Friday, February 14, 2020

उदारीकरण(Liberalization),निजीकरण(Privatization), वैश्वीकरण(Globalization) से गुजरता आज का समाज...2020...,

Dr.Satyamitra singh..01

   उदारीकरण(Liberalization),निजीकरण(Privatization), वैश्वीकरण(Globalization) से गुजरता आज का समाज...2020...,


मानव समाज के संदर्भ में सामान्यतः समाज एवं संस्कृति की अवधारणा को पर्यायवाची समझा जाता है| लेकिन विशिष्ट एवं समाजशास्त्रीय अर्थों में समाज एवं संस्कृति की अवधारणा एक दूसरे से भिन्न है|

समाज, सामाजिक संबंधों की एक व्यवस्था है, ये संबंध संस्थाओं द्वारा परिभाषित प्रस्थिति एवं भूमिका के अनुसार निर्धारित होते हैं| जबकि संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिक एवं अभौतिक स्वरूपों की व्यवस्था है| भौतिक संस्कृति मूर्त होती है जिसका आकार होता है, जिसे हम देख सकते हैं जैसे – मकान, गाड़ी, कम्प्यूटर आदि| जबकि अभाैतिक संस्कृति अमूर्त होती है, इसे हम देख नहीं सकते, जैसे – धर्म, विश्वास, प्रथा, ज्ञान आदि|


सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं| सम्बन्धों में परिवर्तन मित्रतापूर्ण से शत्रुतापूर्ण, अनौपचारिक से औपचारिक, वैयक्तिक से अवैयक्तिक आदि सामाजिक परिवर्तन के उदाहरण हैं, जबकि विचारों एवं वस्तुओं में होने वाला परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन है| आवासीय शैली, विचार, वाहन, भोजन, पोशाक तथा प्रौद्योगिकी आदि में परिवर्तन मूलतः सांस्कृतिक परिवर्तन है| एक उदाहरण से समझना चाहे तो व्यक्ति का मांसाहारी से शाकाहारी बनना सांस्कृतिक परिवर्तन है, जबकि दो लोगों के संबंध मित्रतापूर्ण से शत्रुतापूर्ण होना सामाजिक परिवर्तन है


|पारसन्स के अनुसार सांस्कृतिक परिवर्तन का सम्बन्ध केवल विभिन्न मूल्यों, विचारों और प्रतीकात्मक अर्थपूर्ण व्यवस्थाओं में परिवर्तन से है, जबकि सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के बीच होने वाली अंत:क्रियाओं में परिवर्तन से हैं|


सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –


(1) सांस्कृतिक परिवर्तन एक वृहद् अवधारणा है, जिसके अंतर्गत मूर्त एवं अमूर्त दोनों पक्ष शामिल हो जाते हैं, जबकि सामाजिक परिवर्तन के अंतर्गत केवल अमूर्त पक्ष ही शामिल होते हैं|


(2) सामाजिक परिवर्तन मात्र सामाजिक संबंधों में होने वाला परिवर्तन है जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान, आदि में होने वाला परिवर्तन है|


(3) सामाजिक परिवर्तन चेतन एवं अचेतन दोनों तरह के बदलाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन प्रायः चेतन एवं सचेष्ट प्रयास का परिणाम होता है|


(4) सामाजिक परिवर्तन की गति काफी तीव्र हो सकती है, जबकि सांस्कृतिक परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत धीमी होती है|


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औद्योगीकरण के मार्ग (Paths of Industrialization)


विश्व में औद्योगीकरण को अपनाने का कोई निश्चित मार्ग नहीं है, इसका इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि अपनाये जाने वाले मार्गो में एकरूपता नहीं है| विभिन्न देश अपनी आर्थिक, भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार, जो भी मार्ग उचित समझे, उसे ही अपना लिया|


भारत ने औद्योगिकरण के लिए अनेक मार्गो का समन्वय करने की चेष्टा की| इसलिए भारत को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है| इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी क्षेत्र, निजी क्षेत्र सम्मिलित हो जाते हैं | स्वतंत्रता के बाद 1990 तक भारत इसी मार्ग पर चलता रहा| लेकिन मिश्रित अर्थव्यवस्था के आशानुरूप सफलता न मिलने के कारण 1991 से भारत ने औद्योगीकरण के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देना शुरू किया, क्योंकि यह महसूस किया जाने लगा कि उद्योगों का संचालन निजी प्रबंधन में बेहतर तरीके से किया जा सकता है| इसीलिए सरकार ने औद्योगीकरण की नई नीति अपनाई है, जो उदारीकरण(Liberalization), निजीकरण(Privatization), वैश्वीकरण(Globalization), पी.पी.पी. मॉडल (Public-private Partnership) पर आधारित है|

औद्योगीकरण का समाज पर प्रभाव (Impact of Industrialization on Society)

इसके अंतर्गत हम श्रम विभाजन एवं सामाजिक गतिशीलता पर पड़े प्रभाव की चर्चा करते हैं –


(1) श्रम विभाजन पर प्रभाव (Impact on Division of Labour) – इसे निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –


(i) जाति एवं धर्म से मुक्त व्यवसायों का उद्भव|


(ii) लौकिकीकरण तथा मानवता का प्रसार|


(iii) नगरीकरण


(iv) नवीन पेशों का जन्म एवं विशेषीकरण|


(2) सामाजिक गतिशीलता पर प्रभाव (Impact on Social Mobility) – सामाजिक गतिशीलता पर पड़े प्रभाव को निम्नवत् देखा जा सकता है –


(i) जातीय कठोरता में कमी|


(ii) संयुक्त परिवार के स्थान पर नाभिकीय परिवार की अधिकता|


(iii) विवाह की संस्था में परिवर्तन जैसे – विवाह विच्छेद एवं प्रेम विवाह|


(iv) औपचारिक शिक्षा का प्रसार|


(v) तकनीकी एवं वाणिज्यिक शिक्षा पर विशेष बल जैसे – एम.बी.ए.(M.B.A.), बी.टेक.(B.Tech.), बी.बी.ए.(B.B.A.), डिप्लोमा(Diploma) आदि|


(vi) नगरीकरण को प्रोत्साहन|


ग्रामीण जनसंख्या के पलायन का समाजशास्त्रीय अध्ययन (उत्तराखंड के कुमाऊँ व उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के विशेष सन्दर्भ में।)

ग्रामीण जनसंख्या के पलायन का समाजशास्त्रीय अध्ययन

(उत्तराखंड के कुमाऊँ  व उत्तर प्रदेश  के पूर्वांचल के विशेष सन्दर्भ में।)

शोध सारांश
पलायन (माइग्रेशन) -को किसी व्यक्ति के विस्थापन के अर्थ में परिभाषित किया गया है। पलायन करने वाला व्यक्ति अपनी जन्मभूमि अथवा स्थायी आवास को छोड़कर देश में ही कहीं अन्यत्र रहने चला जाता है।
साल २००१ में भारत में अपने पिछले निवास स्थान को छोड़कर कहीं और जा बसने वाले लोगों की संख्या ३० करोड़ ९० लाख थी।कुल जनसंख्या में यह आंकड़ा ३० फीसदी का बैठता है। साल १९९१ की जनगणना से तुलना करें तो २००१ में पलायन करने वाले लोगों की तादाद में ३७ फीसदी का इजाफा हुआ है। आकलन के मुताबिक साल १९९१ से २००१ के बीच ९ करोड़ ८० लाख लोग अपने पिछले निवास स्थान को देश में कहीं और रहने के लिए विवश हुए।


देश की लगभग एक तिहाई आबादी 31.16 प्रतिशत अब शहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग शहरों के बाशिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गांवंों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।

और अब 16वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों बड़े दलों ने अपने घोशणा पत्रों में कहीं ना कहीं नए शहर बसाने की बात कही है।
देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिशत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देश की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देश की अधिकांश आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी शहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावट, शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी है और लोगों बेहतर जीवन की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। शहर बनने की त्रासदी की बानगी है सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश । बीती जनगणना में यहां की कुल आबादी का 80 फीसदी गांवों में रहता था और इस बार यह आंकड़ा 77.7 प्रतिशत हो गया। बढ़ते पलायान के चलते 2011 में राज्य की जनसंख्या की वृद्धि 20.02 रही , इसमें गांवों की बढौतरी 18 प्रतिशत है तो षहरों की 28.8। सनद रहे पूरे देश में शहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड परिवारों में से 1.37 करोड झोपड़-झुग्गी में रहते हैं और देश के 10 सबसे बड़े शहरी स्लमों में मेरठ व आगरा का शमार है। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झोपड-झुग्गी में रहती है।



प्रस्तावना :
जनसंख्या पलायन का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना स्वयं मानव का। संसार के जिस भाग में जिस समुदाय अथवा प्रजाति के लोग रहते है उनके पूर्वज वहां नहीं रहते थे। बल्कि वे वहां अन्यत्र स्थान से स्थानान्तरित होकर आये थे। मानव प्रराम्भिक काल से लेकर वर्तमान समय तक अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति, सुरक्षा, रोजगार , शिक्षा तथा जीवन के लिए जरूरी संसाधनों की पूर्ति के लिये पलायन करता रहा है।

हमारे देश की ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत निरंतर घट रहा है जिसके पीछे मुख्य कारण गांवों से शहरों की ओर पलायन है। आज देश को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के लिए गांवों में बुनियादी विकास मूल आवश्यकता है। गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी। देश में व्याप्त विभिन्न कुरुतियों को समूल नष्ट करना होगा तथा हर जगह शिक्षा की अलख जगानी होगी। शिक्षा के माध्यम से ही ग्रामीण जनता में जनचेतना का उदय होगा तथा वे विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकेंगे।

जनगणना 2011 के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ आंकलित की गई है जिसमें 68.84 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और 31.16 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ों के देखने पर स्पष्ट परिलक्षित होता है कि भारतीय ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है।

मानव विकास के साथ-साथ पलायन का स्वरूप, अर्थ, उद॰ ेश्य भी बदलते रहे है। इसका कारण मनुष्य की समय के साथ बदलती मानसिकता व आवश्यकताएं रही है । प्रारम्भिक समय में उत्तराखण्ड में अन्तः पलायन के कारण बस्तियों का विकास हुआ, कृषि व पशुपालन कार्य विकसित हुये एवं आत्मनिर्भर मूलक अर्थव्यस्था का प्रादुर्भाव हुआ, यहां आर्यो के आगमन एवं विभिन्न शासकों के काल में, धार्मिकता एवं राजनैतिक आधार पर अन्त पलायन की प्रक्रिया से जनसख्या में वृद्धि हुयी।

गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए पूर्व में अनेक प्रावधान किए हैं। सरकार की कोशिश है कि गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार मिले। उन्हें गांव में ही शहरों जैसी आधारभूत सुविधाएं मिले। 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में “महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना” के लागू होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था काफी सुदृढ़ हुई है। सबसे ज्यादा फायदा यह हुआ है कि ग्रामीणों का पलायन रुका है। लोगों को घर बैठे काम मिल रहा है और निर्धारित मजदूरी (119 रुपये वर्तमान में) भी। मजदूरों में इस बात की खुशी है कि उन्हें काम के साथ ही सम्मान भी मिला है। कार्यस्थल पर उनकी आधारभूत जरूरतों का भी ध्यान रखा गया है। उन्हें यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि “अब गांव-शहर एक साथ चलेंगे, देश हमारा आगे बढ़ेगा।” 

गेसल  के अनुसार पलायन मात्र स्थान परिवर्तन ही नहीं बल्कि किसी क्षेत्र तत्व तथा क्षेत्रीय सम्बन्धों को समझने का प्रमुख आधार है। 3104‘‘ उत्तरी आक्षांश, तथा 7707‘‘ पूर्वी आक्षांश से अध्ययन 8101‘‘ क्षेत्र : उत्तराखण्ड प्रदेश 2807‘‘ उत्तरी अक्षांश से, पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है, उत्तराखण्ड प्रदेश 53483 वर्ग किमी0 क्षेत्र में फैला हुआ है।

उत्तराखण्ड की कुल जनसंख्या 2011 के अनुसार 10086292 है, जिसमें नगरीय जनसंख्या 3049338 तथा ग्रामीण जनसंख्या
अव्सन्उम . 8 द्य पेन्म . 4 द्य श्रंदन्ंत्ल . 2019
उत्तराखण्ड प्रदेष में ग्रामीण जनसंख्या के पलायन का

उत्तर प्रदेश

शोध पद्धति - प्रस्तुत अध्ययन में प्राथमिक तथा द्वितीयक स्त्रोतों का उपयोग किया गया है। प्राथमिक श्रोत में साक्षात्कार, क्षेत्र भ्रमण से एकत्रित किये गये एवं द्वितीयक स्त्रोत में पलायन अयोग उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड अर्थ-साख्ंयकी विभाग से प्राप्त किये गये हैं।

जनसंख्या पलायन -

रम्परागत जाति व्यवस्था का शिकंजा इतना मजबूत है कि शासन और प्रशासन भी सामूहिक अन्याय का मुकाबला करने वालों के प्रति उदासीन बना रहता है। जैसाकि पिछले दिनों उत्तर भारत के कुछ राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में खाप पंचायतों के अन्यायपूर्ण क्रूर आदेशों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है जिसमें सड़ते और दबते रहने की बजाय लोग गांव से पलायन करना पसंद करते हैं। 

शहरों में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना 

औद्योगीकरण शहरीकरण की पहली सीढ़ी है। आजादी के बाद भारत ने देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के इरादे से छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना का अभियान चलाया। ये सभी उद्योग शहरों में लगाए गए जिसके कारण ग्रामीण लोगों का रोजगार की तलाश एवं आजीविका के लिए शहरों में पलायन करना आवश्यक हो गया। 

नगरीय चकाचौंध

भारत में गांवों से शहर की ओर पलायन की प्रवृत्ति बेहद ज्यादा है। जहां गांव में विद्यमान गरीबी, बेरोजगारी, कम मजदूरी, मौसमी बेरोजगारी, जाति और परम्परा पर आधारित सामाजिक रुढ़ियां, अनुपयोगी होती भूमि, वर्षा का अभाव एवं प्राकृतिक प्रकोप इत्यादि कारणों ने न सिर्फ लोगों को बाहर भेजने की प्रेरणा दी वही शहरों ने अपनी चकाचौंध सुविधाएं, युवाओं के सपने, रोजगार के अवसर, आर्थिक विषमता, निश्चित और अनवरत अवसरों में आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस प्रकार पुरुष और महिलाओं के एक बड़े समूह ने गांव से शहर की ओर पलायन किया है। वर्ष 2001 से 2011 तक की शहरी जनसंख्या में 5.16 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 

शिक्षा और साक्षरता का अभाव

शिक्षा और साक्षरता का अभाव पाया जाना ग्रामीण जीवन का एक बहुत बड़ा नकारात्मक पहलू है। गांवों में न तो अच्छे स्कूल ही होते हैं और न ही वहां पर ग्रामीण बच्चों को आगे बढ़ने के अवसर मिल पाते हैं। इस कारण हर ग्रामीण माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए शहरी वातावरण की ओर पलायन करते हैं। 

हालांकि सरकारी एवं निजी तौर पर आज ग्रामीण शिक्षा को बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जब रोजगार प्राप्ति एवं उच्च-स्तरीयता की बात आती है तो ग्रामीण परिवेश के बच्चे शहरी बच्चों की तुलना में पिछड़ जाते हैं। ग्रामीण बच्चे अपने माता-पिता के साथ गांव में रहने के कारण माता-पिता के परम्परागत कार्यों में हाथ बंटाने में लग जाते हैं जिससे उन्हें उच्च शिक्षा के अवसर सुलभ नहीं हो पाते हैं। इस कारण माता-पिता उन्हें शहर में ही दाखिला दिला कर शिक्षा देना चाहते हैं और फिर छात्र शहरी चकाचौंध से प्रभावित होकर शहर में ही रहने के लिए प्रयास करता है जो पलायन का एक प्रमुख कारण है। 

रोजगार और मौलिक सुविधाओं का अभाव

गांवों में कृषि भूमि का लगातार कम होते जाना, जनसंख्या बढ़ने, और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-नगरों की तरफ जाना पड़ रहा है। गांवों में मौलिक आवश्कताओं की कमी भी पलायन का एक बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, आवास, सड़क, परिवहन जैसी अनेक सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम हैं। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकार भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते है।

गांवों से पलायन रोकने के प्रमुख सुझाव

समानता और न्याय पर आधारित समाज की स्थापना

ग्रामीण पलायन रोकने के लिए सामाजिक समानता एवं न्याय पर आधारित समाज की स्थापना करना अति आवश्यक है। इसलिए सभी विकास योजनाओं में उपेक्षित वर्गों को विशेष रियायत दी जाए। इसके अलावा महिलाओं के लिए स्वयंसहायता समूहों के जरिए विभिन्न व्यवसाय चलाने, स्वरोजगार प्रशिक्षण, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना (वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, छात्रवृत्ति योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना) जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनसे लाभ उठाकर गरीब तथा उपेक्षित वर्गों के लोग अपना तथा अपने परिवार का उत्थान कर सकते हैं। 

इस संदर्भ में मैं एक अपने अनुभव पर आधारित प्रोजेक्ट के माध्यम से गांवों में चुने हुए जन प्रतिनिधियों की व्यवस्था के बारे में जानकारी दे रहा हूं। हमने एक प्रोजेक्ट किया जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में चुने हुए जन-प्रतिनिधियों के बारे में जानकारी जुटानी थी मुख्य रूप से जो ग्रामीण पंच बनाए गए हैं उनकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक जानकारी प्राप्त करनी थी। जिसमें पंचों ने अपनी व्यथा बड़े गम्भीर ढंग से उजागर की और बताया कि हम पंच तो हैं लेकिन हमें सरकार से मिल रही नई योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं और न ही कोई प्रशिक्षण की व्यवस्था है। 

अधिकतर पंच अशिक्षित व्यक्ति एवं महिलाएं बनाई गई हैं। और लोगों ने हमें कहा कि पंचों के लिए शैक्षिक योग्यता अवश्य निर्धारित की जानी चाहिए तभी ग्रामीण विकास हो सकता है। कुछ लोगों ने यह भी बताया कि हमारे साथ पंचायत में न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता है और मात्र जोर-जबर्दस्ती एवं दबाव डालकर प्रस्ताव पर हस्ताक्षर या अगूंठा लगवाया जाता है। अतः यह सामाजिक असमानता एवं अन्याय ही तो है। इस कारण लोग राजनीतिक कार्यों से विमुख होकर अपनी आजीविका में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। अतः इसका उचित समाधान किया जाना चाहिए। 

रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना 

सर्वप्रथम गांवों में रोजगार के अवसर निरंतरता के साथ उपलब्ध कराए जाए जिससे लोगों को आर्थिक सुरक्षा तो मिलेगी साथ ही वे स्वतः अपनी जीवनशैली में सुधार करेंगे। केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा योजना 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में शुरू की गई। दूसरे चरण में 130 जिलों में एवं तीसरे चरण में 1 अप्रैल, 2008 को देश के शेष 265 जिलों में मनरेगा कार्यक्रम चलाया गया जिससे ग्रामीणों को रोजगार के अवसर सृजित हुए और गांवों से पलायन भी रुका है।

मौलिक सुविधाएं उपलब्ध करवाना 

ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाए जिसमें, परिवहन सुविधा, सड़क, चिकित्सालय, शिक्षण संस्थाएं, विद्युत आपूर्ति, पेयजल सुविधा, रोजगार तथा उचित न्याय व्यवस्था आदि शामिल हैं। गांवों की दशा सुधारने के लिए एक अप्रैल, 2010 में लागू हुए शिक्षा का अधिकार कानून से इस समस्या के समाधान की आशा की जा सकती है। इस कानून से गांवों के स्कूलों की स्थिति, अध्यापकों की उपस्थिति और बच्चों के दाखिले में वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से इस कानून को लागू करके गांवों में शिक्षा का प्रकाश फैलने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, वही असमानता, शोषण, भ्रष्टाचार तथा भेदभाव में कमी होगी जिसके फलस्वरूप ग्रामीण जीवन बेहतर बनेगा। इस अभियान के तहत तीन लाख से अधिक नये स्कूल खोले गए जिसमें आधे से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में खोले गए हैं। 

भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन की स्थापना

लोक कल्याण करने एवं ग्रामीण पलायन रोकने के लिए सरकार द्वारा योजना तो लागू की जाती है लेकिन ये योजनाएं भ्रष्ट व्यक्तियों द्वारा हथिया ली जाती हैं जिससे उसका पूरा लाभ जनता को नहीं मिल पाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत कृषि के स्थान पर पूंजी आधारित व अधिक आय प्रदान करने वाली खेती को प्रोत्साहन दिया जाए जिससे किसानों के साथ-साथ सीमांत किसानों और मजदूरों को भी ज्यादा से ज्यादा लाभ हो सके। सिंचाई सुविधा, जल प्रबन्ध इत्यादि के माध्यम से कृषि भूमि क्षेत्र का विस्तार किया जाए जिससे न केवल उत्पादन में वृद्धि होगी साथ ही आय में भी वृद्धि होगी और किसानों में आत्मविश्वास व स्वाभिमान जागृत होगा जिससे ग्रामीण पलायन रुकेगा। 

मजदूरों तथा अन्य बेरोजगार युवकों के लिए स्वरोजगार हेतु वित्तीय सहायता एवं प्रशिक्षण की सुविधा तथा प्रशिक्षण केन्द्र गांवों में खोले जाएं। रोजगार के वैकल्पिक साधन यथा बुनाई, हथकरघा, कुटीर उद्योग, साथ ही खाद्य प्रसंस्करण केन्द्र की स्थापना की जाए।स्वयंसहायता समूह, सामूहिक रोजगार प्रशिक्षण, मजदूरों को शीघ्र मजदूरी तथा उनके बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य मनोरंजन की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। 

सभी राज्यों में मुख्यत:ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुसंगठित एवं पारदर्शी बनाया जाए जिससे लोगों को उचित दामों से खाद्य सुरक्षा व अनाज उपलब्ध हो सके और ग्रामीण पलायन रोका जा सके। 

उत्तराखण्ड में आर्यो का आगमन पंजाब तथा गंगा के मैदानी भागों से होता रहा। ये लोग पर्वतीय क्षेत्रों में आकर बस गये, एटकिन्सन के अनुसार विष्णुपुराण, महाभारत, बारहीसंहिता के प्रमाणों के आधार पर शक, नाग, हूण, खस, किरात, कमयु जातियां मूलरूप से इस प्रदेश में निवास करती थी। हवीलर के अनुसार नागपूजक, नागजाति अलकनन्दा घाटी में निवास करती थी। आज भी प्रदेश के अधिकांश पर्वतीय गाँवों में नागराजा की स्थापना देखने को मिलती है। वैदिक काल, मुगलकाल, गोरखाकाल, ब्रिटिश काल, स्वतंत्रता के बाद भी उत्तराखण्ड प्रदेश में पलायन होता रहा है। जिससे उत्तराखण्ड में धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि होती गयी। प्रदेश में धार्मिक पर्यटक स्थल एवं प्रकृतिक पर्यटक स्थलों से भी जनसंख्या वृद्धि हुई है। उत्तराखण्ड प्रदेश में वर्तमान समय में पलायन विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है।

1. भौतिक कारक- भौतिक कारकों में जलवायु का सबसे महत्वपूर्ण स्थान हैं। जलवायु परिवर्तन से मानव जाती का पलायन हुआ है। उत्तराखण्ड प्रदेश में भौतिक कारक में धरातली स्वरूप एवं जलवायु परिवर्तन से भी पलायन हुआ है। प्रदेश के ऊँचे क्षेत्रों से घाटियों में पलायन तथा घाटियों से ऊँचे क्षेत्रों में पलायन जलवायु परिवर्तन के कारण ही होता है।

2. आर्थिक कारक - जनसंख्या पलायन में सबसे महत्वपूर्ण कारक आर्थिकता का हैं। मानव की बढ़ती हुई आवश्कताओं से मानव अपने आर्थिक विकास के लिये पलायन कर रहा है। उत्तराखण्ड प्रदेश में कृषि एवं पशुपालन मुख्य व्यवसाय है। कृषि में कम पैदावार का होना जिसका मुख्य कारण समय पर वर्षा का कम होना है। क्योंकि यहां अधिकांश कृषि वर्षा पर निर्भर रहती है। पशुओं में भी निरन्तर कमी हो रही है, जिसका मुख्य कारण चारागाह क्षेत्रों की कमी होना है। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के युवा रोजगार की तलाश में समीपवर्ती तथा बडे नगरो के लिये पलायन करते है।
3.
। उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद देहरादून में प्रदेश की राजधानी होने के कारण यहां राजनीति पलायन आधिक हुआ है। तालिका संख्या 3.4 में उत्तराखण्ड प्रदेश के विभिन्न जनपदो में ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या को प्रदर्शित किया गया हैं। क्योंकि उत्तराखण्ड प्रदेश के अधिकांश पलायन ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में हुआ है। उत्तराखण्ड प्रदेश के रूद्रप्रयाग जनपद में वर्ष 2001 में नगरीय जनसंख्या 1.20 थी, जबकि 2011 में नगरीय जनसंख्या 4.10 हो गयी है। जनपद में 10 वर्षो में कुल 2.90 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या की वृद्धि हुयी है। उत्तराखण्ड प्रदेश के उत्तरकाशी जनपद में 10 वर्षो में नगरीय जनसंख्या .43 प्रतिशत की कमी हुयी है। जबकि ग्रामीण जनसंख्या में .43 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है। उत्तराखण्ड प्रदेश में सबसे अधिक नगरीय जनसंख्या वृद्धि हरिद्वार जनपद में 5.8 प्रतिशत हुयी है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में 5.85 प्रतिशत की कमी हुयी। उत्तराखण्ड प्रदेश में नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या 10 वर्षो मं 15.55 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों मं 15.55 प्रतिशत की कमी हुई है।
तालिका संख्या 3.4 उत्तराखण्ड प्रदेष की ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या का प्रतिषत वर्ष 2001 वर्ष 2011 प्र पलायन किया है।
अस्थायी पलायन - उत्तराखण्ड प्रदेश में अस्थायी पलायन अधिक हो रहा है। जिनकी अवधि कुछ समय के लिये होती है। जो कुछ दिनों या महीनों के भीतर अपने मूल स्थान को लौट आते हैं। जैसे तीर्थयात्रा, देशाटन, सदभावना यात्रा, राजनीति उदेश्यों व्यापार सम्बन्धित शिक्षा सम्बन्धित आदि उत्तराखण्ड प्रदेश में अस्थायी पलायन उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में भी अधिक होता है। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों के लोग ग्रीष्म ऋतु में उँचे भागों में रहते हैं।ग्रीष्म काल में यहां मौसम अनुकूल रहता है। तथा पशुओं के लिये प्रयाप्त चारागाह उपलब्ध रहते हैं, पशुचारक इन्हीं स्थानों में आते हैं, तथा 6 माह तक यहां रहते हैं, शीतकाल में उँचे पर्वतीय क्षेत्रों के कुछ लोग घाटियों में आ जाते हैं, तथा कुछ लोग तराई भागों में चले जाते हैं।
निष्कर्ष उत्तराखण्ड प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन को रोकना सरकार के लिये वड़ी चुनौती है। प्रदेश में प्रत्येक दिन 33 लोगों का पलायन रहा है। यदि प्रदेश के अस्थायी पलायन को जोड़ दिया जाय तो 165 लोग प्रति दिन पलायन कर रहें हैं। अलग राज्य गठन के बाद भी रोजगार, स्वास्थ, शिक्षा सुविधाओं के लिये 30 प्रतिशत ग्रामीणों ने देश के विभिन्न राज्यों एवं विदेशों में जीवन यापन कर रहे है। 70 प्रतिशत ग्रामीण लोग ऐसे हैं। जिन्होने पैत्रिक गाँव छोडकर प्रदेश के भीतर ही सुविधाजनक स्थानों में पलायन किया है। 3946 ग्राम पंचायतों से 10 वर्षो में 1 लाख 18 हजार 981 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन कर दुसरे स्थानों में जाकर बसे ह,ै उत्तराखण्ड प्रदेश के लोगों की आजीविका कृषि, मजदूरी, उद्यान, डेयरी सरकारी सेवा व अन्य कार्य है।जिसमें 43.59 प्रतिशत कृषि 32.22 प्रतिशत मजदूरी, 2.11 प्रतिशत उद्यान, 2.64 प्रतिशत डेयरी, 10.83 प्रतिशत सरकारी सेवाओं तथा 8.61 प्रतिशत अन्य कार्यो में सलग्न हैं। सरकार द्वारा कृषि उधान डेयरी के लिए विशेष योजना बनानी चाहिए, कृषि बढावा के लिए बदलती हुई जलवायु के अनुरूप कृषि का विकास के लिये योजना बनानी चाहिए, उधानों के विकासों लिए विशेष योजना बनानी चाहिए, क्योकि उद्यानों के लिए प्रदेश में अनुकुल जलवायु उपलब्ध है। जो प्रदेश के पलायन बेरोजगारी रोकने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं, उत्तराखण्ड प्रदेश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढती जा रही है। उत्तराखण्ड प्रदेश में शिक्षित बेरोजगारी का आंकडा 9 लाख है। 13 जनपदों में 531174 पुरूष बेरोजगार 338588 महिलाये बिरोजगार पंजीकृत है। राज्य सरकार को लधु उद्योगों की स्थापना, सरकारी रिक्त पदों में भर्तीयां, स्वरोजगार के लिए प्रेरित एवं वित्तीय सहायता कर के बेरोजगारी में कमी की जा सकती है। प्रदेश के 10 वर्षों में पलायन के कारण 734 गॉवों में आबादी नहीं है, जो राज्य एवं देश हित में सही नही है क्योकि उत्तराखण्ड प्रदेश की सीमायें चीन देश से जुडी है, सीमावर्ती गॉव से पलायन होने से गॉव बिरान हो जायेगे जिससे बाहरी देशों की गतिविधियों सीमाओं में अधिक बड जायेगी क्योकि स्थानीय लोग प्रति दिन पशुचारण हेतु सीमाओं तक जाते है, सीमाओं में होने वाली गतिविधियों को शासन एवं प्रशासन को अवगत कराते हैं, जिससे सीमाओं पर तैनात सैनिकों को सूचना मिलने में मद॰ मिलती है। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष योजनाये बनायी जानी चाहिए जिससे यहां का पलायन रूक सके।

हाल में आई सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट यह बताती है कि देश में पिछले एक साल में बेरोजगारी दर 70 प्रतिशत बढ़ चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2018 में देश की बेरोजगारी दर 5.67 प्रतिशत हो चुकी है, जबकि पिछले साल जून में बेरोजगारी दर 3.39 प्रतिशत थी।

बेरोजगारी को लेकर मोदी सरकार जनता की नाराज़गी का सामना कर रही है। वहीं, हाल में आए आरबीआई के कंज्यूमर कांफिडेंस सर्वे के मुताबिक, 44.1 प्रतिशत लोगों का मानना है कि रोजगार के मौके खत्म हुए हैं, जबकि 31.5 प्रतिशत लोगों को लगता है कि रोजगार के मौके बेहतर हुए हैं, वहीं 24.4 प्रतिशत को लगता है कि इस मोर्चे पर कोई सुधार नहीं हुआ है।

पलायन (माइग्रेशन)

• किसी प्रांत से उसी प्रांत में और किसी एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पलायन करने वालों की संख्या पिछले एक दशक में ९ करोड़ ८० लाख तक जा पहुंची है। इसमें ६ करोड़ १० लाख लोगों ने ग्रामीण से ग्रामीण इलाकों में और ३ करोड़ ६० लाख लोगों ने गावों से शहरों की ओर पलायन किया। #1

• पिछले एक दशक को आधार मानकर अगर इस बात की गणना करें कि किसी वासस्थान को छोड़कर कितने लोग दूसरी जगह रहने गए और कितने लोग उस वासस्थान में रहने के लिए आये तो महाराष्ट्र इस लिहाज से सबसे आगे दिखेगा। महाराष्ट्र में आने वालों की तादाद महाराष्ट्र से जाने वालों की तादाद से २० लाख ३० हजार ज्यादा है। इसके बाद आता है दिल्ली(१० लाख ७० हजार), गुजरात(०.६८ लाख) और हरियाणा(०.६७ लाख) का नंबर।#2

• उत्तरप्रदेश से जाने वालों की तादाद वहां आने वालों की तादाद से २० लाख ६० हजार ज्यादा है और बिहार से जाने वाली की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से १० लाख ७० हजार ज्यादा है।#3

• भारत में साल १९९१ से २००१ के बीच ७ करोड़ ३० लाख ग्रामीणों ने पलायन किया। इसमें ५ करोड़ ३० लाख एख गांव छोड़कर दूसरे गांव में रहने के लिए गए और लगभग २ करोड़ लोग शहरी इलाकों में गए। शहरों की तरफ जाने वालों में ज्यादातर काम की तलाश करने वाले थे।*4

• अगर पिछले निवास-स्थान को आधार माने तो साल १९९१ से २००१ के बीच ३० करोड़ ९० हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा जो देश की जनसंख्या का ३० फीसदी है।*5

• तीन दशकों(१९७१-२००१) के बीच शहरों से शहरों की तरफ पलायन में १३.६ फीसदी से बढञकर १४.७ फीसदी हो गया है। *6

• साल १९९१ से २००१ के बीच एक गांव से दूसरे गांव में पलायन करने वालों की संख्या कुल पलायन का ५४.७ फीसदी है।*7

• भारत में आप्रवासी मजदूरों की कुल संख्या साल १९९९-२००० में १० करोड़ २७ हजार थी। मौसमी पलायन करने वालों की संख्या २ करोड़ से ज्यादा हो सकती है। **8





निष्कर्ष
ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात सालों में उत्तराखंड में 700 गाँव वीरान हो गए। इससे पहले वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में भुतहा गाँवों (घोस्ट विलेज) यानी वीरान हो चुके गाँवों की संख्या 968 थी, जो अब बढ़कर 1668 हो गई है। यह खुलासा खुद राज्य सरकार की रिपोर्ट में हुआ है। सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इसे जारी किया।रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 3,946 गाँव से लगभग 1,18,981 लोगों ने स्थाई रूप से पलायन कर लिया है। पिछले दस साल से हर दिन औसतन 33 लोग गाँवों से जा रहे हैं। यहां लगभग आधे घर खंडहर हैं। वहीं 6338 गाँव के तकरीबन 383726 लोग अस्थाई रूप से काम-धंधे और पढ़ाई-लिखाई के फेर में राज्य छोड़ने को मजबूर हुए। सबसे ज्यादा पलायन पौड़ी, टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में हुआ है।

राज्य सरकार ने पिछले दिनों पलायन आयोग गठित किया था। इस आयोग ने 13 जिलों की 7950 ग्राम पंचायतों में सर्वे कराया था। इसके बाद पलायन पर रिपोर्ट तैयार हुई। रिपोर्ट के अनुसार 50 प्रतिशत लोगों ने रोजगार, 15% ने शिक्षा के लिए और 8% ने चिकित्सा के लिए पलायन किया है। राज्य के 734 गाँव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। पलायन करने वालों में 70% लोग गाँवों से गए तो वहीं 29% ने शहरों से पलायन किया है।

आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था में सामुदायिक विकास तथा योजनाबद्ध विकास की अन्य अनेक योजनाओं के माध्यम से गांवों की हालत बेहतर बनाने और गांव वालों के लिए रोजगार के अवसर जुटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता रहा है। 73वें संविधान संशोधन के जरिए पंचायती राज संस्थाओं को अधिक मजबूत तथा अधिकार-सम्पन्न बनाया गया और ग्रामीण विकास में पंचायतों की भूमिका काफी बढ़ गई है। पंचायतों में महिलाओं व उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण से गांवों के विकास की प्रक्रिया में सभी वर्गों की हिस्सेदारी होने लगी है। इस प्रकार से गांवों में शहरों जैसी बुनियादी जरूरतें उपलब्ध करवाकर पलायन की प्रवृत्ति को सुलभ साधनों से रोका जा सकता है। 

संदर्भ सूची

1,2,3#  
भारत सरकार की जनगणना, http://censusindia.gov.in/Census_And_You/migrations.aspx

4,5,6,7*
 मैनेजिंग द एक्जोडस-ग्राऊंडिंग माइग्रेशन इन इंडिया-अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुत

8** ११ वीं पंचवर्षीय योजना, भारत सरकार