Wednesday, April 29, 2020

मौत

मौत 
महज एक घटना
 जीवन की अकथ कहानी एक अंत
एक विलाप...
एक रुदन..
एक शाश्वत विदाई गीत..
जो असमय नहीं गाना चाहते हैं
पर गाते हैं......
हम सभी
बारी.…बारी...

जीवन की रीत...यहीं हैं नीति
असमय हो तो शालती है 
बहुत देर तक बन के टिश...
खलिश में पता नहीं कब से कब तक....

तेरे जाने के बाद कितनी टूट जाएगी उम्मीदे
कितना रह जायेगा अधूरा पन
तेरा चला जाना महज एक घटना..…
बस  होगी आपस में सूखी बासी बाते....
क्या, कहां, कैसे....कब...
संवेदन शून्य खोखली बातें
से भरता मन का पेट.

कैसे दु ढाढस
अब नही आएगा
कर दो कर्म
छी ल दो देह....
कर दो पोस्टमार्टम
बिखरे दो अंग
जो कभी बड़ी जतन से सवार था
तिनका तिनका

मार दो अपने अंदर से उसको
आज तक जितना जिस रूप में
तुम्हारे अंदर जीया था...

खत्म कर दो उसकी यादें
अब वह महाप्रस्थान पर चला गया
जहाँ से कोई कभी नहीं आता
मुक्त कर दो देह से
उसको अपने हिस्से की कौम से
दफना दो जला दो, बहा दो, ममी बना दो..

कर दो समर्पित उसे अपने अपने धर्म में
पर जिसका हिस्सा था जिसका खून था
एहसास था,भोग था उनके हिस्से में क्या आया

मेरी यही पीड़ा है जो तुम्हारी भी है
साक्षी है हर दुःख की घड़ी उन अपनों की 
 जिनके सुख गए हैं गले चिल्ला कर
आँखे पथरा सी गई
बेसुध
विलविला रही है रूह उन अपनो की
यह क्या हुआ
वाकुल मन को मना रहे हैं
चिल्ला कर अब तुम नही हो
उतनी ही तेज है कर्कश मेरी वाणी 

जैसे तुम रोये थे पहली बार कोख में
के हा ....के हा...
मार रही हूं तिनका तिनका तुम्हे अपने अंदर
जता रही हूं
शोर करके अब तुम नही आवोगे
चले गए सब अरमान तुम्हारे ही संग....
और तुम्हारे साथ का जीवन भी
अब कोई नहीं भरेगा
सिर्फ यादें ही रिति रीति रहेगी...
मर जायेगेे सब  आज से उतना ही
 जितना तुम सबके अंदर जिंदा थे
तुम्हीं नही मरे 
 सब मरे है अपने अपने हिस्से का

इतनी जल्दी भी क्या थी ईश्वर तुम्हें
अभी भोगा ही क्या था
जीया ही कितना
अधूरी जिंदगी और पूरी मौत क्यू देते हो
नहीं तुम नही हो
यूही वह काल मे समा गया
 अपनी ही दौड़ में फिर गया जिंदगी के दौड़ में पा गया मौत

Saturday, April 25, 2020

मनु

"एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती."

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 148वें श्लोक में ये बात लिखी है. ये महिलाओं के बारे में मनुस्मृति की राय साफ़ तौर पर बताती है.

स्मृति का मतलब धर्मशास्त्र होता है. ऐसे में मनु द्वारा लिखा गया धार्मिक लेख मनुस्मृति कही जाती है. मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं. कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है."

इस किताब की रचना ईसा के जन्म से दो-तीन सौ सालों पहले शुरू हुई थी. पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, चार वर्णों, उनके पेशों, ब्राह्मणों की महानता जैसे विषय शामिल हैं. दूसरा अध्याय ब्रह्मचर्य और अपने मालिक की सेवा पर आधारित है."।

तीसरे अध्याय में शादियों की किस्मों, विवाहों के रीति रिवाजों और श्राद्ध यानी पूर्वज़ों को याद करने का वर्णन है. चौधे अध्याय में गृहस्थ धर्म के कर्तव्य, खाने या न खाने के नियमों और 21 तरह के नरकों का ज़िक्र है."

"पांचवे अध्याय में महिलाओं के कर्तव्यों, शुद्धता और अशुद्धता आदि का ज़िक्र है. छठे अध्याय में एक संत और सातवें अध्याय में एक राजा के कर्तव्यों का ज़िक्र है. आठवां अध्याय अपराध, न्याय, वचन और राजनीतिक मामलों आदि पर बात करता है. नौवें अध्याय में पैतृक संपत्ति, दसवें अध्याय में वर्णों के मिश्रण, ग्यारहवें अध्याय में पापकर्म और बारहवें अध्याय में तीन गुणों व वेदों की प्रशंसा है. मनुस्मृति की यही सामान्य रूपरेखा है."

भारत में ज्ञान परम्परा

भारत में ज्ञान परंपरा

डॉ. सत्य मित्र सिंह
मो.:6396452212

E mail.com- dr.satyamitra@gmail.com

भारतीय परंपरा के अनुसार हमारे चिंतन में कई धाराएं हैं,जो वेद से परिलक्षित होती हैं

 ऋग्वेद की शुरुआती ऋचाओं में कहा जाता है कि

 आ नो भ्रदा: क्रतवो यंतु विश्‍वता:‘

सात्विक साधु विचार हर दिशा से आने दो।

 स्वयं को किसी चीज से वंचित न करो। अच्छी बातों को ग्रहण करो, तभी भला होगा।’हमारी मूल संस्कृति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’वाली संस्कृति है जिसका अस्तित्व सारे भारत में है।

 हमारे साहित्य में एकता है¸ एकरूपता नहीं¸ एकात्मता है। हम संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थो के ऊपर उठ सकते हैं। हमारी भाषाओं में अधुनातम विज्ञान-प्रौद्योगिकी को अभिव्यक्त करने की शक्ति है।  लेकिन पश्चिम ने केवल एक ही धारा को समझा और फैलाया है। भारत में जब ऋग्वेद की रचना होने लगी तो अलग-अलग यज्ञ के लिए यज्ञवेदी बनने की बात हुई। यह निश्चित किया गया कि किस यज्ञ के लिए किस क्षेत्रफल और आकार-प्रकार की यज्ञवेदी बनाई जाएगी। समाज की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए गणित का उपयोग किया गया और रेखागणित (ज्योमेट्री) उत्पन्न हुई।
भारतीय संचार-पद्धति में अंतःवैयक्तिक संचार एवं अंतर्वैयक्तिक संचार के अतिरिक्त समूह संचार के भी साक्ष्य मौजूद हैं। रामचरित मानस में वर्णित याज्ञवल्क्य ऋषि का ऋषि-सभा में संवाद तथा सुत्तपिटक् में महात्मा बुद्ध का अपने शिष्यों से संवाद उदाहरण हैं। ये शिष्य मत-नेता(व्चपदपवद स्मंकमत) होते थे, जिनका दायित्व गुरु की बातों को लोक में प्रचारित-प्रसारित करना होता था। संचार की भारतीय अवधारणा को समझने के लिए आत्म-चेतना और आत्म-दृष्टि का सर्वप्रथम विकास किया जाना आवश्यक है अन्यथा आधुनिक तकनीक और प्रौद्योगिकी आधारित संचार-तंत्र ही सर्वगुण संपन्न एवं सर्वशक्तिमान मालूम होंगे, जिनका हाल के दिनों में बतौर आयातित संस्कृति भारत में दखल तेजी से बढ़ा है।


पाइथागोरस जिस गणित को दुनिया के सामने लेकर आए, उससे कई सौ साल पहले बौधायन ने शुल्ब-सूत्र में इसकी विस्तार से चर्चा कर दी थी। आज भी भारत का हर राज-मिस्त्री लंबे धागे के साथ वजन लगाए रखता है और भवन निर्माण में उसका तरह-तरह से बखूबी इस्तेमाल करता है। वह शुल्ब-सूत्र की ही उपज है। इसी उपकरण की मदद से वैदिक काल में लोग विभिन्न आकार वाली यज्ञवेदी की रचना करते थे।

भारत का ज्ञान और विज्ञान यहां की सामाजिक जरूरतों की उपज रही है। हमारे यहां यही परंपरा रही है, लेकिन आज हम इसमें पिछड़ रहे हैं। हमारे पिछड़ने और उदासीन रहने के कारण तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा कहते है कि भारत प्राचीन ज्ञान की उपेक्षा कर रहा है और पश्चिमी संस्कृति की तरफ बढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी में उन्‍होंने ने कहा था कि आधुनिक भारतीय प्राचीन विचारों की उपेक्षा कर रहे हैं। आधुनिक भारतीय बहुत पश्चिमी हैं। भारीतय को भारत के  प्राचीन ज्ञान पर अधिक ध्यान देना चाहिए। आधुनिक भारतीय को अपने ज्ञान को नहीं भूलना चाहिए।" संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्यकरने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य,गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। भारत इस धरती पर एकमात्र देश है जो आधुनिक सुविधा, शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को जोड़ सकता है। हमें धार्मिक विश्वास को छूने के बिना शिक्षा, प्रचीन भारतीय ज्ञान के आंतरिक मूल्यों को शामिल करना चाहिए।  आर्यभट्ट, चरक, कनाद, नागार्जुन,हर्षवर्धन, अगस्त्य, भारद्वाज ऋषि, शंकराचार्य, आचार्य अभिनवगुप्‍त, स्‍वामी विवेकानंद के साथ सैकड़ों महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने ज्ञान से विश्व की ज्ञान परंपरा को समृद्ध किया है। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति समूचे विश्व की संस्कृतियों में सर्वश्रेष्ठ और समृद्ध संस्कृति है । भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता का देश है। भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व शिष्टाचार, तहज़ीब, सभ्य संवाद, धार्मिक संस्कार, मान्यताएं और मूल्य आदि हैं। हालांकि आज के परिवेश में हर एक की जीवन शैली आधुनिक हो रही है।


स्‍वामी विवेकानंद शिष्‍यों को बताते है कि''यदि कोई अपने ही धर्म तथा संस्‍कृति का विशेष रूप से विद्यमानता का स्‍वप्‍न देखता है, तो मुझे उस व्‍यक्‍ति के प्रति दिल से सहानुभूति है और यह कहना चाहता हूँ कि बहुत जल्‍द प्रत्‍येक धर्म एवं संस्‍कृति के बैनर पर बिना संकोच सहायता करो, संघर्ष नहीं, समावेशन करो विध्‍वंस नहीं,मेल - मिलाप तथा शांति रखो मतभेद नहीं करना ही लिखा जाएगा।
विदेशी ताकतों ने हमेशा से ही हमारी ज्ञान परंपरा को नजरअंदाज रखने की कोशिश की है। हमारे विज्ञान और सेवा भाव को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश की गयी है, जिसके कारण हमने अपनी समृद्ध ज्ञान परंपरा को बहुत हद तक खो दिया है। आज फिर से हमें अपनी ज्ञान परंपरा और सामाजिक व्यवस्था को समझने और अपने तरीके से परिभाषित करने की ज़रूरत है। अपनी ज्ञान परंपरा, सामाजिक व्यवस्था और जीवनशैली को बाजारवाद से बचाने की ज़रूरत है। हमें पश्चिमी सभ्यताओं और विदेशी ज्ञान-विज्ञान को दरकिनार कर अपनी परम्पराओं और मान्यताओं का पुनरोत्थान करते हुए भारतीयता में पूरी तरह रमना होगा।
सभी विचारधाराओं के लोगों से संवाद करना होगा और उनको साथ लेकर चलना होगा। हमारी परंपरा विविधताओं का सम्मान करने की है और उनमे एकता स्थापित करने की है, जिसे आज अच्छी तरह से व्यवहार में उतारना होगा ताकि भारत पूरे विश्व में एक बड़ी ताकत के रूप में उभर सके।


भारतीय लोग आज भी अपनी परंपरा और मूल्यों को बनाए हुए हैं। विभिन्न संस्कृति और परंपरा के लोगों के बीच की घनिष्ठता ने देश भारत को बनाया है। जिसमें मानव जीवन के लिए भाव, राग और ताल समाहित है। इसलिए हम कह सकते है कि भारतीय संस्कृति वेद, तंत्र एवं योग की त्रिवेणी है।

भारत अपने भाव, राग और ताल से स्‍पंदन उत्‍पन्‍न कर संपूर्ण विश्‍व को मानवता, भाई चारा और संवेदना का पारिवारिक संदेश देना चाहता है, अपनी जीवंत अमूर्त विरासत जो इसकी वैश्‍विक सभ्‍यता की विरासत है। इस विरासत से विभिन्‍न राष्‍ट्रों,समाजों तथा संस्‍कृतियों के बीच संस्‍कृति एवं सभ्‍यता का एक संवाद बनाने की प्रक्रिया आरंभ होती है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान परंपरा को स्थापित करने के प्रयास स्वाधीनता मिलने के साथ ही किये जाने चाहिए थे, लेकिन औपनिवेशक मानसिकता के कारण हमने अपने गौरवशाली इतिहास के पन्ने कभी पलटकर देखने की कोशिश ही नहीं की। हमें यह समझना चाहिए कि जिस समाज ने मुझे एक पहचान दी है, सबकुछ दिया है, उस के लिए मुझे करना है। सूचना के स्तर पर ज्ञान प्राप्त करना ही शिक्षा का अंतिम लक्ष्य नहीं होता बल्कि समझ, विचार एवं बुद्धि से संजोए हुए ज्ञान की प्राप्ति करना ही मानवीय पांडित्य की वास्तविक प्राप्ति तथा जीवन बोध का मूल बिंदू कहा जा सकता है। पश्चिमी ज्ञान परिपाटियों का अंधाधुंध अनुकरण कभी लाभदायक नहीं हो सकता, यदि हम अपने मूल विचार नहीं करते और अपने विवेक तथा अपने मौलिक ज्ञान के दर्शन की गहराई तक नहीं जाते। पश्चिमी और भारतीय ज्ञान परंपरा का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए हम पाते है कि पश्चिमी संस्कृति के भौतिकतावाद ने उन्नति तो बहुत की है लेकिन यह उन्नति मानसिक खुशहाली को साकार करने से वंचित रह जाती है।

स्‍वामी विवेकानंद की अन्‍नय शिष्‍या निवेदिता ने एक राष्‍ट्र के रूप में भारत के आंतरिक मूल्‍यों एवं भारतीयता के महान गुणों की खोज की है। उनकी पुस्‍तक ‘द वेब ऑफ इंडियन लाइफ’निबंधों, लेखों, पत्रों एवं 1899-1901 के बीच एवं 1908 में विदेशों में दिए गए उनके व्‍याख्‍यानों का एक संकलन है। सभी भारत के बारे में उनके ज्ञान की गहराई के प्रमाण हैं। भारतीय मूल्‍यों एवं परम्‍पराओं की महान समर्थक निवेदिता ने ‘वास्‍तविक शिक्षा- राष्‍ट्रीय शिक्षा’ के ध्‍येय को आगे बढ़ाया और उनकी आकांक्षा थी कि भारतीयों को ‘भारत वर्ष के पुत्रों एवं पुत्रियों’के रूप में न कि ‘यूरोप के भद्दे रूपों’ में रूपांतरित किया जाए। वे चाहती थीं कि भारतीय महिलाएं कभी भी पश्चिमी ज्ञान और सामाजिक आक्रामकता के मोह में न फंसे और ‘अपने वर्षों पुराने लालित्‍य एवं मधुरता, विनम्रता और धर्म निष्‍ठा’ का परित्‍याग न करें। उनका विश्‍वास था कि भारत के लोगों को भारतीय समस्‍या के समाधान के लिए एक ‘भारतीय मस्तिष्‍क’के रूप में शिक्षा प्रदान की जाए। क्‍या हम ऐसा नहीं सोच सकते । हम उदयीमान भारत के ऊर्जावान युवा है, सोचने के साथ करने का हौसला कर ले तो कुछ भी असंभव नहीं हो सकता।


भारतीय ज्ञान-विज्ञान की यह सनातन परंपरा अनादिकाल से है। वह तक्षशिला हो, नालंदा हो या विक्रमशिला विश्वविद्यालय सभी ज्ञान केंद्रों में यह परंपरा जड़ी रही है, इसलिए वैदिक काल से ही भारत की ज्ञान परंपरा उच्‍च स्तरीय रही है। शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय दृष्टिकोण को विकसित करने की जरूरत है। शिक्षा में भारतीय पुरातन ज्ञान परंपरा व संस्कृति के समावेश के नजरिये से यह संगम मात्र विकल्प नहीं है, बल्कि इस दिशा में सच्‍चा प्रयास है। भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा कला संस्कृति, दर्शन,समाज शास्त्र, विज्ञान व प्रबंधन समेत विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक दृष्टिकोण देती है। हमें इस दृष्टिकोण को शिक्षा के क्षेत्र में अपनाकर राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया को और मजबूत बनाना होगा। मौजूदा शिक्षण पद्धति में पश्चिम पक्षीय झुकाव ज्यादाे है। ऐसे में शिक्षण पद्धति में भारतीय दृष्टिकोण के विकास के लिए गैर सरकारी व स्वायत्त प्रयासों को बढ़ावा देना, बदलते वैश्विक परिवेश में समय की जरूरत बन चुकी है। मैं समझता हूं कि भारत के ऊपर जैसे-जैसे पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ता गया, वैसे-वैसे इसकी सनातनी ज्ञान-विज्ञान की परंपरा छिन्न-भिन्न होती जा रही है। हालांकि, नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पतन के बाद से ही इसकी शुरुआत हो गई थी और विद्या का स्तर नीचे आने लगा था। इसका मतलब यह नहीं कि हम वर्तमान विश्वविद्यालयी शिक्षा परंपरा को पूरी तरह खारिज कर दें, क्योंकि विकल्पहीनता के दौर में इन विश्वविद्यालयों ने एक विकल्प दिया था। इन्हीं शिक्षा संस्थाओं से कई प्रतिभाएं निकलीं, लेकिन आजादी के बाद हम जिस रास्ते पर चले, उससे भारतीय ज्ञान परंपरा का अधिक नुकसान हुआ है। आज भारतीय ज्ञान को स्थापित करने की नहीं बल्कि इस ज्ञान के व्यापक भंडार को खोजने की ज़रूरत है। प्राचीन ग्रंथों में छुपे इस ज्ञान के खजाने को खोजकर, उसे संवार कर मानव कल्याण के लिए इस्तेमाल में लाने की आवश्यकता है।

आज भारत के शैक्षणिक संस्थाओं को इस कार्य के लिए आगे आना होगा और समर्पित भाव से ऐसी परियोजनाओं में जुटना होगा ताकि कोई बाहरी संस्था या इंसान इस भण्डार की खोजकर उसको एक विकृत रूप में दुनिया के सामने पेश न करे। यहां का ज्ञान-विज्ञान युगों से प्रकृति के अनुकूल रहा है और इसी कारण भारत की जीवनशैली भी औरों से हमेशा श्रेष्ठ रही है। आज यही भारत अपनी इसी विशिष्टता को भूलकर आधुनिक दुनिया के पथ पर चलने लगा है। भारतीय ज्ञान,संस्कृति और परंपराओं में ही वह सामर्थ्य है, जिससे भारत अकले नहीं बल्कि पूरे विश्व को शांति पथ पर ला सकता है। भारत को अपने मूल से जुड़े रहने की जरूरत है। भारत अपने ज्ञान को पुनर्जीवित कर दुनिया के बेहतर दिशा की ओर ले जाने में अपना योगदान दे सकता है। भारतीय ज्ञान परंपराएं मनुष्य की आंतरिक शांति और मन की भावनाओं के नियंत्रण में रख सकती हैं। आज हमारे सामने कई समस्याएं हैं जिनका समाधान भारत के प्राचीन ज्ञान और विज्ञान में हैं। देश की सरहद से ऊपर उठकर हमें मानवता के हित में कार्य करना होगा। भारतीय ज्ञान-विज्ञान की यह सनातन परंपरा अनादिकाल से है। वह तक्षशिला हो, नालंदा हो या विक्रमशिला विश्वविद्यालय सभी ज्ञान केंद्रों में यह परंपरा जड़ी रही है,इसलिए वैदिक काल से ही भारत की ज्ञान परंपरा उच्‍च स्तरीय रही है।

बहरहाल, ज्ञान संगम के बहाने हमें एक नया ज्ञान दर्शन चाहिए जिसमें नीति नहीं ज्ञान केंद्र में हो। समाज का दर्शन और ज्ञान का दर्शन अलग-अलग है। ज्ञान  का काम समाज के दर्शन को समाज कल्‍याण में मूर्त करना है जबकि समाज का दर्शन ज्ञान से जुड़ अपने आप को प्रकाशवान करना चाहता है। वैचारिक शून्य को भरे बिना, जनता का प्रशिक्षण किए बिना यह संभव नहीं है। हमें इसके लिए समाज नीहित ज्ञान को ही शक्ति केंद्र बनाना होगा। लोगों की आकांक्षाएं, कामनाएं, आचार और व्यवहार मिलकर ही समाज बनाने हैं। इसलिए एक सामाजिक संस्कृति पैदा करना आज की बड़ी जरूरत है। जो कमजोर होते, टूटते समाज को शक्ति दे सके। राज्यशक्ति ने जिस तरह निरंतर ज्ञान शक्ति को कमजोर किया है। ज्ञान शक्ति की सामूहिकता को नष्ट किया है उसे जगाने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वेदों से लेकर आज के युग तक भारत की प्राणवायु धर्म है। वही हमारी चेतना का मूल है। यह धर्म ही हमारी सामाजिक संस्कृति का निर्माता है। आध्यात्मिक अनुभवों और अंतस् की यात्रा के व्यापक अनुभवों वाला ऐसा कोई देश दुनिया में नहीं है। भारत का यह सत्व या मूल ही उसकी शक्ति है। जिन्हें धर्म का अनुभव नहीं वे विचारधाराएं इसलिए भारत को संबोधित ही नहीं कर सकतीं। वे भारत के मन और अंतस् को छू भी नहीं सकतीं। गांधी अगर भारत के मन को छू पाए तो इसी आध्यात्मिक अनुभव के नाते। ऐसे कठिन समय में जब हमारे महान अनुभवों, महान विचारों पर अवसाद की परतें जमी हैं, धूल की मोटी परत के बीच से उन्हें झाड़-पोंछकर निकालना और अपने ज्ञान पर भरोसा करते हुए,उनकी आंखों में झिलमिला रहे भारत के सपनों के साथ तालमेल बिठाना समय की जरूरत है। ज्ञान संगम जैसे आयोजन भारत के ज्ञान क्षितिज को उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा सकें तो सार्थकता सिद्ध होगी।




Friday, April 17, 2020

अवलोकन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं

BA.  4sem

पाठ्यक्रम

अवलोकन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं

अवलोकन की विशेषताएँ

अवलोकन की प्रक्रिया 

अवलोकन के प्रकार 

अनियन्त्रित अवलोकन 

नियन्त्रित अवलोकन

सहभागी अवलोकन

असहभागिक अवलोकन

अर्द्धसहभागी अवलोकन-

सामूहिक अवलोकन

अवलोकन पद्धति- उपयोगिता एवं सीमायें

अवलोकन पद्धति की सीमायें।


Q1

अवलोकन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं





 

अवलोकन शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Observation’ का पर्यायवाची है। जिसका अर्थ ‘देखना, प्रेक्षण, निरीक्षण, अर्थात् कार्य-कारण एवं पारस्पारिक सम्बन्धों को जानने के लिये स्वाभाविक रूप से घटित होने वाली घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण है। 


प्रो0 गडे एवं हॅाट के अनुसार विज्ञान निरीक्षण से प्रारम्भ होता है और फिर सत्यापन के लिए अन्तिम रूप से निरीक्षण पर ही लौटकर आता है। और वास्तव में को वैज्ञानिक किसी भी घटना को तब तक स्वीकार नहीं करता जब तक कि वह स्वंय उसका अपनी इन्द्रियों से निरीक्षण नहीं करता।



सी.ए. मोजर ने अपनी पुस्तक ‘सर्वे मैथड्स इन सोशल इनवेस्टीगेशन’ में स्पष्ट किया है कि अवलोकन में कानों तथा वाणी की अपेक्षा नेत्रों के प्रयोग की स्वतन्त्रता पर बल दिया जाता है। अर्थात्, यह किसी घटना को उसके वास्तविक रूप में देखने पर बल देता है। 


श्रीमती पी.वी.यंग ने अपनी कृति ‘‘सांइटिफिक सोशल सर्वेज एण्ड रिसर्च’’ में कहा है कि ‘‘अवलोकन को नेत्रों द्वारा सामूहिक व्यवहार एवं जटिल सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ सम्पूर्णता की रचना करने वाली पृथक इकायों के अध्ययन की विचारपूर्ण पद्धति के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।’’


 अन्यत्र श्रीमती यंग लिखती है कि ‘‘अवलोकन स्वत: विकसित घटनाओं का उनके घटित होने के समय ही अपने नेत्रों द्वारा व्यवस्थित तथा जानबूझ कर किया गया अध्ययन है।’’ 


इन परिभाषाओं में निम्न बातों पर बल दिया गया है।

 (1) अवलोकन का सम्बन्ध कृत्रिम घटनाओं एवं व्यवहारों से न हो कर, स्वाभाविक रूप से अथवा स्वत: विकसित होने वाली घटनाओं से है।

 (2) अवलोकनकर्त्ता की उपस्थिति घटनाओं के घटित होने के समय ही आवश्यक है ताकि वह उन्हें उसी समय देख सके।

 (3) अवलोकन को सोच समझकर या व्यवस्थित रूप में आयोजित किया जाता है।


उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि एक निरीक्षण विधि प्राथमिक सामग्री (Primary data) के संग्रहण की प्रत्यक्ष विधि है।


 निरीक्षण का तात्पर्य उस प्रविधि से है जिसमें नेत्रों द्वारा नवीन अथवा प्राथमिक तत्यों का विचाारपूर्वक संकलन किया जाता है। उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर हम अवलोकन की निम्न विशेषतायें स्पष्ट कर सकते हैं।



 

मानवीय इन्द्रियों का पूर्ण प्रयोग- यद्यपि अवलोकन में हम कानों एवं वाक् शक्ति का प्रयोग भी करते हैं, परन्तु इनका प्रयोग अपेक्षाकृत कम होता है। इसमें नेत्रों के प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है। अर्थात्, अवलोकनकर्त्ता जो भी देखता है- वही संकलित करता है। 


उद्देश्यपूर्ण एवं सूक्ष्म अध्ययन- अवलोकन विधि सामान्य निरीक्षण से अलग होती है। हम हर समय ही कुछ न कुछ देखते रहते हैं। परन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे अवलोकन नहीं कहा जा सकता। 


वैज्ञानिक अवलोकन का एक निश्चित उद्देश्य होता हैं और उसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुये समाज वैज्ञानिक सामाजिक घटनाओं का अवलोकन करते हैं। 



प्रत्यक्ष अध्ययन- अवलोकन पद्धति की यह विशेषता है कि इसमें अनुसंधानकर्त्ता स्वयं ही अध्ययन क्षेत्र में जाकर अवलोकन करता है, और वांछित सूचनायें एकत्रित करता है। 


कार्य-कारण सम्बन्धों का पता लगाना- सामान्य अवलोकन में अवलोकनकर्त्ता घटनाओं को केवल सतही तौर पर देखता है, जबकि वैज्ञानिक अवलोकन में घटनाओं के बीच विद्यमान कार्य-कारण सम्बन्धों को खोजा जाता है ताकि उनक़े आधार पर सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सके। 


निष्पक्षता- अवलोकन में क्योंकि अवलोकनकर्त्ता स्वयं अपनी आँखों से घटनाओं को घटते हुये देखता है, अत: उसके निष्कर्ष निष्पक्ष होते हैं। 


सामूहिक व्यवहार का अध्ययन- सामाजिक अनुसंधान में जिस प्रकार से व्यक्तिगत व्यवहार का अध्ययन करने के लिये ‘‘वैयक्तित्व अध्ययन पद्धति’’ को उत्तम माना जाता है, उसी प्रकार से सामूहिक व्यवहार का अध्ययन करने के लिये अवलोकन विधि को उत्तम माना जाता है। 



अवलोकन की विशेषताएँ

प्रत्यक्ष पद्धति- सामाजिक अनुसंधान की दो पद्धितियॉ हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। 


अवलोकन सामाजिक अनुसंधान की प्रत्यक्ष पद्धति है, जिसमें अनुसंधानकर्ता सीधे अध्ययन वस्तु को देखता है और निष्कर्ष निकालता है।


प्राथमिक सामग्री- का सामाजिक अनुसंधान में जो सामग्री संग्रहित की जाती है, उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-प्राथमिक और द्वितीयक। 


अवलोकन के द्वारा प्रत्यक्षत: सीधे सम्पर्क और सामाजिक तथ्यों का संग्रहण किया जाता है।



वैज्ञानिक पद्धति- सामाजिक अनुसंधान अन्य पद्धतियों की तूलना में अवलोकन पद्धति अधिक वैज्ञानिक है, क्योंकि इस पद्धति के द्वारा अपनी ऑखों से देखकर सामग्री का संग्रहण किया जाता है। इसलिए उसमें विश्वसनीयता और वैज्ञानिकता रहती है। 


मानव इन्द्रियों का पूर्ण उपयोग- अन्य पद्धतियों की तूलना में इनमें मानव इन्द्रियों का पूर्ण रूप से प्रयोग किया जाता है। इससे सामाजिक घटनाओं को ऑखों से देखकर जॉच-पड़ताल की जा सकती है। 



विचारपूर्वक एवं सूक्ष्म अध्ययन- अवलोकन एक प्रकार से उद्देश्यपर्ण होता है। को भी अवलोकन क्यों न हो, उसका निश्चित उद्देश्य होता है। 


विश्वसनीयता- अवलोकन पद्धति अधिक विश्वसनीय भी होती है, क्योंकि इसमें किसी समस्या या घटना का उसके स्वाभाविक रूप से अध्ययन किया जाता है। इसलिए इसके द्वारा प्राप्त निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय होते हैं।


सामूहिक व्यवहार का अध्ययन- अवलोकन प्रणाली का प्रयोग सामूहिक व्यवहार के अध्ययन के लिए किया जाता है। 


पारस्परिक एवं कार्यकाकरण सम्बन्धों का ज्ञान- इसकी अन्तिम विशेषता यह है कि इसके द्वारा कार्य-कारण सम्बन्धों या पास्परिक सम्बन्धों का पता लगाया जाता है।

अवलोकन की प्रक्रिया 

अवलोकन सोच समझ कर की जाने वाली क्रमबद्ध प्रक्रिया है। अत: अवलोकन प्रारम्भ करने से पूर्व, अवलोकनकर्त्ता अवलोकन के प्रत्येक चरण को सुनिश्चित कर लेता है।


प्रारम्भिक आवश्यकतायें –अवलोकनकर्त्ता को सर्व प्रथम अवलोकन की रूपरेखा बनाने के लिये यह निश्चित करना पड़ता है कि (1) उसे किसका अवलोकन करना है? (2) तथ्यों का आलेखन कैसे करना है? (3) अवलोकन का कौनसा प्रकार उपयुक्त होगा? (4) अवलोकनकर्त्ता व अवलोकित के मध्य सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित किया जाना है?

पूर्व जानकारी प्राप्त करना –इस चरण में अवलोकनकर्त्ता निम्न जानकारी पूर्व में प्राप्त कर लेता है। (1) अध्ययन क्षेत्र की इकायों के सम्बन्ध में जानकारी। (2) अध्ययन समूह की सामान्य विशेषताओं की जानकारीय जैसे स्वभाव, व्यवसाय, रहन-सहन, इत्यादि। (3) अध्ययन क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति की जानकारी, घटना स्थलों का ज्ञान एवं मानचित्र, आदि।

विस्तृत अवलोकन रूपरेखा तैयार करना –रूपरेखा तैयार करने के लिये निम्न बातों को निश्चित करना होता है। (1) उपकल्पना के अनुसार अवलोकन हेतु तथ्यों का निर्धारण, (2) आवश्यकतानुसार नियंत्रण की विधियों एवं परिस्थितियों का निर्धारण, (3) सहयोगी कार्यकर्त्ताओं की भूमिका का निर्धारण।

अवलोकन यंत्र –अवलोकन कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व, उपयुक्त अवलोकन यंत्रों का निर्माण करना आवश्यक होता है:-जैसे:- (1) अवलोकन निर्देशिका या डायरी (2) अवलोकित तथ्यों के लेखन के लिये उचित आकार के अवलोकन कार्ड (3) अवलोकन-अनुसूची एवं चार्ट-सूचनाओं को व्यवस्थित रूप से संकलित करने के लिये इनका प्रयोग किया जाता है।

अन्य आवश्यकतायें –इसमें कैमरा, टेप रिकार्डर, मोबाइल आदि को शामिल किया जा सकता है। इनकी सहायता से भी सूचनायें संकलित की जाती है।




अवलोकन के प्रकार 

अध्ययन की सुविधा के लिए निरीक्षण को कई भागों में बाँटा जाता है। प्रमुख रूप से निरीक्षण का वर्गीकरण इस प्रकार है।


अनियन्त्रित निरीक्षण (Un-controlled observation) 

नियन्त्रित निरीक्षण (Controlled observation) 

सहभागी निरीक्षण (Participant observation) 

असहभागी निरीक्षण (Non-participant-observation) 

अर्द्वसहभागी निरीक्षण (Quasi-participant observation) 

सामूहिक निरीक्षण (Mass observation) 



अनियन्त्रित अवलोकन 

अनियन्त्रित निरीक्षण ऐसे निरीक्षण को कहा जा सकता है जबकि उन लोगों पर किसी प्रकार का को नियंत्रण न रहे जिन का अनुसंधानकर्ता निरीक्षण कर रहा है।


 दूसरे शब्दों में जब प्राकृतिक पर्यावरण एव अवस्था में किन्ही क्रियाओं का निरीक्षण किया जाता है। साथ ही क्रियाये किसी भी बाहय शक्ति द्वारा संचालित एंव प्रभावित नही की जाती है तो ऐसे निरीक्षण का अनियंत्रित निरीक्षण कहा जाता है। इस प्रकार के अवलोकन में अवलोकन की जाने वाली घटना को बिना प्रभावित किये हुये, उसे उसके स्वाभाविक रूप में देखने का प्रयास किया जाता है। 


इसलिए गुड एवं हाट इसे साधारण अवलोकन (Simple observation) कहते हैं। 


जहोदा एवं कुक इसे ‘असंरचित अवलोकन (Unstructured observation) का नाम देते हैं। 


समाज विज्ञानों में इस अवलोकन को स्वतन्त्र अवलोकन (Open observation), अनौपचारिक अवलोकन (Informal observation) तथा अनिश्चित अवलोकन (Undirected observation) भी कहा जाता है। 


सामाजिक अनुसंधानों में अनियन्त्रित अवलोकन पद्धति ही सर्वाधिक प्रयुक्त होती है। जैसा कि गुड एवं हाट कहते हैं कि ‘‘मनुष्य के पास सामाजिक सम्बन्धों के बारे में उपलब्ध अधिकांश ज्ञान अनियन्त्रित (सहभागी अथवा असहभागी) अवलोकन से ही प्राप्त किया गया है।’’



इस प्रकार उपरोक्त विवेचन अनियन्त्रित अवलोकन की चार विशेषताओं को स्पष्ट करता है।


अवलोकनकर्त्ता पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं लगाया जाता है। 


अध्ययन की जाने वाली घटना पर भी को नियन्त्रण नहीं लगाया जाता है।


घटना का स्वाभाविक परिस्थिति में अध्ययन किया जाता है।


यह अत्यन्त सरल एवं लोकप्रिय विद्यि है। 


अनियन्त्रित अवलोकन की उपयोगिता-


अब आपको स्पष्ट हो गया होगा कि अनियंत्रित अवलोकन, घटनाओं का उनके स्वाभाविक रूप में अध्ययन करने की प्रविधि है। 

इसके महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- 


सामाजिक घटनाओं को बिना प्रभावित किये, उन्हें उनके स्वाभाविक रूप में देखा जाने एवं सूचनायें एकत्रित किया जाने को संभव बनाना।



अध्ययन में निष्पक्षता व वैषयिकता बनाये को संभव बनाना। 


परिवर्तनशील व जटिल सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहारों के अध्ययन को व्यावहारिक बनाना। 


अनियन्त्रित अवलोकन के दोष-

अवलोकनकर्त्ता इस विश्वास से ग्रसित हो सकता है कि उसने जो कुछ अपनी आँखों से देखा है, वह सब सही है। परिणामस्वरूप, त्रुटियों, भ्रान्तियों आदि की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। 


कभी-कभी अनावश्यक तथ्यों के संकलित हो जाने के कारण समय, धन व परिश्रम के अपव्यय होने की सम्भावना रहती है। 


घटनाओं को देखते समय अवलोकनकर्त्ता तथ्यों का लेखन नहीं कर पाता है। अत:, आवश्यक सूचनायें छूट भी सकती हैं। 


व्यक्तिगत पक्षपात आ जाने के कारण, वैज्ञानिकता खतरे में पड़ सकती है। 


नियन्त्रित अवलोकन

अनियन्त्रित अवलोकन में पायी जाने वाली कमियों जैसे- विश्वसीनयता एवं तटस्थता का अभाव-ने ही नियन्त्रित अवलोकन का सूत्रपात किया है। 


नियन्त्रित अवलोकन में अवलोकनकर्त्ता पर तो नियन्त्रण होता ही है, साथ ही साथ अवलोकन की जाने वाली घटना अथवा परिस्थिति पर भी नियन्त्रण किया जाता है। अवलोकन सम्बन्धी पूर्व योजना तैयार की जाती है, जिसके अन्तर्गत निर्धारित प्रक्रिया एवं साधनों की सहायता से तथ्यों का संकलन किया जाता है। इस प्रकार के अवलोकन में निम्न दो प्रकार से नियन्त्रण लागू किया जाता है : – 

सामाजिक घटना पर नियन्त्रण- इस प्रविधि में अवलोकित घटनाओं को नियन्त्रित किया जाता है जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों में प्रयोगशाला में परिस्थितियों को नियन्त्रित करके अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार समाज वैज्ञानिक भी सामाजिक घटनाओं अथवा परिस्थितियों को नियन्त्रित कर के, उनका अध्ययन करता है। तथापि, सामाजिक घटनाओं एवं मानवीय व्यवहारों को नियन्त्रित करना अत्यन्त कठिन कार्य होता है। इस प्रविधि का प्रयोग बालकों के व्यवहारों, श्रमिकों की कार्य-दषाओं, आदि, के अध्ययनों में प्रयुक्त किया जाता है। 



अवलोकनकर्त्ता पर नियन्त्रण- इसमें घटना पर नियन्त्रण न रखकर, अवलोकनकर्त्ता पर नियन्त्रण लगाया जाता है। यह नियन्त्रण कुछ साधनों द्वारा संचालित किया जाता है। जैसे- 51 अवलोकन की विस्तृत पूर्व योजना, अवलोकन अनुसूची, मानचित्रों, विस्तृत क्षेत्रीय नोट्स व डायरी, कैमरा, टेप रिकार्डर आदि प्



जजमानी व्यवस्था



जजमानी व्यवस्था मुख्य पेशों और सेवाओं के आधारित थी। जिसका मुख्य उद्देश्य एक सुव्यवस्थित समाज बनाना और एक-दूसरे की सेवाओ का पारस्परिक हित के लिए उपयोग करना था।


जजमानी व्यवस्था का वर्णन अन्तर-पारिवारिक अन्तर जातीय सम्बन्ध के रूप में किया गया है ।जिसमें संरक्षकों (patrons) तथा सेवाकर्ताओं के बीच के सम्बन्ध स्वामी तथा अधीन (superordinate-subordinate) के होते हैं।

 

 जजमानी व्यवस्था एक वितरण व्यवस्था है, जिसमें उच्च जाति के भूस्वामी परिवारों को निम्न जाति के लोगों के द्वारा सेवाएं प्रदान की जाती हैं। सेवक जाति के लोगों को ‘कमीन’ कहकर पुकारा जाता है, जबकि सेवित जातियों को ‘जजमान’ कहा जाता है। 

सेवक जातियों को उनकी सेवा के बदले में नकद या वस्तु के रूप में भुगतान किया जाता है।दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जजमानी’ प्रथा भारतीय ग्रामीण समाज में प्रचलित एक तरह की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था थी, जिसमें समाज  का एक वर्ग किसी दूसरे वर्ग को एक निश्चित सेवा प्रदान करता था जिसके बदले में सेवा प्रदान करने वाले वर्ग को सेवा का लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति से नकद धन के रूप में या फिर अधिकतर फसल के एक भाग के रूप में या धान्य या अन्य सामग्री प्रदान की जाती थी।

 जजमानी व्यवस्था देखने पर ज्ञात होता है कि सेवा प्रदान करने कार्य के प्रकार अलग-अलग थे जैसे कि धार्मिक कर्म-कांड से संबंधित कार्य जैसे की पंडित द्वारा पूजा-पाठ करवाना या किसी पेशे विशेष से जुड़े कार्य जैसे नाई, किसान, मजदूर कुम्हार, तेली, नाई, धोबी, दर्जी, लुहार, बढ़ई, सुनार, चर्मकार, माली आदि। जजमानी व्यवस्था में जजमान शब्द को देखने के लिए भारतीय वांग्मय को जब पढ़ा गया तो ज्ञात हुआ कि‘जजमान’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘यजमान’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है ‘त्यागी संरक्षक’ होता हैं।सेवा प्रदान करने वाला वर्ग जिस वर्ग को सेवा प्रदान करता है वो सेवा प्राप्त करने वाला वर्ग जजमानी कहलाता था।


जजमानी मुख्य ग्रामीण समाज की व्यवस्था है यह औद्योगिकीकरण के पहले की व्यवस्था है बाजारवाद के पहले की व्यवस्था जजमानी व्यवस्था है देखने पर ज्ञात होता है किभारतीय ग्रामीण समाज की व्यवस्था वड़ी ही सुदृढ़ रही जिसमें समाज विभिन्न जातियों में विभक्त होता था, पर वो सारी जातियां समाज के एक अंग के रूप निर्दिष्ट थीं। सभी जातियाँ मूलत: पेशों पर आधारित होती थीं।जजमानी व्यवस्था में गृहस्थ ही जजमान होता था बाकी अन्य पेशे से जुड़े लोग उसे सेवा प्रदान करते थे और वो गृहस्थ उनके लिये जजमान था।


 सेवाकर्ता (servicing) और सेवित (served) जातियों के बीच यह सम्बन्धा व्यक्तिगत, अस्थाई सीमित तथा संविदात्मक (contractual) नहीं था, बल्कि यह जाति-अभिमुख, स्थाई और विस्तृत समर्थन देने वाला था। 

वह व्यवस्था जिसमें भूमिस्वामी (land owning) परिवार तथा उन भूमिहीन परिवारों में, जो उसे वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करते हैं, स्थाई सम्बन्धा मिलते हैं, उसे जजमानी व्यवस्था कहा जाता है।

इस व्यवस्था का सर्वप्रथम अध्ययन करने वाले डब्ल्यू. एच वाइजर अमरीकन मानवशास्त्री थे, उन्होंने अपने उत्तर प्रदेश के एक गांव के अध्ययन में, यह पाया कि विभिन्न जातियों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन का आदान-प्रदान होता था। वहीं रूपांतर के साथ, यह प्रणाली पूरे भारत में मौजूद थी।

 औपनिवेशिक युग में जाति व्यवस्था ने काफी गहराई तक जड़ें जमाई हुई थीं। उस वक़्त प्रत्येक जाति के सदस्यों को पैदा होते ही उपहार स्वरुप मिली परंपराओ और कार्य का पालन करना होता था, हालांकि विभिन्न जातियों को सामाजिक रूप से अलग किया गया, फिर भी उस समय कई जातियां एक दूसरे पर निर्भर रहती थी।


समाजशास्त्र योगेन्द्र सिंह ने जजमानी व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जो गांवों के अन्तर्जातीय संबंधों में पारस्परिकता पर आधारित संबंध द्वारा नियंत्रित होती है। 



जजमानी सम्बन्ध

कभी-कभी वस्तुओं की आपूर्ति (supply) के आधार पर दो या दो से अधिक जातियों के सम्बन्ध संविदात्मक हो सकते हैं, किन्तु जजमानी नहीं। उदाहरणार्थ, जिस जुलाहे को उसकी बनाई हुई और बची हुई वस्तु के लिये नकद भुगतान किया जाता है, वह प्रथा के अनुसार फसल में से हिस्से का अधिकारी नहीं होता है। वह न ‘कमीन’ है और न ही खरीदने वाला उसका ‘जजमान’। फिर, जजमानी सम्बन्धाों में कुछ ऐसी सेवाएं तथा वस्तुएं हो सकती हैं जिनका अनुबन्ध (contract) होता है और पृथक से भुगतान भी ।

उदाहरण के लिये गांव में रस्सी बनाने वाली जजमानी व्यवस्था के अन्तर्गत किसान को सभी आवश्यक रस्सियों की पूर्ति करते हैं, केवल उस रस्सी के जो कुएं में उपयोगी होती है और काफी लम्बी और मोटी होती है। किसान को उसके लिए अलग से भुगतान देना होता है। जजमानी सम्बन्धाों में धाार्मिक कृत्यों, सामाजिक समर्थन तथा आर्थिक आदान-प्रदान सभी का समावेश है। सेवक जातियां जजमान के घर जन्म, विवाह, और मृत्यु के अवसरों पर धाार्मिक संस्कारिक समारोहों में कर्तव्यों का पालन करते हैं।
 डी.एन.मजूमदार ने उत्तर प्रदेश  के एक गांव की राजपूत जाति के ठाकुर परिवार का उदाहरण किया है जिसमें दस विभिन्न जातियों के परिवार जीवन चक्र-पथ के संस्कारों (life-cycle rites) की पूर्ति के लिये ठाकुर परिवार की सेवा में लगे होते हैं। उदाहरणार्थ, बालक के जन्म की दावत के समय ब्राह्मण नामकरण संस्कार कराता है, सुनार नवजात शिशु के लिये स्वर्ण आभूषण उपलब्ध कराता है, धाोबी गन्दे कपड़े धाोता है, नाई सन्देश वाहन का कार्य करता है, खाती वह पट्टा बनाता है जिस पर बच्चे को नामकरण के लिये बिठाया जाता है, लोहार लोहे का कड़ा बनाता है, कुम्हार कुल्हड़ आदि पानी पीने तथा सब्जियां आदि रखने के लिये उपलब्ध कराता है, पासी भोजन के लिये पनलें जुटाता है तथा भंगी दावत के बाद सफाई का काम करता है। वे सभी लोग जो इस प्रकार सहयोग करते हैं उपहार रूप में भोजन, वस्त्र और मान प्राप्त करते हैं जो आंशिक रूप से प्रथा पर, आंशिक रूप से जजमान के आर्थिक स्तर पर तथा आंशिक रूप से प्राप्तकर्ता के अनुरोध पर निर्भर करता हैं

‘कमीन’ (निम्न जातियां) जो अपने ‘जजमानों’ (उच्च जातियां) को विशिष्ट कुशलता एवं सेवाएं प्रदान करते हैं, स्वयं भी दूसरों से वस्तुएं तथा सेवाएं चाहते हैं।

 

कमीन अपने जजमानों को न केवल वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं बलिक उनके लिये वे कार्य भी करते हैं जो उन्हें (जजमानों को) अपवित्र करती हैं उदाहरणार्थ, (धाोबी द्वारा) गन्दे कपड़ों का धाोना, (नाई द्वारा) बालों का काटना, (नायन द्वारा) बच्चे का जन्म दिलाना, तथा (भंगी द्वारा) स्नान गृह/शौच घर आदि की सफाई करना, आदि। 

यद्यपि धाोबी, नाई, लोहार, आदि स्वयं निम्न जाति में आते हैं फिर भी वे हरिजनों की ‘कमीन’ के रूप में सेवा नहीं करते और न ही ब्राह्मण इन निम्न जातियों को अपना जजमान बनाते हैं, तथापि जब निम्न जाति परिवार समृद्ध हो जाते हैं तब वे दूषित व्यवसाय को त्याग देते हैं और संस्कार विशेषज्ञों (ritual specialists) की सेवाएं प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और इसमें सफल भी हो जाते हैं।

जजमानी सम्बन्ध जातियों की अपेक्षा परिवारों में होते हैं। इस प्रकार राजपूत जाति का परिवार गांव में लोहार जाति के एक विशेष परिवार के धातु के औषार प्राप्त करता है, न कि गांव के सभी लोहार जातियों से। इसी विशिष्ट लोहार परिवार को ही फसल पर राजपूत परिवार की फसलों में से एक भाग मिलेगा न कि दूसरे लोहार परिवारों को। लोहार और राजपूत दो परिवारों के बीच यह जजमानी सम्बन्ध स्थायी हैं क्यों कि लोहार परिवार उसी राजपूत परिवार की सेवा करता रहता है जिसकी सेवा उसके पिता और दादा करते थे। राजपूत परिवार भी अपने औजार और उनकी मरम्मत उसी लोहार परिवार से कराता है जिससे उसके पूर्वज कराया करते थे। यदि सम्बद्ध परिवारों में से एक परिवार समाप्त हो जाता है तो उस परिवारो वंशज उस स्थान को ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, उपर्युक्त प्रकरण मे अगर लोहार के परिवार में अधिक फत्र हैं जिन सभी को उनका जजमान राजपूत परिवार संरक्षण नहीं दे सकता तो कुछ लोहार पुत्र दूसरे स्थानों पर जाकर नये सहयोगी ढूंढ लेते हैं जहां लोहारों की कमी होती है।



प्रकार्य और भूमिकाएं
जजमानी व्यवस्था के कार्यों का विश्लेषण करते हुए लीच ने कहा है कि जजमानी व्यवस्था श्रम विभाजन तथा जातियों के आर्थिक परस्पर निर्भरता को नियमित करती है और बनाये रखती है। 

वाइजर के अनुसार जजमानी व्यवस्था भारतीय ग्राम को एक आत्मनिर्भर समुदाय के रूप में बनाये रखने में सहायक होती है। 

 है।

अर्थात

जजमानी व्यवस्था में ‘जजमान’ और ‘कमीन’ की दो भूमिकाएं सम्मिलित हैं। ‘कमीन’ जातियां ‘जजमान’ जातियों के लिये कुछ व्यावसायिक, आर्थिक और सामाजिक सेवाएं प्रदान करती हैं जिसके लिये जजमान निश्चित अन्तराल में या विशेष अवसरों पर उन्हें भुगतान करते रहते हैं। परन्तु इस आपसी विनिमय में सभी जातियां आवश्यक रूप से भाग नहीं लेती हैं। उदाहरणार्थ, तेली एक ऐसी जाति है जो सामान्य रूप से इस सेवा विनिमय व्यवस्था में सम्मिलित नहीं होती। 


तथापि, जजमानी व्यवस्था सभी गांवों में आदान-प्रदानात्मक (reciprocal) नहीं है। 

कोलेन्डा की मान्यता है कि भारत के बहुत से गांवों में इस प्रकार के सम्बन्धों में प्रबल जातियां शक्ति सन्तुलन अपनी ओर कर लेती हैं।

 योगेंन्द्र सिंह भी विश्वास करते हैं कि भारत के गांव आजकल आर्थिक संस्थाओं, सत्ता संरचना और अन्तरजातीय सम्बन्धाों के अर्थ में बदल रहे हैं। आर्थिक परिवर्तन का प्रमुख खेत भूमि सुधार है जो कि मध्यस्थता उन्मूलन, किरायेदारी सुधाार, भूमि चकबन्दी, भूमि के पुनर्वितरण, सहकारी खेती के विकास तथा अन्त:क्रिया, जजमानी व्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित किया है।


बीडलमैन के अनुसार जजमान और कमीन के बीच शक्ति आवंटन (allocation) में सांस्कारिक पवित्रता और अपवित्रता (ritual purity and pollution) महत्वपूर्ण नहीं है। निम्न जाति का व्यक्ति का व्यक्ति भले ही जजमान हो, उच्च जाति के कमीन से नीचे ही माना जाता है। उच्च जाति की शक्ति भू स्वामित्व और धन पर आधाारित होती है और कमीन के पास यह शक्ति नहीं होती है।

 


वाइजर ने कमीन को जजमान से मिलने वाले सत्रह प्रकार के प्रतिफल/उपलब्धिया (considerations) गिनाये हैं। 

हैरोल्ड गूल्ड ने भी 1954-55 में उत्तर प्रदेश के जिला  फैजाबाद के शेरपुर गांव में किये गये जजमानी व्यवस्था पर अपने अध्ययन में जजमानी बन्धनों में इन उपलब्धियों’ को महत्वपूर्ण पाया। 



हैरोल्ड गूल्ड ने जजमानों द्वारा ‘पूरजनों’ की सेवाओं के लिये भुगतान का भी अध्ययन किया। उदाहरणार्थ, ब्रांण को हर जजमान परिवार से फसल के समय पर पन्द्रह किलो अनाज मिलता था जुलाहे को प्रति जजमान पन्द्रह किलो अनाज प्रति फसल और बीस रुपया प्रति माह मिलता था, कुम्हार, नाई, लोहार को प्रति परिवार प्रति फसल आठ किलो अनाज मिलता था और धोबी को प्रत्येक फसल पर घर में प्रति स्त्री के हिसाब से चार किलो अनाज मिलता था।


जजमानी व्यवस्था की विशेषताएं

डॉक्टर सत्य मित्र सिंह करिया गोपालपुर ग्राम  जजमानी व्यवस्था के अध्ययन के आधार पर  जजमानी व्यवस्था की निम्न विशेषताएं बताते हैं की सामुदायिक संगठन में सहायक जजमानी व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न ऊँची-नीची जातियाँ को पारस्परिक रूप से एक-दूसरे की सेवाओं पर निर्भर रहना पड़ता है,आजकल यह प्रथा अंत्येष्टि व विवाह संस्कार में ही कुछ मात्रा में देखने को मिल रही है।फिर भी इसकी अन्य विशेष महत्व निम्नलिखित हैं।
मानसिक सुरक्षा ...शान्ति व सन्तोष की भावना ...स्थायी सम्बन्ध ...पैतृक सम्बन्ध ...आपसी घनिष्ठ सम्बन्ध

https://youtu.be/p7NYVGgTksw


संदर्भ 
योगेंद्र सिंह- मॉर्डनाइजेशन आफ इंडियन ट्रेडीशन 1973 
डी एन मजूमदार -कास्ट एंड कम्युनिकेशन इन इंडियन विलेज 
डब्ल्यू ई एच वाइजर (1967)- द हिंदू जजमानी सिस्टम


Thursday, April 2, 2020

रामनवमीं

काफी वक़्त से चैती पर कुछ लिखने का मन करता रहा पर कोई चैती सुन कर व रामा की टेर गुनगुना लेने के बाद इसपर लिखने की कोई उपयोगिता समझ नहीं आ रही थी,तभी कुछ सूझा की राम .तो..राम से ही शुरु करता हूं ।
राम का होना नहीं बल्कि राम का माना जाना महत्वपूर्ण  है ।भारतीय जनमानस में जब भी पुत्र पैदा हुआ तो उससे मर्यादा पुरुषोत्तम #राम की तरह हर घर से मांगा गया। जब भी शुभ लग्न  के #कार्ड छपे तो कुल में राम जैसा आदर्श किरदार मांगा गया । गुरुकुल कोई  भी रहा हो हर गुरुकुल में राम जैसा विद्यार्थी मांगा जाना। चाहे वह त्रेता रहा हो या आज का कलयुग । पतियों में राम जैसा पति मांग सिर्फ हर सीता के सिंदूर ने ही नहीं कि बल्कि हर युग मे जनक जैसे पिता ने भी की। भाइयों ने जब भी भाई मांगा तो राम जैसा। जब भी कोई राजा बना तो प्रजा ने उसे राजा राम की तरह होना ही माँगा । हर युग में सबजन की चाहत रही है की की राम राज्य ही आए।महत्वपूर्ण #सगुण या #निगुण राम होना नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण है जनमानस में राम  की मांग हरयुग में होना  हैं। 
खैर
 रामनवमी आज इतिहास में ऐसा कोई समय नहीं दिखता कि जब मंदिर बंद रहे हो।जब मस्जिदों में नमाज मैं लोग नहीं जुटे हो जब सड़क, वायु ,जल परिवहन बंद रहा हो और जब घरों में लोग कैद रहे वह भी फासले बनाकर सबको मौत का डर कोई दे गया हो कोई कोरोना बनकर । सच व कुछ को अफवाह पता नहीं। लेकिन इस में भी घर घर रामनवमी बड़े ही उल्लास से मनी हैं।
अब तो इस समय दूरदर्शन रामानंद सागर का रामायण भी दे रहा है।
   चैत के महीने में इन तीन वजहों से खुश हुआ जा सकता है एक तो हिन्दू नवसंवत्सर का आरम्भ और दूसरा रामजन्म और तीसरा गेंहूँ की कटाई...
(गांव के छोर से ...एक टेर जो दूर से चली आ रही है.....)
#चैत_मासे_चुनरी_रंगइबे_हो_रामा’