Saturday, February 27, 2021

संगीत


https://youtu.be/LpYjGdImlao

ॐ ‘ध्वनि मौन का सौंदर्य है, नाद का स्पंदन है। मौन में इसका उत्सव अनाहत है और शब्द में आहत।’ जब यह ध्वनि मौन के रूप में है तो अनाहत है और शब्द रूप में प्रकट होते ही आहत है। इस अनाहत ध्वनि के सौंदर्य की अनुभूति के लिए ही हम सब आहत यानी शब्द अथवा स्वर का आश्रय ढूँढ़ते हैं। 

‘शिवस्वरोदय’ में शिव पार्वती से कहते हैं, ‘सभी वेद, शास्त्र, संगीत एवं तीनों लोक स्वरों में अंतर्निहित हैं और स्वर आत्मा के प्रतिरूप हैं। विनिमेय हैं। स्वरों के ज्ञान से शुभ फल तुरंत प्राप्त होते हैं। इस ब्रह्मांड का अंश और पूर्ण स्वरों से निर्मित है।’ 
नाद स्वर की चेतना है, स्वर का स्पंदन है। इस अनाहत नाद से सर्वप्रथम स्फोट के परिणाम के रूप में जो आहत स्वर निकला वह था ओंकार। 

यह ओम परम नाद या शब्दब्रह्म या स्वरब्रह्म है, सृष्टिरूपी छंद का प्रथम अक्षर है। इसलिए जब हम ओम् का उच्चारण करते हैं तो कहीं-न-कहीं आदितत्त्व से जुड़ते हैं। इसीलिए परमतत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए ऋषियों, मुनियों और साधकों ने स्वर अथवा नाद अथवा स्थूल रूप में संगीत कहें, को उत्कृष्ट माध्यम के रूप में स्वीकार किया था। यही कारण है

तन को सौ सौ बंदिशें,  
मन को लगी ना रोक...  
तन की दो गज़ कोठरी,  
मन के तीनों लोक

याद

बस इतना सा असर होगा हमारी यादों का..
कि कभी कभी आप .. बिना बात  मुस्कुराओगे..
https://youtu.be/q9qbyHMjEbU

साहित्‍य का समाजशास्‍त्र

साहित्‍य का समाजशास्‍त्र


            साहित्‍य और समाजशास्‍त्र का बहुत पुराना और गहरा संबंध है। समाज जब-जब परिवर्तन का रूप धारण कर लेती है तब-तब समकालीन लेखनी में छवि छूट जाती है। वहीं लेखनी साहित्‍य समाजशास्‍त्र का दस्‍तावेज बन जाती है। समाज नित्‍य परिवर्तनशील होने के नाते तत्‍कालीन साहित्‍य का समाजशास्‍त्र भी अलग-अलग रूप लेकर समाज को एक नया मार्ग दिखाने का काम करती है। साहित्‍यकार जिस समाज में अपना जीवन व्‍यापन करता है उसी का विरोध करता या तो गुणगान करने लगता है। साहित्‍य पर समाज की प्रगति निर्भर करती है। पहले तो समाज का निर्माण होता है, बाद में साहित्‍य की प्रस्‍तुति होती है। जिस तरह समाज में बदलाव होते रहते हैं उसी तरह साहित्‍य में भी अलग-अलग पहलू सामने आने लगते हैं। साहित्‍य समाज का जीता जागता इतिहास है। क्‍योंकि साहित्‍य अपनी गयी गुजरी हुई कोई भी छाप देखता है तो समाज को साहित्‍य की ओर अग्र होना पड़ता है। समाज के बिना साहित्‍य की रचना नहीं होती,साहित्‍य के बिना समाज अधूरा लगता है। इसी कारणवश दोनों का संबंध अटूट दिखने लगता है। मानव जब एकत्रित होकर जीवन व्‍यापन करने लगा तब से समाज का उदय हुआ। इसमें भी समाज अनेक शाब्दिक अर्थ समुदाय, दल, समूह, झुंड,गिरोह......आदि अर्थ लेकर सामने आयी, उसी तरह के समाजशास्‍त्र की परिभाषाओं में भी अनेक मतभेद दिखाई देते हैं परंतु आधुनिक युग में समाजशास्‍त्र पर अधिक महत्‍व दिया जाने लगा है।

https://youtu.be/EhLZUqe_aKY

     “समाजशास्‍त्र (sociology) शब्‍द का प्रयोग सबसे पहले एक फ्रांसीसी दार्शनिक आगस्‍त कौत (Augaste Majie Francois Xavier comte) ने 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में किया था। इस शब्‍द का ‘Sociologie’ प्रथम हिज्‍ये या वर्तनी है। चूँकि ‘Sociology’ शब्‍द और उस विषय को सबसे पहले ऑगस्‍त कौंत ने विकसित किया था, इसलिए उन्‍हें समाजशास्‍त्र का जनक (Father of Sociology) कहा जाता है।”[1]

     पहली बार फ्रांस का एक दार्शनिक,समाजचिंतक, सामाजिक मेधावी ने सर्वप्रथम समाजशास्‍त्र का शब्‍द का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय आगस्‍त कौंत को मिलता है। समाजशास्‍त्र शब्‍द 19वीं शताब्‍दी के पूर्व में समाजशास्‍त्र का परिचय कराया था। इसलिए आज आधुनिक युग में एक लोकप्रिय, समाजप्रिय, चर्चित, साहित्‍यप्रिय विषय बनकर सामने आने लगी है।

     “सोशियोलॉजी शब्‍द सोशियो+लॉजी का निर्मित रूप है। सोशियो का अर्थ है समाज और लॉजी का अर्थ ज्ञान या शास्‍त्र अथवा विज्ञान।”[2]

     दूसरे शब्‍दों में कहा जा सकता है कि समाजशास्‍त्र को वैज्ञानिक रूप से अध्‍ययन करने वाला सामाजिक संस्‍थाओं का वैज्ञानिक रूप से सामाजिक विज्ञान माना गया है।

     मैक्‍स वेबर का मानना है कि “समाजशास्‍त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया (Social Action) का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करता है। यहाँ सामाजिक क्रिया से तात्‍पर्य सामाजिक व्‍यवहार से है। जब हम किसी सामाजिक व्‍यवहार की बात करते हैं तब इसका अर्थ वैसे व्‍यवहार से होता है जिसे लोग किसी व्‍यक्ति या समूह के संदर्भ में करते हैं। एकांत में भगवान का ध्‍यान करना सामाजिक व्‍यवहार नहीं,क्‍योंकि ऐसे व्‍यवहार का संबंध न तो किसी व्‍यक्ति से है और न किसी समूह से।”[3]

     समाजशास्‍त्र वह सामाजिक विज्ञान है जो समाजशास्‍त्र का आलोचना, विमर्श, समीक्षा सामाजिक सारी राज किया, आर्थिक, शैक्षणिक,सांस्‍कृतिक, ऐतिहासिक आदि सामाजिक संस्‍थाओं का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र माना गया है। समाज में अभिव्‍यक्‍त सारी व्‍यवहारों के साथ मानव जुटे रहने का परिचय कराता है।

     बोगार्ड्स के मतानुसार – “समाजशास्‍त्र उन मानसिक प्रक्रियाओं का अध्‍ययन है जो सामाजिक वर्गों द्वारा समूहों में व्‍यक्तित्‍व को विकसित एवं परिपक्‍व करने का कार्य करता है।”[4]

     समाजशास्‍त्र एक मनोविज्ञान है जो समाजशास्‍त्र की मानसिकता का अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र है। सामाजिक विभिन्‍न वर्गों द्वारा मानव का व्‍यक्तित्‍व को परिपक्‍व, विकसित आदि काम करने वाला समाजशास्‍त्र है।

     जॉनसन के विचार में – ‘’समाजशास्‍त्र एक विज्ञान है जो सामाजिक समूहों का अध्‍ययन करता है, विशेषकर उनकी आंतरिक आकृति या व्‍यवस्‍था की विधियों, प्रक्रियाओं जो व्‍यवस्‍था के उन रूपों को बनाए रखती है या उनमें परिवर्तन लाने की चेष्‍टा करती है तथा समूहों की बीच संबंधों का।”[5]

     समाजशास्‍त्र एक सामाजिक विज्ञान है। संपूर्ण सामाजिक संस्‍थाओं का वैज्ञानिक रूप से अध्‍ययन करने वाला समाजशास्‍त्र है। विशेष रूप से सामाजिक आंतरिक एवं बाह्य रूप से सामाजिक क्रिया-कलापों में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं। जैसे समाज परिवर्तन होते रहता है उसी तरह सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होते रहता है।

     

     समाजशास्‍त्र मानवीय चरित्र का अध्‍ययन करता या सामाजिक समूहों का अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र माना गया है। याने मानव एक सामूहिक समूहजीवी होने के कारण मानव जीवन के अनेक पहलुओं के साथ-साथ समाज की वास्‍तविकता सामने आने लगती है।

     गिन्‍जबर्ग (M. Ginshberg) के अनुसार – “समाजशास्‍त्र व्‍यापक अर्थों में मानवीय अंत:क्रियाओं एवं अंत:संबंधों, उनकी अवस्‍थाओं एवं परिणामों का अध्‍ययन है।”[6]

     इनका मानना है कि समाजशास्‍त्र नित्‍य मानव जीवन में होने वाले परिवर्तन प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप में होने वाली बदलाव को लेकर तथा परिणामों का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन करने वाला शास्‍त्र को समाजशास्‍त्र कहते हैं।



[1] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 1

[2] अंतिम दशकके हिंदी उपन्‍यासों का समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन – डॉ. गोरखनाथ तिवारी, पृ.सं. 21

[3] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 2

[4] अंतिम दशकके हिंदी उपन्‍यासों का समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन – डॉ. गोरखनाथ तिवारी, पृ.सं. 21

[5] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं. 3



[6] समाजशास्‍त्र अवधारणाएं एवं सिद्धांत – जे.पी.सिंह, पृ.सं.2