राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय रानीखेत
Unit 5
A. R. देसाई
(Social Background of Indian Nationalism)
अध्याय 1: भूमिका (Introduction)
1. भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक स्रोतों को समझने की आवश्यकता
उदाहरण: अगर हम केवल 1857 के विद्रोह को राष्ट्रवाद मान लें, तो हम उससे पहले की सामाजिक असंतोष की लहरों जैसे किसानों, कारीगरों और निम्न वर्गों के संघर्षों को नज़रअंदाज़ कर देंगे। देसाई यह दर्शाना चाहते हैं कि राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक नेतृत्व से नहीं, बल्कि समाज की अंदरूनी गतिशीलता से उपजता है।
2. पारंपरिक दृष्टिकोणों की सीमाएँ—यह केवल नेताओं के कार्यों तक सीमित रहते हैं
उदाहरण: पारंपरिक इतिहास गांधी, नेहरू या तिलक जैसे नेताओं की भूमिका पर ध्यान देता है, लेकिन देसाई बताते हैं कि राष्ट्रवाद के बीज तो तब पड़े जब औद्योगिकीकरण, आधुनिक शिक्षा और प्रेस के ज़रिये आम जनता की सोच में बदलाव आने लगा।
3. समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद का अध्ययन ज़रूरी
उदाहरण: देसाई ब्रिटिश शासन के दौरान उभरते मध्य वर्ग, शिक्षित तबकों और शहरीकरण को इस नज़रिये से देखते हैं कि ये वर्ग कैसे राष्ट्रवादी विचारधारा के संवाहक बने। यह दृष्टिकोण केवल घटनाओं का नहीं, बल्कि उन घटनाओं के पीछे की सामाजिक ताक़तों का विश्लेषण करता है।
4. राष्ट्रवाद को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखना जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों से उत्पन्न हुआ
उदाहरण: रेलवे, टेलीग्राफ और आधुनिक शिक्षा जैसी चीज़ों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ा और एक ‘राष्ट्रीय चेतना’ को जन्म दिया। ये सभी परिवर्तन धीरे-धीरे लोगों को यह सोचने पर मजबूर करने लगे कि वे एक साझा राष्ट्र का हिस्सा हैं।
5. उद्देश्य: भारत में ब्रिटिश शासन के तहत हुए सामाजिक परिवर्तनों का विश्लेषण कर राष्ट्रवाद के उदय की पृष्ठभूमि को समझना
उदाहरण: देसाई यह दिखाते हैं कि कैसे ब्रिटिश शासन के तहत पुराने सामाजिक ढांचे जैसे जाति-आधारित पेशे, ग्राम-आधारित अर्थव्यवस्था टूटने लगे और नई पूंजीवादी व्यवस्था के उदय ने सामाजिक तनाव पैदा किया—जिसने अंततः राष्ट्रवाद को जन्म दिया।
मुख्य बिंदु:
भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक स्रोतों को समझने की आवश्यकता।
पारंपरिक दृष्टिकोणों की सीमाएँ—यह केवल नेताओं के कार्यों तक सीमित रहते हैं।
समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद का अध्ययन ज़रूरी।
राष्ट्रवाद को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखना जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलावों से उत्पन्न हुआ।
उद्देश्य: भारत में ब्रिटिश शासन के तहत हुए सामाजिक परिवर्तनों का विश्लेषण कर राष्ट्रवाद के उदय की पृष्ठभूमि को समझना।
अध्याय 2: ब्रिटिश शासन की प्रकृति (Nature of British Rule in India)
बिलकुल, नीचे दिए गए पाँचों बिंदुओं को उदाहरणों सहित स्पष्ट किया गया है ताकि छात्र इसे बेहतर ढंग से समझ सकें:
अध्याय 2: ब्रिटिश शासन की प्रकृति
-
ब्रिटिश शासन मूलतः औपनिवेशिक और शोषणकारी था।
- उदाहरण: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्लासी (1757) और बक्सर (1764) के युद्धों के बाद बंगाल का दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिया। इसके बाद उन्होंने राजस्व वसूली के माध्यम से भारतीय किसानों से अत्यधिक कर वसूले और उसे इंग्लैंड भेजा। यह एकतरफा शोषण था जिसमें भारत से धन बाहर गया और देश गरीब होता गया।
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भारत को एक कच्चे माल के स्रोत और रेडीमेड मार्केट के रूप में इस्तेमाल किया गया।
- उदाहरण: भारत से कपास, अफीम, नील, जूट आदि का निर्यात इंग्लैंड के उद्योगों के लिए किया गया और बदले में इंग्लैंड में बने कपड़े भारत में बेचे गए। मैनचेस्टर के वस्त्र भारत में भारी मात्रा में आयात हुए, जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग को भारी नुकसान हुआ।
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अंग्रेजों ने भारतीय कृषि, हस्तशिल्प और व्यापार को बर्बाद किया।
- उदाहरण: पारंपरिक बुनकरों को अंग्रेजी मिल-उद्योग के कारण रोज़गार से हाथ धोना पड़ा। धागा और कपड़ा विदेश से आने लगा और बनारस, ढाका जैसे केंद्र जहां की मलमल और रेशमी साड़ियाँ प्रसिद्ध थीं, बेरोजगारी और भूखमरी के केंद्र बन गए।
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रेलवे, डाक, टेलीग्राफ जैसे ढांचे औपनिवेशिक हितों के लिए बनाए गए।
- उदाहरण: रेलवे लाइन मुख्यतः उन इलाकों को जोड़ने के लिए बिछाई गई जो कच्चा माल उत्पादित करते थे (जैसे कि चाय के बागान, कोयला खानें आदि) और जिनसे बंदरगाह तक माल आसानी से पहुँचाया जा सके (जैसे कलकत्ता, बॉम्बे)। यह भारतीय जनता की सुविधा से अधिक औपनिवेशिक व्यापार के लिए था।
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इस शासन ने भारतीय समाज को पूंजीवादी दिशा में बदलना शुरू किया।
- उदाहरण: ज़मींदारी व्यवस्था और नकदी फसलों की खेती को बढ़ावा देकर ब्रिटिशों ने पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तोड़ा और पूंजीवादी भूमि संबंधों की शुरुआत की। इसके अलावा, रेलवे और बैंकिंग प्रणाली ने भी पूंजीवाद के प्रसार में योगदान दिया।
मुख्य बिंदु:
ब्रिटिश शासन मूलतः औपनिवेशिक और शोषणकारी था।
भारत को एक कच्चे माल के स्रोत और रेडीमेड मार्केट के रूप में इस्तेमाल किया गया।
अंग्रेजों ने भारतीय कृषि, हस्तशिल्प और व्यापार को बर्बाद किया।
रेलवे, डाक, टेलीग्राफ जैसे ढांचे औपनिवेशिक हितों के लिए बनाए गए।
इस शासन ने भारतीय समाज को पूंजीवादी दिशा में बदलना शुरू किया।
अध्याय 3: भारत में औद्योगिक पूंजीवाद का विकास (Development of Modern Industry)
1. ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रभाव में भारत में पारंपरिक उद्योगों का पतन
स्पष्टीकरण:
ब्रिटिश शासन के दौरान इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति आई, जिससे मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर वस्त्र आदि उत्पादित होने लगे। इन सस्ते वस्त्रों ने भारत के पारंपरिक कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया।
उदाहरण:
बनारस और ढाका के बुनकरों की सूती और रेशमी वस्त्र शिल्प की अंतरराष्ट्रीय पहचान थी, लेकिन ब्रिटेन से सस्ते मिल-मेड कपड़े आने के बाद इनका बाजार खत्म हो गया। कई बुनकरों को या तो काम छोड़ना पड़ा या मजदूरी करनी पड़ी।
2. भारत में सीमित मात्रा में आधुनिक उद्योगों का विकास—मुख्यतः ब्रिटिश पूंजी से
स्पष्टीकरण:
भारत में जो आधुनिक उद्योग स्थापित हुए, वे मुख्यतः ब्रिटिश व्यापारिक हितों से प्रेरित थे और ब्रिटिश पूंजी से संचालित थे।
उदाहरण:
ब्रिटिश पूंजीपतियों द्वारा कोलकाता, मुंबई और मद्रास में जूट, कॉटन और चाय उद्योग स्थापित किए गए। ये उद्योग भारतीय श्रमिकों से संचालित होते थे, लेकिन लाभ ब्रिटिश पूंजीपतियों को जाता था।
3. 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय पूंजीपतियों का उदय
स्पष्टीकरण:
इस काल में कुछ भारतीय व्यवसायियों ने उद्योगों में निवेश करना शुरू किया, जिससे एक उभरता हुआ भारतीय पूंजीपति वर्ग सामने आया।
उदाहरण:
- जमशेदजी टाटा ने 1907 में Tata Iron and Steel Company (TISCO) की स्थापना की।
- घनश्याम दास बिड़ला ने टेक्सटाइल और बाद में सीमेंट उद्योग में प्रवेश किया।
इन्होंने भारतीय औद्योगिक स्वराज की कल्पना को बल दिया।
4. श्रमिक वर्ग का निर्माण—जो आगे चलकर मजदूर आंदोलनों में भाग लेने लगा
स्पष्टीकरण:
कारखानों, रेलवे और खदानों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी, जिससे एक संगठित श्रमिक वर्ग का विकास हुआ।
उदाहरण:
1918 में अहमदाबाद मिल मजदूर हड़ताल में महात्मा गांधी की मध्यस्थता में श्रमिकों ने सफल संघर्ष किया। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना हुई।
5. भारतीय पूंजीपति वर्ग का राष्ट्रवादी आंदोलन में एक सीमित लेकिन महत्वपूर्ण योगदान
स्पष्टीकरण:
भारतीय पूंजीपतियों ने कांग्रेस को आर्थिक सहायता दी और औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों का विरोध किया, लेकिन उनकी अपनी वर्गीय सीमाएं थीं।
उदाहरण:
बिड़ला और टाटा जैसे उद्योगपतियों ने कांग्रेस के अधिवेशनों को प्रायोजित किया। परंतु उन्होंने मजदूर आंदोलनों का खुलकर समर्थन नहीं किया क्योंकि उन्हें अपने व्यापारिक हितों की चिंता थी।
मुख्य बिंदु:
ब्रिटिश औद्योगीकरण के प्रभाव में भारत में पारंपरिक उद्योगों का पतन।
भारत में सीमित मात्रा में आधुनिक उद्योगों का विकास—मुख्यतः ब्रिटिश पूंजी से।
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय पूंजीपतियों का उदय (जैसे टाटा, बिड़ला)।
श्रमिक वर्ग का निर्माण—जो आगे चलकर मजदूर आंदोलनों में भाग लेने लगा।
भारतीय पूंजीपति वर्ग का राष्ट्रवादी आंदोलन में एक सीमित लेकिन महत्वपूर्ण योगदान।
अध्याय 4: भारतीय समाज की संरचना (Structure of Indian Society)
1. भारत की सामाजिक संरचना में पारंपरिक सामंती और जाति व्यवस्था का प्रचलन था।
उदाहरण:
19वीं सदी में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में ज़मींदारी प्रथा प्रचलित थी, जहाँ उच्च जाति के ज़मींदार भूमि के स्वामी थे और निम्न जातियों के लोग मज़दूर या बंधुआ किसान के रूप में काम करते थे। यह संबंध न केवल आर्थिक रूप से बल्कि जातिगत आधार पर भी तय होता था।
2. समाज में गहरे जातिवाद, सांप्रदायिकता और वर्गीय भेदभाव थे।
उदाहरण:
दलितों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं होती थी। मुस्लिम और हिंदू समुदायों के बीच धार्मिक त्योहारों के समय तनाव और दंगे की घटनाएँ जैसे 1920 के दशक के खिलाफत आंदोलन के दौरान देखी जा सकती हैं, जहाँ धार्मिक पहचान पर आधारित भेदभाव उभरा।
3. ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में सामाजिक असमानताओं को और बढ़ाया, क्योंकि उन्होंने पारंपरिक संरचनाओं का समर्थन किया।
उदाहरण:
ब्रिटिशों ने 1793 में स्थायी बंदोबस्त प्रणाली लागू की, जिससे ज़मींदारों को कानूनी रूप से भूमि का मालिक बना दिया गया और कृषक वर्ग और अधिक शोषित हो गया। जाति आधारित जनगणना और जातियों को प्रशासनिक वर्गों में विभाजित करना भी सामाजिक बंटवारे को बढ़ाने वाला कदम था।
4. भारतीय समाज में सामाजिक विभाजन का भी प्रभाव पड़ा, जिससे एकजुटता की भावना में कमी आई।
उदाहरण:
स्वदेशी आंदोलन के दौरान उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के लोग समान रूप से भाग नहीं ले पाए। उच्च जाति के नेताओं और निम्न जाति के समूहों के बीच विश्वास की कमी थी, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन में एक समग्र एकजुटता नहीं बन पाई।
5. राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने में सामाजिक असमानताओं और वर्ग संघर्षों का एक प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू था।
उदाहरण:
कांग्रेस पार्टी में मध्यम वर्गीय शिक्षित लोग तो सक्रिय थे, परंतु खेतिहर मज़दूर, आदिवासी और स्त्रियों की भागीदारी सीमित रही। यह इसलिए हुआ क्योंकि उनकी समस्याएँ वर्गीय या जातीय असमानता से जुड़ी थीं, जिन्हें राष्ट्रवादी नेतृत्व ने पर्याप्त रूप से नहीं उठाया।
मुख्य बिंदु:
भारत की सामाजिक संरचना में पारंपरिक सामंती और जाति व्यवस्था का प्रचलन था।
समाज में गहरे जातिवाद, सांप्रदायिकता और वर्गीय भेदभाव थे।
ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में सामाजिक असमानताओं को और बढ़ाया, क्योंकि उन्होंने पारंपरिक संरचनाओं का समर्थन किया।
भारतीय समाज में सामाजिक विभाजन का भी प्रभाव पड़ा, जिससे एकजुटता की भावना में कमी आई।
राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने में सामाजिक असमानताओं और वर्ग संघर्षों का एक प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू था।
अध्याय 5: मध्यवर्ग का उदय (Emergence of the Middle Class)
अध्याय 5: मध्यवर्ग का उदय (Emergence of the Middle Class)
मुख्य बिंदुओं की व्याख्या उदाहरण सहित:
-
अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासनिक ढाँचे के कारण एक नया मध्यवर्ग पैदा हुआ।
- उदाहरण: 1835 में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के तहत अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा मिला। इसके परिणामस्वरूप बाबू रघुनाथ राव जैसे कई लोग अंग्रेजी पढ़े-लिखे होकर सरकारी नौकरियों में शामिल हुए। यह एक ऐसा वर्ग था जो पारंपरिक ज़मींदारों या किसानों से अलग था।
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यह वर्ग ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में विकसित हुआ और इसने आधुनिक विचारों को अपनाया।
- उदाहरण: कोलकाता, मुंबई और मद्रास जैसे शहरों में शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हुआ। ये लोग समाचार पत्र पढ़ते थे, क्लबों में चर्चा करते थे और पश्चिमी लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने लगे थे।
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मध्यवर्ग ने राष्ट्रवाद के विचारों को अपनाया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध तैयार किया।
- उदाहरण: दादाभाई नैरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे लोग इसी मध्यवर्ग से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई और ब्रिटिश शासन की आलोचना की।
-
इस वर्ग ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहित किया।
- उदाहरण: राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया और ब्रह्म समाज की स्थापना की। इसी तरह ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया। ये सभी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से थे।
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हालांकि, मध्यवर्ग का राजनीतिक प्रभाव सीमित था क्योंकि यह ज़्यादातर अभिजात्य वर्ग से संबंधित था।
- उदाहरण: शुरुआती राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा अंग्रेज़ी थी और इसमें गांवों के किसानों या श्रमिकों की भागीदारी नहीं थी। इस कारण यह आंदोलन एक सीमित शिक्षित वर्ग तक ही केंद्रित रहा, जिससे उसका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ पाया।
मुख्य बिंदु:
अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासनिक ढाँचे के कारण एक नया मध्यवर्ग पैदा हुआ।
यह वर्ग ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में विकसित हुआ और इसने आधुनिक विचारों को अपनाया।
मध्यवर्ग ने राष्ट्रवाद के विचारों को अपनाया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध तैयार किया।
इस वर्ग ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहित किया।
हालांकि, मध्यवर्ग का राजनीतिक प्रभाव सीमित था क्योंकि यह ज़्यादातर अभिजात्य वर्ग से संबंधित था।
अध्याय 6: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय (The Rise of Indian National Congress)
5. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रवाद को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में कैसे विस्तृत किया?
शुरुआत में कांग्रेस का स्वरूप संविधानिक सुधारों और ब्रिटिश सरकार के सहयोग तक सीमित था, लेकिन समय के साथ यह एक जन आंदोलन में बदल गया। इसके पीछे कई कारण और प्रक्रियाएँ थीं:
(क) जन भागीदारी में वृद्धि:
- शुरुआत में कांग्रेस में केवल शिक्षित मध्यम वर्ग की भागीदारी थी।
- लेकिन 1905 के बंग-भंग आंदोलन (Partition of Bengal) के बाद छात्रों, महिलाओं, किसानों और श्रमिकों ने भी आंदोलन में भाग लेना शुरू किया।
- इससे यह केवल एक राजनीतिक मंच नहीं रहा, बल्कि सामाजिक असंतोष की भी अभिव्यक्ति बन गया।
उदाहरण:
- 1905 में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें आम जनता ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग शुरू किया।
- इसने आर्थिक आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक आत्मगौरव को बढ़ावा दिया।
(ख) सामाजिक मुद्दों को स्थान देना:
- कांग्रेस के मंच से सती प्रथा, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा, और अछूतों की स्थिति जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी चर्चा होने लगी।
- यह दिखाता है कि राष्ट्रवाद केवल विदेशी शासन के विरुद्ध नहीं था, बल्कि भारतीय समाज के आंतरिक सुधारों से भी जुड़ गया।
उदाहरण:
- गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने हरिजन आंदोलन (अछूतों के अधिकारों के लिए) शुरू किया।
- खिलाफत आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को जोड़कर सामाजिक एकता को बल दिया गया।
(ग) राजनीतिक कार्यक्रमों का विस्तार:
- 1920 के बाद कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे बड़े जनआंदोलनों का नेतृत्व किया।
- इससे यह साफ हो गया कि कांग्रेस अब केवल सुधारवादी संगठन नहीं रहा, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता की माँग करने वाला क्रांतिकारी संगठन बन गया।
उदाहरण:
- 1920 का असहयोग आंदोलन: जनता ने सरकारी नौकरियाँ, स्कूल, अदालतें छोड़ दीं।
- 1930 का नमक सत्याग्रह: गांधीजी के नेतृत्व में जन-सहभागिता के साथ ब्रिटिश कानून को चुनौती दी गई।
अतः
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने धीरे-धीरे राष्ट्रवाद को एक ऐसा मंच बना दिया जिसमें राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और जन सहभागिता का समावेश हुआ। इससे यह संगठन पूरे भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बन गया।
मुख्य बिंदु:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना 1885 में हुई, जिसका उद्देश्य भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना था।
शुरुआत में INC एक मध्यवर्गीय संगठन था, जो अंग्रेज़ों से सहयोग के लिए तैयार था।
भारतीय राष्ट्रवाद ने इस संगठन के माध्यम से धीरे-धीरे राजनीतिक आंदोलन का रूप लिया।
INC ने भारतीयों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रस्ताव दिए, लेकिन इसे पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार से स्वतंत्रता प्राप्त करने का लक्ष्य नहीं था।
बाद में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रवाद को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में विस्तृत किया।
अध्याय 7: सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रभाव (Impact of Social Reform Movements)
मुख्य बिंदु:
भारतीय समाज में बदलाव की प्रक्रिया को तेज़ करने वाले विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदय हुआ।
ब्रह्म समाज, आर्य समाज, और प्रार्थना समाज जैसे आंदोलनों ने भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इन आंदोलनों ने जातिवाद, स्त्री शिक्षा, और बाल विवाह जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी।
समाज के सुधारकों ने भारतीय समाज में पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों को लागू करने का प्रयास किया।
इन आंदोलनों ने भारतीयों को स्वतंत्रता और समानता की दिशा में प्रेरित किया, जो आगे चलकर राष्ट्रवादी आंदोलन का हिस्सा बने।
अध्याय 8: जातिवाद और भारतीय राष्ट्रवाद (Caste and Indian Nationalism)
मुख्य बिंदु:
जातिवाद भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, और यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक बड़ी चुनौती थी।
जातिवाद ने समाज में सामाजिक असमानताओं को बढ़ाया और एकजुटता की भावना को कमजोर किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने शुरुआत में जातिवाद को नज़रअंदाज किया, लेकिन धीरे-धीरे इसे आंदोलन का हिस्सा बनाया।
दलित और आदिवासी आंदोलनों ने राष्ट्रवाद के अंदर जातिवाद के विरुद्ध एक स्वतंत्र धारा विकसित की।
जातिवाद का उन्मूलन भारतीय राष्ट्रवाद के एजेंडे का महत्वपूर्ण हिस्सा बना।
अध्याय 9: भारतीय महिलाओं का योगदान (Role of Indian Women)
मुख्य बिंदु:
भारतीय महिलाओं ने समाज सुधार आंदोलनों और राष्ट्रवादी संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया।
रानी जिजाऊ, आर्याबाई, और सावित्रीबाई फुले जैसी महिलाओं ने भारतीय समाज में बदलाव लाने की कोशिश की।
महिलाओं की भूमिका सिर्फ घर तक सीमित नहीं थी, वे समाज सुधार और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगीं।
शिक्षा और स्त्री अधिकारों की दिशा में किए गए सुधारों ने भारतीय महिलाओं को एक नई दिशा दिखाई।
महिला कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सुधार के मुद्दों पर जोर दिया।
अध्याय 10: भारतीय राष्ट्रवाद के विविध रूप (Diverse Forms of Indian Nationalism)
मुख्य बिंदु:
भारतीय राष्ट्रवाद एक बहु-आयामी आंदोलन था, जिसमें विभिन्न वर्गों, धर्मों, और जातियों का योगदान था।
यह आंदोलन विविध प्रकार के राजनीतिक विचारधाराओं का समावेश करता था, जिनमें धार्मिक, सामाजिक, और आर्थिक विचारधाराएँ शामिल थीं।
भारतीय राष्ट्रवाद की मुख्य विशेषता यह थी कि यह संविधान, अधिकार और स्वराज की अवधारणाओं को लेकर चलता था।
गांधीवादी विचारधारा ने भारतीय राष्ट्रवाद को गांधीवाद की उच्च मानवीय और अहिंसक दिशा दी, जबकि नेहरूवाद ने इसे एक आधुनिक, औद्योगिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद में बदल दिया।
इसके अतिरिक्त, समाजवादी और कम्युनिस्ट धारा ने भी राष्ट्रवाद को अपने विचारों से प्रभावित किया, जो आर्थिक समानता और वर्ग संघर्ष पर आधारित थी।
संस्कृतिवादी और हिंदू राष्ट्रवाद की धाराओं ने भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपराओं पर जोर दिया।
हालांकि इन सभी धाराओं में भिन्नताएँ थीं, लेकिन सभी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया।
भारतीय राष्ट्रवाद की विविधता और विभाजन के बावजूद, यह एक साझा उद्देश्य—स्वतंत्रता—के प्रति प्रतिबद्ध था।
अध्याय 11: निष्कर्ष (Conclusion)
मुख्य बिंदु:
A. R. देसाई ने निष्कर्ष निकाला कि भारतीय राष्ट्रवाद केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आंदोलन था, जो भारतीय समाज में गहरे बदलावों का कारण बना।
ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में पूंजीवादी संरचनाओं और औद्योगिक विकास की दिशा को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आधार तैयार हुआ।
हालांकि, भारतीय राष्ट्रवाद में विभिन्न वर्गीय और जातिवादी अंतर्विरोध थे, लेकिन यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक सामान्य संघर्ष था।
देसाई के अनुसार, भारतीय राष्ट्रवाद का यह समाजशास्त्रीय विश्लेषण भविष्य में अन्य उपनिवेशों और विकासशील देशों के राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए मार्गदर्शन कर सकता है।
अंततः, भारतीय राष्ट्रवाद की वास्तविक ताकत उसकी सामाजिक एकता और समाज के विभिन्न वर्गों के द्वारा किए गए संघर्षों में निहित थी।
पुनश्चः
A. R. Desai – Social Background of Indian Nationalism (Point-wise Summary)
1. उद्देश्य और दृष्टिकोण:
भारतीय राष्ट्रवाद को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास।
राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं का परिणाम माना गया है।
2. ब्रिटिश शासन और सामाजिक परिवर्तन:
ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत में नए आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ढाँचे को जन्म दिया।
अंग्रेज़ों द्वारा लाई गई पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने पारंपरिक समाज में दरारें डालीं।
3. सामंती व्यवस्था का विघटन:
ज़मींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, और राजस्व प्रणाली ने पारंपरिक सामंती संरचना को कमजोर किया।
कृषि समाज में वर्ग विभाजन और असमानताएँ बढ़ीं।
4. आधुनिक शिक्षित मध्यवर्ग का उदय:
5. नई सामाजिक शक्तियाँ:
पूंजीपति वर्ग, शहरी श्रमिक वर्ग, कृषक वर्ग आदि स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए।
इन वर्गों के भिन्न-भिन्न हित राष्ट्रवाद की विविध धाराओं को जन्म देते हैं।
6. सामाजिक सुधार आंदोलनों का प्रभाव:
ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज जैसे आंदोलनों ने सामाजिक चेतना को जगाया।
जाति, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा, बाल विवाह आदि मुद्दों पर जनचेतना बढ़ी।
7. भारतीय राष्ट्रवाद की प्रकृति:
देसाई के अनुसार, भारतीय राष्ट्रवाद एक जनांदोलन था, जो विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों की आकांक्षाओं से प्रेरित था।
यह केवल एक अभिजात वर्गीय आंदोलन नहीं था, बल्कि श्रमिकों, किसानों और मध्यवर्गीय युवाओं का सम्मिलित प्रयास था।
8. पूंजीवाद और राष्ट्रवाद का संबंध:
भारतीय पूंजीपति वर्ग ने स्वतंत्रता का समर्थन किया, लेकिन अपने वर्गीय हितों को प्राथमिकता दी।
राष्ट्रवाद के भीतर वर्गीय अंतर्विरोध भी मौजूद रहे।
9. मार्क्सवादी विश्लेषण का आधार:
A. R. देसाई का पूरा विश्लेषण मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर आधारित है।
उन्होंने राष्ट्रवाद को सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की उपज बताया है, न कि केवल सांस्कृतिक या भावनात्मक प्रतिक्रिया।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण
ए. आर. देसाई का मार्क्सवादी दृष्टिकोण: भारतीय समाज का अध्ययन-
1. ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की आधारभूमि
ए. आर. देसाई एक मार्क्सवादी समाजशास्त्री थे। उन्होंने कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, और लियोन ट्रॉट्स्की जैसे विचारकों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय समाज को समझने में लागू किया।
ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Historical-Dialectical Materialism) क्या है?
यह एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण है, जो मानता है कि समाज का विकास वस्तु उत्पादन के तरीके (means of production) और वर्ग-संघर्ष (class struggle) के आधार पर होता है। इसके मुख्य बिंदु:
इतिहास का विकास द्वंद्वात्मक है – यानी समाज में लगातार विरोधी शक्तियाँ टकराती हैं (जैसे शोषक और शोषित वर्ग), जिससे परिवर्तन होता है।
भौतिक आधार प्राथमिक है – यानी विचारों से पहले आर्थिक संरचना आती है। समाज में बदलाव तब आता है जब उत्पादन के साधनों में बदलाव होता है (जैसे खेती से उद्योग की ओर संक्रमण)।
वर्ग-संघर्ष परिवर्तन की कुंजी है – जब एक वर्ग दूसरे पर अत्याचार करता है, तो संघर्ष होता है और इससे समाज की संरचना बदलती है।
ए. आर. देसाई का दृष्टिकोण
ए. आर. देसाई ने भारत में समाज के अध्ययन के लिए इस सिद्धांत को अपनाया और कहा कि:
भारतीय समाज को केवल सांस्कृतिक या धार्मिक दृष्टि से नहीं समझा जा सकता।
हमें देखना होगा कि भारत में उत्पादन के तरीके (जैसे सामंती खेती, औद्योगिक पूंजीवाद) कैसे बदले और इससे समाज में वर्ग-संघर्ष कैसे उत्पन्न हुआ।
जैसे-जैसे उत्पादन के तरीके बदलते हैं, समाज में नए वर्ग बनते हैं और पुराने वर्गों का विघटन होता है। यह प्रक्रिया समाज में परिवर्तन लाती है।
इसलिए ए. आर. देसाई के अनुसार, भारत में सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए हमें उसके आर्थिक आधार, उत्पादन के साधनों, और वर्ग-संघर्ष की प्रक्रिया को समझना ज़रूरी है।
ए. आर. देसाई ने कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स के सिद्धांतों का गहन अध्ययन कर भारतीय समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Historical-Dialectical Materialism) को अपनाया। वे सामाजिक परिवर्तन को उत्पादन के तरीकों और वर्ग-संघर्ष के संदर्भ में व्याख्यायित करते थे।
उदाहरण: औपनिवेशिक भारत में ज़मींदारी व्यवस्था और किसानों का संघर्ष
ब्रिटिश शासन के दौरान, भारत में ज़मींदारी व्यवस्था लागू की गई। इसमें ज़मींदार भूमि के मालिक बन गए और किसान उनसे ज़मीन लेकर खेती करने लगे।
1. उत्पादन का तरीका (Mode of Production):
ब्रिटिशों ने कर वसूलने के लिए कृषि को एक व्यावसायिक उत्पादन प्रणाली में बदल दिया। इससे ज़मींदारों की भूमिका मजबूत हो गई, और किसान शोषित वर्ग बन गए।
2. वर्ग-संघर्ष (Class Struggle):
किसान अधिक कर, बेदखली और शोषण से परेशान होकर विद्रोह करने लगे। जैसे:
बंगाल में नील विद्रोह (1859-60)
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलनों का उभार
बाद में गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आंदोलन (1917)
3. सामाजिक परिवर्तन:
इन आंदोलनों के कारण:
जनता में राजनीतिक चेतना आई,
किसान संगठित हुए,
स्वतंत्रता आंदोलन को बल मिला,
और अंततः ज़मींदारी प्रथा का अंत हुआ (1947 के बाद ज़मींदारी उन्मूलन कानूनों द्वारा)।
निष्कर्ष:
इस उदाहरण में हम देखते हैं कि उत्पादन की प्रणाली में बदलाव (जैसे औपनिवेशिक कृषि व्यवस्था) और वर्ग-संघर्ष (किसान बनाम ज़मींदार) के कारण भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन आया।
यही ए. आर. देसाई का दृष्टिकोण था – कि भारतीय समाज को समझने के लिए हमें आर्थिक संरचना और वर्ग-संघर्ष को केंद्रीय तत्व मानना चाहिए।
ज़रूर, आइए अब दूसरा उदाहरण लेते हैं — भारत में औद्योगीकरण और श्रमिक वर्ग का संघर्ष — जिसे ए. आर. देसाई के ऐतिहासिक-द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
उदाहरण: औद्योगीकरण और श्रमिक वर्ग का संघर्ष
1. उत्पादन का तरीका (Mode of Production):
19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में कपड़ा, कोयला, और लोहा-इस्पात उद्योग विकसित होने लगे। इससे पारंपरिक दस्तकारी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई, और एक नया श्रमिक वर्ग (working class) सामने आया।
2. वर्ग-संघर्ष (Class Struggle):
उद्योगों में श्रमिकों से 12–14 घंटे काम लिया जाता था, मजदूरी कम थी, और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं थी।
इस शोषण के विरुद्ध श्रमिकों ने संगठित होना शुरू किया। जैसे:
1918 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन का गठन (महात्मा गांधी और अनसूया साराभाई की मदद से)
1920 में AITUC (All India Trade Union Congress) की स्थापना
1930–40 के दशक में मजदूर आंदोलनों और हड़तालों की बाढ़ आ गई।
3. सामाजिक परिवर्तन:
श्रमिकों के संघर्षों के कारण श्रम कानून बने (जैसे फैक्ट्री एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट),
मजदूरों को कुछ अधिकार प्राप्त हुए (जैसे काम के घंटे, न्यूनतम मजदूरी),
समाज में वर्गीय चेतना का विकास हुआ,
और राजनीतिक पार्टियों (जैसे कम्युनिस्ट पार्टी, समाजवादी पार्टी) का आधार मज़बूत हुआ।
अंतत
यह उदाहरण भी दिखाता है कि उत्पादन के साधनों में बदलाव (औद्योगीकरण) ने नए वर्ग (श्रमिक वर्ग) को जन्म दिया, और इनकी स्थिति ने वर्ग-संघर्ष को जन्म दिया। इसी संघर्ष के ज़रिए भारत में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन संभव हुआ।
ए. आर. देसाई इसी तरह के उदाहरणों के ज़रिए यह बताते हैं कि भारतीय समाज को समझने के लिए केवल संस्कृति या परंपरा नहीं, बल्कि आर्थिक ढांचे और वर्गीय गतिशीलता को देखना ज़रूरी है।
2. आर्थिक आधार पर सामाजिक संस्थाओं की व्याख्या: देसाई का दृष्टिकोण (उदाहरण सहित)
भारतीय समाजशास्त्री ए.आर. देसाई (A.R. Desai) ने सामाजिक संस्थाओं के अध्ययन में मार्क्सवादी दृष्टिकोण को अपनाया। उनके अनुसार, समाज की संरचना को समझने के लिए आर्थिक आधार सबसे महत्त्वपूर्ण है। वे मानते थे कि धर्म, संस्कृति, परंपरा, परिवार आदि संस्थाएं असल में समाज की आर्थिक संरचना से गहराई से जुड़ी होती हैं, और इनका उद्देश्य मौजूदा आर्थिक ढांचे को बनाए रखना होता है।
1. धार्मिक परंपराएं और आर्थिक संरचना:
देसाई के अनुसार, धार्मिक परंपराएं केवल आध्यात्मिक नहीं होतीं, बल्कि वे शोषण के औजार के रूप में काम करती हैं। वे यह बताते हैं कि कैसे धर्म के माध्यम से वर्ग भेद और जाति व्यवस्था को वैधता दी जाती है।
उदाहरण:
भारतीय जाति व्यवस्था में शूद्रों और अछूतों को धार्मिक मान्यताओं के आधार पर शारीरिक श्रम तक सीमित किया गया, जबकि ब्राह्मणों को ज्ञान और पूजा का अधिकार दिया गया। देसाई मानते हैं कि यह विभाजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक था, ताकि श्रम करने वाले वर्गों को नीचा दिखाकर पूंजी और शक्ति का केंद्रीकरण संभव हो सके।
2. परिवार संस्था का आर्थिक उद्देश्य:
देसाई के अनुसार, पारंपरिक भारतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था भी एक आर्थिक संस्था है, जिसका उद्देश्य संपत्ति और संसाधनों का नियंत्रण बनाए रखना है।
उदाहरण:
संयुक्त परिवार व्यवस्था में संपत्ति का नियंत्रण बड़े पुरुष सदस्य के पास होता था। महिलाओं और कनिष्ठ पुरुषों की आर्थिक निर्भरता बनी रहती थी, जिससे पितृसत्ता और वर्ग-शक्ति बनी रहती थी।
3. विवाह संस्था और पूंजी का नियंत्रण:
देसाई ने विवाह संस्था को भी एक आर्थिक गठबंधन के रूप में देखा, जो जाति और वर्ग व्यवस्था को बनाए रखता है।
उदाहरण:
सगोत्र विवाह या अंतर्जातीय विवाह का विरोध इस कारण होता है कि इससे संपत्ति और सामाजिक स्थिति का स्थानांतरण हो सकता है। विवाह के ज़रिये पूंजी, ज़मीन और सामाजिक पूंजी को अपने ही वर्ग और जाति में सीमित रखने का प्रयास होता है।
4. परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों की भूमिका:
देसाई कहते हैं कि संस्कृति और परंपरा का उपयोग आर्थिक शोषण को वैध बनाने के लिए किया जाता है। जैसे कि “कर्म सिद्धांत” यह दर्शाता है कि गरीब होना पिछले जन्म का फल है — यह विचार आर्थिक असमानता को स्वीकार्य बनाने में सहायक होता है।
A.R. देसाई का तर्क है कि भारतीय समाज की धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक संस्थाएं मूलतः आर्थिक हितों की रक्षा के लिए कार्य करती हैं। वे इन संस्थाओं को भ्रामक चेतना (False Consciousness) के रूप में देखते हैं, जो आम जनता को यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रेरित करती हैं। इस तरहदेसाई ने परंपराओं को धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से अधिक, आर्थिक संरचनाओं से जोड़कर देखा।
जाति व्यवस्था का उदाहरण: उनके अनुसार जाति एक स्थिर संरचना नहीं थी। आर्थिक संकट, प्रवास और आजीविका की आवश्यकताओं के चलते जातियां व्यवहार और कार्य के स्तर पर समझौते करती थीं, जिससे जाति का रूपांतरण वर्ग में होता गया।
3. मैक्रो-स्तरीय विश्लेषण की प्रवृत्ति
जब समकालीन समाजशास्त्री ग्राम्य संरचनाओं (Micro-level) पर केंद्रित थे, देसाई ने राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, कृषि संरचना, राज्य और सामाजिक आंदोलनों जैसे व्यापक (Macro-level) पहलुओं का विश्लेषण किया।
4. भारतीय राष्ट्रवाद की मार्क्सवादी व्याख्या
अपनी प्रसिद्ध कृति The Social Background of Indian Nationalism में उन्होंने राष्ट्रवाद को उपनिवेशवाद के साथ जुड़े सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का परिणाम माना।
ब्रिटिश शासन द्वारा लाई गई संरचनाएं (रेल, डाक, उद्योग) ने सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे राष्ट्रवादी चेतना का उदय हुआ।
देसाई के अनुसार राष्ट्रीय आंदोलन में पूंजीपति वर्ग का नेतृत्व रहा, विशेषतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से।
5. राज्य, अधिकार और सामाजिक आंदोलन
स्वतंत्र भारत में देसाई ने राज्य की दमनकारी भूमिका की आलोचना की, विशेषकर अल्पसंख्यकों, महिलाओं और शहरी गरीबों के अधिकारों के हनन के संदर्भ में (Violation of Democratic Rights in India)।
उन्होंने समाजवादी परिवर्तन के लिए जनांदोलनों को एक आवश्यक माध्यम माना।
6. आलोचनात्मक दृष्टिकोण
विद्वानों जैसे सुजाता पटेल का तर्क है कि देसाई ने आर्थिक निर्धारकों पर अत्यधिक बल दिया, जिससे जाति और वर्ग के अंतर्संबंधों की जटिलता को उचित महत्व नहीं मिला।
उनकी त्रिकोणीय कृषि वर्गीकरण प्रणाली (जमींदार–मध्यम किसान–भूमिहीन किसान) तथा हरित क्रांति की आलोचना को अपर्याप्त साक्ष्य के आधार पर चुनौती दी गई।
7. समकालीन प्रासंगिकता
देसाई का कार्य उस समय के प्रमुख अमेरिकी संरचनात्मक-कार्यात्मकवाद और ब्रिटिश कार्यात्मक परंपरा के विरुद्ध एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
उन्होंने भारतीय समाजशास्त्र में मार्क्सवाद को सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई।
आज भी उनके विचार सामाजिक असमानताओं, पूंजीवाद, और सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन में मार्गदर्शक हैं।
