (परिभाषा):

    • English: The entire set of individuals, items, or data points under study.
    • हिंदी: अध्ययन के अंतर्गत व्यक्तियों, वस्तुओं या डेटा बिंदुओं का संपूर्ण समूह।
  • Example / उदाहरण:

    • English: All undergraduate students in Delhi University.
    • हिंदी: दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी स्नातक छात्र।

2. Sample / नमूना

  • Definition (परिभाषा):

    • English: A subset of the population selected for study.
    • हिंदी: अध्ययन के लिए चुनी गई जनसंख्या का एक उपसमूह।
  • Example / उदाहरण:

    • English: 300 undergraduate students randomly selected from different colleges of Delhi University.
    • हिंदी: दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों से यादृच्छिक रूप से चुने गए 300 स्नातक छात्र।

3. Importance of Sampling / प्रतिचयन का महत्व

  • English:

    • Reduces time, cost, and effort.
    • Makes data collection manageable.
    • Ensures representativeness (if done correctly).
  • हिंदी:

    • समय, लागत और प्रयास को कम करता है।
    • डेटा संग्रह को व्यवस्थित बनाता है।
    • प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है (यदि सही तरीके से किया जाए)।
  • Example / उदाहरण:

    • English: Instead of surveying all 10,000 employees in a company, a sample of 500 is taken.
    • हिंदी: किसी कंपनी के 10,000 कर्मचारियों की जगह 500 का नमूना लेकर सर्वेक्षण किया जाता है।

4. Sampling Methods / प्रतिचयन विधियाँ

A. Probability Sampling / प्रायिकता प्रतिचयन

  1. Simple Random Sampling / सरल यादृच्छिक प्रतिचयन

    • Definition: Every member has an equal chance of selection.
    • उदाहरण: किसी कॉलेज के छात्र रजिस्टर से लॉटरी द्वारा 100 छात्रों का चयन।
  2. Stratified Sampling / स्तरीकृत प्रतिचयन

    • Definition: Population divided into subgroups (strata), and samples are drawn from each.
    • उदाहरण: एक विश्वविद्यालय के छात्रों को संकायों (विज्ञान, कला, वाणिज्य) में बाँटकर हर संकाय से छात्रों का चयन।
  3. Cluster Sampling / समूह प्रतिचयन

    • Definition: Population divided into clusters; clusters are randomly selected.
    • उदाहरण: किसी जिले के 20 स्कूलों में से 5 स्कूल यादृच्छिक रूप से चुनकर वहाँ के सभी छात्रों का सर्वे करना।

B. Non-Probability Sampling / अप्रायिकता प्रतिचयन

  1. Convenience Sampling / सुविधाजनक प्रतिचयन

    • Definition: Selecting easily accessible participants.
    • उदाहरण: विश्वविद्यालय परिसर में मिल रहे छात्रों से ही प्रश्नावली भरवाना।
  2. Purposive Sampling / उद्देश्यपूर्ण प्रतिचयन

    • Definition: Selecting based on researcher’s judgment.
    • उदाहरण: केवल उन शिक्षकों का चयन जो ICT तकनीक में दक्ष हैं, क्योंकि शोध उस विषय पर है।

5. Key Difference / मुख्य अंतर

  • English:

    • Population: Represents the whole group.
    • Sample: Represents a part of the group.
  • हिंदी:

    • जनसंख्या: संपूर्ण समूह को दर्शाती है।
    • नमूना: समूह के एक हिस्से को दर्शाता है।
  • Example / उदाहरण:

    • Population / जनसंख्या: उत्तराखंड के सभी शिक्षक।
    • Sample / नमूना: उत्तराखंड के 5 जिलों के 200 शिक्षक।


Monday, April 28, 2025

राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय रानीखेत एम.ए. समाजशास्त्र –ii सेमेस्टर M.A. Sociology – Semester 2 पाठ्य-पत्र – II / Paper – II:Techniques of Social Research & Statistics



एम.ए. समाजशास्त्र – 2 सेमेस्टर
M.A. Sociology – Semester IV
पाठ्य-पत्र – II / Paper – II:
Techniques of Social Research & Statistics

निर्देश / Instructions:
सभी पाँच प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
Answer all five questions.
सभी प्रश्न समान अंक के हैं।
All questions carry equal marks.


1.
शोध डिज़ाइन की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। अन्वेषणात्मक, वर्णनात्मक, निदानात्मक एवं प्रयोगात्मक डिज़ाइन में अंतर को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
Explain the concept of Research Design. Discuss the differences between Exploratory, Descriptive, Diagnostic and Experimental designs with suitable examples.


2.
सामाजिक शोध में डेटा संग्रहण के स्रोतों एवं तकनीकों की विवेचना कीजिए। साक्षात्कार, प्रेक्षण, प्रश्नावली तथा अनुसूची की विधियों का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए।
Discuss the sources and techniques of data collection in social research. Present a comparative analysis of Interview, Observation, Questionnaire and Schedule methods.


3.
मापन तकनीकों की व्याख्या कीजिए। सोशियोमीट्री, प्रोजेक्टिव तकनीक एवं विषयवस्तु विश्लेषण के समाजशास्त्रीय उपयोग को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
Explain Scaling Techniques. Illustrate the sociological application of Sociometry, Projective Techniques and Content Analysis with examples.


4.
आँकड़ों के वर्गीकरण एवं तालिकाकरण की प्रक्रिया को समझाइए। सामाजिक अनुसंधान में इनकी उपादेयता पर विचार कीजिए।
Describe the process of Classification and Tabulation of Data. Explain their usefulness in social research.


5.
केन्द्रीय प्रवृत्ति के मापन – औसत, माध्यिका, बहुलक, मानक विचलन तथा सहसंबंध को परिभाषित कर उनकी उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
Define the Measures of Central Tendency – Mean, Median, Mode, Standard Deviation and Correlation, and explain their relevance.



29/4/25

यह रहा उपरोक्त आर्टिकल को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जोड़ते हुए एक अकादमिक लेख की रूपरेखा (outline)। यह रूपरेखा विशेष रूप से शहरी समाजशास्त्र, सामाजिक असमानता, और नीति निर्माण के समाजशास्त्रीय विमर्श से जुड़ी है:


लेख का शीर्षक (Suggested Title):

"भारत का शहरी भविष्य और सामाजिक असमानताएँ: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण"


रूपरेखा (Outline):

1. भूमिका (Introduction)

  • भारत में तीव्र शहरीकरण की पृष्ठभूमि
  • जलवायु परिवर्तन, संसाधन संकट और सामाजिक असमानताओं की उभरती चुनौतियाँ
  • लेख के उद्देश्य और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण की प्रासंगिकता

2. शहरीकरण और समाजशास्त्र

  • शहरी समाजशास्त्र की अवधारणा और प्रमुख सिद्धांत (जैसे – लुईस विर्थ, पार्क, बर्गेस)
  • भारतीय संदर्भ में शहरीकरण के सामाजिक प्रभाव
  • शहरीकरण और सामाजिक स्तरीकरण: जाति, वर्ग, लिंग के संदर्भ में

3. डेटा और विकास सूचकांक का समाजशास्त्रीय विश्लेषण

  • नीति आयोग द्वारा प्रयुक्त SDG-11 सूचकांक की सीमाएँ
  • सामाजिक बहिष्करण और समावेशन के संकेतक
  • सुरक्षा, सततता और समावेशिता के सूचकांकों में सामाजिक विभाजनों की अभिव्यक्ति

4. शहरों की विविधता और सामाजिक असमानताएँ

  • बड़े शहरों (दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु आदि) में सुविधाएँ बनाम छोटे शहरों में अभाव
  • वंचित समुदायों (शहरी गरीब, झुग्गीवासियों, महिलाओं) की स्थिति
  • 'शहरी द्वैधता' (Urban Dualism): अमीर-गरीब का विरोधाभास

5. सामाजिक नियंत्रण, शासन और नीतियाँ

  • स्थानीय शासन और शहरी समाज के बीच संबंध
  • स्मार्ट सिटी मिशन व निगरानी प्रणालियाँ: एक नव-उदारवादी दृष्टिकोण
  • सामाजिक न्याय और समावेशी नीतियों की आवश्यकता

6. समाजशास्त्रीय समाधान और नीति-निर्माण की दिशा

  • डेटा आधारित सामाजिक नीति की जरूरत
  • शहर-विशिष्ट रणनीतियों में नागरिक भागीदारी
  • सतत, समावेशी और न्यायसंगत शहरी नियोजन की रूपरेखा

7. निष्कर्ष

  • सामाजिक दृष्टिकोण से शहरी भविष्य की दिशा पर अंतिम टिप्पणी
  • समाजशास्त्र की भूमिका: परिवर्तनकारी शहरी नीति निर्माण हेतु मार्गदर्शन

यदि आप चाहें, तो इस रूपरेखा के किसी भाग को विस्तृत लेख के रूप में विकसित किया जा सकता है। क्या आप किसी विशेष अनुभाग पर लेख तैयार करवाना चाहेंगे?

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता



माननीय अध्यक्ष महोदय, आदरणीय अतिथिगण, सम्मानित श्रोतागण,

आज मैं आपके समक्ष उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code - UCC) पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हूँ। यह विषय केवल उत्तराखंड के लिए ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी ढांचे के लिए ऐतिहासिक और क्रांतिकारी महत्व रखता है।
27 जनवरी 2025 को उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता को लागू कर स्वतंत्र भारत में एक नवीन अध्याय प्रारंभ किया है — एक ऐसा कदम जो सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए एक मिसाल बन चुका है।


समान नागरिक संहिता (UCC) क्या है?

समान नागरिक संहिता वह कानूनी ढांचा है जो देश के सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, गोद लेना, उत्तराधिकार और संपत्ति जैसे निजी मामलों में समान कानून लागू करता है, भले ही उनकी जाति, धर्म, लिंग या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो।
यह संविधान के अनुच्छेद 44 में निहित राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो कहता है —

"राज्य, भारत के समस्त भू-भाग में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।"

उत्तराखंड का UCC विधेयक लैंगिक समानता, सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुदृढ़ करने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल है। यह विभिन्न धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों में व्याप्त भेदभावपूर्ण प्रथाओं, जैसे बहुविवाह, असमान उत्तराधिकार और लैंगिक असमानता को समाप्त करने का प्रयास करता है।


उत्तराखंड में UCC लागू करने की यात्रा

  • 27 मई 2022: सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन।
  • व्यापक अध्ययन, जनसुनवाई एवं विचार-विमर्श के उपरांत विधेयक का मसौदा तैयार।
  • 6 फरवरी 2024: मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा विधानसभा में विधेयक प्रस्तुत।
  • 7 फरवरी 2024: विधेयक ध्वनिमत से पारित।
  • 12 मार्च 2024: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा विधेयक को स्वीकृति।
  • 18 अक्टूबर 2024: नियमावली का अंतिम रूप।
  • 27 जनवरी 2025: समान नागरिक संहिता का औपचारिक क्रियान्वयन।

सरकार ने इस प्रक्रिया में नागरिक सुविधा हेतु एक समर्पित पोर्टल ucc.uk.gov.in भी प्रारंभ किया, जो नेशनल डाटा सेंटर पर आधारित है और उच्चतम साइबर सुरक्षा मानकों का पालन करता है।


उत्तराखंड UCC के प्रमुख प्रावधान

1. विवाह और तलाक:

  • विवाह के लिए पुरुष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष, महिला की 18 वर्ष।
  • बहुविवाह पर पूर्ण प्रतिबंध।
  • विवाह एवं तलाक का अनिवार्य पंजीकरण।
  • बिना न्यायालयीन अनुमति तलाक अवैध।

2. उत्तराधिकार और संपत्ति:

  • सभी धर्मों के लिए संपत्ति और उत्तराधिकार के समान नियम।
  • माता और पिता दोनों को प्रथम श्रेणी के उत्तराधिकारी के रूप में समान दर्जा।
  • वसीयत न होने पर संपत्ति का समान वितरण।

3. लिव-इन रिलेशनशिप:

  • एक महीने के भीतर अनिवार्य पंजीकरण।
  • उल्लंघन पर जुर्माना एवं दंड का प्रावधान।
  • गर्भावस्था की स्थिति में रजिस्ट्रार को सूचित करना अनिवार्य।

4. अनुसूचित जनजातियों को छूट:

  • विधेयक अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होगा, ताकि उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता सुरक्षित रह सके।

5. लैंगिक समानता:

  • महिलाओं को विवाह, तलाक, भरण-पोषण और संपत्ति में समान अधिकार।
  • हलाला, बहुविवाह और असमान विरासत जैसी प्रथाओं पर रोक।

उत्तराखंड UCC के संभावित लाभ

  • लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण का सशक्त माध्यम।
  • सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता का संवर्धन।
  • कानूनी जटिलताओं का सरलीकरण और न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता
  • आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप समाज का निर्माण।

चुनौतियां और आलोचनाएं

  • लिव-इन रिलेशनशिप के अनिवार्य पंजीकरण को निजता के अधिकार के विरुद्ध माना जा रहा है।
  • अनुसूचित जनजातियों को छूट देने पर समानता के सिद्धांत के क्षरण की चिंता।
  • धार्मिक समुदायों का विरोध एवं उनकी धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़ी आशंकाएं।
  • प्रशासनिक और तकनीकी चुनौतियां, विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता और पहुंच सुनिश्चित करना।

उत्तराखंड UCC का राष्ट्रीय महत्व

उत्तराखंड ने समान नागरिक संहिता लागू कर संविधान के आदर्शों को मूर्त रूप प्रदान किया है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इसे "देवभूमि से समानता और न्याय की गंगा का प्रवाह" कहा है।
उत्तराखंड का यह कदम अन्य राज्यों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन सकता है। असम सहित कई अन्य राज्य अब इस दिशा में गंभीरता से विचार कर रहे हैं।

यह पहल भारत को एक समावेशी, समानतामूलक और आधुनिक राष्ट्र के रूप में आगे ले जाने में सहायक सिद्ध होगी।


निष्कर्ष

माननीय श्रोतागण,
उत्तराखंड समान नागरिक संहिता महज एक कानून नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की एक क्रांति है। यह समानता, स्वतंत्रता और न्याय के संवैधानिक आदर्शों की दिशा में एक सशक्त कदम है।

हालांकि चुनौतियां मौजूद हैं, किंतु संवाद, संवेदनशीलता और जागरूकता के माध्यम से इन्हें सफलतापूर्वक पार किया जा सकता है।
मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि उत्तराखंड का यह बीजारोपण शीघ्र ही भारतवर्ष में समानता और न्याय के वटवृक्ष के रूप में विकसित होगा।

आइए, हम सब मिलकर इस ऐतिहासिक प्रयास का समर्थन करें और एक ऐसे भारत के निर्माण में सहभागी बनें जहां हर नागरिक को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों।

जय हिंद! जय उत्तराखंड!

धन्यवाद।



जाति



जाति एक अंतःविवाही (Endogamous) समूह है, जिसकी अपनी उप-संस्कृति होती है | जहाँ वर्ग का आधार आर्थिक होता है , वहीं जाति का आधार सामाजिक सांस्कृतिक होता है | 

वर्ग एक अर्जित प्रस्थिति है जबकि जाति प्रदत्त स्थिति है |

भारतीय सामाजिक संस्थाओं में जाति का महत्वपूर्ण स्थान है | पश्चिमी समाज में स्तरीकरण का आधार वर्ग है तो भारत में जाति | 
मजुमदार के अनुसार जाति व्यवस्था भारत में अनुपम है | सामान्यतः भारत जातियों एवं संप्रदायों की परंपरागत स्थली मानी जाती है, ऐसा कहा जाता है कि यहाँ की हवा में भी जाति घुली हुई है और यहाँ तक कि मुसलमान तथा ईसाई भी इससे अछूते नहीं बचे हैं |

श्रीमती ईरावती कर्वे (Iravati Karve) लिखती हैं कि यदि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों को समझना चाहते हैं तो जाति प्रथा का अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है |

जाति व्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Caste system)

एन.के.दत्ता ने जाति की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है –

(1) एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते |

(2) प्रत्येक जाति में दूसरी जातियों के साथ खान-पान के संबंध में कुछ प्रतिबंध होते हैं |

(3) अधिकांश जातियों के पेशे निश्चित होते हैं |

(4) जातियों में ऊँच-नीच का एक संस्तरण पाया जाता है, जिसमें ब्राह्मणों की स्थिति सर्वमान्य रूप से शिखर पर होती है |

(4) व्यक्ति की जाति उसके जन्म के आधार पर ही आजीवन के लिए निश्चित हो जाती है |

(6) सम्पूर्ण जाति व्यवस्था ब्राम्हणों की श्रेष्ठता पर आधारित होती है |

जाति तथा वर्ण में अंतर (Difference between Caste and Varna)

(1) वर्ण एक सैद्धांतिक व्यवस्था है, जबकि जाति वास्तविक है|

(2) जाति की सदस्यता व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होती है, जबकि वर्ण की गुण एवं कर्म के आधार पर|

(3) वर्ण, जाति की अपेक्षा अधिक प्राचीन है|

(4) वर्ण में खान-पान एवं सामाजिक सहवास पर प्रतिबंध नहीं पाए जाते हैं जबकि जाति में पाए जाते हैं|

जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कारण

(1) आधुनिक शिक्षा|

(2) औद्योगिक विकास – इसकी अंतर्गत उत्पादन परम्परागत आधार पर न होकर मशीनों द्वारा होता है|

(3) नये व्यवसायों का जन्म – गैर कृषि व्यवसायों में वृद्धि के कारण सभी जातियाँ उसे अपनाने लगीं|

(4) पूँजी की प्रधानता – व्यक्ति की जगह मशीनों की प्रधानता, जैसे – ट्रैक्टर|

(5) नगरीकरण का प्रभाव|

(6) सामाजिक सुधार आंदोलन|

(7) सरकारी प्रयास – नियोजन तथा कल्याणकारी राज्य की भूमिका|

(8) जाति पंचायत तथा जजमानी प्रथा की समाप्ति|
_____________________________
भारतीय सामाजिक संगठन में शक्ति सत्ता और ज्ञान

विश्लेषण

जाति व्यवस्था के विश्लेषण में भारतीय समाज वैज्ञानिकों का प्रमुख अवदान का एक विशिष्ट विश्लेषण

 डी एन मजूमदार ने संपूर्ण ग्रामीण समाज को जातीय सामाजिक और आर्थिक मान्यता के आधार पर तीन हिस्सों में बांटा है पहले भाग में उन्होंने ब्राह्मण और क्षत्रिय को लिया है ।जिसे ग्रामीण समुदाय की उच्च प्रबल जाति समूह माना है। दूसरे हिस्से के अंतर्गत क्रम शहीद कुर्मी गडरिया लोहार को हार कलवार नहीं बढ़ाई आज को ग्रामीण समाज का मध्य स्तरीय जाति समूह माना है तीसरे हिस्से के अंतर्गत पासी धोबी चमार आज को ग्रामीण समाज का निम्न स्तरीय समूह माना है प्रोफ़ेसर बरनार्ड यस कौन ने एक हरिजन बहुसंख्यक बस्ती का अध्ययन करने के पश्चात यह कहा कि यदि चमार गांव में अपनी सरकार बनाने में सफल हो जाए तो ऊंची जातियों को कुछ दिनों तक परेशान भले ही कर ले अपने को बहुत दिनों तक सफल सक्रिय स्थिति में नहीं रख सकते।

श्यामलाल 1992 में अपनी पुस्तक द भंगी में श्री प्रकाश ट्वीट सोशियो इकोनामिक पाइप रेट्स में इन्होंने भंगी जातियों का अध्ययन किया और अपने अध्ययन में इन्होंने भंगी जातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का विवरण प्रस्तुत किया अध्ययन में श्याम लाल ने स्पष्ट किया कि भंगी जातियां शोषण से बचने एवं उन्हें दूर करने के लिए संगठित हो रही है यह अपना एक अलग संगठन का निर्माण कर रही है।

 बीए साध्वी 1962 में कोल्हापुर के नगर की 10 जाति पंचायतों का अध्ययन किया यह अध्ययन के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष स्वरूप जाति पंचायतों में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख किया उनका मानना है कि जाति पंचायतें परिवर्तित होकर जातीय संगठनों के रूप धारण कर रही हैं।

 प्रोफेसर श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक सोशल चेंज मॉडर्न इंडिया में जाति गतिशीलता के संदर्भ में भारतीय बीजेपी के संबंध में गंभीर विवेचना प्रस्तुत की हैं वस्तुतः तेजी से बदल रही ।


जीएस घूर्य 1912 में अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक कास्ट एंड रईस इन इंडिया को प्रकाशित किया उन्होंने अपनी पुस्तक जात की उत्पत्ति विशेषता विकास और इतिहास को प्रस्तुत तथा उसके विभिन्न पहलुओं को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया।

 रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक इंडियाज कोटिंग बिहेवियर तथा कास्ट इन इंडियन पॉलिटिक्स में जाति तथा राजनीति का व्यापक विश्लेषण किया।

 कोहन 1953 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के माधवपुर गांव का अध्ययन करके विभिन्न जातियों की प्रवृत्तियों का उल्लेख किया इस गांव में संपूर्ण रूप ठाकुरों का अधिपति होने के कारण 1951 से पहले तक शक्ति व्यवस्था पर उन्हीं कार्यकार्था जमींदार प्रथा का उन्मूलन हो जाने से न केवल ठाकुरों की कुछ भूमि और निम्न जातियों का अधिकार हो गया बल्कि चुनाव के प्रथम उनके राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न हो गई।


 शर्मा 1974 में राजस्थान के 3 जिलों के 6 गांवों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष दिया कि उच्च जातियों के परिवार के लोग उच्च सामाजिक परिस्थिति आसानी से प्राप्त कर लेते हैं निम्न जातियों की स्थिति में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हुआ है परंतु कहीं-कहीं इन्होंने अपने अध्ययन में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि उच्च जातियों के व्यक्तियों में भी नीचे की ओर गतिशीलता बढ़ रही है इस संदर्भ में राजस्थान के कुछ गांव में क्षत्रियों का उदाहरण दिया जा सकता है।


 अनिल भट्ट 1971 में 4 राज्यों के संकलित तथ्यों पर आधारित अपनी विशिष्ट अध्ययन के आधार पर कहा कि जब सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थिति बदल जाती परिस्थिति के महत्वपूर्ण तरीके से जुड़ी हुई नहीं है इसके निष्कर्षों के अनुसार यद्यपि ब्राह्मणों की कर्मकांडी तक उच्चतम स्थिति प्राप्त है हर जनों को आदि सभी क्षेत्रों में निमृत स्थिति प्राप्त है।


 योगेंद्र सिंह 1977 ने अपने अध्ययन में पाया कि ग्रामीण अधिकारियों की परंपरागत आर्थिक और जातीय पद स्थिति सैद्धांतिक रूप से समाप्त हो गई है।


 ग्रामीण शब्द संरचना का पुराना परंपरागत सामंतवादी स्वरूप नए प्रजातांत्रिक सांचे में बदल गया है।


श्रीनिवास दक्षिण भारत के संदर्भ में लिखते हैं कि यदि ने दक्षिण भारत के शहरी करण में जाती हुई एक घटक है प्रत्येक गांव को छोड़कर शहरों की ओर जाने वाले का ब्राह्मणों ने नेतृत्व किया उन्होंने ही पहली बार पश्चिम शिक्षा के फायदों को समझा और जिसके बेटे गांव छोड़कर बाहर आए वही पहले शिक्षक अधिकारी वकील डॉ और जज बन गए सामाजिक व्यवस्था में उनकी स्थिति बहुत प्रभावशाली हो गई थी महत्वपूर्ण पदों पर ब्राह्मणों का वास्तविक एकाधिकार और पिछड़ी जातियों के गैर ब्राह्मणों को प्राथमिकता देने की अंग्रेजों के इतने जल्दी बाजी जल्दी ही एक लोकप्रिय और गैर ब्राह्मण आंदोलन को जन्म दिया गैर ब्राह्मण आंदोलन और चौथे दशक की मंदी ने दक्षिण और ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े शहरों में ब्राह्मणों का आवर्धन को बढ़ाया।


 बीएस कोहनी जौनपुर जिले के डोभी तहसील के माधवपुर गांव के अध्ययन में यह बताया कि बीसवीं शताब्दी में ठाकुर पंचायतें समाप्त हो गई जो पहले पूरे डोभी ताल्लुक को प्रभावित करते थे

पनिका ने कहा है कि लोकतंत्रात्मक राजनीति में निर्णायक शक्ति वोट है जिन जातियों के हाथ में वोट बैंक है उसका अधिक महत्व है और वह समझने लगी है कि यदि सत्ता ग्रहण करने योग्य है उनकी धारणा है कि कोई व्यक्ति वर्तमान परिपेक्ष में धनिया गुणवान क्यों न हो यदि अपनी जाति या धार्मिक उन्माद को ठुकरा दे तो राजनीति में उन्नति नहीं हो सकता मेयर का मत है कि जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त हैं।



प्रोफेसर रजनी कोठारी का मत है कि भारत में जाति का राजनीतिकरण हो रहा है उसका कहना है कि ना चाहते हुए भी राजनीति का जाति संख्या का उपयोग करना ही पड़ेगा अतः राजनीति में जातिवाद का अर्थ जात का राजनीतिकरण है

सभरवाल 1970 ने यह स्पष्ट किया कि वयस्क मताधिकार आरक्षण की व्यवस्था अस्पृश्यता उन्मूलन संवैधानिक उपबंध परंपरागत परिस्थितिकी विभेदीकरण पर आघात पहुंचा कर निम्न जाति के सदस्यों को उच्च जाति के समकक्ष स्थिति प्राप्त करने और सहयोगी होने का अवसर प्रदान करते हैं।

जात पंचायतों के अधिकार और कर्तव्य लिखित नहीं होते बल्कि उनका निर्धारण परंपरा में होता परंपरा के द्वारा होता है साधारणतया जाति पंचायत के कार्य क्षेत्र में वे सभी कार्य आ जाते हैं जिनका संबंध किसी जाति समूह की एकता विशुद्ध ताजा स्थिति तथा धार्मिक क्रियाओं से होता है
स्वतंत्र भारत में जाति व्यवस्था का जितना राजनीतिक कारण हुआ है शायद किसी अन्य संस्था का इतना नहीं भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में वोट की राजनीति के कारण विभिन्न निर्णय दलों का उदय जाति आधार पर ही हुआ है।

Tuesday, April 22, 2025

A. R. देसाई (Social Background of Indian Nationalism)

राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय रानीखेत

Unit 5

A. R. देसाई

  (Social Background of Indian Nationalism)


अध्याय 1: भूमिका (Introduction)



1. भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक स्रोतों को समझने की आवश्यकता

उदाहरण: अगर हम केवल 1857 के विद्रोह को राष्ट्रवाद मान लें, तो हम उससे पहले की सामाजिक असंतोष की लहरों जैसे किसानों, कारीगरों और निम्न वर्गों के संघर्षों को नज़रअंदाज़ कर देंगे। देसाई यह दर्शाना चाहते हैं कि राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक नेतृत्व से नहीं, बल्कि समाज की अंदरूनी गतिशीलता से उपजता है।


2. पारंपरिक दृष्टिकोणों की सीमाएँ—यह केवल नेताओं के कार्यों तक सीमित रहते हैं

उदाहरण: पारंपरिक इतिहास गांधी, नेहरू या तिलक जैसे नेताओं की भूमिका पर ध्यान देता है, लेकिन देसाई बताते हैं कि राष्ट्रवाद के बीज तो तब पड़े जब औद्योगिकीकरण, आधुनिक शिक्षा और प्रेस के ज़रिये आम जनता की सोच में बदलाव आने लगा।


3. समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद का अध्ययन ज़रूरी

उदाहरण: देसाई ब्रिटिश शासन के दौरान उभरते मध्य वर्ग, शिक्षित तबकों और शहरीकरण को इस नज़रिये से देखते हैं कि ये वर्ग कैसे राष्ट्रवादी विचारधारा के संवाहक बने। यह दृष्टिकोण केवल घटनाओं का नहीं, बल्कि उन घटनाओं के पीछे की सामाजिक ताक़तों का विश्लेषण करता है।


4. राष्ट्रवाद को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखना जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों से उत्पन्न हुआ

उदाहरण: रेलवे, टेलीग्राफ और आधुनिक शिक्षा जैसी चीज़ों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ा और एक ‘राष्ट्रीय चेतना’ को जन्म दिया। ये सभी परिवर्तन धीरे-धीरे लोगों को यह सोचने पर मजबूर करने लगे कि वे एक साझा राष्ट्र का हिस्सा हैं।


5. उद्देश्य: भारत में ब्रिटिश शासन के तहत हुए सामाजिक परिवर्तनों का विश्लेषण कर राष्ट्रवाद के उदय की पृष्ठभूमि को समझना

उदाहरण: देसाई यह दिखाते हैं कि कैसे ब्रिटिश शासन के तहत पुराने सामाजिक ढांचे जैसे जाति-आधारित पेशे, ग्राम-आधारित अर्थव्यवस्था टूटने लगे और नई पूंजीवादी व्यवस्था के उदय ने सामाजिक तनाव पैदा किया—जिसने अंततः राष्ट्रवाद को जन्म दिया।



मुख्य बिंदु:

  1. भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक स्रोतों को समझने की आवश्यकता।

  2. पारंपरिक दृष्टिकोणों की सीमाएँ—यह केवल नेताओं के कार्यों तक सीमित रहते हैं।

  3. समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद का अध्ययन ज़रूरी।

  4. राष्ट्रवाद को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखना जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों से उत्पन्न हुआ।

  5. उद्देश्य: भारत में ब्रिटिश शासन के तहत हुए सामाजिक परिवर्तनों का विश्लेषण कर राष्ट्रवाद के उदय की पृष्ठभूमि को समझना।


अध्याय 2: ब्रिटिश शासन की प्रकृति (Nature of British Rule in India)

बिलकुल, नीचे दिए गए पाँचों बिंदुओं को उदाहरणों सहित स्पष्ट किया गया है ताकि छात्र इसे बेहतर ढंग से समझ सकें:


अध्याय 2: ब्रिटिश शासन की प्रकृति   

  1. ब्रिटिश शासन मूलतः औपनिवेशिक और शोषणकारी था।

    • उदाहरण: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्लासी (1757) और बक्सर (1764) के युद्धों के बाद बंगाल का दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिया। इसके बाद उन्होंने राजस्व वसूली के माध्यम से भारतीय किसानों से अत्यधिक कर वसूले और उसे इंग्लैंड भेजा। यह एकतरफा शोषण था जिसमें भारत से धन बाहर गया और देश गरीब होता गया।
  2. भारत को एक कच्चे माल के स्रोत और रेडीमेड मार्केट के रूप में इस्तेमाल किया गया।

    • उदाहरण: भारत से कपास, अफीम, नील, जूट आदि का निर्यात इंग्लैंड के उद्योगों के लिए किया गया और बदले में इंग्लैंड में बने कपड़े भारत में बेचे गए। मैनचेस्टर के वस्त्र भारत में भारी मात्रा में आयात हुए, जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग को भारी नुकसान हुआ।
  3. अंग्रेजों ने भारतीय कृषि, हस्तशिल्प और व्यापार को बर्बाद किया।

    • उदाहरण: पारंपरिक बुनकरों को अंग्रेजी मिल-उद्योग के कारण रोज़गार से हाथ धोना पड़ा। धागा और कपड़ा विदेश से आने लगा और बनारस, ढाका जैसे केंद्र जहां की मलमल और रेशमी साड़ियाँ प्रसिद्ध थीं, बेरोजगारी और भूखमरी के केंद्र बन गए।
  4. रेलवे, डाक, टेलीग्राफ जैसे ढांचे औपनिवेशिक हितों के लिए बनाए गए।

    • उदाहरण: रेलवे लाइन मुख्यतः उन इलाकों को जोड़ने के लिए बिछाई गई जो कच्चा माल उत्पादित करते थे (जैसे कि चाय के बागान, कोयला खानें आदि) और जिनसे बंदरगाह तक माल आसानी से पहुँचाया जा सके (जैसे कलकत्ता, बॉम्बे)। यह भारतीय जनता की सुविधा से अधिक औपनिवेशिक व्यापार के लिए था।
  5. इस शासन ने भारतीय समाज को पूंजीवादी दिशा में बदलना शुरू किया।

    • उदाहरण: ज़मींदारी व्यवस्था और नकदी फसलों की खेती को बढ़ावा देकर ब्रिटिशों ने पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तोड़ा और पूंजीवादी भूमि संबंधों की शुरुआत की। इसके अलावा, रेलवे और बैंकिंग प्रणाली ने भी पूंजीवाद के प्रसार में योगदान दिया।


मुख्य बिंदु:

  1. ब्रिटिश शासन मूलतः औपनिवेशिक और शोषणकारी था।

  2. भारत को एक कच्चे माल के स्रोत और रेडीमेड मार्केट के रूप में इस्तेमाल किया गया।

  3. अंग्रेजों ने भारतीय कृषि, हस्तशिल्प और व्यापार को बर्बाद किया।

  4. रेलवे, डाक, टेलीग्राफ जैसे ढांचे औपनिवेशिक हितों के लिए बनाए गए।

  5. इस शासन ने भारतीय समाज को पूंजीवादी दिशा में बदलना शुरू किया।


अध्याय 3: भारत में औद्योगिक पूंजीवाद का विकास (Development of Modern Industry)



1. ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रभाव में भारत में पारंपरिक उद्योगों का पतन

स्पष्टीकरण:
ब्रिटिश शासन के दौरान इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति आई, जिससे मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर वस्त्र आदि उत्पादित होने लगे। इन सस्ते वस्त्रों ने भारत के पारंपरिक कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया।

उदाहरण:
बनारस और ढाका के बुनकरों की सूती और रेशमी वस्त्र शिल्प की अंतरराष्ट्रीय पहचान थी, लेकिन ब्रिटेन से सस्ते मिल-मेड कपड़े आने के बाद इनका बाजार खत्म हो गया। कई बुनकरों को या तो काम छोड़ना पड़ा या मजदूरी करनी पड़ी।


2. भारत में सीमित मात्रा में आधुनिक उद्योगों का विकास—मुख्यतः ब्रिटिश पूंजी से

स्पष्टीकरण:
भारत में जो आधुनिक उद्योग स्थापित हुए, वे मुख्यतः ब्रिटिश व्यापारिक हितों से प्रेरित थे और ब्रिटिश पूंजी से संचालित थे।

उदाहरण:
ब्रिटिश पूंजीपतियों द्वारा कोलकाता, मुंबई और मद्रास में जूट, कॉटन और चाय उद्योग स्थापित किए गए। ये उद्योग भारतीय श्रमिकों से संचालित होते थे, लेकिन लाभ ब्रिटिश पूंजीपतियों को जाता था।


3. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय पूंजीपतियों का उदय

स्पष्टीकरण:
इस काल में कुछ भारतीय व्यवसायियों ने उद्योगों में निवेश करना शुरू किया, जिससे एक उभरता हुआ भारतीय पूंजीपति वर्ग सामने आया।

उदाहरण:

  • जमशेदजी टाटा ने 1907 में Tata Iron and Steel Company (TISCO) की स्थापना की।
  • घनश्याम दास बिड़ला ने टेक्सटाइल और बाद में सीमेंट उद्योग में प्रवेश किया।
    इन्होंने भारतीय औद्योगिक स्वराज की कल्पना को बल दिया।

4. श्रमिक वर्ग का निर्माण—जो आगे चलकर मजदूर आंदोलनों में भाग लेने लगा

स्पष्टीकरण:
कारखानों, रेलवे और खदानों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी, जिससे एक संगठित श्रमिक वर्ग का विकास हुआ।

उदाहरण:
1918 में अहमदाबाद मिल मजदूर हड़ताल में महात्मा गांधी की मध्यस्थता में श्रमिकों ने सफल संघर्ष किया। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना हुई।


5. भारतीय पूंजीपति वर्ग का राष्ट्रवादी आंदोलन में एक सीमित लेकिन महत्वपूर्ण योगदान

स्पष्टीकरण:
भारतीय पूंजीपतियों ने कांग्रेस को आर्थिक सहायता दी और औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों का विरोध किया, लेकिन उनकी अपनी वर्गीय सीमाएं थीं।

उदाहरण:
बिड़ला और टाटा जैसे उद्योगपतियों ने कांग्रेस के अधिवेशनों को प्रायोजित किया। परंतु उन्होंने मजदूर आंदोलनों का खुलकर समर्थन नहीं किया क्योंकि उन्हें अपने व्यापारिक हितों की चिंता थी।



मुख्य बिंदु:

  1. ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रभाव में भारत में पारंपरिक उद्योगों का पतन।

  2. भारत में सीमित मात्रा में आधुनिक उद्योगों का विकास—मुख्यतः ब्रिटिश पूंजी से।

  3. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय पूंजीपतियों का उदय (जैसे टाटा, बिड़ला)।

  4. श्रमिक वर्ग का निर्माण—जो आगे चलकर मजदूर आंदोलनों में भाग लेने लगा।

  5. भारतीय पूंजीपति वर्ग का राष्ट्रवादी आंदोलन में एक सीमित लेकिन महत्वपूर्ण योगदान।


अध्याय 4: भारतीय समाज की संरचना (Structure of Indian Society)



1. भारत की सामाजिक संरचना में पारंपरिक सामंती और जाति व्यवस्था का प्रचलन था।

उदाहरण:
19वीं सदी में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में ज़मींदारी प्रथा प्रचलित थी, जहाँ उच्च जाति के ज़मींदार भूमि के स्वामी थे और निम्न जातियों के लोग मज़दूर या बंधुआ किसान के रूप में काम करते थे। यह संबंध न केवल आर्थिक रूप से बल्कि जातिगत आधार पर भी तय होता था।


2. समाज में गहरे जातिवाद, सांप्रदायिकता और वर्गीय भेदभाव थे।

उदाहरण:
दलितों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं होती थी। मुस्लिम और हिंदू समुदायों के बीच धार्मिक त्योहारों के समय तनाव और दंगे की घटनाएँ जैसे 1920 के दशक के खिलाफत आंदोलन के दौरान देखी जा सकती हैं, जहाँ धार्मिक पहचान पर आधारित भेदभाव उभरा।


3. ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में सामाजिक असमानताओं को और बढ़ाया, क्योंकि उन्होंने पारंपरिक संरचनाओं का समर्थन किया।

उदाहरण:
ब्रिटिशों ने 1793 में स्थायी बंदोबस्त प्रणाली लागू की, जिससे ज़मींदारों को कानूनी रूप से भूमि का मालिक बना दिया गया और कृषक वर्ग और अधिक शोषित हो गया। जाति आधारित जनगणना और जातियों को प्रशासनिक वर्गों में विभाजित करना भी सामाजिक बंटवारे को बढ़ाने वाला कदम था।


4. भारतीय समाज में सामाजिक विभाजन का भी प्रभाव पड़ा, जिससे एकजुटता की भावना में कमी आई।

उदाहरण:
स्वदेशी आंदोलन के दौरान उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के लोग समान रूप से भाग नहीं ले पाए। उच्च जाति के नेताओं और निम्न जाति के समूहों के बीच विश्वास की कमी थी, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन में एक समग्र एकजुटता नहीं बन पाई।


5. राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने में सामाजिक असमानताओं और वर्ग संघर्षों का एक प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू था।

उदाहरण:
कांग्रेस पार्टी में मध्यम वर्गीय शिक्षित लोग तो सक्रिय थे, परंतु खेतिहर मज़दूर, आदिवासी और स्त्रियों की भागीदारी सीमित रही। यह इसलिए हुआ क्योंकि उनकी समस्याएँ वर्गीय या जातीय असमानता से जुड़ी थीं, जिन्हें राष्ट्रवादी नेतृत्व ने पर्याप्त रूप से नहीं उठाया।



मुख्य बिंदु:

  1. भारत की सामाजिक संरचना में पारंपरिक सामंती और जाति व्यवस्था का प्रचलन था।

  2. समाज में गहरे जातिवाद, सांप्रदायिकता और वर्गीय भेदभाव थे।

  3. ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में सामाजिक असमानताओं को और बढ़ाया, क्योंकि उन्होंने पारंपरिक संरचनाओं का समर्थन किया।

  4. भारतीय समाज में सामाजिक विभाजन का भी प्रभाव पड़ा, जिससे एकजुटता की भावना में कमी आई।

  5. राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने में सामाजिक असमानताओं और वर्ग संघर्षों का एक प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू था।


अध्याय 5: मध्यवर्ग का उदय (Emergence of the Middle Class)



अध्याय 5: मध्यवर्ग का उदय (Emergence of the Middle Class)

मुख्य बिंदुओं की व्याख्या उदाहरण सहित:

  1. अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासनिक ढाँचे के कारण एक नया मध्यवर्ग पैदा हुआ।

    • उदाहरण: 1835 में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के तहत अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा मिला। इसके परिणामस्वरूप बाबू रघुनाथ राव जैसे कई लोग अंग्रेजी पढ़े-लिखे होकर सरकारी नौकरियों में शामिल हुए। यह एक ऐसा वर्ग था जो पारंपरिक ज़मींदारों या किसानों से अलग था।
  2. यह वर्ग ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में विकसित हुआ और इसने आधुनिक विचारों को अपनाया।

    • उदाहरण: कोलकाता, मुंबई और मद्रास जैसे शहरों में शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हुआ। ये लोग समाचार पत्र पढ़ते थे, क्लबों में चर्चा करते थे और पश्चिमी लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने लगे थे।
  3. मध्यवर्ग ने राष्ट्रवाद के विचारों को अपनाया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध तैयार किया।

    • उदाहरण: दादाभाई नैरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे लोग इसी मध्यवर्ग से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई और ब्रिटिश शासन की आलोचना की।
  4. इस वर्ग ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहित किया।

    • उदाहरण: राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया और ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसी तरह ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया। ये सभी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से थे।
  5. हालांकि, मध्यवर्ग का राजनीतिक प्रभाव सीमित था क्योंकि यह ज़्यादातर अभिजात्य वर्ग से संबंधित था।

    • उदाहरण: शुरुआती राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा अंग्रेज़ी थी और इसमें गांवों के किसानों या श्रमिकों की भागीदारी नहीं थी। इस कारण यह आंदोलन एक सीमित शिक्षित वर्ग तक ही केंद्रित रहा, जिससे उसका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ पाया।


मुख्य बिंदु:

  1. अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासनिक ढाँचे के कारण एक नया मध्यवर्ग पैदा हुआ।

  2. यह वर्ग ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में विकसित हुआ और इसने आधुनिक विचारों को अपनाया।

  3. मध्यवर्ग ने राष्ट्रवाद के विचारों को अपनाया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध तैयार किया।

  4. इस वर्ग ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहित किया।

  5. हालांकि, मध्यवर्ग का राजनीतिक प्रभाव सीमित था क्योंकि यह ज़्यादातर अभिजात्य वर्ग से संबंधित था।


अध्याय 6: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय (The Rise of Indian National Congress)



5. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रवाद को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में कैसे विस्तृत किया?

शुरुआत में कांग्रेस का स्वरूप संविधानिक सुधारों और ब्रिटिश सरकार के सहयोग तक सीमित था, लेकिन समय के साथ यह एक जन आंदोलन में बदल गया। इसके पीछे कई कारण और प्रक्रियाएँ थीं:

(क) जन भागीदारी में वृद्धि:

  • शुरुआत में कांग्रेस में केवल शिक्षित मध्यम वर्ग की भागीदारी थी।
  • लेकिन 1905 के बंग-भंग आंदोलन (Partition of Bengal) के बाद छात्रों, महिलाओं, किसानों और श्रमिकों ने भी आंदोलन में भाग लेना शुरू किया।
  • इससे यह केवल एक राजनीतिक मंच नहीं रहा, बल्कि सामाजिक असंतोष की भी अभिव्यक्ति बन गया।

उदाहरण:

  • 1905 में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें आम जनता ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग शुरू किया।
  • इसने आर्थिक आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक आत्मगौरव को बढ़ावा दिया।

(ख) सामाजिक मुद्दों को स्थान देना:

  • कांग्रेस के मंच से सती प्रथा, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा, और अछूतों की स्थिति जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी चर्चा होने लगी।
  • यह दिखाता है कि राष्ट्रवाद केवल विदेशी शासन के विरुद्ध नहीं था, बल्कि भारतीय समाज के आंतरिक सुधारों से भी जुड़ गया।

उदाहरण:

  • गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने हरिजन आंदोलन (अछूतों के अधिकारों के लिए) शुरू किया।
  • खिलाफत आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को जोड़कर सामाजिक एकता को बल दिया गया।

(ग) राजनीतिक कार्यक्रमों का विस्तार:

  • 1920 के बाद कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे बड़े जनआंदोलनों का नेतृत्व किया।
  • इससे यह साफ हो गया कि कांग्रेस अब केवल सुधारवादी संगठन नहीं रहा, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करने वाला क्रांतिकारी संगठन बन गया।

उदाहरण:

  • 1920 का असहयोग आंदोलन: जनता ने सरकारी नौकरियाँ, स्कूल, अदालतें छोड़ दीं।
  • 1930 का नमक सत्याग्रह: गांधीजी के नेतृत्व में जन-सहभागिता के साथ ब्रिटिश कानून को चुनौती दी गई।

अतः

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने धीरे-धीरे राष्ट्रवाद को एक ऐसा मंच बना दिया जिसमें राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और जन सहभागिता का समावेश हुआ। इससे यह संगठन पूरे भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बन गया।



मुख्य बिंदु:

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना 1885 में हुई, जिसका उद्देश्य भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना था।

  2. शुरुआत में INC एक मध्यवर्गीय संगठन था, जो अंग्रेज़ों से सहयोग के लिए तैयार था।

  3. भारतीय राष्ट्रवाद ने इस संगठन के माध्यम से धीरे-धीरे राजनीतिक आंदोलन का रूप लिया।

  4. INC ने भारतीयों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रस्ताव दिए, लेकिन इसे पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार से स्वतंत्रता प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं था।

  5. बाद में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रवाद को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में विस्तृत किया।


अध्याय 7: सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रभाव (Impact of Social Reform Movements)

मुख्य बिंदु:

  1. भारतीय समाज में बदलाव की प्रक्रिया को तेज़ करने वाले विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदय हुआ।

  2. ब्रह्म समाज, आर्य समाज, और प्रार्थना समाज जैसे आंदोलनों ने भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

  3. इन आंदोलनों ने जातिवाद, स्त्री शिक्षा, और बाल विवाह जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी।

  4. समाज के सुधारकों ने भारतीय समाज में पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों को लागू करने का प्रयास किया।

  5. इन आंदोलनों ने भारतीयों को स्वतंत्रता और समानता की दिशा में प्रेरित किया, जो आगे चलकर राष्ट्रवादी आंदोलन का हिस्सा बने।


अध्याय 8: जातिवाद और भारतीय राष्ट्रवाद (Caste and Indian Nationalism)

मुख्य बिंदु:

  1. जातिवाद भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, और यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक बड़ी चुनौती थी।

  2. जातिवाद ने समाज में सामाजिक असमानताओं को बढ़ाया और एकजुटता की भावना को कमजोर किया।

  3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने शुरुआत में जातिवाद को नज़रअंदाज किया, लेकिन धीरे-धीरे इसे आंदोलन का हिस्सा बनाया।

  4. दलित और आदिवासी आंदोलनों ने राष्ट्रवाद के अंदर जातिवाद के विरुद्ध एक स्वतंत्र धारा विकसित की।

  5. जातिवाद का उन्मूलन भारतीय राष्ट्रवाद के एजेंडे का महत्वपूर्ण हिस्सा बना।


अध्याय 9: भारतीय महिलाओं का योगदान (Role of Indian Women)

मुख्य बिंदु:

  1. भारतीय महिलाओं ने समाज सुधार आंदोलनों और राष्ट्रवादी संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया।

  2. रानी जिजाऊ, आर्याबाई, और सावित्रीबाई फुले जैसी महिलाओं ने भारतीय समाज में बदलाव लाने की कोशिश की।

  3. महिलाओं की भूमिका सिर्फ घर तक सीमित नहीं थी, वे समाज सुधार और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगीं।

  4. शिक्षा और स्त्री अधिकारों की दिशा में किए गए सुधारों ने भारतीय महिलाओं को एक नई दिशा दिखाई।

  5. महिला कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सुधार के मुद्दों पर जोर दिया।


अध्याय 10: भारतीय राष्ट्रवाद के विविध रूप (Diverse Forms of Indian Nationalism)

मुख्य बिंदु:

  1. भारतीय राष्ट्रवाद एक बहु-आयामी आंदोलन था, जिसमें विभिन्न वर्गों, धर्मों, और जातियों का योगदान था।

  2. यह आंदोलन विविध प्रकार के राजनीतिक विचारधाराओं का समावेश करता था, जिनमें धार्मिक, सामाजिक, और आर्थिक विचारधाराएँ शामिल थीं।

  3. भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषता यह थी कि यह संविधान, अधिकार और स्वराज की अवधारणाओं को लेकर चलता था।

  4. गांधीवादी विचारधारा ने भारतीय राष्ट्रवाद को गांधीवाद की उच्च मानवीय और अहिंसक दिशा दी, जबकि नेहरूवाद ने इसे एक आधुनिक, औद्योगिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद में बदल दिया।

  5. इसके अतिरिक्त, समाजवादी और कम्युनिस्ट धारा ने भी राष्ट्रवाद को अपने विचारों से प्रभावित किया, जो आर्थिक समानता और वर्ग संघर्ष पर आधारित थी।

  6. संस्कृतिवादी और हिंदू राष्ट्रवाद की धाराओं ने भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपराओं पर जोर दिया।

  7. हालांकि इन सभी धाराओं में भिन्नताएँ थीं, लेकिन सभी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया।

  8. भारतीय राष्ट्रवाद की विविधता और विभाजन के बावजूद, यह एक साझा उद्देश्य—स्वतंत्रता—के प्रति प्रतिबद्ध था।


अध्याय 11: निष्कर्ष (Conclusion)

मुख्य बिंदु:

  1. A. R. देसाई ने निष्कर्ष निकाला कि भारतीय राष्ट्रवाद केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आंदोलन था, जो भारतीय समाज में गहरे बदलावों का कारण बना।

  2. ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में पूंजीवादी संरचनाओं और औद्योगिक विकास की दिशा को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आधार तैयार हुआ।

  3. हालांकि, भारतीय राष्ट्रवाद में विभिन्न वर्गीय और जातिवादी अंतर्विरोध थे, लेकिन यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक सामान्य संघर्ष था।

  4. देसाई के अनुसार, भारतीय राष्ट्रवाद का यह समाजशास्त्रीय विश्लेषण भविष्य में अन्य उपनिवेशों और विकासशील देशों के राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए मार्गदर्शन कर सकता है।

  5. अंततः, भारतीय राष्ट्रवाद की वास्तविक ताकत उसकी सामाजिक एकता और समाज के विभिन्न वर्गों के द्वारा किए गए संघर्षों में निहित थी।



पुनश्चः


A. R. Desai – Social Background of Indian Nationalism (Point-wise Summary)

1. उद्देश्य और दृष्टिकोण:

  • भारतीय राष्ट्रवाद को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास।

  • राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं का परिणाम माना गया है।

2. ब्रिटिश शासन और सामाजिक परिवर्तन:

  • ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत में नए आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे को जन्म दिया।

  • अंग्रेज़ों द्वारा लाई गई पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने पारंपरिक समाज में दरारें डालीं।

3. सामंती व्यवस्था का विघटन:

  • ज़मींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, और राजस्व प्रणाली ने पारंपरिक सामंती संरचना को कमजोर किया।

  • कृषि समाज में वर्ग विभाजन और असमानताएँ बढ़ीं।

4. आधुनिक शिक्षित मध्यवर्ग का उदय:

  • अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक नया मध्यवर्ग विकसित हुआ।

  • यह वर्ग राष्ट्रवादी विचारों और आधुनिक मूल्यों को अपनाने वाला बना।

5. नई सामाजिक शक्तियाँ:

  • पूंजीपति वर्ग, शहरी श्रमिक वर्ग, कृषक वर्ग आदि स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए।

  • इन वर्गों के भिन्न-भिन्न हित राष्ट्रवाद की विविध धाराओं को जन्म देते हैं।

6. सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रभाव:

  • ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज जैसे आंदोलनों ने सामाजिक चेतना को जगाया।

  • जाति, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि मुद्दों पर जनचेतना बढ़ी।

7. भारतीय राष्ट्रवाद की प्रकृति:

  • देसाई के अनुसार, भारतीय राष्ट्रवाद एक जनांदोलन था, जो विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों की आकांक्षाओं से प्रेरित था।

  • यह केवल एक अभिजात वर्गीय आंदोलन नहीं था, बल्कि श्रमिकों, किसानों और मध्यवर्गीय युवाओं का सम्मिलित प्रयास था।

8. पूंजीवाद और राष्ट्रवाद का संबंध:

  • भारतीय पूंजीपति वर्ग ने स्वतंत्रता का समर्थन किया, लेकिन अपने वर्गीय हितों को प्राथमिकता दी।

  • राष्ट्रवाद के भीतर वर्गीय अंतर्विरोध भी मौजूद रहे।

9. मार्क्सवादी विश्लेषण का आधार:

  • A. R. देसाई का पूरा विश्लेषण मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर आधारित है।

  • उन्होंने राष्ट्रवाद को सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की उपज बताया है, न कि केवल सांस्कृतिक या भावनात्मक प्रतिक्रिया।


मार्क्सवादी दृष्टिकोण



ए. आर. देसाई का मार्क्सवादी दृष्टिकोण: भारतीय समाज का अध्ययन-


1. ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की आधारभूमि

ए. आर. देसाई एक मार्क्सवादी समाजशास्त्री थे। उन्होंने कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, और लियोन ट्रॉट्स्की जैसे विचारकों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय समाज को समझने में लागू किया।

ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Historical-Dialectical Materialism) क्या है?

यह एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण है, जो मानता है कि समाज का विकास वस्तु उत्पादन के तरीके (means of production) और वर्ग-संघर्ष (class struggle) के आधार पर होता है। इसके मुख्य बिंदु:

  1. इतिहास का विकास द्वंद्वात्मक है – यानी समाज में लगातार विरोधी शक्तियाँ टकराती हैं (जैसे शोषक और शोषित वर्ग), जिससे परिवर्तन होता है।

  2. भौतिक आधार प्राथमिक है – यानी विचारों से पहले आर्थिक संरचना आती है। समाज में बदलाव तब आता है जब उत्पादन के साधनों में बदलाव होता है (जैसे खेती से उद्योग की ओर संक्रमण)।

  3. वर्ग-संघर्ष परिवर्तन की कुंजी है – जब एक वर्ग दूसरे पर अत्याचार करता है, तो संघर्ष होता है और इससे समाज की संरचना बदलती है।

ए. आर. देसाई का दृष्टिकोण

ए. आर. देसाई ने भारत में समाज के अध्ययन के लिए इस सिद्धांत को अपनाया और कहा कि:

  • भारतीय समाज को केवल सांस्कृतिक या धार्मिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता।

  • हमें देखना होगा कि भारत में उत्पादन के तरीके (जैसे सामंती खेती, औद्योगिक पूंजीवाद) कैसे बदले और इससे समाज में वर्ग-संघर्ष कैसे उत्पन्न हुआ।

  • जैसे-जैसे उत्पादन के तरीके बदलते हैं, समाज में नए वर्ग बनते हैं और पुराने वर्गों का विघटन होता है। यह प्रक्रिया समाज में परिवर्तन लाती है।

इसलिए ए. आर. देसाई के अनुसार, भारत में सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए हमें उसके आर्थिक आधार, उत्पादन के साधनों, और वर्ग-संघर्ष की प्रक्रिया को समझना ज़रूरी है।



ए. आर. देसाई ने कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स के सिद्धांतों का गहन अध्ययन कर भारतीय समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Historical-Dialectical Materialism) को अपनाया। वे सामाजिक परिवर्तन को उत्पादन के तरीकों और वर्ग-संघर्ष के संदर्भ में व्याख्यायित करते थे।

उदाहरण: औपनिवेशिक भारत में ज़मींदारी व्यवस्था और किसानों का संघर्ष

ब्रिटिश शासन के दौरान, भारत में ज़मींदारी व्यवस्था लागू की गई। इसमें ज़मींदार भूमि के मालिक बन गए और किसान उनसे ज़मीन लेकर खेती करने लगे।

1. उत्पादन का तरीका (Mode of Production):

ब्रिटिशों ने कर वसूलने के लिए कृषि को एक व्यावसायिक उत्पादन प्रणाली में बदल दिया। इससे ज़मींदारों की भूमिका मजबूत हो गई, और किसान शोषित वर्ग बन गए।

2. वर्ग-संघर्ष (Class Struggle):

किसान अधिक कर, बेदखली और शोषण से परेशान होकर विद्रोह करने लगे। जैसे:

  • बंगाल में नील विद्रोह (1859-60)

  • उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलनों का उभार

  • बाद में गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आंदोलन (1917)

3. सामाजिक परिवर्तन:

इन आंदोलनों के कारण:

  • जनता में राजनीतिक चेतना आई,

  • किसान संगठित हुए,

  • स्वतंत्रता आंदोलन को बल मिला,

  • और अंततः ज़मींदारी प्रथा का अंत हुआ (1947 के बाद ज़मींदारी उन्मूलन कानूनों द्वारा)।

निष्कर्ष:

इस उदाहरण में हम देखते हैं कि उत्पादन की प्रणाली में बदलाव (जैसे औपनिवेशिक कृषि व्यवस्था) और वर्ग-संघर्ष (किसान बनाम ज़मींदार) के कारण भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन आया।

यही ए. आर. देसाई का दृष्टिकोण था – कि भारतीय समाज को समझने के लिए हमें आर्थिक संरचना और वर्ग-संघर्ष को केंद्रीय तत्व मानना चाहिए।

ज़रूर, आइए अब दूसरा उदाहरण लेते हैं — भारत में औद्योगीकरण और श्रमिक वर्ग का संघर्ष — जिसे ए. आर. देसाई के ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।


उदाहरण: औद्योगीकरण और श्रमिक वर्ग का संघर्ष

1. उत्पादन का तरीका (Mode of Production):

19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में कपड़ा, कोयला, और लोहा-इस्पात उद्योग विकसित होने लगे। इससे पारंपरिक दस्तकारी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई, और एक नया श्रमिक वर्ग (working class) सामने आया।

2. वर्ग-संघर्ष (Class Struggle):

  • उद्योगों में श्रमिकों से 12–14 घंटे काम लिया जाता था, मजदूरी कम थी, और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं थी।

  • इस शोषण के विरुद्ध श्रमिकों ने संगठित होना शुरू किया। जैसे:

    • 1918 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन का गठन (महात्मा गांधी और अनसूया साराभाई की मदद से)

    • 1920 में AITUC (All India Trade Union Congress) की स्थापना

    • 1930–40 के दशक में मजदूर आंदोलनों और हड़तालों की बाढ़ आ गई।

3. सामाजिक परिवर्तन:

  • श्रमिकों के संघर्षों के कारण श्रम कानून बने (जैसे फैक्ट्री एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट),

  • मजदूरों को कुछ अधिकार प्राप्त हुए (जैसे काम के घंटे, न्यूनतम मजदूरी),

  • समाज में वर्गीय चेतना का विकास हुआ,

  • और राजनीतिक पार्टियों (जैसे कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी) का आधार मज़बूत हुआ।


अंतत

यह उदाहरण भी दिखाता है कि उत्पादन के साधनों में बदलाव (औद्योगीकरण) ने नए वर्ग (श्रमिक वर्ग) को जन्म दिया, और इनकी स्थिति ने वर्ग-संघर्ष को जन्म दिया। इसी संघर्ष के ज़रिए भारत में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन संभव हुआ।

ए. आर. देसाई इसी तरह के उदाहरणों के ज़रिए यह बताते हैं कि भारतीय समाज को समझने के लिए केवल संस्कृति या परंपरा नहीं, बल्कि आर्थिक ढांचे और वर्गीय गतिशीलता को देखना ज़रूरी है।



2. आर्थिक आधार पर सामाजिक संस्थाओं की व्याख्या: देसाई का दृष्टिकोण (उदाहरण सहित)
भारतीय समाजशास्त्री ए.आर. देसाई (A.R. Desai) ने सामाजिक संस्थाओं के अध्ययन में मार्क्सवादी दृष्टिकोण को अपनाया। उनके अनुसार, समाज की संरचना को समझने के लिए आर्थिक आधार सबसे महत्त्वपूर्ण है। वे मानते थे कि धर्म, संस्कृति, परंपरा, परिवार आदि संस्थाएं असल में समाज की आर्थिक संरचना से गहराई से जुड़ी होती हैं, और इनका उद्देश्य मौजूदा आर्थिक ढांचे को बनाए रखना होता है।


1. धार्मिक परंपराएं और आर्थिक संरचना:
देसाई के अनुसार, धार्मिक परंपराएं केवल आध्यात्मिक नहीं होतीं, बल्कि वे शोषण के औजार के रूप में काम करती हैं। वे यह बताते हैं कि कैसे धर्म के माध्यम से वर्ग भेद और जाति व्यवस्था को वैधता दी जाती है।

उदाहरण:
भारतीय जाति व्यवस्था में शूद्रों और अछूतों को धार्मिक मान्यताओं के आधार पर शारीरिक श्रम तक सीमित किया गया, जबकि ब्राह्मणों को ज्ञान और पूजा का अधिकार दिया गया। देसाई मानते हैं कि यह विभाजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक था, ताकि श्रम करने वाले वर्गों को नीचा दिखाकर पूंजी और शक्ति का केंद्रीकरण संभव हो सके।


2. परिवार संस्था का आर्थिक उद्देश्य:
देसाई के अनुसार, पारंपरिक भारतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था भी एक आर्थिक संस्था है, जिसका उद्देश्य संपत्ति और संसाधनों का नियंत्रण बनाए रखना है।

उदाहरण:
संयुक्त परिवार व्यवस्था में संपत्ति का नियंत्रण बड़े पुरुष सदस्य के पास होता था। महिलाओं और कनिष्ठ पुरुषों की आर्थिक निर्भरता बनी रहती थी, जिससे पितृसत्ता और वर्ग-शक्ति बनी रहती थी।


3. विवाह संस्था और पूंजी का नियंत्रण:
देसाई ने विवाह संस्था को भी एक आर्थिक गठबंधन के रूप में देखा, जो जाति और वर्ग व्यवस्था को बनाए रखता है।

उदाहरण:
सगोत्र विवाह या अंतर्जातीय विवाह का विरोध इस कारण होता है कि इससे संपत्ति और सामाजिक स्थिति का स्थानांतरण हो सकता है। विवाह के ज़रिये पूंजी, ज़मीन और सामाजिक पूंजी को अपने ही वर्ग और जाति में सीमित रखने का प्रयास होता है।


4. परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों की भूमिका:
देसाई कहते हैं कि संस्कृति और परंपरा का उपयोग आर्थिक शोषण को वैध बनाने के लिए किया जाता है। जैसे कि “कर्म सिद्धांत” यह दर्शाता है कि गरीब होना पिछले जन्म का फल है — यह विचार आर्थिक असमानता को स्वीकार्य बनाने में सहायक होता है।



A.R. देसाई का तर्क है कि भारतीय समाज की धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक संस्थाएं मूलतः आर्थिक हितों की रक्षा के लिए कार्य करती हैं। वे इन संस्थाओं को भ्रामक चेतना (False Consciousness) के रूप में देखते हैं, जो आम जनता को यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रेरित करती हैं। इस तरहदेसाई ने परंपराओं को धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से अधिक, आर्थिक संरचनाओं से जोड़कर देखा।

  • जाति व्यवस्था का उदाहरण: उनके अनुसार जाति एक स्थिर संरचना नहीं थी। आर्थिक संकट, प्रवास और आजीविका की आवश्यकताओं के चलते जातियां व्यवहार और कार्य के स्तर पर समझौते करती थीं, जिससे जाति का रूपांतरण वर्ग में होता गया।

3. मैक्रो-स्तरीय विश्लेषण की प्रवृत्ति
जब समकालीन समाजशास्त्री ग्राम्य संरचनाओं (Micro-level) पर केंद्रित थे, देसाई ने राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, कृषि संरचना, राज्य और सामाजिक आंदोलनों जैसे व्यापक (Macro-level) पहलुओं का विश्लेषण किया।

4. भारतीय राष्ट्रवाद की मार्क्सवादी व्याख्या

  • अपनी प्रसिद्ध कृति The Social Background of Indian Nationalism में उन्होंने राष्ट्रवाद को उपनिवेशवाद के साथ जुड़े सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का परिणाम माना।

  • ब्रिटिश शासन द्वारा लाई गई संरचनाएं (रेल, डाक, उद्योग) ने सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे राष्ट्रवादी चेतना का उदय हुआ।

  • देसाई के अनुसार राष्ट्रीय आंदोलन में पूंजीपति वर्ग का नेतृत्व रहा, विशेषतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से।

5. राज्य, अधिकार और सामाजिक आंदोलन

  • स्वतंत्र भारत में देसाई ने राज्य की दमनकारी भूमिका की आलोचना की, विशेषकर अल्पसंख्यकों, महिलाओं और शहरी गरीबों के अधिकारों के हनन के संदर्भ में (Violation of Democratic Rights in India)।

  • उन्होंने समाजवादी परिवर्तन के लिए जनांदोलनों को एक आवश्यक माध्यम माना।

6. आलोचनात्मक दृष्टिकोण

  • विद्वानों जैसे सुजाता पटेल का तर्क है कि देसाई ने आर्थिक निर्धारकों पर अत्यधिक बल दिया, जिससे जाति और वर्ग के अंतर्संबंधों की जटिलता को उचित महत्व नहीं मिला।

  • उनकी त्रिकोणीय कृषि वर्गीकरण प्रणाली (जमींदार–मध्यम किसान–भूमिहीन किसान) तथा हरित क्रांति की आलोचना को अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर चुनौती दी गई।

7. समकालीन प्रासंगिकता

  • देसाई का कार्य उस समय के प्रमुख अमेरिकी संरचनात्मक-कार्यात्मकवाद और ब्रिटिश कार्यात्मक परंपरा के विरुद्ध एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।

  • उन्होंने भारतीय समाजशास्त्र में मार्क्सवाद को सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई।

  • आज भी उनके विचार सामाजिक असमानताओं, पूंजीवाद, और सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन में मार्गदर्शक हैं।